सम्मेलन में यह तय किया गया कि गंगा को लेकर मौजूदा केन्द्र सरकार की प्रस्तावित प्रकृति और जनविरोधी परियोजनाओं से प्रभावित विस्थापित होने वाले लोगों को साथ लेने के साथ उन्हें भी समझाया जाए्गा जो दिग्भ्रमित होकर ऐसी जनविरोधी परियोजनाओं का गाहे-बगाहे समर्थन कर रहे हैं। सम्मेलन में बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के मुख्यमन्त्रियों द्वारा गंगा की अविरलता को नष्ट करने वाली प्रस्तावित परियोजनाओं के विरोध को सही बताते हुए उनसे भी इस लड़ाई में शामिल होने की अपील की गई। वाराणसी 11 अप्रैल। हिमालय से गंगासागर तक प्रवाहित गंगा सहित विभिन्न नदियों की अविरलता और इन पर टिकी लोगों की आजीविका के सवाल पर शुरू हुए गंगा मुक्ति आन्दोलन के भावी संघर्ष का केन्द्र अब वाराणसी होगा क्योंकि सरकार की विभिन्न परियोजनाओं का भयावह ख़ामियाज़ा प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के इस निर्वाचन क्षेत्र के ही ज्यादा लोग भोगने को विवश होंगे।
यह फैसला यहाँ शुरू हुए गंगा मुक्ति आन्दोलन, साझा मंच और सर्वसेवा संघ की ओर से चल रहे गंगा से सम्बन्धित आन्दोलनकारियों, विशेषज्ञों और बुद्धिजीवियों के सम्मेलन में किया गया। सम्मेलन में गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक विभिन्न इलाकों में चल रहे आन्दोलनों के लोग भी भाग ले रहे हैं। सम्मेलन के समापन पर हजारों नाविकों, मछुआरों और मजदूरों की मौजूदगी में भावी संघर्ष की रणनीति पर केन्द्रित बनारस घोषणा भी जारी की जाएगी।
शुक्रवार से सर्वसेवा संघ के सभागार में शुरू हुए इस सम्मेलन के दूसरे दिन शनिवार को ज्यादातर वक्ता इस बात पर सहमत दिखे कि अब गंगा सहित विभिन्न नदियों के साथ हो रहे खिलवाड़ के खिलाफ देश भर में चल रहे विभिन्न आन्दोलनों के समाजकर्मियों को एकजुट हो जाना चाहिए और एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन चलाया जाना चाहिए।
सम्मेलन में यह तय किया गया कि गंगा को लेकर मौजूदा केन्द्र सरकार की प्रस्तावित प्रकृति और जनविरोधी परियोजनाओं से प्रभावित विस्थापित होने वाले लोगों को साथ लेने के साथ उन्हें भी समझाया जाए्गा जो दिग्भ्रमित होकर ऐसी जनविरोधी परियोजनाओं का गाहे-बगाहे समर्थन कर रहे हैं।
सम्मेलन में बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के मुख्यमन्त्रियों द्वारा गंगा की अविरलता को नष्ट करने वाली प्रस्तावित परियोजनाओं के विरोध को सही बताते हुए उनसे भी इस लड़ाई में शामिल होने की अपील की गई। इसी के साथ हरिद्वार में अवैध खनन के खिलाफ स्वामी शिवानन्द द्वारा पिछले 12 दिनों से आमरण अनशन को लेकर एक प्रस्ताव पारित किया गया।
गंगा बेसिन : सरंक्षण और चुनौतियाँ पर आयोजित सम्मेलन में गंगा मुक्ति आन्दोलन के प्रणेता अनिल प्रकाश ने भावी संघर्ष को 'अभी नहीं तो कभी नहीं' कहते हुए कहा कि नदियों का सवाल केवल मछुआरों, मल्लाहों, नाविकों और किसानों का ही नहीं और न ही किसी एक खास धर्म का सवाल है।
यह सवाल सभी धर्मों के लोगों की आजीविका, अस्मिता और आबरू का भी सवाल है और ऐसे में बगैर दूरगामी दुष्परिणामों का आकलन किए सरकारों को प्रकृति और जनविरोधी परियोजनाओं को लागू करने की छूट दे देंगे तो यह देश नहीं बचेगा।
