कुदरत ने इस धरती पर मानव कल्याण के लिए भांति-भांति की फसलों को पैदा किया है जो सभी विभिन्न विलक्षण गुणों से ओत-प्रोत हैं। कुछ फसलें हमारे भोजन की स्रोत हैं तो कुछ हमारे प्रोटीन तथा खाद्य वसा की। कुछ स्वास्थ्यवर्धक मीठे-मीठे फल हैं तो कुछ पौष्टिकता से भरी हुई शाक-सब्जियां हैं। कुछ हमारे भोजन को सुगंध, आकर्षण तथा स्वाद प्रदान करती हैं तो दूसरी हमारे भोजन में मिठास घोल देती हैं। कुछ फसलें हमें तन ढकने के लिए कपड़ा प्रदान करती हैं तो कुछ फसलें हमारे शरीर में उत्पन्न रोगों को दूर कर हमें स्वस्थ बना देती हैं। कुछ फसलें जल के भीतर होती हैं जैसे- कमल, मखाना, सिंघाड़ा तथा धान तो कुछ बिना सिंचाई के। जरा सोचिए, क्या कुदरत का करिश्मा है?
औषधीय पौधों की दहलीज को अब पार कर सतावर ने औषधीय फसल का दर्जा प्राप्त कर लिया है। औषधीय फसलों में सतावर अद्भुत गुणों वाली एक फसल है जिसे बिना सिंचाई के उगाया जाता है क्योंकि इसकी जल की आवश्यकता प्रकृति प्रदत्त जल से हो जाती है। प्रकृति ने इस फसल की पत्तियों को सुईनुमा बनाया है तथा पौधों के ऊपर बड़े-बड़े कांटें बनाए हैं जिससे जल कम उड़ता है तथा भूमि से प्राप्त जल से ही पौधों का काम चल जाता है। अतः सतावर की कृषि जल संरक्षण का ग्रामीण अभियान है।
सतावर का उपयोग विभिन्न रोगों को दूर करने हेतु भारत के लोग प्राचीनकाल से करते आ रहे हैं। पहले इसे जंगलों से उखाड़ कर उपयोग हेतु लाया जाता था। खेती नहीं होती थी परंतु सतावर की सिद्ध आयुर्वेदिक, अंग्रेजी तथा यूनानी दवाओं के निर्माण में बढ़ती हुई अधिक मांग तथा विदेशों को निर्यात ने इसकी व्यावसायिक खेती करने हेतु किसानों को प्रेरित किया है। सतावर की कृषि से एक लाख रुपए से अधिक की आकर्षक आमदनी प्राप्त होने के कारण खेतिहरों की माली हालत भी बेहतर बन सकती है परंतु आवश्यकता इसकी खेती को वैज्ञानिक तौर-तरीके से शुरू करने की है।
सतावर जड़ वाली एक औषधीय फसल है जिसकी मांसल जड़ों का इस्तेमाल विभिन्न प्रकार की औषधियों के निर्माण में होता है। सतावर को लोग भिन्न-भिन्न नाम से पुकारते हैं। अंग्रेज लोग इसे एस्पेरेगस कहते हैं। कहीं इसे लोग शतमली तो कहीं शतवीर्या कहते हैं। सतावर कहीं वहुसुत्ता के नाम से विख्यात है तो कहीं यह शतावरी के नाम से भी। यह औषधीय फसल भारत के विभिन्न प्रांतों में प्राकृतिक अवस्था में भी खूब पाई जाती है। विश्व में सतावर भारत के अतिरिक्त ऑस्ट्रेलिया, नेपाल, चीन, बांग्लादेश तथा अफ्रीका में भी पाया जाता है।
सतावर का पौधा झाड़ीदार, कांटेदार लता होता है। इसकी शाखाएं पतली होती हैं। पत्तियां सुई के समान होती हैं जो 1.5-2.5 सेमी तक लम्बी होती हैं। इसके कांटे टेढ़े तथा 6-8 सेंमी लम्बे होते हैं। इसकी शाखाएं चारों ओर फैली होती हैं। इसके फूल सफेद या गुलाबी रंग के सुगंधयुक्त, छोटे, अनेक शाखाओं वाले डंठल पर लगते हैं जो फरवरी और मार्च में फूलते हैं। अप्रैल में फल बढ़कर बड़े-बड़े हो जाते हैं। फल मटर के समान 1-2 बीज युक्त होते हैं। इसके बीज पकने पर काले होते हैं। इसकी जड़े कन्दवत 20-30 सेंमी लम्बी, 1-2 सेंमी मोटी तथा गुच्छे में पैदा होती हैं। जड़ों की संख्या प्रति लता में 60-100 