गंगा समा रही हैं कमंडल में

जीवनदायिनी और पावन गंगा के प्रवाह का क्षेत्र


लखनऊ । कभी फिल्म जगत के शोमैन राजकपूर ने अपनी फिल्म 'राम तेरी गंगा मैली' के एक गाने में कहा था कि पापियों के पाप धोते-धोते गंगा मैली हो गई। तब लोगों को यह गाना महज फंतासी नजर आया था लेकिन आज यह एक ऐसी हकीकत है जिससे मुंह चुराना किसी के लिए आसान नहीं रह गया है क्योंकि कभी भगीरथ के तप से धरती पर आई गंगा अब कमंडल में समाती जा रही हैं। कभी शुद्धता और पवित्रता का मानक रही गंगा का पानी आज पीना तो दूर नहाने के काबिल नहीं रहा। गंगा सफाई के लिए बनी कार्ययोजना भ्रष्टाचार के दलदल में फंस कर रह गई है । यही वजह है कि वर्ड हैरिटेज में शामिल गंगा तीसरे स्थान से खिसक कर तेरहवें पायदान पर आ गई है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश में होने वाली बीमारियों में 9 से 12 फीसदी बीमारियों की वजह गंगा जल है क्योंकि रोजाना हम घरेलू नाले का 25 करोड़ लीटर गंदा पानी और 334 नगरों का 45 करोड़ लीटर नाले का पानी बिना शोधन के सीधे गंगा में डाल दिया जाता है। 2006 में इलाहाबाद हाईकोर्ट की खंडपीठ ने नरौरा बांध से 3500 एमएलडी पानी छोड़ने के निर्देश दिए थे लेकिन आज तक 300 एमएलडी पानी ही गंगा में प्रवाहित किया जा रहा है ।

पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा 14 जून 1986 को बनारस के राजेंद्र प्रसाद घाट से शुरू किए गए गंगा एक्शन प्लान पर अब तक दो-तीन हजार करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं लेकिन उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़े ही बयां करते हैं कि गंगा के किनारे बसे प्रमुख शहरों- इलाहाबाद, कानपुर, वाराणसी, फर्रुखाबाद, कन्नौज, बलिया और मिर्जापुर में मात्र चालीस प्रतिशत नालों की ही गंदगी सीवेज शोधन संयंत्र (एसटीपी) से साफ होती है। बाकी साठ प्रतिशत सीधे नदी में जाती है। इसकी वजह भी साफ है क्योंकि 9510 हेक्टेयर में पसरे इलाहाबाद शहर में सिर्फ 2013 हेक्टेयर में ही सीवर लाइनें पड़ी हुईं हैं। 78 फीसदी इलाहाबाद सीवर लाइनों से महरूम है। इस शहर में 89 एमएलडी सीवेज शोधन संयंत्र लगे हैं। 57 नालों वाले इस शहर में केवल 21 नाले ही टैप किए जा सके हैं। कमोवेश ऐसी ही स्थिति वाराणसी में भी है। 100058 हेक्टेयर क्षेत्रफल में पसरे इस शहर के 84 फीसदी इलाके सीवेज से अनाच्छादित हैं। सिर्फ 1636 हेक्टेयर में सीवर लाइने हैं। 296 एमएलडी सीवेज रोजाना शहर से निकलता है जबकि सिर्फ 102 एमएलडी को ही शोधित करने के संयंत्र लगे हैं। गंगा में गिरते लगभग दो दर्जन नाले गंगा कार्ययोजना की पोल खोलते हुए देखे जा सकते हैं। कटान और सिल्ट की वजह से गंगा ने यहां अपना रुख ही बदल दिया है। गंगा के किनारे पड़ने वाले तीसरे महत्वपूर्ण शहर कानपुर में भी 71 फीसदी इलाके सीवेज की सुविधा से वंचित हैं। यहां 426 एमएलडी सीवेज रोज निकलता है लेकिन 162 एमएलडी सीवेज शोधन का संयंत्र लगा है। शहर के 48 नालों में से 18 ही टैप किए जा सके हैं । पांच सीधे गंगा में गिरते हैं। चार सौ दो टेनरियों वाले इस शहर में 24 ही ऐसे हैं जहां कचरा निस्तारण संयंत्र हैं।

उत्तर प्रदेश में गंगा और सहायक नदियों के सहारे 24 डिस्टलरी, 47 चीनी मिलें, 31 पेपर मिलें, चार केमिकल उद्योग तथा 26 अन्य उद्योग लगे हैं। फर्रूखाबाद का अस्सी प्रतिशत गंदा पानी सीधे गंगा में जाता है। एक मोटे अनुमान के अनुसार फतेहगढ़-फर्रुखाबाद से 14 एमएलडी गंदा पानी निकलता है लेकिन बिजली की कमी से केवल 2.78 एमएलडी ही शोधित हो पाता है। कन्नौज में पुराने घाट से लेकर हरदोई रोड स्थित महादेवी घाट तक गंगा गंदा नाला बन गई है। कई जगहों पर गंगा जल काला पड़ गया है।

आईआईटी कानपुर में सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रो. राजीव सिन्हा के एक अध्ययन में यह रहस्योद्घाटन हो चुका है कि गंगा सफाई कार्ययोजना के बाद गंगा में बैक्टीरिया की संख्या दस गुना हो गई है। गंगा को प्रदूषित करने में सबसे बड़ी भूमिका उत्तर प्रदेश की और दूसरे स्थान पर कोलकाता की है। उत्तर प्रदेश में गंगा मलीय कोलीफार्म, ईशिचरिया, कोलाई, इंटरीकोकाई, आदि एमिबियेसिस, डायरिया और हैजा आदि रोगों से भर जाती है। नतीजतन गंगा का पानी पीने वाले इलाकों में एंटी बायोटिक्स दवाएं बेअसर हो रही हैं। एक शोध में 22 एंटी बायोटिक व एंटी माइक्रोबियल दवाओं के बेअसर होने के नतीजे सामने आए हैं। कभी गंगा के जल में ऑक्सीजन की मात्रा आठ से 12 पार्ट प्रति मिलियन (पीपीएम) हुआ करती थी। जो कई बार घटकर तीन-चार रह जाती है। टीएसएस पांच मिलीग्राम प्रति लीटर अनुमन्य है जबकि गंगा जल में तीस मिलीग्राम उपस्थित है। सौ मिली लीटर पानी में पांच सौ एमपीएन (मोस्ट प्रोपेबल नंबर मेथर्ड) तक होना चाहिए लेकिन गंगाजल में 2500 एमपीएन है।

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