सम्मेलन में ज्यादातर वक्ताओं ने इस बात पर सहमति जताई कि गंगा की गति को बाधित कर केवल सफाई और तथाकथित आर्थिक विकास की परियोजना लागू करने से न गंगा बचेगी और न ही इससे सीधे जुड़े 50 करोड़ से ज्यादा लोग बचेंगे।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक प्रो. दीपायन ने कहा कि उदारवादी नीतियों की आलोचना करते हुए कहा कि सरकारें लोगों को दिग्भ्रमित कर केवल कारपोरेट वर्ग का उल्लू सीधा करने में लगी है। उन्होंने गाँधीवादी मॉडल का समर्थन करते हुए कहा कि पश्चिमी विकास के मॉडल के विकल्प के गाँधी ने गाँव को उत्पादन का केन्द्र माना था। वही अफ़सर जाफरी ने कहा कि पीपीपी मॉडल से देश का भला नहीं होने वाला है। अफलातून ने कहा कि गंगा को लेकर शुरू हुई लड़ाई केवल गंगा के तटीय निवासियों की लड़ाई नहीं है। उन्होंने आन्दोलनकारियों से इस लड़ाई को समग्रता में देखने की अपील करते हुए कहा कि यह लड़ाई अपने देश के वजूद को बचाने की लड़ाई है। भरत झुनझुनवाला ने आन्दोलन को व्यापक बनाने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा कि नदियों के किनारे सरकार की प्रस्तावित परियोजनाओं से प्रभावित विस्थापित होने वाले लोगों को भी इस आन्दोलन से जोड़ा जाना चाहिए।
इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार प्रसून लतांत ने कहा कि तीन दशक पहले आरम्भ हुए गंगा मुक्ति आन्दोलन की जरूरत आज पहले से कहीं ज्यादा है। जनआधारित इस आन्दोलन को पहले भी गंगा को जमींदारों से मुक्ति दिलाने में कामयाबी मिली थी और आगे भी यह आन्दोलन सरकार को जनता के पक्ष में झुकने को विवश करेगा।
इस मौके पर पियुष, उदय, अनिल चमड़िया, प्रहलाद गोयनका, सुरेश भाई, प्रो. दीपायन, अफसर जाफरी, गोपाल कृष्णा, तापस दास कविता कर, जागृति राही, आनन्द प्रकाश तिवारी, कुमार कृष्णन, अशोक भारत, रणजीव, अशोक झा, अमरनाथ भाई, केसर सिंह, मो हुमायूं, राजपूजन, किशोर जायसवाल सहित विभिन्न जन संगठनों के प्रमुखों ने भी अपने विचार रखे और गंगा मुक्ति आन्दोलन के भावी संघर्षों के प्रति एकजूटता भी दिखाई। सम्मेलन के दौरान ' द डे आफ्टर मंथ' के गंगा विशेषांक का लोकापर्ण किया गया।
यह फैसला यहाँ शुरू हुए गंगा मुक्ति आन्दोलन, साझा मंच और सर्वसेवा संघ की ओर से चल रहे गंगा से सम्बन्धित आन्दोलनकारियों, विशेषज्ञों और बुद्धिजीवियों के सम्मेलन में किया गया। सम्मेलन में गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक विभिन्न इलाकों में चल रहे आन्दोलनों के लोग भी भाग ले रहे हैं। सम्मेलन के समापन पर हजारों नाविकों, मछुआरों और मजदूरों की मौजूदगी में भावी संघर्ष की रणनीति पर केन्द्रित बनारस घोषणा भी जारी की जाएगी।
शुक्रवार से सर्वसेवा संघ के सभागार में शुरू हुए इस सम्मेलन के दूसरे दिन शनिवार को ज्यादातर वक्ता इस बात पर सहमत दिखे कि अब गंगा सहित विभिन्न नदियों के साथ हो रहे खिलवाड़ के खिलाफ देश भर में चल रहे विभिन्न आन्दोलनों के समाजकर्मियों को एकजुट हो जाना चाहिए और एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन चलाया जाना चाहिए।
सम्मेलन में यह तय किया गया कि गंगा को लेकर मौजूदा केन्द्र सरकार की प्रस्तावित प्रकृति और जनविरोधी परियोजनाओं से प्रभावित विस्थापित होने वाले लोगों को साथ लेने के साथ उन्हें भी समझाया जाए्गा जो दिग्भ्रमित होकर ऐसी जनविरोधी परियोजनाओं का गाहे-बगाहे समर्थन कर रहे हैं।
