सिंचाई को ग्रामीण उद्यम बनाने के प्रयास में यहां इंटरनेशनल डेवलपमेंट इंटरप्राइजेज (आईडीई) ने रास्ता दिखाया है। अब किसान एक कदम आगे बढ़कर ऐसे नए-नए नमूने तैयार कर रहे हैं, जिनसे स्थानीय स्तर की ड्रिप व्यवस्था और भी ज्यादा सस्ती और सरल होती जा रही है। वे खुद ही इस व्यवस्था को लगा रहे हैं। और जल्दी ही एक ऐसी अवस्था में पहुंच रहे हैं, जहां वे इससे बड़े आराम से काम निकाल सकते हैं। इसके अलावा अब वे इसे डीलर से खरीदने के बजाय सीधे निर्माता से खरीदकर खरीदकर खुद ही इसे जोड़ने लगे हैं। इससे ड्रिप की लागत काफी घट गई है।
जीवनभाई जसमत रबादिया गुजरात के बानसकंठा जिले में स्थित मोती धानेज गांव के किसान हैं। इन्होंने अपने बैंगन के खेतों में कम लागत की ड्रिप व्यवस्था लगाई हुई है। इन्होंने निर्माता से 15,00 रुपए में यह व्यवस्था खरीदने के बजाय 500 रुपए में इसमें लगने वाला साजोसामान खरीदा और खुद ही जोड़कर तैयार कर लिया। अब वह घर में फिल्टर बनाते है और उसे दोस्तों और पड़ोसियों को बेंच देते हैं। इन्होंने खुद जो ड्रिप सिंचाई व्यवस्था बनाई है, उस पर पूरा भरोसा है। खासकर तब से जब अपने बैंगन को बाजार में बेंचने से अच्छा पैसा मिला है, क्योंकि इनकी गुणवत्ता बाजार में बेंचे जाने वाले दूसरे बैंगन से अच्छा था।
कुमार भाई राम जैत्वा अपने एक हॉर्सपावर मोटर को रोजाना बस 15 मिनट चलाकर अपना खेत सींच लेते हैं। ऐसा सब कुछ ड्रिप सिंचाई से संभव हुआ है। यहां पानी की आठ पाइपें मुख्य लाइन से जुड़ी हुई हैं। इससे एक बीघा जमीन की सिंचाई होती है। इन्होंने अपनी समूची जमीन की सिंचाई के लिए एक बड़ी व्यवस्था बनाने के बजाय एक छोटी व्यवस्था बनाई है, जिसे वे एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाते हुए समूची जमीन यानी 8 बीघा में मूंगफली फसल की सिंचाई करते हैं। वे यहां वर्षाऋतु से पहले ही यह फसल उगा देते हैं और इस प्रकार उन्हें इसका दुगुना फायदा होता है।
जूनागढ़ के मलिया तालुका के कानाभाई पुनाभाई परमार और उनके चार भाई अपने चार एकड़ के सुपारी के खेत की सिंचाई करने के लिए आईडीई की सस्ती लागत की ड्रिप व्यवस्था का उपयोग करते हैं। इस क्षेत्र में ड्रिप सिंचाई का उपयोग कर रहे अन्य किसानों की तरह इनके फसल की प्रत्येक लाइन में टोंटी लगी है। ऐसा उन्होंने प्रत्येक लाइन में बहने वाले पानी को नियंत्रित करने और इसमें एकरूपता बनाए रखने के लिए किया है। इस तरह की व्यवस्था में जब पानी कम होता है तो इस पद्धति से खेत को जरूरत के आधार पर सिंचित किया जाता है, जिससे प्रत्येक पौधे को पर्याप्त रूप से पानी पहुंच जाता है। इस पद्धति से दबाव पैदा करने वाले महंगे रेगुलेटर के लगाने के झंझट से तो मुक्ति मिलती ही है, साथ ही इससे इनका व्यक्तिगत रूप से निरीक्षण भी होता रहता है। इस पद्धति से उन्हें सही ढंग से पता चला है कि यह व्यवस्था कैसे काम करती है।
