गंगा : संकट नदी का नहीं, पानी का

अरवरी, अब राजस्थान की एक अनजान नदी नहीं रही। वह वक्त के इतिहास में पुनर्जीवित हुई पहली नदी दर्ज हो गई है। आखिर कोई नदी क्यों मर गई और दोबारा कैसे जिंदा हुई? नदियों पर अब कौन सा ‘पहाड़’ टूटने वाला है? ऐसे सवाल युवा पीढ़ी ने खड़े किए। न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा के जलवायु सम्मेलन में जिस तरह लखनऊ की नौवीं की छात्र युगरत्ना ने पिघलते ग्लेशियर और ग्रीन हाउस गैसों पर प्रश्नों की बौछार की, उससे जाहिर है कि नई पीढ़ी भविष्य के खतरे पहचानती है। गायब होती हरियाली और तेजी से बढ़ता शहरीकरण हमें जिस रास्ते पर लेकर चला है, उस पर ठिठकने की जरूरत है।

कुछ समय पहले राजस्थान के अलवर जिले के भीकमपुरा गाँव में हुए नदी संरक्षण सम्मेलन ने अपना एजेण्डा जाहिर कर दिया है। पानी प्रेमी गंगा को राष्ट्रीय प्रतीक घोषित करने भर से मुतमईन नहीं हैं। सम्मेलन के बहाने नदियों का इकोलॉजिकल फ्लो बरकरार रखने व बायोडाइवर्सिटी बहाल करने की माँग उठाई गई। गंगा बेसिन अथॉरिटी के जरिए नदी का सीमांकन और उसकी जमीन पर हुए अतिक्रमण को हटाने का मुख्य लक्ष्य रखा गया है। अतिक्रमण से मुक्ति के बाद हरितपट्टी का विकास और जमीन का नोटिफिकेशन इस एजेण्डा का फोकस है और शायद यही वक्त की सबसे पहली जरूरत भी।

नदियों के सिर पर मंडरा रहे खतरे और उनके दुष्परिणाम अब समझ में आने लगे हैं। ऐसे कठिन वक्त में जब गर्मियों में गंगा की धारा नदारद होने लगती हो, तब छोटी-छोटी नदियों को मौत से बचाने की जिम्मेदारी निभाना बड़ी चुनौती होगी। हमें छोटी नदियों के प्रति असंवेदनशील नहीं होना चाहिए।

नदी बचाने का मकसद सिर्फ पानी से नहीं, नदी से जुड़े जनजीवन से ज्यादा है। पवित्रता गंगा जल में है, मगर हमें सभी नदियों में ‘आबेजमजम’ की तलाश करनी होगी। धर्मग्रंथ भी अंतत: हमें यही सिखाते हैं। पानी के संरक्षण के लिए महाकुम्भ की प्रतीक्षा के बजाय नित जीवन में इसे उतारना होगा।

अरावली पर्वतमाला के अप्रतिम सौन्दर्य को निहारते हुए जब आप अरवरी नदी का किस्सा सुनेंगे तो आँख छलक पड़ेगी। सरिस्का के इन्हीं पहाड़ों और जंगलों के बीच अरवरी पैदा हुई, मरी और फिर पुनर्जन्म लेकर आ गई.. अब अरवरी के मायके में गंगा का दर्द महसूस किया गया है। गंगोत्री से गंगा सागर तक गंगा की धारा पर हुए अतिक्रमण हटाए बिना क्या उसका मूल चरित्र बरकरार रह सकता है? नदी और उसके मूल तत्वों पर अतिक्रमण ही भयंकर खतरा है। नदी की सीमा का चिन्हांकन और भूजल का पुनर्भरण नहीं शुरू हुआ तो पानी का बड़ा संकट सामने आएगा।

पहाड़ों का खनन और वनों की कटान रोकनी होगी। यह पहली जरूरत है कि गंगा भूमि पर पौधारोपण हो और उसे संरक्षित क्षेत्र घोषित किया जाए। नदी पर अतिक्रमण के नए-नए रूपों पर नजर रखनी होगी। तट पर पक्का निर्माण भर अतिक्रमण नहीं, आसमान से शुरू हुई तेजाबी बारिश के पीछे प्रदूषण भी तो अंतत: पानी की शुद्धता पर अतिक्रमण ही है। पानी का प्रेम धर्मसत्ता से जुड़े लोगों को महसूस करना होगा। हरिद्वार, काशी के मठ-आश्रमों के संचालक हों या फिर मदरसों से तकरीर देते मौलाना। गंगोत्री से गंगा सागर तक गंगा की यात्रा में आने वाली एक-एक मुश्किल को फेहरिस्त में दर्ज करना होगा। फूलों और मूर्तियों का कचरा हो या फिर कारखानों से निकले रसायन या गंगा एक्सप्रेस-वे के बहाने नदी की जमीन पर सरकारी अतिक्रमण।

गंगा साझा सम्पत्ति है, ट्रस्टी की तरह हमें उसकी आत्मा बचानी है। राजीव गांधी के गंगा एक्शन प्लान ने बनारस और कानपुर की शहरी सभ्यता के बीच ही दम तोड़ा है। इससे सीख लेनी होगी। जल सहेजने के लिए देश में एक पूरी जल बिरादरी खड़ी होनी चाहिए। कैसे अरवरी नदी घाटी के लोगों ने परम्परागत ज्ञान के जरिये सूखी नदी को 22 वर्षो में सदानीरा बना दिया। घाटी के 72 गांवों में जल के लिए संसद बनी और बारिश की बूंदें सहेजकर धरती के पेट में भर दी गईं।

नर्मदा नदी की 2600 किलोमीटर परिक्रमा करने वाले वयोवृद्ध चित्रकार अमृतलाल बेगड़ जब नदियों के पुनर्जीवन की कथा के पन्ने पलटने सात-आठ सौ मीटर ऊंचाई पर पहुँचे तो सरिस्का के पहाड़ों के बीच एक चेकडैम के पास सफलता का शिलालेख गड़ा मिला। यह वही स्थान है जहाँ भगाणी नदी का कैचमेंट एरिया है। इस गाँव मांडलवास का नाम वर्षो बाद सरकारी कागजों में दर्ज हुआ है। वहाँ के बाशिंदों ने सबक दिया है कि नदी की कोख पर अतिक्रमण रोकिए और बारिश का पानी धरती के पेट में भरिए, तय है नदी बच जाएगी।

लेखक हिन्दुस्तान से जुड़े हैं

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