पिछले सालों का अनुभव यह बताता है कि लेबर बजट को यथार्थवादी तरीके से बनाने के बजाय खानापूर्ति करके बना लिया जाता है। ग्रामसभा का आयोजन पंचायतों के लिए मुश्किल भरा कार्य होता है। रोजगार गारंटी योजना के सामाजिक अंकेक्षण और लेबर बजट पंचायतों के लिए बहुत ही भारी पड़ता है। ऐसे में चंद लोगों के साथ इनकी खानापूर्ति करना उनके लिए आसान होता है। पर इस प्रक्रिया का परिणाम यह होता है कि लेबर बजट गांव की जरूरतों के हिसाब से फिट नहीं बैठता है और जिस मंशा से लेबर बजट को बनाने का प्रावधान रखा गया है, वह फेल हो जाता है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ने देश के करोड़ों लोगों को रोजगार दिया है। योजना के तहत ग्रामीणों को रोजगार देने के साथ-साथ गांव में स्थाई परिसंपत्तियों का विकास भी किया जाता है, जो कि ग्रामीण विकास के लिए बहुत ही जरूरी है।
रोजगार गारंटी योजना के तहत गांव में कई काम किए जाते हैं, जिनमें सड़क निर्माण, तालाब निर्माण, मेड़ बंधान, पुलिया निर्माण जैसे कई सार्वजनिक काम भी होते हैं, तो गरीबों के लिए हितकारी कार्य कपिलधारा कूप निर्माण का कार्य भी किया जाता है। इन कार्यों के लिए प्राथमिकता तय करना आसान नहीं है।
यदि केंद्र या राज्य सरकार द्वारा समान रूप से सभी पंचायतों को राशि या कार्य का निर्धारण कर दिया जाए, तो पंचायत का विकास संभव नहीं हो पाएगा। यही वजह है कि योजना के साथ एक महत्वपूर्ण घटक लेबर बजट को जोड़ा गया है।
रोजगार गारंटी योजना के लिए लेबर बजट बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य है, जिसे प्रत्येक गांव की ग्राम सभा की बैठक में किया जाता है। यह हर साल की जाने वाली गतिविधि है। लेबर बजट के तहत पंचायतों की यह जिम्मेदारी दी जाती है कि वे अपने पंचायत में आने वाली सभी गांवों का लेबर बजट तैयार करें।
लेबर बजट में आगामी साल में कितने परिवार हैं, जिन्हें काम चाहिए, कितने लोग हैं जो सौ दिन काम करेंगे, कुल कितने दिनों का मानव श्रम सृजित होगा, पिछले साल की तुलना में कितने कार्य दिवस बढ़े हैं, कुल कितनी राशि मानव श्रम पर खर्च होगी, गांव में कौन-कौन से कार्य किस महीने में किए जाने हैं, उनमें कितनी राशि और कितने मानव दिवस खर्च होंगे आदि का जिक्र किया जाता है।
लेबर बजट को यथार्थवादी तरीके से किए जाने का निर्देश होता है। इसमें पंचायतें लेबर बजट को ग्रामसभा की बैठक में तैयार कर उसके अनुमोदन के बाद जनपद में सौंपती है। वहां से लेबर बजट जिला पंचायत में जाता है और फिर वहां से राज्य को भेजा जाता है।