तक होती है। ये जड़े धूसर पीले रंग की हल्की सुगंधयुक्त स्वाद में कुछ मधुर तथा कड़वी लगती हैं। मांसल जड़ों को आदिवासी लोग पूरे पकने पर चाव से खाते हैं। यह सूखने पर भी प्रयोग में लाई जाती हैं। इन्हीं श्वेत जड़ों का प्रयोग चिकित्सा कार्य हेतु होता है। सूखी जड़े बाजार में सतावर के नाम से बेची जाती है। जिसमें सतावरिन-1 तथा सतावरिन-4 में ग्लूकोसाइड रसायन प्रमुख रूप से पाया जाता है। यही रसायन इसके औषधीय गुणों का स्रोत है।
सतावर की खेती के लिए उष्ण तथा आर्द्र जलवायु उत्तम होती है। ऐसे क्षेत्र जहां का तापमान 10-40 डिग्री सेल्सियस तथा वार्षिक वर्षा 200-250 सेंमी तक होती है, इसकी खेती के लिए उपयुक्त होती है। भारत के उष्ण तथा समशीतोष्ण क्षेत्रों में समुद्र तल से 1200 मीटर तक की ऊंचाई वाले स्थानों पर सतावर की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। सतावर की फसल में सूखे को सहन करने की अपार शक्ति होती है परंतु जड़ों के विकास के समय मिट्टी में नमी की कमी होने पर उपज प्रभावित होती है।
सतावर की खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी जिसमें कार्बनिक तत्व प्रचुर मात्रा में हो तथा जल निकास की सुविधा हो, होती है। बलुई दोमट भूमि में जड़ों का विकास अच्छा होता है। बलुई दोमट मिट्टी से इसकी जड़ों को आसानी से खोदकर बिना क्षति के निकालना सरल होता है। भारी मटीयार या काली मिट्टी सतावर की खेती के लिए सर्वथा उपयुक्त नहीं होती है। मानसून आने से पहले खेत को 2-3 बार अच्छी तरह जुताई करके मिट्टी को भुरभुरा बना लेना चाहिए तथा खरपतवार और कंकड़-पत्थर निकाल देना चाहिए। अंतिम जुताई के समय मिट्टी में 15-20 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की सड़ी खाद तथा 8 टन केचुआं की खाद मिला देनी चाहिए। इसके पश्चात खेत में 60 सेंमी की दूरी पर 10 सेंमी ऊंची मेढ़े बना लेनी चाहिए। इन्हीं मेढ़ों पर बाद में 60 सेंमी की दूरी पर अंकुरित पौधे लगाए जाते हैं। चूंकि सतावर एक औषधीय फसल है अतः इसकी खेती में रासायनिक उर्वरक का व्यवहार कभी नहीं करना चाहिए।
सामान्यतया बीजों द्वारा सतावर के पौधे तैयार किए जाते हैं। बीजों का अंकुरण लगभग 60-70 प्रतिशत ही होता है अतः प्रति हेक्टेयर 12 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है। पौधशाला तैयार करने के लिए एक मीटर चौड़ी तथा 10 मीटर लम्बी क्यारी बनाएं तथा उसमें से कंकड़-पत्थर निकाल दें। पौधशाला की एक भाग मिट्टी में तीन भाग गोबर की सड़ी खाद मिला देनी चाहिए। बीजों को नर्सरी क्यारी में 15 सेंमी की गहराई में बोकर ऊपर से हल्की मिट्टी से ढक देनी चाहिए। बुवाई के तुरंत बाद सिंचाई करना आवश्यक होता है। लगभग एक माह में बीजों का अंकुरण हो जाता है तथा दो महीने बाद पौध रोपाई के लिए हो जाते हैं। व्यावसायिक खेती के लिए सतावर के ऐसे पौधों को ही बोने के लिए चुनना चाहिए जिनमें छोटी-छोटी जड़े दिखती हों। सतावर की 27,777 पौध प्रति हेक्टेयर लगानी चाहिए।
