गोबर से विद्युत उत्पादन की संभावना

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दुनिया की बड़ी आईटी कंपनियां बिजली संकट के समाधान गाय के गोबर में भी तलाश रही हैं।

अमेरिकी कंपनी एचपी ने तो एक शोध के बाद डेटा सेंटर चलाने की बड़ी योजना को अंजाम देना भी शुरू कर दिया है। गोबर से बिजली उत्पादन की तकनीक सुलभ होने पर एक साथ कई समस्याओं से छुटकारा मिलने की उम्मीद जताई जा रही है। इससे जहां दूध की कमी से निजात मिलेगी वहीं मिलावटी दुग्ध उत्पादों की समस्या भी एक हद तक हल होगी। इसका अपशिष्ट ईंधन और जैविक खाद की उपलब्धता भी बढ़ाएगा। नतीजतन रासायिनिक खाद से मुक्ति के द्वार खुलेंगे। इससे आहार जन्य खाद्य की उत्पादकता बढ़ेगी इसलिए गाय वैश्विक दुनिया में भूख-पीडि़तों को खाद्य सुरक्षा और निरक्षरों को रोजगार प्रदान करेगी।

एचपी कंपनी द्वारा कराए शोधों के मुताबिक दस हजार गायों की मदद से एक मेगावाट खपत वाला डेटा सेंटर बनाया जा सकता है। शोध के मुताबिक एक गाय से एक दिन में औसतन पचपन किलो गोबर मिलता है। इस तरह दस हजार गायों की क्षमता वाली डेयरी में हर साल दो लाख मीट्रिक टन खाद पैदा हो सकती है और एक दिन में पैदा होने वाली खाद से तीन किलोवाट अवर मेगावाट क्षमता वाले मंझोले डेटा सेंटर चल सकते हैं।

शोधकर्ताओं के अनुसार फिलहाल दुनिया के तमाम दुग्ध उत्पादक देश गोबर की समस्या से जूझ रहे हैं। ऐसे देशों में नीदरलैंड प्रमुख है। इसके विपरीत दुनिया की आईटी व अन्य कंपनियों के डेटा सेंटर विद्युत संकट से जूझ रहे हैं, लिहाजा गोबर से ऊर्जा-उत्पादन कर जरूरी बिजली की खपत पूरी की जा सकती है। एचपी प्रयोगशाला के प्रमुख चंद्रकात डी पटेल ने कहा भी है कि गोबर के इस तरह के इस्तेमाल से न केवल गोबर व खाद का उपयोग होगा, वायुमंडल के पर्यावरण को भी एक हद तक प्रदूषण से मुक्त रखा जा सकता हे।

हालांकि वैकल्पिक ऊर्जा के रूप में गोबर का प्रयोग नई बात नहीं है। हमारे ग्रामीण इलाकों में गोबर गैस संयंत्रों से गैस का उत्पादन किया जा रहा है और कई ग्रामों का अंधेरा भी इन संयंत्रों ने दूर किया है। ऐसे में यदि गोबर गैस संयंत्रों के माध्यम से डेटा सेंटर चलाने का सिलसिला भारत में भी शुरू होता है तो किसान व ग्रामीणों को अतिरिक्त आमदनी का स्रोत मिलेगा। सहकारिता के रूप में इस व्यवसाय को मूर्त रूप दिया जा सकता है। इससे पालतू पशुओं की विविधता संरक्षित होगी और पशुओं को मांस के लिए पालने की प्रवृत्ति भी कम होगी।

यद्यपि ऊर्जा के लिए पशुपालन उद्योग के रूप में बड़े पैमाने पर सामने आ जाता है तो यह कई प्रकार के संकट भी पैदा कर सकता है। वर्तमान में जिन बड़ी डेयरियों का औद्योगिक रूप में इस्तेमाल हो रहा है, उनका उद्देश्य अधिकाधिक दूध, घी, अंडा व मांस उत्पादन है। पशुओं से दूध व मांस ज्यादा से ज्यादा उत्पादित किया जा सके इसके लिए उन पर घातक इंजेक्शन व रसायनों का प्रयोग तो किया ही जाता है, अमेरिका, कनाडा, नीदरलैंड व अन्य पाश्चात्य देशों में अनाज, तिलहन व मांस से बने आहार भी बेवजह ज्यादा मात्रा में खिलाये जाते हैं। अमेरिका में 70 से 80 प्रतिशत अनाज का उपयोग केवल मवेशियों को खिलाने और र्इंधन बनाने के रूप में इस्तेमाल होता है। अमेरिका स्थित अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान के जोकिम वोन ब्रान का मानना है कि इन कृत्रिम उपायों के चलते विश्व को खाद्य संकट की ओर धकेला जा रहा है और इसने दुनिया की एक अरब आबादी को भुखमरी के दायरे में ला दिया है।

ऐसी आशंकाएं भी जताई जा रहीं है कि भारत में जिस तरह से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दखल को असंगठित क्षेत्र में संकट माना जा रहा है, उसके चलते यदि गोबर से ऊर्जा निर्माण के क्षेत्र में कंपनियां उतर आती हैं तो किसान और पशुपालक अपने पशुपालन के मूल पेशे से तो बेदखल होंगे ही, कंपनियों की गायें पालने के बंधुआ भी हो जाएंगे। इस स्थिति को अमेरिका में सुअर पालन केंद्रों की पूर्व और वर्तमान स्थिति के आकलन से समझा जा सकता है। 1965 में यहां पांच करोड़ तीन लाख सुअर थे जो दस लाख लघु व बड़े सुअर पालन केंद्रों में पाले जाते थे। इनको पालने का ज्यादातर काम छोटे पशुपालकों के हाथों में था लेकिन सुअरों से मांस उत्पादन का व्यवसाय जब बड़ी कंपनियों के हत्थे चढ़ गया तो अमेरिका में आज केवल पैंसठ हजार सुअर पालन केंद्रों में छह करोड़ पचास लाख सुअर पाले जा रहे हैं। इस व्यवसायीकरण से कितने लोग बेरोजगार हुए इसका सहज अंदाजा लग जाता है। एक जैसे माहौल में पाले जाने के कारण पशु संपदा से जुड़ी जैव विविधता भी खतरे में पड़ सकती है। मौजूदा हालात में दुनिया भर में मवेशियों की लगभग चार हजार प्रजातियां अस्तित्व में हैं। बहरहाल, तमाम विपरीत आशंकाओं के बावजूद गोबर से ऊर्जा बनाने के प्रयासों पर संतुलित तरीके से जरूर विचार किया जाना चाहिए।
 
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