सम्मेलन में बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के मुख्यमन्त्रियों द्वारा गंगा की अविरलता को नष्ट करने वाली प्रस्तावित परियोजनाओं के विरोध को सही बताते हुए उनसे भी इस लड़ाई में शामिल होने की अपील की गई। इसी के साथ हरिद्वार में अवैध खनन के खिलाफ स्वामी शिवानन्द द्वारा पिछले 12 दिनों से आमरण अनशन को लेकर एक प्रस्ताव पारित किया गया।
गंगा बेसिन : सरंक्षण और चुनौतियाँ पर आयोजित सम्मेलन में गंगा मुक्ति आन्दोलन के प्रणेता अनिल प्रकाश ने भावी संघर्ष को 'अभी नहीं तो कभी नहीं' कहते हुए कहा कि नदियों का सवाल केवल मछुआरों, मल्लाहों, नाविकों और किसानों का ही नहीं और न ही किसी एक खास धर्म का सवाल है।
यह सवाल सभी धर्मों के लोगों की आजीविका, अस्मिता और आबरू का भी सवाल है और ऐसे में बगैर दूरगामी दुष्परिणामों का आकलन किए सरकारों को प्रकृति और जनविरोधी परियोजनाओं को लागू करने की छूट दे देंगे तो यह देश नहीं बचेगा।
सम्मेलन में ज्यादातर वक्ताओं ने इस बात पर सहमति जताई कि गंगा की गति को बाधित कर केवल सफाई और तथाकथित आर्थिक विकास की परियोजना लागू करने से न गंगा बचेगी और न ही इससे सीधे जुड़े 50 करोड़ से ज्यादा लोग बचेंगे।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक प्रो. दीपायन ने कहा कि उदारवादी नीतियों की आलोचना करते हुए कहा कि सरकारें लोगों को दिग्भ्रमित कर केवल कारपोरेट वर्ग का उल्लू सीधा करने में लगी है। उन्होंने गाँधीवादी मॉडल का समर्थन करते हुए कहा कि पश्चिमी विकास के मॉडल के विकल्प के गाँधी ने गाँव को उत्पादन का केन्द्र माना था। वही अफ़सर जाफरी ने कहा कि पीपीपी मॉडल से देश का भला नहीं होने वाला है। अफलातून ने कहा कि गंगा को लेकर शुरू हुई लड़ाई केवल गंगा के तटीय निवासियों की लड़ाई नहीं है। उन्होंने आन्दोलनकारियों से इस लड़ाई को समग्रता में देखने की अपील करते हुए कहा कि यह लड़ाई अपने देश के वजूद को बचाने की लड़ाई है। भरत झुनझुनवाला ने आन्दोलन को व्यापक बनाने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा कि नदियों के किनारे सरकार की प्रस्तावित परियोजनाओं से प्रभावित विस्थापित होने वाले लोगों को भी इस आन्दोलन से जोड़ा जाना चाहिए।
इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार प्रसून लतांत ने कहा कि तीन दशक पहले आरम्भ हुए गंगा मुक्ति आन्दोलन की जरूरत आज पहले से कहीं ज्यादा है। जनआधारित इस आन्दोलन को पहले भी गंगा को जमींदारों से मुक्ति दिलाने में कामयाबी मिली थी और आगे भी यह आन्दोलन सरकार को जनता के पक्ष में झुकने को विवश करेगा।
इस मौके पर पियुष, उदय, अनिल चमड़िया, प्रहलाद गोयनका, सुरेश भाई, प्रो. दीपायन, अफसर जाफरी, गोपाल कृष्णा, तापस दास कविता कर, जागृति राही, आनन्द प्रकाश तिवारी, कुमार कृष्णन, अशोक भारत, रणजीव, अशोक झा, अमरनाथ भाई, केसर सिंह, मो हुमायूं, राजपूजन, किशोर जायसवाल सहित विभिन्न जन संगठनों के प्रमुखों ने भी अपने विचार रखे और गंगा मुक्ति आन्दोलन के भावी संघर्षों के प्रति एकजूटता भी दिखाई। सम्मेलन के दौरान ' द डे आफ्टर मंथ' के गंगा विशेषांक का लोकापर्ण किया गया।
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Post By: RuralWater