बिहार के बेगूसराय जिले में मंझौल अनुमंडल की गोखुर झील लगातार सिमटती जा रही है। गोखुर का मतलब ‘किसी नदी के रास्ता बदलने के बाद उसके पुराने प्रवाह मार्ग में छूटे पानी का विशाल भंडार’ होता है। हजारों एकड़ में फैली इस झील में सैकड़ों किस्म के लैंड बर्ड, दर्जनों किस्म के वॉटर बर्ड और हजारों की संख्या में प्रवासी पक्षी अपना घरौंदा हरदम बनाये रखते हैं। मशहूर पक्षी विज्ञानी ‘सलीम अली’ इस झील को पक्षियों का स्वर्ग कहा करते थे। 1989 में सरकार ने 6,311 हेक्टेयर क्षेत्र में पक्षी विहार बना दिया। नाम हुआ ‘कावर झील पक्षी विहार’ लेकिन इंसानी दखल और उपेक्षा ने पक्षियों के स्वर्ग को दयनीय बना दिया, बता रहे हैं विकास कुमार।
पैरों के दलदल में धंस जाने का डर हमें मजबूर कर रहा है कि हम अगला कदम देखभाल कर और बच-बचा कर रखें। लेकिन 60 की उम्र पार कर चुके अली हसन जब दौड़-दौड़ और उछल-उछलकर हमें तरह-तरह के पक्षी दिखाते हैं तो लगता है जैसे उनके भीतर सोया कोई बच्चा जाग उठा हो। बिल्कुल चिड़ियों की मानिंद फुदकते हुए कभी यहां तो कभी वहां। घने कोहरे में जब कुछ भी साफ नजर नहीं आता है तब वे थोड़ा जोर देकर कहते हैं, ‘देखिए, इधर देखिए मीडियम इग्रेट, उधर लैटिन इग्रेट। वो आकाश में व्हाईट ब्रेस्टर केनफिशर क्रो... पानी में स्नेक बर्ड देखिए। वह रहा पेडी फिल्ड पिपिट और इंडियन रौलर।’
माइग्रेटरी ग्रीनपाइपर, पौंड हिरण, जंगल क्रो, व्हाईट एविश, पैरिया कैट, पनविल स्टॉक, ओपेन बिल स्टॉक, हप्पी, फेंटिल... न जाने कितने नाम बताते जाते हैं हसन। यह अलग बात है कि ये वैज्ञानिक नाम हमारी समझ से परे हैं। खैर, उनकी निगाहें जहां एक के बाद एक चिड़ियों की तलाश कर रही हैं वहीं हमारी नजर गन्ने और सरसों की लहलहाती फसलों के बीच एशिया की सबसे बड़ी गोखुर झील की विशालता का बचा हुआ अंश देखने के लिए भटक रही है। गोखुर झील यानी किसी नदी के रास्ता बदलने के बाद उसके पुराने मार्ग में छूटे पानी का विशाल भंडार।
अली हसन अपनी धुन और दिलचस्प अंदाज में चिड़ियों के सौंदर्य और उनकी खासियतें बयान करते रहते हैं। हम उन्हें बीच में ही रोककर पूछते हैं कि असली झील कहां है। वे कहते हैं, ‘जो दिखा रहे हैं, वही देखिए न अभी! जो विशेष था, वह खत्म हुआ, जो शेष है उसे तो देखिए!’ उनकी बात जारी रहती है, ‘पहले बहुत किस्म के पक्षी सैकड़ों-हजारों मील की उड़ान भरते हुए यहां आया करते थे। कम से कम 100 किस्म के लैंड बर्ड, 50 किस्म के वाटर बर्ड, दर्जनों किस्म के प्रवासी पक्षी। अब वही आते हैं, जो अपने पुराने और परिचित बसेरे का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं, या इंसानों के बीच उन्हें कहीं नया बसेरा मिल नहीं रहा। जो आए हैं, उन्हें ही देख लीजिए, उनके बारे में ही जान लीजिए, कुछ सालों बाद शायद ये भी न दिखें।’
इतना कहते-कहते अली के चेहरे पर निराशा की छाया पसरने लगती है। हम कुछ कहें इससे पहले वे कहते हैं, ‘आप पत्रकार हैं। इसलिए मैं आपको दिखाना चाहता हूं। इनके बारे में बताना चाहता हूं ताकि आप लोगों को बताएं कि पक्षियों का बचे रहना इस प्रकृति के लिए, इंसानों के लिए कितना जरूरी है।’ अली लगभग रुआंसे दिखने लगे हैं। कहते हैं, ‘पता नहीं पक्षियों के इस स्वर्ग का क्या होगा?’
