गंगोत्री तीर्थ


यदि हम भारत को गंगा-संस्कृति का देश कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि यहां के जनमानस में गंगा उनके जीवन का अभिन्न अंग है जन्म से मृत्यु तक और उसके उपरान्त भी गंगा गंगाजल प्राण से जुड़ा है कोई भी हिन्दू गंगाजल की उपेक्षा नहीं कर सकता। इसी दिव्य प्राणदेनी नदी के लिए माना जाता है कि गंगोत्री में गंगा का अवतरण हुआ था। गंगोत्री तीर्थ ही वह जगह है जहां सर्वप्रथम गंगा का अवतरण हुआ था । हिमानी के क्रमश: पिघलते रहने पर यह उद्गम 18 किमी0 पीछे गोमुख में चला गया।

महाभारत में इस तीर्थ का परिचय गरूड़ के मुख से गलव ऋषि ने इस प्रकार कराया है 'यहीं आकाश से गिरती हई गंगा को महादेव जी ने अपने मस्तक पर धारण किया और उन्हें मनुष्य लोक में छोड़ दिया।' 'यहीं भगीरथ के अनुरोध से गंगा स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतरित हुईं व उत्तरवाहिनी बनीं उसे गंगोत्री (गंगोत्तरी) कहा गया।

1816 में जब जेम्स वेली फ्रेजर के दल के लोग यहां पहुचे तो तीर्थ के वातावरण व दृश्यों को देखकर चकित रह गये थे। छ: माह के शीतकाल के दौरान गंगोत्री मंदिर के पट बन्द हो जाते हैं फिर ग्रीष्म काल में खुलते हैं। अक्षयतृतीया के दिन मुखवा जिसे मां गंगा का मायका कहते हैं, से पूरी भव्यता के साथ मां गंगा की डोली विभिन्न पड़ावों से होकर गंगोत्री पहुंचती है।। इस मंदिर के कपाट खुलने के इस अनोखे दृश्य को देखने के लिए देश-विदेश से यात्री व श्रद्वालुओं का आवागमन पहले ही शुरू हो जाता है मीडिया में इसे कैमरों में कैद करने के अलावा टीवी चैनलो के माध्यमों द्वारा जीवंत दृश्यों प्रसारण किया जाता है।

जब अन्यत्र गर्मी का भीषण प्रकोप बढता जाता है यहां मौसम खुशगवार व सुहावना होता है रात को ठंड होती है। गंगोत्री उत्तराखण्ड चारधाम यात्रा का का एक प्रमुख धाम है। इस धाम के लिए ऋषिकेश से उत्तरकाशी, भटवाड़ी से गंगनानी, हर्षिल, मुखवा, धराली, भरौघाटी होते हुए वाहन से पहुँचा जा सकता है। यात्रामार्ग में चिन्याडीसौड, बडेथी, धरासु, डुंडा, नाकुरी, मातली, ज्ञानसु, उत्तरकाशी, जोशीयाडा, गंगोरी, नेताला, भडवाडी, सुक्की टॉप गंगनानी, हर्षिल,धराली गंगोत्री आदि स्थानों पर रहने व ठहरने की व्यवस्था है ।

भगीरथी का तट तथा गंगा मंदिर गंगोत्री


पर्वतों से घिरे भारी शिलाखंडों व धरातलीय स्थिति के कारण जब तक कोई गंगोत्री के निकट नहीं पंहुचा जाता तब तक इस तीर्थ की स्थिति का पता ही नहीं चल पाता। रास्ते के तमाम बाधाओं को पार कर जब तीर्थ यात्री गंगोत्री पहुंचते है तो यहां के सुन्दर प्राकृतिक दृश्य देख सारी थकान भूल जाते हैं और पंहुच जाते है गंगा के करीब उद्गम के आस-पास। यह सोच कर भी रोमांच से भर उठते है कि यही वह जगह है जहां जीवनदायिनी मां गंगा धरती पर आयीं।

प्राचीन काल में इस स्थान में कोई मंदिर नहीं था। केवल भागीरथ शिला के पास चौतरा था जिसमें देवीमूर्ति को यात्राकाल के 3-4 मास दर्शनार्थ रखा जाता था। तब इस मूर्ति को उत्सव समारोह के साथ यात्राकाल के प्रारम्भ में अनेक बदलते रहते मठस्थान, क्रमश: श्यामप्रयाग, गंगामंदिर धराली या मुखवा ग्राम ये लाया जाता था तथा यात्राकाल की समाप्ति पर वहीं वापस लाया जाता था। यह प्रथा उत्तराखण्ड के अन्य तीर्थो में भी थी और इस प्रकार प्रत्येक तीर्थ देवता के ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन आवास पृथक होते थे। यह प्रथा जारी है। यमुनोत्री व गंगोत्री तीर्थो की यह विशेषता भी रही कि यहां मंदिर बनाना उचित नहीं समझा गया कारण यह भी कि जहां स्वयं देवी माता साक्षात स्वरूप में विद्यमान हैं और भक्तों तथा पापियों का उद्वार करने के लिए कुण्ड की अथवा प्रवाह रूप में सुलभ हैं वहां मूर्ति रखने की क्या आवश्यकता है ?