साधारणतया अगस्त माह में जब पौधे 10-15 सेंमी ऊंचाई के हो जाते हैं तब उनको तैयार भूमि में 60 सेंमी की दूरी पर बनी 10 सेंमी गहरी नालियों में रोप दिया जाता है। पौध से पौध की दूरी 60 सेंमी रखी जाती है। इसके अलावा फसल की खुदाई के समय भूमिगत जड़ों के साथ कभी-कभी छोटे-छोटे अंकुर प्राप्त होते हैं जिससे पुनः पौध तैयार की जाती हैं। इन तनों तथा जड़ों से निकलने वाली पौध ‘डिस्क’ कहलाती है। इसे मूल पौधे से अलग करके पोलीथीन या गमलों में लगाकर नए पौधे तैयार किए जाते हैं। 20-25 दिनों के अंदर ये पौधे भी खेत में लगाने योग्य हो जाते हैं।
सतावर का पौधा तीन मीटर तक लम्बा होता है अतः इसे सहारे की जरूरत पड़ती है। इस कार्य हेतु बांस के तीन-चार मीटर लम्बे डंडों को पौधों के पास गाड़ा जाता है ताकि सतावर की लता इन पर भली-भांति चढ़ सके। इससे उपज में 55-60 प्रतिशत की वृद्धि होती है। अपने परिवार के इस्तेमाल के लिए आप सतावर के पौधों को मिट्टी के 30-35 सेंमी आकार के गमलों में भी लगा सकते हैं।
सतावर की फसल को जल की कम आवश्यकता पड़ती है क्योंकि प्रकृति ने इस फसल की पत्तियों को सुईनुमा तथा पौधों के ऊपर अनेक बड़े-बड़े कांटें बनाए हैं जिससे इस फसल की जल की आवश्यकता भूमि में विद्यमान जल से हो जाती है। सतावर की असिंचित फसल उगाने हेतु इसके पौधों को सदैव 10 सेंमी गहरी नालियों में लगाना चाहिए। इससे हल्की वर्षा होने पर भी पर्याप्त मात्रा में जल पौधों को उपलब्ध हो जाता है। पहाड़ों पर बोई गई सतावर की फसल का वर्षा से ही काम चल जाता है, सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। सतावर के पौधों की जड़ों के समुचित विकास के लिए खेत को खरपतवार रहित रखना तथा मिट्टी को भुरभुरी बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए एक दो निराई-गुड़ाई आवश्यक है। निराई-गुड़ाई के दरम्यान पौधों की जड़ों पर हल्की मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए।
खेत में पौधा-रोपण के लगभग 18 से 24 महीने पश्चात जब पौधा पीला पड़ने लगे तब समझना चाहिए कि पौधों की जड़ें खुदाई योग्य हो गई हैं। परंतु 18 से 24 महीने के बीच जड़ों की खुदाई कर लेनी चाहिए। साथ ही अगली फसल के लिए डिस्क भी पृथक कर लेने चाहिए। खुदाई से पहले पके फलों को हाथ में रबर का दस्ताना पहनकर तोड़ लेना चाहिए तथा उन्हें पानी से धोकर बीज निकाल कर के धूप में सुखा लेना चाहिए। सतावर की एक हेक्टेयर फसल से दो क्विंटल बीज प्राप्त होता है।
सतावर की ताजी जड़ों की उपज 170-180 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है। ताजी जड़ों को पानी में धोकर छिलका उतारा जाता है तत्पश्चात उन्हें धूप में सुखाया जाता है। सुखाने पर जड़ों में विद्यमान जल वाष्प बनकर उड़ जाता है। इस प्रकार लगभग 70-80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर सूखी जड़ें प्राप्त होती हैं जिसे 60 रुपए प्रति किलो की दर से बेचने पर प्रति वर्ष 1.24 लाख रुपए की शुद्ध आमदनी प्राप्त होती है।
सतावर की मांसल जड़ें स्वाद में मधुर, रसयुक्त, कड़वी, भारी, चिकनी तथा तासिर में शीतल होती हैं। इसका मुख्य प्रभाव पुरुष प्रजनन संस्थान पर बल तथा वीर्यवर्धक के रूप में पड़ता है। सतावर शीतवीर्य, रसायन, मेधाकारक, जठराग्निवर्धक, पुष्टिकारक, स्निग्ध, आंत एवं अतिसार एवं पितरक्त को शोधने वाला होता है। इसके अतिरिक्त स्त्रियों के लिए टॉनिक, ल्युकोरिया, अनियमित मासिक चक्र, एनीमिया, गर्भपात और मेनोपासक सिन्ड्रोम तथा अन्य स्त्री रोगों में उपयोगी होता है।