‘पक्षियों के स्वर्ग का क्या होगा?’ इस सवाल का जवाब तलाशने के पहले कुछ बातें अली हसन और इस झील के बारे में। इस झील को कावर झील कहते हैं। यह बिहार के बेगूसराय जिले में है। तथ्य बताते हैं कि यह एशिया की सबसे बड़ी गोखुर झील रही है। प्रवासी पक्षियों को देखने और उनका अध्ययन करने इस वीराने में दुनिया के मशहूर पक्षी विज्ञानी सलीम अली भी आया करते थे। उन्होंने ही 1971 की एक यात्रा के बाद इसे पक्षियों का स्वर्ग कहा था। पक्षियों का यह स्वर्ग तो वर्षों पहले से ही था। सलीम अली ने कहा तो इसे एक वैज्ञानिक आधार मिला और 1989 में सरकार ने भी इसे कागजी तौर पर अमली जामा पहनाकर करीब 6,311 हेक्टेयर दायरे में पक्षी विहार बना दिया। नाम हुआ कावर झील पक्षी विहार।
तब से लेकर अब तक करीब 24 साल का वक्त गुजर चुका है। इस दौरान पक्षियों का स्वर्ग कही गई कावर झील आहिस्ता-आहिस्ता मरती गई है। जहां झील का विस्तार हुआ करता था, वहां अब गन्ना, सरसों, मेंथोल की फसलें लहलहाती हैं। जो दायरा देशी और विदेशी पक्षियों के लिए मशहूर हुआ करता था, अब उसकी पहचान सबसे उर्वर जमीन के रूप में स्थापित हो रही है अथवा करवाई जा रही है। झील का दायरा सिमटकर एक तालाब का रूप लेता जा रहा है और उसमें भी जो पानी है, उसे खेतों तक पहुंचाने के लिए दिन-रात एक कर पंपिंग सेट चलाए जा रहे हैं। इस इलाके से गुजरते हुए कई खेतों की मिट्टी में नावें धंसी नजर आती हैं। ये बताती हैं कि कभी यहां पानी ही पानी था।
अली हसन के बारे में संक्षिप्त जानकारी यह है कि एक समय में वे चिड़िया मारने वाले शिकारी हुआ करते थे। सलीम अली के संपर्क में आने के बाद पक्षियों को पकड़ने वाले विशेषज्ञ बने और अब उनकी पहचान चिड़ियों को बचाने वाले, उनके बारे में लोक, वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान रखने वाले पक्षी विशेषज्ञ के रूप में भी है। अली ने कभी स्कूल में जाकर अक्षर ज्ञान नहीं लिया, लेकिन वे सभी पक्षियों और पेड़-पौधों का वैज्ञानिक नाम अंग्रेजी में धड़ाधड़ बता सकते हैं, सबके बारे में विस्तार से जानकारी भी दे सकते हैं। वे वर्षों से बांबे नैचुरल हिस्ट्री सोसाइटी से भी जुड़े हुए हैं।
आखिर पक्षियों के इस स्वर्ग का भविष्य क्या होगा? आज के हालात देखकर अगर इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने की कोशिश की जाए तो लगता है कि कुछ सालों बाद इस इलाके की पहचान दूसरे रूप में होगी। झील का इलाका उर्वर भूमि के रूप में जाना जाएगा, उसके बीच में स्थित जयमंगला गढ़ की देवी मंदिर के लिए जाना जाएगा और बिहार में चल रही बुद्ध की लहर की वजह से पास में ही अवस्थित हरसाईं स्तूप के लिए भी जाना जा सकता है। पक्षी अपने हक की लड़ाई नहीं लड़ सकते, इसलिए वे अपना रास्ता बदल रहे हैं। अब उनके बसेरे में इंसानों की लड़ाई चल रही है। सरकार और किसान जमीन किसकी है, इस पर लड़ाई लड़ रहे हैं। किसान और मछुआरों के बीच हकमारी का विवाद सतह पर न हो लेकिन भीतर ही भीतर एक सवाल की तरह बना हुआ है। नेताओं में इतना साहस नहीं कि वे खुलकर कह दें कि झील को पूरी तरह खत्म कर देना चाहिए या झील को फिर से आबाद कर देना चाहिए। झील बहाल होगी तो खेतिहर किसानों का वोट गड़बड़ होगा। झील के खत्म होने से बड़ी आबादी में बसने वाले सहनियों यानी मछुआरों का वोट गड़बड़ हो सकता है। ऐसे ही तमाम किस्म के पंच-प्रपंच और गुणा-गणित के बीच अली जैसे गिने-चुने लोग हैं, जो चिड़ियों की जुबान समझते हैं, उनकी पीड़ा समझते हैं। लेकिन वे सिवाय चिड़ियों पर बात करने के कुछ और कर नहीं सकते।