सभी राज्य तय समय सीमा में इसे केंद्र सरकार को भेजती हैं एवं फिर वहां इसके आधार पर राज्यों को योजना के तहत राशि जारी की जाती है। राज्यों का दायित्व होता है कि पंचायतों को उनकी मांग एवं लेबर बजट के आधार पर बजट जारी करे। इस प्रक्रिया से निश्चय ही ग्रामीण विकास को गति मिलने की संभावना है।
पर पिछले सालों का अनुभव यह बताता है कि लेबर बजट को यथार्थवादी तरीके से बनाने के बजाय खानापूर्ति करके बना लिया जाता है। ग्रामसभा का आयोजन पंचायतों के लिए मुश्किल भरा कार्य होता है। रोजगार गारंटी योजना के सामाजिक अंकेक्षण और लेबर बजट पंचायतों के लिए बहुत ही भारी पड़ता है।
ऐसे में चंद लोगों के साथ इनकी खानापूर्ति करना उनके लिए आसान होता है। पर इस प्रक्रिया का परिणाम यह होता है कि लेबर बजट गांव की जरूरतों के हिसाब से फिट नहीं बैठता है और जिस मंशा से लेबर बजट को बनाने का प्रावधान रखा गया है, वह फेल हो जाता है।
लेबर बजट के प्रति ग्रामीणों को जागरूक करने एवं उनके माध्यम से पंचायतों पर लेबर बजट के लिए ग्रामसभा आयोजित करने का दबाव बनाने के लिए स्वैच्छिक संस्थाओं की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। प्रदेश की कुछ संस्थाओं ने अपनी पहल पर लेबर बजट बनाकर पंचायतों एवं जनपदों में सौंपा है। उन्होंने लेबर बजट के प्रति ग्रामीणों को जागरूक किया और उसके बाद लेबर बजट बनाया। यह प्रक्रिया पंचायतों द्वारा की जाने वाली प्रक्रिया के पहले की गई, जिससे कि पंचायतों द्वारा बनाई जाने वाली लेबर बजट में या तो इनको सीधे शामिल कर लिया जाए या फिर इन पर ग्रामसभा में चर्चा हो जाए और इसके बाद संस्थाओं की बैठकों में आए मुद्दे को शामिल किया जाए।
बैतूल जिले के शाहपुर, घोड़ाडोंगरी एवं चिचोली विकासखंड के 37 पंचायतों के 80 गांवों में कासा संस्था ने लेबर बजट बनाने का अभियान चलाया। इसमें उसे सफलता भी मिली। संस्था ने सभी गांवों में घर-घर जाकर लोगों से संपर्क किया और वार्ड पंचों, रोजगार गारंटी मजदूर संगठन, महिला स्वसहायता समूह एवं अन्य ग्रामीणों के साथ बैठकों का आयोजन कर लेबर बजट का निर्माण किया। इसमें प्राथमिकता एवं लोगों की सहमति के आधार पर सूची बनाई गई।
इसे पंचायत के स्तर पर सरपंच को दिया गया और जनपद स्तर पर बैठक आयोजित कर जनपद अध्यक्ष एवं मुख्य कार्यपालन अधिकारी को इसकी कॉपी दी गई। कासा द्वारा चलाई गई इस प्रक्रिया से लोगों में जागरूकता आई और पंचायत द्वारा आयोजित लेबर बजट की बैठक में भी उन्होंने भाग लिया।
घोड़ाडोंगरी विकासखंड के पचामा पंचायत के ग्रामीण बताते हैं कि संस्था ने जिस तरीके से लेबर बजट का निर्माण किया, उस तरीके से पंचायत ने नहीं किया। वे बहस के बजाय जल्दी में थे। यद्यपि उन्हें पहले तो पता भी नहीं था कि लेबर बजट भी कुछ होता है और इसी से तय होता है कि गांव में रोजगार गारंटी के तहत क्या-क्या होगा?