वेदव्यास ने ब्रह्म की अराधना को प्रकृति के खुले प्रांगण में करने को ही सर्वोपरि बताया था व नदियों को विश्वमाता बताते हुए घोषित किया था कि 'विश्वस्य मातर:सर्वश:चैव महाफला।' फ्रेजर को उन्नीसवीं शती ई0 के प्रारम्भ में मिली जानकारी पूर्ण ऐतिहासिक थी कि पहले यहां कोई मंदिर नहीं था। रीपर द्वारा भेजे गये पंडित ने 1808 ई0 में जो सूचना दी थी उसके अनुसार मंदिर पत्थर और लकड़ी का बना था।

उन्नीसवीं शती के मध्य में पुन: वहां एक प्रकृति प्रेमी एमा रार्बट का खोजी दल पंहुचा वहां के मनोरम दृश्य का तूलिका से चित्रण करने के उपरान्त यह संक्षिप्त सूचना भी दी कि भागीरथी धारा से 20 फूट ऊंचाई पर एक चट्टान के ऊपर एक गोरखा सामन्त ने अपनी विजय के प्रतीकार्थ यहां देवी के सम्मान में यह छोटा पैगौडा शैली का मंदिर बनवाया था। भारत के विभिन्न भागों को जाने वाले गंगाजल पर यहां पवित्रता की मुहर लगायी जाती है। मंदिर का निर्माण किसने करवाया इस बारे में एक राय नहीं है।

1816 में जब फ्रेजर ने नया विवरण प्रस्तुत किया तो गंगोत्री का पंडित व उसके परिवार के सदस्यों का मुखवा ग्राम में रहने का उल्लेख मिलता है यह भी पता चलता है कि 1788 ई0 में गंगोत्री का मठ उजडा हुआ था। जिससे यह तथ्य भी ध्यान में आता है कि मंदिर का निर्माण इस तिथि से पहले हो चुका था संभवत पहले वहां लकडी का मंदिर था। गंगोत्री का वर्तमान मंदिर बनाने का श्रेय बीसवीं शती ई0 के प्रारम्भ में जयपुर नरेश माधोसिहं को दिया जाता है। मंदिर के गवाक्ष राजस्थानी शैली के तथा बरामदे के स्तम्भ राजस्थानी पहाडी शैली के मिश्रित स्वरूप में बने हैं, गर्भगृह में गंगा की आभूषण-युक्त मूर्ति है। गंगा मंदिर के समीप ही भैरव मंदिर भी है।

गंगोत्री एक खुबसुरत शहर है सर्दियों में यह बर्फ से ढका रहता है विदेशी इसे बहुत पसन्द करते है विदेशियों में यह ट्रेंकिग के लिए भी लोकप्रिय है गौमुख व उससे आगे भी ट्रेकिंग पर जाते हैं। तीर्थ यात्रा के अलावा यह एक प्रमुख पर्यटक स्थल है यह शहर दो भागों में बंटा है भागीरथी के दोनो किनारों पर बसा है ।

1808 में जब गंगा स्रोत की खोज का कार्य ईस्ट इंडिया कम्पनी के सर्वेयर जनरल के आदेश पर कैप्टन रीपर तथा ले0 वेब को सौंपा गया था। रीपर ने तब भटवाड़ी तक यात्रा की थी। परन्तु विकट मार्ग होने के कारण आगे नहीं बढ़ पाया, वह लिखता है कि हिन्दू धर्म में गंगोत्री की यात्रा एक महान कार्य बतायी जाती है,1816 में उत्तराखण्ड पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का अधिपत्य होते समय हिमाचल जौनसार, यमुनोत्री होते हुए गंगोत्री पहुंचा था उसने द हिमाला माउन्टेन पृ0479 में लिखा -- 'हम इस समय विश्व के विलक्षण हिमालय के मध्य में शायद सर्वाधिक उबड़-खाबड़ गिरि-श्रृंगों के मध्य में खडे भारत की पवित्रतम नदी को निहार रहे थे। हिमालय के तीर्थों में सर्वाधिक पवित्र इस तीर्थ की विराट नीरवता,स्तब्धता और एकान्तिकता हमारे मस्तिष्क में अवर्णीय अनुभूति का संचार कर रही थी ।

गंगोत्री मंदिर के निकट ही भागीरथी एक फलांग आगे पश्चिम दिशा में विशाल चट्टानों को चीरती हई एक चट्टानी गर्त में भंयकर वेग व गर्जना से प्रताप बनाती हुई गिरती है। इसे गौरीकुण्ड कहते हैं।

भागीरथी शिला से नीचे नहाने के लिए गर्म जल का प्राकृतिक स्रोत हैं जिसे ब्रह्मकुण्ड कहा जाता है।
 

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