सवाल यह भी है कि जिन जमीनों पर कई वर्षों से जमकर खेती होने लगी है, किसान अपना हक जता रहे हैं, साक्ष्य पेश करते हुए सरकार से लड़ाई लड़ रहे हैं, उचित मुआवजे के एवज में जमीन देने को तैयार होने की बात कह रहे हैं, वहां अब पानी पहुंचाना या झील को आबाद करना क्या इतना आसान रह गया है। बेगूसराय जिले के मंझौल अनुमंडल, जिस इलाके में यह झील आती है, अनुमंडलाधिकारी सुमन प्रसाद कहते हैं, ‘15,600 एकड़ इलाके में झील के लिए 1989 में गजट हुआ था। अब भी करीब 500 एकड़ में झील है। दक्षिणी हिस्से को बूढ़ी गंडक नदी से जोड़ने की योजना है ताकि झील में पानी बना रहे।’ सुमन प्रसाद कहते हैं कि 1,400 एकड़ जमीन वन विभाग को भी दी गई है ताकि वहां पौधारोपण हो। बेगूसराय के जिला मजिस्ट्रेट मनोज श्रीवास्तव कहते हैं, ‘पक्षी विहार की जमीन पर कैसे कब्जा हुआ, वह वैध है या अवैध, अभी नहीं कह सकते और कहना भी नहीं चाहते क्योंकि मामला कोर्ट में है। इस बीच डीएम ने 11 जनवरी को एक नोटिस जारी किया है जिसमें बताया गया है कि अगली व्यवस्था तक कावर झील के आस-पास की जमीन न कोई खरीद सकता है और न ही बेच सकता है। क्योंकि यह सरकारी जमीन है। जो जमीनों को जोत रहे हैं वे जोतें लेकिन खरीद-बिक्री का अधिकार किसी को नहीं है। इस पर बेगूसराय के बलिया लोकसभा क्षेत्र के पूर्व सांसद रामजीवन सिंह ने कहा कि अगर सरकार किसानों की जमीन पर कोई कार्यवाही करती है तो यह दूसरा नंदीग्राम और सिंगूर बनेगा।
पिछले दिनों राज्य के उपमुख्यमंत्री सह वन एवं पर्यावरण मंत्री सुशील कुमार मोदी जब यहां आए थे तो उन्होंने कहा है कि पक्षी विहार को विकसित करने के लिए एक एक्सपर्ट कमिटी बनेगी, जिसकी रिपोर्ट पर यह तय होगा कि कावर में कितनी जमीन पक्षी विहार के लिए चाहिए। उसी के आधार पर आगे का खाका तैयार होगा।’ यह पूछने पर कि जमीन सरकार की है या नहीं, श्रीवास्तव कहते हैं कि सुनवाई चल रही है और इस दौरान कई किसानों की मांग गलत साबित हुई है। श्रीवास्तव उपमुख्यमंत्री की बातों का हवाला देते हुए अपनी बात कहते हैं, उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का मानना है कि जो जमीन पक्षी विहार में है, उसके दस्तावेजों की जांच-पड़ताल कर उसके डिनोटिफिकेशन का भी काम होगा लेकिन सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि वहां पक्षी विहार के लिए कितनी जमीन चाहिए। उपमुख्यमंत्री यह कहते हुए शायद भूल जाते हैं कि एक बार नोटिफिकेशन हो जाने के बाद किसी भी जमीन का डिनोटिफिकेशन इतना आसान नहीं होता।
कानूनी पेंच की बात चाहे जो हो लेकिन जो किसान वहां जमीन जोत रहे हैं, उनके अपने मजबूत तर्क हैं। मंझौल के बड़े किसान चितरंजन जी कहते हैं कि सरकार जब पक्षी विहार के लिए जमीन का नोटिफिकेशन जारी कर रही थी तो उसने यह ध्यान नहीं दिया कि इस मामले में बहुत असावधानी बरती जा रही है। सब कुछ कागज पर ही होता रहा। कावर झील पक्षी विहार के लिए जितने दायरे को तय किया गया है उसमें तो नेशनल हाइवे तक की जमीन और कई गांवों की आबादी तक आ जाती है।’ वे आगे कहते हैं, ‘हमने भरतपुर पक्षी विहार भी जाकर देखा है। वह भी 2,200-2,500 एकड़ में है और खूब अच्छे से है फिर यहां इतना बड़ा दायरा कैसे तय कर दिया गया था और उसकी क्या दरकार है?’
