गंगा में आग

जब कोई अपने शहर से दूर रहता है, तो अपने शहर को पुकारता है। परंतु इस शीला को क्या हो गया... ‘ओ बारौनी, आमार डाक शोनो रे...’ पटना में एमए करते समय, उसके उसने छात्रावास से एक खत लिखा था - ‘मुंगेर शहर नहीं है। वहां के दिन, शवयात्रा से लौटे लोगों की तरह इतने अधिक उदास और टूटे हुए होते हैं, कि वे और ज्यादा उदास हो ही नहीं सकते... मुंगेर शहर नहीं, एक दार्शनिक है... अकेला, उदास, चुप-चुप और इसे कभी भूला नहीं जा सकता है, कम से कम अपने अस्वीकृत क्षणों में तो नहीं....’

मगर उस दिन, शीला अपने शहर को भूल गयी थी। मैं भूल गया था। मुंगेर के तमाम लोग भूल गये थे। ओ बारौनी, आमार डाक शोनो रे... ओ तोइयलो शोधागार। और हर पुकार, प्रतिध्वनि की तरह वापस लौट आयी था। बरौनी, पत्थर का बुत। एक सख्त ऐब्स्ट्रैक्ट चेहरा।

अखबार वाला अखबार फेंक गया था। 4 मार्च 1968, इंडियन नेशन। मुंगेर की गंगा में आग। पानी में आग? ‘ओ बारौनी, तोमार शेई निष्कलंकों रूप कोथाय हाराले...?’ कार्यक्रम के अनुसार जेम्स और गिलबर्ट ओस्टा जीप लेकर आये, ‘कैसा संयोग है, इधर हमने मुंगेर जाने का प्रोग्राम बनाया और उधर गंगा में आग लग गयी। चलिए देखेंगे।’ हम शीघ्रता से जीप में चढ़ गए। मुंगेर पटना से एक सौ आठ मील।

गीता पेट्रोल की गन्ध बर्दाश्त नहीं कर सकती। पीछे की सीट पर आंखें बंद करके लेट जाती है। मोनू तकिये का कोना पकड़कर अंगूठा चूसता है।

दिन के बारह बजे हम मुंगेर पहुंचे थे। थरमस का पानी समाप्त हो चुका... कंठ सूखता है। घर में उबाला हुआ कुएं का खारा पानी। मोनू हमेशा की तरह मुस्कुरा कर ‘मम’ मांगता है। एक घूंट मुंह में लेकर उल्टी कर देता है। उसका चेहरा बुझ जाता है। हम इसी पानी में अमूल बनाकर देते हैं। आधा पीकर छोड़ देता है। और मेरे सामने मोनू जैसे ढेर सारे बच्चे उभरने लगते हैं। तभी पेन भैया ने कहा था - ‘हम तो किसी तरह प्यास को समझा लेते हैं, लेकिन चाइल्ड वेल्फेयर सेंटर में पाउडर्ड मिल्क पानी के कारण बांटना बंद हो गया। समझ में नहीं आता, मुहल्ले के गरीब बच्चे अपनी भूख को कैसे समझाते होंगे? यह खारा पानी, जानते हो? दो रुपये बाल्टी मिला है।’

दूसरे दिन, हम सुबह-सुबह लौट पड़े। जेम्स जीप खूब तेज चला रहे थे। मोनू फिर प्यासा हो गया। शीला के पास एक बोतल में पानी। यह पानी उसने मुंगेर अस्पताल के नर्सेस क्वार्टर के सामने वाले नल से लिया। यह नल गंगा से डायरेक्ट जुड़ा हुआ था। एकदम बदबू करता हुआ पानी। पानी पास, फिर भी मोनू की प्यास...