प्रयोग अपने-अपने
किसान तकनीकी लागत घटाने के लिए स्थानीय स्तर पर नई-नई तरकीबें निकाल रहे हैं। महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के कुछेक हिस्सों में किसानों ने ड्रिप सिंचाई के लिए साइकिल की ट्यूबों का प्रयोग किया है। परन्तु इनमें अधिकांश प्रयोग एक क्षेत्र तक सीमित हैं। मध्य प्रदेश-महाराष्ट्र की सीमा के पास कपास क्षेत्र में सन् 1988-89 से पेप्सी नाम की एक सस्ती लागत का ड्रिप प्रयोग काफी मशहूर है। इसे कम घनत्व वाले पॉलिथीन (65-130 माइक्रोन) से तैयार किया जाता है, जिस पर ड्रिप सिंचाई की पारंपरिक व्यवस्था की तुलना में आधे से भी कम लागत आती है और इससे फायदा भी बराबर होता है।
स्थानीय बाजार में आइसक्रीम बेचने वाले कम घनव्त के प्लास्टिक में पेप्सी नामक आइसकैंडी भरते हैं। यह प्लास्टिक पारदर्शी होता है और 20 सेमी के ट्यूबों में आता है। कैंडी निर्माता प्लास्टिक की गोल गडि्डयां खरीदतें हैं, जिन्हें फिर छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त किया जाता है। निर्माताओं को 50 रुपए प्रति किलो के हिसाब से प्लास्टिक की गडि्डयां प्राप्त होती हैं और किसानों को यह 70-75 रुपए प्रति किलो के हिसाब से पड़ता है। आज प्लास्टिक की यह गड्डी ड्रिप ट्यूब के रूप में उपयोग की जा रही है। और इसे सीधे पौधों के जड़ के पास लगा दिया जाता है। यह समूची व्यवस्था स्थानीय स्तर पर बना ली जाती है। पहले पेप्सी ड्रिप का उपयोग कपास की खेती में ही हुआ करता था, लेकिन आज इसका हर तरह की खेती में उपयोग हो रहा है।
पारंपरिक ड्रिप व्यवस्था की तुलना में पेप्सी व्यवस्था बनाने में 75 प्रतिशत तक कम लागत आती है। आज किसान पेप्सी व्यवस्था को ‘मील का पत्थर’ की संज्ञा देने लगे हैं, क्योंकि इससे वे कम निवेश में एक नई तकनीकी का उपयोग कर सकते हैं। ऐसे किसान जिन्होंने पेप्सी का उपयोग करना बंद कर दिया है, उनमें से अधिकांश या तो साइकिल की ट्यूबों या फिर पारंपरिक ड्रिप सिंचाई का उपयोग करने लगे हैं, क्योंकि उन्हें इसके फायदे नजर आ गए हैं।
मध्य प्रदेश स्थित मैकाल और महाराष्ट्र स्थित जलगांव में किए गए सर्वेक्षण से पता चला है कि पेप्सी व्यवस्था के उपयोग से 50 प्रतिशत तक सिंचाई के पानी की बचत होती है। परन्तु भूजल के घटने का स्तर पहले जैसा ही है। इससे साफ जाहिर होता है कि जब तक कि ऐसी तकनीकी का आगे और विकास नहीं किया जायेगा, तब तक पेप्सी जैसी छिटपुट प्रयोगों से भूजल स्तर के घटने की समस्या दूर नहीं होगी। अब सवाल उठता है कि ऐसा क्या कुछ किया जाए जिससे यह तकनीक जन-जन तक पहुंचे?
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें : शिल्प वर्मा, इंटग्नैशनल वॉटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट (आईडब्ल्यूएमआई- टाटा) आनंद, गुजरात
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