ल्युकोरिया में उपयोगी, भूख न लगने पर, कम वजन, पाचन, एटासिड, हाइपर एसीडिटी, पेप्टिक अल्सर, वमन, जलन, मूत्र नलिका में जलन, अवरोध तनाव कम करना, सिरदर्द, चक्कर दाह, गर्भाशय उत्तकों में जलन तथा एनीमिया, पुरुषों में सेक्स टॉनिक, अल्सर, आंत्रीय जलन, टैंकुलाइजर, दुग्ध बढ़ाने में, लीवर टॉनिक, मासिक धर्म की अनियमितता, तांत्रकीय दुर्बलता तथा पीठ के दर्द में उपयोगी है। इसकी कंदिल जड़ों में सतावरीन-1 तथा सतावरीन-4 रसायन पाया जाता है। सतावरीन-1 सार्सपोनिन का ग्लूकोसाइड है जिसमें 3 ग्लूकोस तथा 1 रेम्नोस शर्करा के अणु पाए जाते हैं। सतावरीन 4 में 2 ग्लूकोस 1 रेम्नोस शर्करा के अणु पाए जाते हैं जिनके कारण सतावर का औषधीय गुण बढ़ जाता है।
(लेखक राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर, बिहार के पूर्व अधिष्ठाता कृषि एवं कुलपति हैं।
औषधीय पौधों की दहलीज को अब पार कर सतावर ने औषधीय फसल का दर्जा प्राप्त कर लिया है। औषधीय फसलों में सतावर अद्भुत गुणों वाली एक फसल है जिसे बिना सिंचाई के उगाया जाता है क्योंकि इसकी जल की आवश्यकता प्रकृति प्रदत्त जल से हो जाती है। प्रकृति ने इस फसल की पत्तियों को सुईनुमा बनाया है तथा पौधों के ऊपर बड़े-बड़े कांटें बनाए हैं जिससे जल कम उड़ता है तथा भूमि से प्राप्त जल से ही पौधों का काम चल जाता है। अतः सतावर की कृषि जल संरक्षण का ग्रामीण अभियान है।
सतावर की खेती में आय-व्यय का लेखा-जोखा खेती पर होने वाले व्यय | ||
क्रमांक | खेती पर होने वाले व्यय के विभिन्न मद | व्यय (रुपए में) |
1. | पौधशाला की तैयारी तथा मृदा का उपचार | 5000 |
2. | एक हेक्टेयर के लिए 5 किलो बीज का मूल्य (1000 रुपए किलो की दर से) | 5000 |
3. | बीजोपचार पर व्यय | 1500 |
4. | भूमि की तैयारी पर व्यय | 7500 |
5. | खाद तथा उर्वरक पर व्यय | 25000 |
6. | पौधशाला से पौधों को उखाड़ना तथा मुख्य खेत में उनकी रोपाई | 46000 |
7. | पौधों को बांस की फट्टियों का सहारा देने पर व्यय | 60,000 |
8. | फसल की निराई-गुड़ाई तथा जड़ों पर मिट्टी चढ़ाने पर व्यय | 15000 |
9. | जड़ों की खुदाई, सफाई, संसाधन तथा भंडारण पर व्यय | 55000 |
10. | बीज निकालने पर व्यय | 12000 |
11. | एक हेक्टेयर भूमि का दो वर्ष का लगान | 20,000 |
| कुल व्यय | 2,72,000 |
खेती से होने वाली आय (प्रति हेक्टेयर) | ||
क्रमांक | विभिन्न मद | उपज/प्राप्त आय |
1. | संसाधित जड़ों की औसत उपज | 70 क्विंटल |
2. | बीज की उपज | 2 क्विंटल |
3. | संसाधित जड़ों की कीमत (60 रुपए प्रति किलो की दर से) | 4,20,000 रुपए |
4. | बीज की कीमत (500 रुपए प्रति किलो की दर से) | 1,00,000 रुपए |
5. | दो वर्ष की कुल आय | 5,20,000 रूपए |
6. | दो वर्ष की शुद्ध आमदनी (5,20,000—2,62,000) | 3,58,000 रुपए |
7. | शुद्ध आमदनी प्रति वर्ष | 1,59,000 रुपए |
शुद्ध आमदनी की यह रकम उपज तथा बाजार भाव के अनुसार घट-बढ़ सकती है। |