डाॅ. धर्मवीर भारती (सम्पादक: धर्मयुग) का तार आया था और मेरे भीतर का लेखक मुझे फिर मुंगेर लेकर जाता है। इस बार जेम्स की जीप नहीं, आर एस चोपड़ा की गाड़ी है। रामशरण चोपड़ा बहुत ही अच्छे छायाकार। ऊंचा, गोरा इंसान... रूसी सर्वाधिकारी, ‘असम मेल’ (बिहार आर्ट थियेटर द्वारा प्रस्तुत नाटक) का रूसी सर्वाधिकारी... ‘रूसी खुश, मीता खुश’ मगर क्या वह सचमुच खुश है? केवल कह देने भर से कोई खुश होता है? केवल मुस्कुरा भर देने से कोई मुस्कुराता है? मैं भी तो मुस्कुरा रहा हूं और सामने दूर तक फैला हुआ है मुंगेर का वाटर वर्क्स कंपाउंड। जलकल अधीक्षक ने कहा - ‘दो मार्च की रात। यही, कोई आठ-साढ़े आठ का समय होगा। मुझे कष्टहरणी घाट के इनटेक स्टेशन से सूचना मिली, कि गंगा के पानी में कुछ तेल जैसा बह रहा है, किरासन तेल की गंध आ रही है। मैं तुरंत उठा। मैंने रैपिट ग्रैविटी फिल्टर प्लांट की जांच की। देखा, ग्रीस जैसा कुछ लाल-पीला तरल पदार्थ स्टोरेज टैंक और फिल्टर बेड में बह रहा है। मुझे तेल की बदबू भी मिली। मैंने पंपिंग बंद करवा दी।’

तभी एक और अधिकारी आ गये - ‘नगरपालिका के अध्यक्ष प्रफुल्ल कुमार मिश्र को खबर दी गयी। आरडीएंडडीजे काॅलेज के रसायन विभाग के अध्यक्ष इंद्रदेव पांडे को भी बुलाया गया। तेल मिश्रित पानी का नमूना उन्हें दिया गया। सुबह उन्होंने रिपोर्ट भेजी कि गंगा के पानी में पेट्रोलियम के उत्पादन का मिश्रण है।’

- ‘क्या, यह पानी लोगों के लिए ठीक था?’
- ‘नहीं, इसीलिए तो रातोंरात लाउडस्पीकर की एक दुकान खुलवाकर, साढ़े तीन बजे तक हम यह सूचना प्रसारित करने में सफल हो गये कि गंगा के पानी में तेल आ गया है, अतः पानी का वितरण अनिश्चितकाल के लिए स्थगित रहेगा। वे दोनों हमें वाटर वर्क्स का कोना-कोना दिखाते रहे थे... मैकेनिकल फिल्टर का वाटर हिल, जिस पर तेल की परत जम गई थी। स्लो सैंड फिल्टर, जिसकी सफाई चल रही थी, सेटलिंग टैंक, तीन अंडर ग्राउंड टैंक, जिनका पानी ऊपर चढ़ाकर शहर में वितरित किया जाता है- ‘इसकी दीवार पर ग्रीस जैसी बदबूदार चिपचिपी वस्तु चिपक गयी थी। कई बार इस पर ब्लीचिंग पाउडर की पुताई हुई। इसे साफ करने के क्रम में आठ-दस मजदूरों की आंखें एकदम लाल हो गयीं... यहां तो विकट स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। होटल बंद। बिना धुले कपड़ों में लोग। पटने से दस ट्रक, टैंकर के साथ आये, तब कुछ समस्या हल हुई।

और मुझे एकाएक पुराना मुंगेर याद आ गया था -
ये सर्द लहरें, ये पुरकैफ हवा, ये बहार-ए-दरिया -
ये कष्टहरणी घाट, कि लौटे न यहां से प्यासा कोई।

मिश्र जी कहते हैं - ‘मैं और सतीश कुमार... हम दोनों, 3 मार्च को मोटर वोट पर गंगा में उतर गये। आगे बढ़ते गये। कहीं पानी नहीं, केवल तेल। 5-6 मील तक निकल गये। बरौनी की ओर से आता हुआ वही तैल पदार्थ...’

- ‘इसका अर्थ हुआ, गंगा को यह बरौनी की देन थी?’
- ‘बेशक, हम गंगा में पानी को दूर तक तलाशते रहे, मगर हर तरफ तेल ही तेल। और उस रोज, पानी में पानी को खोजते हुए हम कितने असहाय लग रहे थे... बार-बार पूछने पर भी, तेल शोधक कारखाने के अधिकारियों ने इस सत्य से इंकार किया कि तेल उनके यहां से आ रहा है। और तब हमने फैसला किया, इससे पहले कि सच झूठ का लिबास पहन ले, हमें जासूसी करनी होगी।’

-‘फिर?’
इस बार पत्रकार काशी प्रसाद (टाइम्स आॅफ इंडिया न्यूज सर्विस के तब प्रतिनिधि) की आवाज।

-‘हम कार से बरौनी पहुंचे। एक व्यवस्थापक के कमरे में गये। हमारे प्रश्न को सुनकर बोले - ‘नामुमकिन, मिश्र जी ने कहा, अगर आप बुरा न मानें, तो हम उस स्थान को देखना चाहेंगे, जहां से गंदा पानी गंगा में बह रहा है।’ व्यवस्थापक ने तुरंत कहा, ‘आप तो जानते ही हैं कि मुंगेर का यह बरौनी इलाका कितना खतरनाक है। इस वक्त वहां जाना खतरे से खाली नहीं...’