किसान तो अपनी जमीन रक्षा की बात स्वाभाविक तौर पर मजबूती से रखते हैं लेकिन स्थानीय स्तर पर नेताओं का रुझान भी पक्षी विहार की ओर ज्यादा नहीं दिखता। राज्य के पूर्व कृषि मंत्री और बेगूसराय के बलिया लोकसभा क्षेत्र के पूर्व सांसद रामजीवन सिंह कहते हैं, ‘किसान उस जमीन से साल भर में एक लाख रुपया प्रति एकड़ कमा रहे हैं। झील पिछले पांच-छह साल से बहुत हद तक जलविहीन हो गई है। 90 प्रतिशत जमीन खेती से आबाद है। अब तो कृषि वैज्ञानिकों की एक्सपर्ट कमिटी आए तो उसका भी मन कृषि विहार बनाने के लिए ललच जाएगा।’
रामजीवन सिंह कहते हैं कि 1988-89 में सरकार ने बंद कमरे में पक्षी विहार के लिए जमीन अधिसूचित करने का काम कर लिया जो व्यावहारिक नहीं था। उनका मानना है कि पक्षी विहार के लिए ढाई-तीन हजार एकड़ जमीन बहुत ज्यादा है। झील रहेगी तभी आस-पास के इलाके में जलस्तर भी ठीक रहेगा लेकिन बाकी पर खेती हो। यह पूछने पर कि झील खुद जलविहीन हुई या खेती के लिए कर दी गई, उनका जवाब होता है, ‘यहां के बाशिंदों ने नहीं बल्कि कुछ कुदरत ने और कुछ सरकार ने मिलकर झील को खत्म किया। पहली पंचवर्षीय योजना में ही इस झील में नहर बना दी गई थी। फिर इधर चार-पांच बार बाढ़ आने के कारण गाद भरने की प्रक्रिया तेज हुई, जिससे झील खत्म हुई।’ उधर, यह सवाल हाशिये पर ही रहता है कि अगर झील खत्म हो जाए तो पक्षियों का जो होना होगा। वह तो होगा ही, झील किनारे पीढ़ियों से बसे और झील से मछली मारकर ही पीढ़ी दर पीढ़ी जीवनयापन करने वाले मछुआरा समुदाय का क्या होगा।
किसान चितरंजन जी कहते हैं, ‘मछुआरों का कभी कोई हक तो उस पर था नहीं, वे तो पानी भरे रहने की वजह से स्वत: पेशे के तौर पर मछली मारने का काम किया करते थे।’ जब इस बाबत रामबालक सहनी से बात होती है तो वे कहते हैं, ‘झील के इलाके का बंदोबस्ती सहनी समाज को होते रहा है, हमारे समुदाय के लोग उसके एवज में जलकर देते रहे हैं। जितने हिस्से का जलकर दिया जाता है उतने में पानी नहीं रहने पर खेती का भी अधिकार सहनी समाज का ही बनता है।’ रामबालक से यह पूछने पर कि जो जोत रहे हैं वे क्या आपके जलकर देने भर की वजह से आपके समुदाय के लिए जमीन छोड़ देंगे। वे कहते हैं, ‘कोला नदी के इलाके में 305 एकड़ जमीन पर सहनी खेती करने लगे हैं। दीघा में भी 70-80 एकड़ जमीन पर सहनी समुदाय के लोग खेती करने लगे हैं। जहां सहनी टैक्स देते हैं, वहां अगर सरकार जमीन बंदोबस्ती का भी टैक्स ले रही है तो हम अदालत में भी लड़ाई लड़ रहे हैं और हमारी जीत भी हुई है।’