सतावर का उपयोग विभिन्न रोगों को दूर करने हेतु भारत के लोग प्राचीनकाल से करते आ रहे हैं। पहले इसे जंगलों से उखाड़ कर उपयोग हेतु लाया जाता था। खेती नहीं होती थी परंतु सतावर की सिद्ध आयुर्वेदिक, अंग्रेजी तथा यूनानी दवाओं के निर्माण में बढ़ती हुई अधिक मांग तथा विदेशों को निर्यात ने इसकी व्यावसायिक खेती करने हेतु किसानों को प्रेरित किया है। सतावर की कृषि से एक लाख रुपए से अधिक की आकर्षक आमदनी प्राप्त होने के कारण खेतिहरों की माली हालत भी बेहतर बन सकती है परंतु आवश्यकता इसकी खेती को वैज्ञानिक तौर-तरीके से शुरू करने की है।
सतावर जड़ वाली एक औषधीय फसल है जिसकी मांसल जड़ों का इस्तेमाल विभिन्न प्रकार की औषधियों के निर्माण में होता है। सतावर को लोग भिन्न-भिन्न नाम से पुकारते हैं। अंग्रेज लोग इसे एस्पेरेगस कहते हैं। कहीं इसे लोग शतमली तो कहीं शतवीर्या कहते हैं। सतावर कहीं वहुसुत्ता के नाम से विख्यात है तो कहीं यह शतावरी के नाम से भी। यह औषधीय फसल भारत के विभिन्न प्रांतों में प्राकृतिक अवस्था में भी खूब पाई जाती है। विश्व में सतावर भारत के अतिरिक्त ऑस्ट्रेलिया, नेपाल, चीन, बांग्लादेश तथा अफ्रीका में भी पाया जाता है।
सतावर का वानस्पतिक विवरण
सतावर का पौधा झाड़ीदार, कांटेदार लता होता है। इसकी शाखाएं पतली होती हैं। पत्तियां सुई के समान होती हैं जो 1.5-2.5 सेमी तक लम्बी होती हैं। इसके कांटे टेढ़े तथा 6-8 सेंमी लम्बे होते हैं। इसकी शाखाएं चारों ओर फैली होती हैं। इसके फूल सफेद या गुलाबी रंग के सुगंधयुक्त, छोटे, अनेक शाखाओं वाले डंठल पर लगते हैं जो फरवरी और मार्च में फूलते हैं। अप्रैल में फल बढ़कर बड़े-बड़े हो जाते हैं। फल मटर के समान 1-2 बीज युक्त होते हैं। इसके बीज पकने पर काले होते हैं। इसकी जड़े कन्दवत 20-30 सेंमी लम्बी, 1-2 सेंमी मोटी तथा गुच्छे में पैदा होती हैं। जड़ों की संख्या प्रति लता में 60-100 तक होती है। ये जड़े धूसर पीले रंग की हल्की सुगंधयुक्त स्वाद में कुछ मधुर तथा कड़वी लगती हैं। मांसल जड़ों को आदिवासी लोग पूरे पकने पर चाव से खाते हैं। यह सूखने पर भी प्रयोग में लाई जाती हैं। इन्हीं श्वेत जड़ों का प्रयोग चिकित्सा कार्य हेतु होता है। सूखी जड़े बाजार में सतावर के नाम से बेची जाती है। जिसमें सतावरिन-1 तथा सतावरिन-4 में ग्लूकोसाइड रसायन प्रमुख रूप से पाया जाता है। यही रसायन इसके औषधीय गुणों का स्रोत है।
सतावर के लिए उपयुक्त जलवायु
सतावर की खेती के लिए उष्ण तथा आर्द्र जलवायु उत्तम होती है। ऐसे क्षेत्र जहां का तापमान 10-40 डिग्री सेल्सियस तथा वार्षिक वर्षा 200-250 सेंमी तक होती है, इसकी खेती के लिए उपयुक्त होती है। भारत के उष्ण तथा समशीतोष्ण क्षेत्रों में समुद्र तल से 1200 मीटर तक की ऊंचाई वाले स्थानों पर सतावर की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। सतावर की फसल में सूखे को सहन करने की अपार शक्ति होती है परंतु जड़ों के विकास के समय मिट्टी में नमी की कमी होने पर उपज प्रभावित होती है।
भूमि का चुनाव, तैयारी तथा खाद का व्यवहार