‘आगे बहस करने से क्या होता। हम तेलशोधक कारखाने के दोमंजिले कमरे से नीचे आ गये। एक स्थानीय व्यक्ति को रास्ता दिखलाने के लिए हमने साथ कर लिया। जब हमारी गाड़ी एफ्लुएंट पंपिंग स्टेशन (तेल-मल-निस्राव केंद्र) पहुंची, हमने देखा कुछ कर्मचारी वहां ड्यूटी पर थे। हमने कुछ सवाल किये। पर वे कुछ भी बताने को तैयार नहीं हुए। इस बीच एक दैवी घटना घट गयी। कैसे तो यह बात फैल गयी कि हम लोग पुलिस के खुफिया आदमी हैं। तभी रातों-रात पूछताछ करने आये हैं। अगर कुछ छिपाया गया, तो नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा, फिर क्या था, एक आॅपरेटर ने बताया - ‘26 फरवरी की सुबह 3-4 बजे से सेक्टर नं. 6 से विशुद्ध तेल जाने लगा। इसकी सूचना उसने सेक्टर नं. 6 के चार्जमैन को टेलीफोन द्वारा दी। लाॅग-बुक में यह बात नोट कर ली गयी। हमने लाॅग-बुक देखी। एक ऊंचे पदाधिकारी का प्रतिहस्ताक्षर वहां मौजूद था और लिखा था, 23 तारीख से पानी की जगह तेल बह रहा है। (23 फरवरी से 26 फरवरी तक)’

- ‘तब तो आप लोगों ने खूब जासूसी की।’

- ‘बात यहीं खत्म नहीं हुई। हमने एक ट्रक भी पकड़ा। इस पर दस पीपे तेल के थे। गंगा में बहने वाला तेल गड्ढ़ों में जमा हो गया था। इसलिए कंपनी के ट्रक पर लादकर हटाया जा रहा था। रात नौ बज रहे थे। सैकड़ों ग्रामीण जमा हो गये थे। हम लोगों के अनुरोध पर, उन्होंने ट्रक को घेर लिया। तभी वहीं व्यवस्थापक महोदय आ गये। मगर गांव वालों के आगे उनकी एक न चली।

‘रात के करीब दो बजे हम मुंगेर लौट आये। हमने जिला पदाधिकारी को जगाया। ट्रक से लिये गये तेल के नमूने को उन्हें दिखाया और आग्रह किया कि ट्रक जल्द से जल्द जब्त कर लिया जाये...’

घुप्प अंधेरे में कैद एक किलानुमा मकान। और मुझे पीर पहाड़ की याद आ गई। वह मकान, जहां कभी रवि ठाकुर ने गीतांजलि के कुछ पृष्ठ लिखे थे। मगर यह तो कोई दूसरा मकान है। हम अंधेरे में चलते हैं। आगे-आगे राजेश।

पास पड़ी कुर्सी से उठने का एहसास। स्विच दबाने का स्वर। कमरे में ढेर-सी रौशनी। धोती-गंजी पहने एक आदमी, पीटीआई रिपोर्टर, एडवोकेट, शिकारी... हत्या... खून... मैं चौंक जाता हूं, हाथ में रोजरी।

उसे मेरी तरफ बढ़ाकर कहा था - ‘इसे माथे से लगाइए, यह विश्व की एक महान हस्ती की देन है।’

- ‘पोप?’ अनायास ही निकल गया था।

- ‘आपने ठीक समझा। योग विद्यालय में आये मेरे एक विदेशी मित्र ने मुझे दिया है।’

हम श्रद्धा से रोजरी को माथे से लगाते हैं, फिर जाने क्या होता है कि बृजेंद्र कुंवर एकदम योगी हो जाते हैं। घंटों योग पर बातें। क्राइस्ट इस ए योगी। फिर ‘दि बाइबिल’ फिल्म की एक पुस्तक मुझे देते हैं। मैं अंतिम पृष्ठ देखता हूं... अब्राहम (जाॅर्ज सी स्काॅट) के एक हाथ में छुरा है। दूसरे हाथ में बलि के लिए लिटाए हुए अपने इकलौते बेटे की उसने आंखें बंद कर रखी हैं और नीचे रखी लकड़ियां जल रही हैं। आग धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है। कुंवर कहते हैं - ‘यह फिल्म नहीं, पर्दे पर मद्धिम-मद्धिम सुलगती आग थी, जिसकी आंच मैं अब भी महसूस कर रहा हूं....’