पेशे से पत्रकार और कावर नेचर क्लब के संयोजक महेश भारती कहते हैं, ‘सरकार पक्षी विहार बनाने के बाद अब तक सीमांकन ही नहीं करवा सकी है, इसीलिए यह सारा पेंच फंसा हुआ है। सरकार सीमांकन ही करवा दे तो कई झगड़े खत्म हो जाएंगे।’ संभव है सरकार सीमांकन करवाने में रुचि ले और जमीन का पेंच सुलझ भी जाए। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि क्या तब तक प्रवासी और देसी पक्षी भी अपने इसी मिटते हुए आशियाने में इंसानी लड़ाई के फैसले का इंतजार करते रहेंगे। शायद नहीं।
पैरों के दलदल में धंस जाने का डर हमें मजबूर कर रहा है कि हम अगला कदम देखभाल कर और बच-बचा कर रखें। लेकिन 60 की उम्र पार कर चुके अली हसन जब दौड़-दौड़ और उछल-उछलकर हमें तरह-तरह के पक्षी दिखाते हैं तो लगता है जैसे उनके भीतर सोया कोई बच्चा जाग उठा हो। बिल्कुल चिड़ियों की मानिंद फुदकते हुए कभी यहां तो कभी वहां। घने कोहरे में जब कुछ भी साफ नजर नहीं आता है तब वे थोड़ा जोर देकर कहते हैं, ‘देखिए, इधर देखिए मीडियम इग्रेट, उधर लैटिन इग्रेट। वो आकाश में व्हाईट ब्रेस्टर केनफिशर क्रो... पानी में स्नेक बर्ड देखिए। वह रहा पेडी फिल्ड पिपिट और इंडियन रौलर।’
माइग्रेटरी ग्रीनपाइपर, पौंड हिरण, जंगल क्रो, व्हाईट एविश, पैरिया कैट, पनविल स्टॉक, ओपेन बिल स्टॉक, हप्पी, फेंटिल... न जाने कितने नाम बताते जाते हैं हसन। यह अलग बात है कि ये वैज्ञानिक नाम हमारी समझ से परे हैं। खैर, उनकी निगाहें जहां एक के बाद एक चिड़ियों की तलाश कर रही हैं वहीं हमारी नजर गन्ने और सरसों की लहलहाती फसलों के बीच एशिया की सबसे बड़ी गोखुर झील की विशालता का बचा हुआ अंश देखने के लिए भटक रही है। गोखुर झील यानी किसी नदी के रास्ता बदलने के बाद उसके पुराने मार्ग में छूटे पानी का विशाल भंडार।
अली हसन अपनी धुन और दिलचस्प अंदाज में चिड़ियों के सौंदर्य और उनकी खासियतें बयान करते रहते हैं। हम उन्हें बीच में ही रोककर पूछते हैं कि असली झील कहां है। वे कहते हैं, ‘जो दिखा रहे हैं, वही देखिए न अभी! जो विशेष था, वह खत्म हुआ, जो शेष है उसे तो देखिए!’ उनकी बात जारी रहती है, ‘पहले बहुत किस्म के पक्षी सैकड़ों-हजारों मील की उड़ान भरते हुए यहां आया करते थे। कम से कम 100 किस्म के लैंड बर्ड, 50 किस्म के वाटर बर्ड, दर्जनों किस्म के प्रवासी पक्षी। अब वही आते हैं, जो अपने पुराने और परिचित बसेरे का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं, या इंसानों के बीच उन्हें कहीं नया बसेरा मिल नहीं रहा। जो आए हैं, उन्हें ही देख लीजिए, उनके बारे में ही जान लीजिए, कुछ सालों बाद शायद ये भी न दिखें।’
इतना कहते-कहते अली के चेहरे पर निराशा की छाया पसरने लगती है। हम कुछ कहें इससे पहले वे कहते हैं, ‘आप पत्रकार हैं। इसलिए मैं आपको दिखाना चाहता हूं। इनके बारे में बताना चाहता हूं ताकि आप लोगों को बताएं कि पक्षियों का बचे रहना इस प्रकृति के लिए, इंसानों के लिए कितना जरूरी है।’ अली लगभग रुआंसे दिखने लगे हैं। कहते हैं, ‘पता नहीं पक्षियों के इस स्वर्ग का क्या होगा?’