सतावर की खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी जिसमें कार्बनिक तत्व प्रचुर मात्रा में हो तथा जल निकास की सुविधा हो, होती है। बलुई दोमट भूमि में जड़ों का विकास अच्छा होता है। बलुई दोमट मिट्टी से इसकी जड़ों को आसानी से खोदकर बिना क्षति के निकालना सरल होता है। भारी मटीयार या काली मिट्टी सतावर की खेती के लिए सर्वथा उपयुक्त नहीं होती है। मानसून आने से पहले खेत को 2-3 बार अच्छी तरह जुताई करके मिट्टी को भुरभुरा बना लेना चाहिए तथा खरपतवार और कंकड़-पत्थर निकाल देना चाहिए। अंतिम जुताई के समय मिट्टी में 15-20 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की सड़ी खाद तथा 8 टन केचुआं की खाद मिला देनी चाहिए। इसके पश्चात खेत में 60 सेंमी की दूरी पर 10 सेंमी ऊंची मेढ़े बना लेनी चाहिए। इन्हीं मेढ़ों पर बाद में 60 सेंमी की दूरी पर अंकुरित पौधे लगाए जाते हैं। चूंकि सतावर एक औषधीय फसल है अतः इसकी खेती में रासायनिक उर्वरक का व्यवहार कभी नहीं करना चाहिए।
पौधशाला की तैयारी तथा बीजदर
सामान्यतया बीजों द्वारा सतावर के पौधे तैयार किए जाते हैं। बीजों का अंकुरण लगभग 60-70 प्रतिशत ही होता है अतः प्रति हेक्टेयर 12 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है। पौधशाला तैयार करने के लिए एक मीटर चौड़ी तथा 10 मीटर लम्बी क्यारी बनाएं तथा उसमें से कंकड़-पत्थर निकाल दें। पौधशाला की एक भाग मिट्टी में तीन भाग गोबर की सड़ी खाद मिला देनी चाहिए। बीजों को नर्सरी क्यारी में 15 सेंमी की गहराई में बोकर ऊपर से हल्की मिट्टी से ढक देनी चाहिए। बुवाई के तुरंत बाद सिंचाई करना आवश्यक होता है। लगभग एक माह में बीजों का अंकुरण हो जाता है तथा दो महीने बाद पौध रोपाई के लिए हो जाते हैं। व्यावसायिक खेती के लिए सतावर के ऐसे पौधों को ही बोने के लिए चुनना चाहिए जिनमें छोटी-छोटी जड़े दिखती हों। सतावर की 27,777 पौध प्रति हेक्टेयर लगानी चाहिए।
पौधों की रोपाई तथा सहारा देना
साधारणतया अगस्त माह में जब पौधे 10-15 सेंमी ऊंचाई के हो जाते हैं तब उनको तैयार भूमि में 60 सेंमी की दूरी पर बनी 10 सेंमी गहरी नालियों में रोप दिया जाता है। पौध से पौध की दूरी 60 सेंमी रखी जाती है। इसके अलावा फसल की खुदाई के समय भूमिगत जड़ों के साथ कभी-कभी छोटे-छोटे अंकुर प्राप्त होते हैं जिससे पुनः पौध तैयार की जाती हैं। इन तनों तथा जड़ों से निकलने वाली पौध ‘डिस्क’ कहलाती है। इसे मूल पौधे से अलग करके पोलीथीन या गमलों में लगाकर नए पौधे तैयार किए जाते हैं। 20-25 दिनों के अंदर ये पौधे भी खेत में लगाने योग्य हो जाते हैं।
सतावर का पौधा तीन मीटर तक लम्बा होता है अतः इसे सहारे की जरूरत पड़ती है। इस कार्य हेतु बांस के तीन-चार मीटर लम्बे डंडों को पौधों के पास गाड़ा जाता है ताकि सतावर की लता इन पर भली-भांति चढ़ सके। इससे उपज में 55-60 प्रतिशत की वृद्धि होती है। अपने परिवार के इस्तेमाल के लिए आप सतावर के पौधों को मिट्टी के 30-35 सेंमी आकार के गमलों में भी लगा सकते हैं।
सिंचाई तथा निराई-गुड़ाई