और मुझे एकाएक अपना सवाल याद आ गया था। और गंगा की आग?

- ‘जब मुझे फोन पर सूचना मिली, तो मैंने समझा मुझसे मजाक किया जा रहा है। मैंने कहा, तुम्हारा दिमाग तो ठीक है न? पानी में आग कैसे लग सकती है? उत्तर मिला, आग लगी है सर, पानी में ही लगी है। इस बार मैंने समझा, किसी मुहाबरे का प्रयोग हो रहा है। पर जवाब आया, गंगा में आग लगी है। दो फायर ब्रिगेड गंगा की आग बुझाने की लगातार कोशिश कर रहे हैं। पानी पहली बार बेकार साबित हो रहा है। इसमें तेल मिला हुआ है। आग भड़कती ही जा रही है...’

‘आपने क्या किया?’

- ‘मैंने तेल शोधक कारखाने के दो अधिकारियों पर दफा 133 के अंतर्गत मुकदमा दायर कर दिया, कि तेल का पानी में बहना तुरंत बंद कर दिया जाये। इस तेल मिश्रित पानी को पीकर कितने ही मवेशी मर गये। आस-पास के कई एकड़ खेत जल गये।‘

- ‘धारा 133 के अंतर्गत तेल का बहना बंद हो गया?’

- ‘नहीं भाई, एसडीओ सदर की आज्ञा के बावजूद तेल बहता रहा। मैंने फिर सिविल सूट दायर किया। इस बार एक अंतरिम निषेधाज्ञा के द्वारा बरौनी तेल शोधक कारखाने को तुरंत बंद करने का आदेश दिया गया। और संयोग देखिए पुष्प जी, तेल शोधक कारखाने के उच्चाधिकारी डीएम की कोठी पर मौजूद थे। यही उन्हें यह निषेधाज्ञा हाथों हाथ दे दी गयी।’

- ‘अच्छा कुंवर जी, इस अग्निकांड और जल दूषित करने में बरौनी तेल शोधक कारखाने की जिम्मेदारी कहां तक?’

ब्रजेंद्र कुंवर एक मिनट के लिए चुप हो गए। फिर कहा - ‘फैसला तो उसी दिन हो गया था।’
- ‘किस दिन?’ मैं चौंक गया था।

‘उसी दिन, जिस दिन श्री रघुरमैया जी को कहा गया कि एफ्लुएंट डिस्चार्ज के द्वारा कुछ मोम भी बह जाता है। जाड़े के दिनों में बहा यही मोम किनारों में जमा हो गया होगा और अब, गर्मी में पिघलकर पानी में मिल गया हो। इसी में आग लगी होगी... मगर दिन में, भोजन के समय रूसी तेल विशेषज्ञ से श्री रघुरमैया जी ने प्रश्न किया, ‘0001 अंश का तैल पदार्थ 60 मील दूर बह जाने पर भी, खुले वातावरण में इतने समय तक रहने के बाद भी, क्या अपने में प्रज्वलन शक्ति रख सकता है?’

-‘इस एक प्रश्न से सन्नाटा छा गया था। चम्मच और कांटों तक की आवाजें थम गयीं। हम और तेलशोधक कारखाने के अधिकारीगण जैसे किसी संगीन मुकदमे का फैसला सुनने को सांस रोके हुए थे। चुप्पी, फिर सिर पर केवल पंखों की सरसराहट। तभी चाॅप को बीच से काटते हुए रूसी विषेशज्ञ ने कहा, नान्सेंस इंपासिबुल... और ये छोटे-छोटे शब्द फैसला कर गये। मैंने कहा न, फैसला तो उसी दिन हो गया था।’

-‘मैं समझता हूं, यही सबूत काफी होगा कि जब कारखाने को पुनः चालू करने की आज्ञा दे दी गयी तो लगभग एक पखवारे तक इसे बंद रखा गया। और जब, तेल-मल निस्राव पंप से गंगा नदी तक एक विशेष नाली बनाकर, फालतू पानी को बहाने की व्यवस्था कर ली गयी, तब इसे चालू किया गया। अब आप ही सोचिये पुष्प जी, आखिर ऐसा क्यों किया गया?’

