गंगा तट पर कुम्भ पर्व

विश्व के सबसे बड़े कुम्भ मेले भारत के चार स्थानों पर आयोजित होते हैं। इनमें से गंगा तट पर बसे हरिद्वार और प्रयाग का अधिक महत्त्व माना जाता है। गंगा तट पर कुम्भ के ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व को रेखांकित करती एक रिपोर्ट-
हरिद्वार में कुम्भ का एक दृश्यहरिद्वार में कुम्भ का एक दृश्यहरिद्वार हिन्दुओं का विश्व प्रसिद्ध तीर्थ है। पुण्यसलिला गंगा इसकी पहचान है। गंगोत्री से उतरकर पर्वत की उपत्यकाओं को पार करती माँ गंगा की धारा समतल धरती पर सर्वप्रथम हरिद्वार में ही प्रवाहित होती है। कुम्भ और अर्द्धकुम्भ, जो हिन्दू धर्म के ही नहीं, पूरी दुनिया के विशालतम धार्मिक आयोजन कहे जा सकते हैं, हरिद्वार और प्रयाग में गंगा के तट पर ही आयोजित होते हैं। वहीं गंगा, जिसके विषय में मान्यता है कि कोसों दूर से उसका नामोच्चार करने मात्र से ही स्वर्ग प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। श्रद्धालु मानते हैं कि गंगा के पावन जल का स्पर्श मात्र जीवन के सारे कल्मष धो देता है। कुम्भ पर्वों पर गंगा स्नान अमृतत्व और मोक्ष प्रदान करता है। उनका यही विश्वास कुम्भ मेलों की सैकड़ों वर्ष पुरानी परम्परा का आधार है।

हरिद्वार को गंगाद्वार भी कहा गया। पतितपावनी गंगा मैया के कारण ही हरिद्वार का उल्लेख मोक्षदायिका सप्तपुरियों में मायापुरी के रूप में किया गया है :-
अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवंतिका, पुरी द्वारावती चैव सप्तैतां मोक्षदायिका।
पौराणिक कथाओं के अनुसार, कुम्भ पर्व का आयोजन अमृत मंथन से जुड़ा हुआ है। क्षीरसागर का मंथन देवों तथा असुरों ने मिलकर किया। कच्छप रूप धारण किए भगवान विष्णु की पीठ पर मन्दराचल को मथानी बनाकर रखा गया और नागराज वासुकि को रस्सी बनाकर समुद्रमंथन का वृहद यज्ञ आरम्भ हुआ। इससे 14 रत्न प्राप्त हुए :-
लक्ष्मी: कौस्तुभ पारिजातक सुरा धन्वन्तरिश्चन्द्रमा, गाव: कामदुधा सुरेश्वरगजौ रम्भादिदेवांगना। अश्व: सप्तमुख: सुधा हरिधनु: शंखो विषं चाम्बुधे, रत्नानीति चतुर्दशप्रतिदिनम् कुर्वन्तु ने मंगलम्।

मंथन से प्राप्त होने वाले रत्नों विष, वारुणी, ऐरावत गज, अश्व, लक्ष्मी, रम्भा, कौस्तुभ मणि, कामधेनु, पारिजात, चन्द्रमा आदि में अमृतकुम्भ लिए धन्वन्तरि सबसे बाद में निकले। उसे देखते ही इन्द्रदेव के पुत्र जयंत ने झपट्टा मारा और अमृत कुम्भ लेकर भागने लगा। इससे गुस्साए असुर उसके पीछे भागे। देवता अमृत की रक्षा के लिए दौड़े। जयंत अमृतघट लिए 12 दिनों तक पूरे ब्रह्मांड में भागते रहे, जो मनुष्य लोक के 12 वर्षों के बराबर थे। इस दौरान जिन 12 स्थानों पर उसने अमृतकलश रखा, उन्हीं स्थानों पर कुम्भ पर्व की परंपरा पड़ी। उनमें से आठ तो देवलोक में माने जाते हैं तथा शेष चार पृथ्वी पर भारत में स्थित हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार देवताओं के गुरु बृहस्पति, सूर्य और चन्द्रमा ने अमृत घट की रक्षा में विशेष भूमिका निभाई। अत: उन तीनों की विशिष्ट स्थितियों में ही हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में कुम्भ का योग बनता है। चार कुम्भ पर्वों के अतिरिक्त दो अर्द्धकुम्भ भी आयोजित होते हैं और दोनों ही गंगा के तट पर। एक हरिद्वार में और दूसरा प्रयाग में। हरिद्वार में कुम्भ सम्पन्न होने के तीन वर्ष बाद प्रयाग अर्द्धकुम्भ की बारी आती है। उसके तीन वर्ष बीतने पर हरिद्वार में अर्द्धकुम्भ आयोजित होता है।