‘पक्षियों के स्वर्ग का क्या होगा?’ इस सवाल का जवाब तलाशने के पहले कुछ बातें अली हसन और इस झील के बारे में। इस झील को कावर झील कहते हैं। यह बिहार के बेगूसराय जिले में है। तथ्य बताते हैं कि यह एशिया की सबसे बड़ी गोखुर झील रही है। प्रवासी पक्षियों को देखने और उनका अध्ययन करने इस वीराने में दुनिया के मशहूर पक्षी विज्ञानी सलीम अली भी आया करते थे। उन्होंने ही 1971 की एक यात्रा के बाद इसे पक्षियों का स्वर्ग कहा था। पक्षियों का यह स्वर्ग तो वर्षों पहले से ही था। सलीम अली ने कहा तो इसे एक वैज्ञानिक आधार मिला और 1989 में सरकार ने भी इसे कागजी तौर पर अमली जामा पहनाकर करीब 6,311 हेक्टेयर दायरे में पक्षी विहार बना दिया। नाम हुआ कावर झील पक्षी विहार।
तब से लेकर अब तक करीब 24 साल का वक्त गुजर चुका है। इस दौरान पक्षियों का स्वर्ग कही गई कावर झील आहिस्ता-आहिस्ता मरती गई है। जहां झील का विस्तार हुआ करता था, वहां अब गन्ना, सरसों, मेंथोल की फसलें लहलहाती हैं। जो दायरा देशी और विदेशी पक्षियों के लिए मशहूर हुआ करता था, अब उसकी पहचान सबसे उर्वर जमीन के रूप में स्थापित हो रही है अथवा करवाई जा रही है। झील का दायरा सिमटकर एक तालाब का रूप लेता जा रहा है और उसमें भी जो पानी है, उसे खेतों तक पहुंचाने के लिए दिन-रात एक कर पंपिंग सेट चलाए जा रहे हैं। इस इलाके से गुजरते हुए कई खेतों की मिट्टी में नावें धंसी नजर आती हैं। ये बताती हैं कि कभी यहां पानी ही पानी था।
अली हसन के बारे में संक्षिप्त जानकारी यह है कि एक समय में वे चिड़िया मारने वाले शिकारी हुआ करते थे। सलीम अली के संपर्क में आने के बाद पक्षियों को पकड़ने वाले विशेषज्ञ बने और अब उनकी पहचान चिड़ियों को बचाने वाले, उनके बारे में लोक, वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान रखने वाले पक्षी विशेषज्ञ के रूप में भी है। अली ने कभी स्कूल में जाकर अक्षर ज्ञान नहीं लिया, लेकिन वे सभी पक्षियों और पेड़-पौधों का वैज्ञानिक नाम अंग्रेजी में धड़ाधड़ बता सकते हैं, सबके बारे में विस्तार से जानकारी भी दे सकते हैं। वे वर्षों से बांबे नैचुरल हिस्ट्री सोसाइटी से भी जुड़े हुए हैं।
आखिर पक्षियों के इस स्वर्ग का भविष्य क्या होगा? आज के हालात देखकर अगर इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने की कोशिश की जाए तो लगता है कि कुछ सालों बाद इस इलाके की पहचान दूसरे रूप में होगी। झील का इलाका उर्वर भूमि के रूप में जाना जाएगा, उसके बीच में स्थित जयमंगला गढ़ की देवी मंदिर के लिए जाना जाएगा और बिहार में चल रही बुद्ध की लहर की वजह से पास में ही अवस्थित हरसाईं स्तूप के लिए भी जाना जा सकता है। पक्षी अपने हक की लड़ाई नहीं लड़ सकते, इसलिए वे अपना रास्ता बदल रहे हैं। अब उनके बसेरे में इंसानों की लड़ाई चल रही है। सरकार और किसान जमीन किसकी है, इस पर लड़ाई लड़ रहे हैं। किसान और मछुआरों के बीच हकमारी का विवाद सतह पर न हो लेकिन भीतर ही भीतर एक सवाल की तरह बना हुआ है। नेताओं में इतना साहस नहीं कि वे खुलकर कह दें कि झील को पूरी तरह खत्म कर देना चाहिए या झील को फिर से आबाद कर देना चाहिए। झील बहाल होगी तो खेतिहर किसानों का वोट गड़बड़ होगा। झील के खत्म होने से बड़ी आबादी में बसने वाले सहनियों यानी मछुआरों का वोट गड़बड़ हो सकता है। ऐसे ही तमाम किस्म के पंच-प्रपंच और गुणा-गणित के बीच अली जैसे गिने-चुने लोग हैं, जो चिड़ियों की जुबान समझते हैं, उनकी पीड़ा समझते हैं। लेकिन वे सिवाय चिड़ियों पर बात करने के कुछ और कर नहीं सकते।