सतावर की फसल को जल की कम आवश्यकता पड़ती है क्योंकि प्रकृति ने इस फसल की पत्तियों को सुईनुमा तथा पौधों के ऊपर अनेक बड़े-बड़े कांटें बनाए हैं जिससे इस फसल की जल की आवश्यकता भूमि में विद्यमान जल से हो जाती है। सतावर की असिंचित फसल उगाने हेतु इसके पौधों को सदैव 10 सेंमी गहरी नालियों में लगाना चाहिए। इससे हल्की वर्षा होने पर भी पर्याप्त मात्रा में जल पौधों को उपलब्ध हो जाता है। पहाड़ों पर बोई गई सतावर की फसल का वर्षा से ही काम चल जाता है, सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। सतावर के पौधों की जड़ों के समुचित विकास के लिए खेत को खरपतवार रहित रखना तथा मिट्टी को भुरभुरी बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए एक दो निराई-गुड़ाई आवश्यक है। निराई-गुड़ाई के दरम्यान पौधों की जड़ों पर हल्की मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए।
उपज तथा आय-व्यय का लेखा-जोखा
खेत में पौधा-रोपण के लगभग 18 से 24 महीने पश्चात जब पौधा पीला पड़ने लगे तब समझना चाहिए कि पौधों की जड़ें खुदाई योग्य हो गई हैं। परंतु 18 से 24 महीने के बीच जड़ों की खुदाई कर लेनी चाहिए। साथ ही अगली फसल के लिए डिस्क भी पृथक कर लेने चाहिए। खुदाई से पहले पके फलों को हाथ में रबर का दस्ताना पहनकर तोड़ लेना चाहिए तथा उन्हें पानी से धोकर बीज निकाल कर के धूप में सुखा लेना चाहिए। सतावर की एक हेक्टेयर फसल से दो क्विंटल बीज प्राप्त होता है।
सतावर की ताजी जड़ों की उपज 170-180 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है। ताजी जड़ों को पानी में धोकर छिलका उतारा जाता है तत्पश्चात उन्हें धूप में सुखाया जाता है। सुखाने पर जड़ों में विद्यमान जल वाष्प बनकर उड़ जाता है। इस प्रकार लगभग 70-80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर सूखी जड़ें प्राप्त होती हैं जिसे 60 रुपए प्रति किलो की दर से बेचने पर प्रति वर्ष 1.24 लाख रुपए की शुद्ध आमदनी प्राप्त होती है।
सतावर औषधि के रूप में
सतावर की मांसल जड़ें स्वाद में मधुर, रसयुक्त, कड़वी, भारी, चिकनी तथा तासिर में शीतल होती हैं। इसका मुख्य प्रभाव पुरुष प्रजनन संस्थान पर बल तथा वीर्यवर्धक के रूप में पड़ता है। सतावर शीतवीर्य, रसायन, मेधाकारक, जठराग्निवर्धक, पुष्टिकारक, स्निग्ध, आंत एवं अतिसार एवं पितरक्त को शोधने वाला होता है। इसके अतिरिक्त स्त्रियों के लिए टॉनिक, ल्युकोरिया, अनियमित मासिक चक्र, एनीमिया, गर्भपात और मेनोपासक सिन्ड्रोम तथा अन्य स्त्री रोगों में उपयोगी होता है।
ल्युकोरिया में उपयोगी, भूख न लगने पर, कम वजन, पाचन, एटासिड, हाइपर एसीडिटी, पेप्टिक अल्सर, वमन, जलन, मूत्र नलिका में जलन, अवरोध तनाव कम करना, सिरदर्द, चक्कर दाह, गर्भाशय उत्तकों में जलन तथा एनीमिया, पुरुषों में सेक्स टॉनिक, अल्सर, आंत्रीय जलन, टैंकुलाइजर, दुग्ध बढ़ाने में, लीवर टॉनिक, मासिक धर्म की अनियमितता, तांत्रकीय दुर्बलता तथा पीठ के दर्द में उपयोगी है। इसकी कंदिल जड़ों में सतावरीन-1 तथा सतावरीन-4 रसायन पाया जाता है। सतावरीन-1 सार्सपोनिन का ग्लूकोसाइड है जिसमें 3 ग्लूकोस तथा 1 रेम्नोस शर्करा के अणु पाए जाते हैं। सतावरीन 4 में 2 ग्लूकोस 1 रेम्नोस शर्करा के अणु पाए जाते हैं जिनके कारण सतावर का औषधीय गुण बढ़ जाता है।
(लेखक राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर, बिहार के पूर्व अधिष्ठाता कृषि एवं कुलपति हैं।
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