भुड़की गांव की ही मंगा बाई की ढाई एकड़ जमीन है। उसने लगातार प्रयास किया कि उसके खेत में कुआं बन जाए, पर नहीं बन पाया। पानी नहीं होने से खेती नहीं कर पाने की वजह से वह पलायन भी करती थी। पर उसने संस्था द्वारा बनाए गए लेबर बजट में जब अपने काम को लिखवाया, तब उस पर पंचायत की भी नजर पड़ी। उसका काम पहले से ही तय था पर टलता जा रहा था। इस तरह से मामला सामने आने पर पंचायत ने कपिलधारा योजना के तहत उसके खेत पर जल्द ही कुआं खुदवा दिया। इसे नए बजट में ले जाने की जरूरत ही नहीं पड़ी।
लेबर बजट रोजगार गारंटी योजना के लिए ही नहीं बल्कि ग्रामीण एवं सामाजिक विकास के लिए भी महत्वपूर्ण है। इस बजट के आधार पर गांव में कराए जा रहे कार्यों के सामाजिक अंकेक्षण भी मदद मिल सकती है। इसके लिए यह जरूरी है कि इस प्रक्रिया को दुरुस्त किया जाए और स्थानीय स्तर पर पंचायत विभाग एवं स्वैच्छिक संस्थाओं मिलकर इस कार्य को आगे बढ़ाने का प्रयास करें।
लेखक विकासपरक पत्रकारिता से जुड़े हैं।
रोजगार गारंटी योजना के तहत गांव में कई काम किए जाते हैं, जिनमें सड़क निर्माण, तालाब निर्माण, मेड़ बंधान, पुलिया निर्माण जैसे कई सार्वजनिक काम भी होते हैं, तो गरीबों के लिए हितकारी कार्य कपिलधारा कूप निर्माण का कार्य भी किया जाता है। इन कार्यों के लिए प्राथमिकता तय करना आसान नहीं है।
यदि केंद्र या राज्य सरकार द्वारा समान रूप से सभी पंचायतों को राशि या कार्य का निर्धारण कर दिया जाए, तो पंचायत का विकास संभव नहीं हो पाएगा। यही वजह है कि योजना के साथ एक महत्वपूर्ण घटक लेबर बजट को जोड़ा गया है।
रोजगार गारंटी योजना के लिए लेबर बजट बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य है, जिसे प्रत्येक गांव की ग्राम सभा की बैठक में किया जाता है। यह हर साल की जाने वाली गतिविधि है। लेबर बजट के तहत पंचायतों की यह जिम्मेदारी दी जाती है कि वे अपने पंचायत में आने वाली सभी गांवों का लेबर बजट तैयार करें।
लेबर बजट में आगामी साल में कितने परिवार हैं, जिन्हें काम चाहिए, कितने लोग हैं जो सौ दिन काम करेंगे, कुल कितने दिनों का मानव श्रम सृजित होगा, पिछले साल की तुलना में कितने कार्य दिवस बढ़े हैं, कुल कितनी राशि मानव श्रम पर खर्च होगी, गांव में कौन-कौन से कार्य किस महीने में किए जाने हैं, उनमें कितनी राशि और कितने मानव दिवस खर्च होंगे आदि का जिक्र किया जाता है।
लेबर बजट को यथार्थवादी तरीके से किए जाने का निर्देश होता है। इसमें पंचायतें लेबर बजट को ग्रामसभा की बैठक में तैयार कर उसके अनुमोदन के बाद जनपद में सौंपती है। वहां से लेबर बजट जिला पंचायत में जाता है और फिर वहां से राज्य को भेजा जाता है।
सभी राज्य तय समय सीमा में इसे केंद्र सरकार को भेजती हैं एवं फिर वहां इसके आधार पर राज्यों को योजना के तहत राशि जारी की जाती है। राज्यों का दायित्व होता है कि पंचायतों को उनकी मांग एवं लेबर बजट के आधार पर बजट जारी करे। इस प्रक्रिया से निश्चय ही ग्रामीण विकास को गति मिलने की संभावना है।
पर पिछले सालों का अनुभव यह बताता है कि लेबर बजट को यथार्थवादी तरीके से बनाने के बजाय खानापूर्ति करके बना लिया जाता है। ग्रामसभा का आयोजन पंचायतों के लिए मुश्किल भरा कार्य होता है। रोजगार गारंटी योजना के सामाजिक अंकेक्षण और लेबर बजट पंचायतों के लिए बहुत ही भारी पड़ता है।