सवाल यह भी है कि जिन जमीनों पर कई वर्षों से जमकर खेती होने लगी है, किसान अपना हक जता रहे हैं, साक्ष्य पेश करते हुए सरकार से लड़ाई लड़ रहे हैं, उचित मुआवजे के एवज में जमीन देने को तैयार होने की बात कह रहे हैं, वहां अब पानी पहुंचाना या झील को आबाद करना क्या इतना आसान रह गया है। बेगूसराय जिले के मंझौल अनुमंडल, जिस इलाके में यह झील आती है, अनुमंडलाधिकारी सुमन प्रसाद कहते हैं, ‘15,600 एकड़ इलाके में झील के लिए 1989 में गजट हुआ था। अब भी करीब 500 एकड़ में झील है। दक्षिणी हिस्से को बूढ़ी गंडक नदी से जोड़ने की योजना है ताकि झील में पानी बना रहे।’ सुमन प्रसाद कहते हैं कि 1,400 एकड़ जमीन वन विभाग को भी दी गई है ताकि वहां पौधारोपण हो। बेगूसराय के जिला मजिस्ट्रेट मनोज श्रीवास्तव कहते हैं, ‘पक्षी विहार की जमीन पर कैसे कब्जा हुआ, वह वैध है या अवैध, अभी नहीं कह सकते और कहना भी नहीं चाहते क्योंकि मामला कोर्ट में है। इस बीच डीएम ने 11 जनवरी को एक नोटिस जारी किया है जिसमें बताया गया है कि अगली व्यवस्था तक कावर झील के आस-पास की जमीन न कोई खरीद सकता है और न ही बेच सकता है। क्योंकि यह सरकारी जमीन है। जो जमीनों को जोत रहे हैं वे जोतें लेकिन खरीद-बिक्री का अधिकार किसी को नहीं है। इस पर बेगूसराय के बलिया लोकसभा क्षेत्र के पूर्व सांसद रामजीवन सिंह ने कहा कि अगर सरकार किसानों की जमीन पर कोई कार्यवाही करती है तो यह दूसरा नंदीग्राम और सिंगूर बनेगा।
पिछले दिनों राज्य के उपमुख्यमंत्री सह वन एवं पर्यावरण मंत्री सुशील कुमार मोदी जब यहां आए थे तो उन्होंने कहा है कि पक्षी विहार को विकसित करने के लिए एक एक्सपर्ट कमिटी बनेगी, जिसकी रिपोर्ट पर यह तय होगा कि कावर में कितनी जमीन पक्षी विहार के लिए चाहिए। उसी के आधार पर आगे का खाका तैयार होगा।’ यह पूछने पर कि जमीन सरकार की है या नहीं, श्रीवास्तव कहते हैं कि सुनवाई चल रही है और इस दौरान कई किसानों की मांग गलत साबित हुई है। श्रीवास्तव उपमुख्यमंत्री की बातों का हवाला देते हुए अपनी बात कहते हैं, उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का मानना है कि जो जमीन पक्षी विहार में है, उसके दस्तावेजों की जांच-पड़ताल कर उसके डिनोटिफिकेशन का भी काम होगा लेकिन सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि वहां पक्षी विहार के लिए कितनी जमीन चाहिए। उपमुख्यमंत्री यह कहते हुए शायद भूल जाते हैं कि एक बार नोटिफिकेशन हो जाने के बाद किसी भी जमीन का डिनोटिफिकेशन इतना आसान नहीं होता।
कानूनी पेंच की बात चाहे जो हो लेकिन जो किसान वहां जमीन जोत रहे हैं, उनके अपने मजबूत तर्क हैं। मंझौल के बड़े किसान चितरंजन जी कहते हैं कि सरकार जब पक्षी विहार के लिए जमीन का नोटिफिकेशन जारी कर रही थी तो उसने यह ध्यान नहीं दिया कि इस मामले में बहुत असावधानी बरती जा रही है। सब कुछ कागज पर ही होता रहा। कावर झील पक्षी विहार के लिए जितने दायरे को तय किया गया है उसमें तो नेशनल हाइवे तक की जमीन और कई गांवों की आबादी तक आ जाती है।’ वे आगे कहते हैं, ‘हमने भरतपुर पक्षी विहार भी जाकर देखा है। वह भी 2,200-2,500 एकड़ में है और खूब अच्छे से है फिर यहां इतना बड़ा दायरा कैसे तय कर दिया गया था और उसकी क्या दरकार है?’