हरिद्वार में कुम्भ का योग देवगुरु बृहस्पति के कुम्भ राशि में पहुँचने पर बनता है। बृहस्पति अपने संक्रमण के दौरान 12 राशियों में से प्रत्येक में एक-एक वर्ष रहता है। अर्थात किसी एक राशि में वह पुन: 12 वर्षों के बाद पहुँचता है। चूँकि कुम्भ पर्व बृहस्पति की स्थिति पर ही निर्भर करता है, इसलिए वह कुछ अपवाद के साथ प्रत्येक बारहवें वर्ष आयोजित होता है। बृहस्पति वस्तुत: 12 राशियों की अपनी परिक्रमा 11 वर्ष 11 महीने तथा 27 दिनों में पूरी करता है। फलत: 12 वर्षों के इस अवधि में 505 दिन कम हो जाते हैं। सातवें और आठवें कुम्भ के बीच यह कमी एक वर्ष की हो जाती है। इसलिए हर सातवें और आठवें कुम्भ के बीच का अन्तराल 12 के स्थान पर 11 वर्षों का होता है। इसी गणना के अनुसार 2010 के हरिद्वार कुम्भ के बाद वहाँ अगला कुम्भ 2022 में नहीं, 2021 में पड़ेगा।

हरिद्वार के अतिरिक्त शेष तीन स्थानों पर कुम्भ के समय की ग्रह स्थितियाँ भिन्न हैं। प्रयाग में बृहस्पति वृषस्थ और सूर्य मकरस्थ हो तो कुम्भ लगता है, जबकि उज्जैन में यह पर्व बृहस्पति के सिंहस्थ तथा सूर्य और चन्द्रमा के मेषस्थ होने पर आयोजित होता है। नासिक में इस पर्व के समय बृहस्पति सहित सूर्य-चन्द्र भी सिंहस्थ होते हैं। उज्जैन में कुम्भ क्षिप्रा और नासिक में गोदावरी नदी के किनारे सम्पन्न होता है।

यह महज संयोग नहीं है कि कुम्भ पर्वों के दो स्थान गंगा तट पर अवस्थित हैं। यह वस्तुत: पुण्यतोया मोक्षदायिनी माँ गंगा की महिमा है। गंगा स्वर्ग से धरती पर मनुष्य जाति के उद्धार के लिए ही अवतरित हुई। उसके पावन जल का स्पर्श पाकर भागीरथ के साठ हजार पूर्वजों को मोक्ष प्राप्त हो गया। उसकी इस अद्भुत तारण शक्ति में प्रगाढ़ आस्था ही गंगा किनारे सम्पन्न होने वाले कुम्भ पर्वों में लाखों-करोड़ों हिन्दुओं को आकृष्ट करती है। उन्हें यह दृढ़ विश्वास भी है कि चारों कुम्भ स्थलों पर अमृत घट से जो बूंदें छलकीं, उनके कारण वहाँ के कुम्भ पर्व मोक्षदायी बन गए।

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