ऐसे में चंद लोगों के साथ इनकी खानापूर्ति करना उनके लिए आसान होता है। पर इस प्रक्रिया का परिणाम यह होता है कि लेबर बजट गांव की जरूरतों के हिसाब से फिट नहीं बैठता है और जिस मंशा से लेबर बजट को बनाने का प्रावधान रखा गया है, वह फेल हो जाता है।
लेबर बजट के प्रति ग्रामीणों को जागरूक करने एवं उनके माध्यम से पंचायतों पर लेबर बजट के लिए ग्रामसभा आयोजित करने का दबाव बनाने के लिए स्वैच्छिक संस्थाओं की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। प्रदेश की कुछ संस्थाओं ने अपनी पहल पर लेबर बजट बनाकर पंचायतों एवं जनपदों में सौंपा है। उन्होंने लेबर बजट के प्रति ग्रामीणों को जागरूक किया और उसके बाद लेबर बजट बनाया। यह प्रक्रिया पंचायतों द्वारा की जाने वाली प्रक्रिया के पहले की गई, जिससे कि पंचायतों द्वारा बनाई जाने वाली लेबर बजट में या तो इनको सीधे शामिल कर लिया जाए या फिर इन पर ग्रामसभा में चर्चा हो जाए और इसके बाद संस्थाओं की बैठकों में आए मुद्दे को शामिल किया जाए।
बैतूल जिले के शाहपुर, घोड़ाडोंगरी एवं चिचोली विकासखंड के 37 पंचायतों के 80 गांवों में कासा संस्था ने लेबर बजट बनाने का अभियान चलाया। इसमें उसे सफलता भी मिली। संस्था ने सभी गांवों में घर-घर जाकर लोगों से संपर्क किया और वार्ड पंचों, रोजगार गारंटी मजदूर संगठन, महिला स्वसहायता समूह एवं अन्य ग्रामीणों के साथ बैठकों का आयोजन कर लेबर बजट का निर्माण किया। इसमें प्राथमिकता एवं लोगों की सहमति के आधार पर सूची बनाई गई।
इसे पंचायत के स्तर पर सरपंच को दिया गया और जनपद स्तर पर बैठक आयोजित कर जनपद अध्यक्ष एवं मुख्य कार्यपालन अधिकारी को इसकी कॉपी दी गई। कासा द्वारा चलाई गई इस प्रक्रिया से लोगों में जागरूकता आई और पंचायत द्वारा आयोजित लेबर बजट की बैठक में भी उन्होंने भाग लिया।
घोड़ाडोंगरी विकासखंड के पचामा पंचायत के ग्रामीण बताते हैं कि संस्था ने जिस तरीके से लेबर बजट का निर्माण किया, उस तरीके से पंचायत ने नहीं किया। वे बहस के बजाय जल्दी में थे। यद्यपि उन्हें पहले तो पता भी नहीं था कि लेबर बजट भी कुछ होता है और इसी से तय होता है कि गांव में रोजगार गारंटी के तहत क्या-क्या होगा?
भुड़की गांव की ही मंगा बाई की ढाई एकड़ जमीन है। उसने लगातार प्रयास किया कि उसके खेत में कुआं बन जाए, पर नहीं बन पाया। पानी नहीं होने से खेती नहीं कर पाने की वजह से वह पलायन भी करती थी। पर उसने संस्था द्वारा बनाए गए लेबर बजट में जब अपने काम को लिखवाया, तब उस पर पंचायत की भी नजर पड़ी। उसका काम पहले से ही तय था पर टलता जा रहा था। इस तरह से मामला सामने आने पर पंचायत ने कपिलधारा योजना के तहत उसके खेत पर जल्द ही कुआं खुदवा दिया। इसे नए बजट में ले जाने की जरूरत ही नहीं पड़ी।
लेबर बजट रोजगार गारंटी योजना के लिए ही नहीं बल्कि ग्रामीण एवं सामाजिक विकास के लिए भी महत्वपूर्ण है। इस बजट के आधार पर गांव में कराए जा रहे कार्यों के सामाजिक अंकेक्षण भी मदद मिल सकती है। इसके लिए यह जरूरी है कि इस प्रक्रिया को दुरुस्त किया जाए और स्थानीय स्तर पर पंचायत विभाग एवं स्वैच्छिक संस्थाओं मिलकर इस कार्य को आगे बढ़ाने का प्रयास करें।
लेखक विकासपरक पत्रकारिता से जुड़े हैं।
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