किसान तो अपनी जमीन रक्षा की बात स्वाभाविक तौर पर मजबूती से रखते हैं लेकिन स्थानीय स्तर पर नेताओं का रुझान भी पक्षी विहार की ओर ज्यादा नहीं दिखता। राज्य के पूर्व कृषि मंत्री और बेगूसराय के बलिया लोकसभा क्षेत्र के पूर्व सांसद रामजीवन सिंह कहते हैं, ‘किसान उस जमीन से साल भर में एक लाख रुपया प्रति एकड़ कमा रहे हैं। झील पिछले पांच-छह साल से बहुत हद तक जलविहीन हो गई है। 90 प्रतिशत जमीन खेती से आबाद है। अब तो कृषि वैज्ञानिकों की एक्सपर्ट कमिटी आए तो उसका भी मन कृषि विहार बनाने के लिए ललच जाएगा।’
रामजीवन सिंह कहते हैं कि 1988-89 में सरकार ने बंद कमरे में पक्षी विहार के लिए जमीन अधिसूचित करने का काम कर लिया जो व्यावहारिक नहीं था। उनका मानना है कि पक्षी विहार के लिए ढाई-तीन हजार एकड़ जमीन बहुत ज्यादा है। झील रहेगी तभी आस-पास के इलाके में जलस्तर भी ठीक रहेगा लेकिन बाकी पर खेती हो। यह पूछने पर कि झील खुद जलविहीन हुई या खेती के लिए कर दी गई, उनका जवाब होता है, ‘यहां के बाशिंदों ने नहीं बल्कि कुछ कुदरत ने और कुछ सरकार ने मिलकर झील को खत्म किया। पहली पंचवर्षीय योजना में ही इस झील में नहर बना दी गई थी। फिर इधर चार-पांच बार बाढ़ आने के कारण गाद भरने की प्रक्रिया तेज हुई, जिससे झील खत्म हुई।’ उधर, यह सवाल हाशिये पर ही रहता है कि अगर झील खत्म हो जाए तो पक्षियों का जो होना होगा। वह तो होगा ही, झील किनारे पीढ़ियों से बसे और झील से मछली मारकर ही पीढ़ी दर पीढ़ी जीवनयापन करने वाले मछुआरा समुदाय का क्या होगा।
किसान चितरंजन जी कहते हैं, ‘मछुआरों का कभी कोई हक तो उस पर था नहीं, वे तो पानी भरे रहने की वजह से स्वत: पेशे के तौर पर मछली मारने का काम किया करते थे।’ जब इस बाबत रामबालक सहनी से बात होती है तो वे कहते हैं, ‘झील के इलाके का बंदोबस्ती सहनी समाज को होते रहा है, हमारे समुदाय के लोग उसके एवज में जलकर देते रहे हैं। जितने हिस्से का जलकर दिया जाता है उतने में पानी नहीं रहने पर खेती का भी अधिकार सहनी समाज का ही बनता है।’ रामबालक से यह पूछने पर कि जो जोत रहे हैं वे क्या आपके जलकर देने भर की वजह से आपके समुदाय के लिए जमीन छोड़ देंगे। वे कहते हैं, ‘कोला नदी के इलाके में 305 एकड़ जमीन पर सहनी खेती करने लगे हैं। दीघा में भी 70-80 एकड़ जमीन पर सहनी समुदाय के लोग खेती करने लगे हैं। जहां सहनी टैक्स देते हैं, वहां अगर सरकार जमीन बंदोबस्ती का भी टैक्स ले रही है तो हम अदालत में भी लड़ाई लड़ रहे हैं और हमारी जीत भी हुई है।’
पेशे से पत्रकार और कावर नेचर क्लब के संयोजक महेश भारती कहते हैं, ‘सरकार पक्षी विहार बनाने के बाद अब तक सीमांकन ही नहीं करवा सकी है, इसीलिए यह सारा पेंच फंसा हुआ है। सरकार सीमांकन ही करवा दे तो कई झगड़े खत्म हो जाएंगे।’ संभव है सरकार सीमांकन करवाने में रुचि ले और जमीन का पेंच सुलझ भी जाए। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि क्या तब तक प्रवासी और देसी पक्षी भी अपने इसी मिटते हुए आशियाने में इंसानी लड़ाई के फैसले का इंतजार करते रहेंगे। शायद नहीं।
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