राजेश की आंखें फैल गई थीं। अखिलेश्वर छत की तरफ देखने लगा था। मैंने देखा था, ब्रजेंद्र कुंवर के हाथों में रोजरी... बीच में झूलता हुआ क्राॅस। क्रास पर ठुंके क्राइस्ट... जीसस... ईसा मसीह! एक दिन यही ईसा मसीह पानी पर पैदल चले थे। और मुझे लगा था, वे कष्टहरणी घाट के जल पर चल रहे हैं.... एकाएक पानी में आग लग जाती है... आग... आग... उनके वस्त्र जलने लगते हैं, कंठ सूखने लगता है... पानी न बुझाने के लायक, न पीने के योग्य। वे भागते हैं। शहर के कुओं की तरफ... खारे पानी की तरफ... ईसा मसीह यानी चायवाला केदार, ईसा मसीह यानी पानवाला रामदास, ईसा मसीह यानी फोटोग्राफर मेहता, ईसा मसीह यानी किले के द्वार पर बैठने वाला अंधा भिखारी गनेसी ...यानी....

और दूसरे ही क्षण, मुझे पहली यात्रा याद आ जाती है। जेम्स जीप खूब तेज चला रहे थे। पानी के लिए मुंगेर से भागते हुए लोग... अब पटना दिखने लगा है। गीता मुस्कुराती है। मोनू हंसता है। लेकिन शीला, हाथों में पानी की बोतल थामे एकदम बुत!

घर में रात उतर आयी। सब तरफ अंधेरा बिछ गया। कमरे में केवल नाइट बल्ब जल रहा था। मैं देखता हूं, शीला बिस्तर पर नहीं है... उठता हूं। दरवाजा यूं ही भिड़ा है। पड़ोसी के यहां रौशनी हो रही थी। इस उदास छोटी रौशनी में शीला तुलसी चौरे के पास खड़ी थी। उसके हाथ में मुंगेर से लाये हुए पानी की बोतल थी। मैं धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखता हूं। वह एकदम किसी छोटी बच्ची की तरह फफक कर रोने लगती है- ‘जब मैं मुंगेर छोड़कर पटना आयी थी एमए करने, आपको याद है न, आप जब भी मुंगेर से आते थे, मुंगेर का पानी लाते थे। उस समय अपने कमरे में, एक टीन के डब्बे में मैंने मुंगेर से लाया हुआ एक तुलसी का पौधा रोपा था। उषा, किरण, सुचंद्रा सबकी सब मुंगेर का पानी पीती थीं। मगर मैं चाहकर भी पी नहीं पाती। और वह जल, इस मन्नत के साथ तुलसी के पौधे पर चढ़ा देती थी कि जब मैं लेक्चरर बन जाऊंगी तो इसी के वंश से घर में तुलसी चौरा बनाऊंगी, अपने हाथों से मुंगेर का पानी लाकर इस पर डालूंगी। और आज, लेक्चरर बनने के बाद, मैं पहली बार मुंगेर से पानी लेकर आयी हूं... मगर मैंने इसमें पानी नहीं डाला है, तेल दिया है... सिर्फ बदबूदार तेल...’ और वह अंधेरे में सिसकने लगी थी। मैं जानता हूं, अंधेरे की सिसकी हमेशा एक कविता बन जाती हैः

ओ बारौनी!
आमार डाक शोनो रे,
ओ कारखाना!
आमार डाक शोनो रे,
तुलसी मौचेर
भेजा माटी स्पर्शो कोरो,
तुमि तेल चिटे नो
ओश्रु स्पर्शो कोरबे...
ओ बारौनी
ओ कारखाना!!
आमार डाक शोनो रे
विवाहित आर अविवाहित ओश्रु स्पर्शो करो...

ओ बरौनी, मेरी पुकार सुनो, ओ कारखाने, मेरी पुकार सुनो। तुलसी चौरे की गीली-गीली माटी छुओ। तुम तेल की चिपचिपाहट नहीं, आंसू छुओगे। ओ बरौनी, ओ कारखाने, मेरी पुकार सुनो, विवाहित और अविवाहित आंसू छुओ...।

अक्टूबर: 1971

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Post By: Shivendra
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