राष्ट्रीय नदी गंगा क्या इतनी प्रदूषण मुक्त हो सकेगी कि उसके जलचर जीवित रहें और मानव मात्र को भी गंंगा के स्वच्छ, निर्मल जल के स्पर्श मात्र से यह अहसास हो सकेगा कि वह वाकई उस गंगा का आचमन कर रहा है जो स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरी थी और जिसका उल्लेख शास्त्रीय ग्रंथों में मिलता है।
“धर्म का मान रखने और मोक्षदायिनी नदियों जैसे गंगा, यमुना, ताप्ती, कावेरी, गोदावरी आदि को देवी का मान देने वाले नेता आज देश के राजनेता हैं। शासन में यदि इनके रहते हुए भी नदियों का वैभव वापस नहीं लौटा तो अगले चुनावों में जनता शायद इन्हें समुचित जबाव दे।”

गंंगा नदी को प्रदूषण मुक्त करने का इतिहास यदि पलटेें तो हम पाएँगे कि अदालतों ने आदेश तो पारित किए, लेकिन उनकी विभिन्न राज्य सरकारों ने जमकर अनदेखी की। प्रांतों और केंद्र की सरकारों और उनके कथित संवेदनशील प्रशासनिक अधिकारियों ने भी ,सिर्फ बयानबाजी की। इस स्थिति को थोड़ा सा झटका, जो लगा जोर से, वह था प्रधानमंत्री राजीव गांधी का। उन्होंने शपथ भी ली थी कि वे इतनी पवित्र लंबी किंतु प्रदूषित नदी की सफाई का काम करेंगे। आज भी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का निश्चय है। आज उमा भारती इस परियोजना की सर्वेसर्वा हैं। आज तो प्रदेश में और केंद्र में एक ही पार्टी की सरकार है। पहले भी ऐसी स्थितियाँ रहीं पर कुछ भी खास नहीं हुआ। हजारों गैलन प्रदूषित पानी बहता हुआ समुद्र में जाकर विलीन होता रहा। लेकिन गंगा यमुना को देवी मानने वाले आस्थावान तीर्थयात्री प्रदूषित जल में डुबकियाँ लगाते रहे। उनकी आस्था को ध्यान में रखते हुए प्रदूषण का सिलसिला रोक पाने में न सरकार, न प्रशासनिक अधिकारी कोई भी उद्यत नहीं दिखा। जो कुछ दिखा वह सिर्फ विज्ञापनी कीर्तिमान रहा जिसमें प्रधानमंत्री की तस्वीर है।

पुराणों और लोककथाओं में कहा गया है कि गंगा जल जो साफ है और वह शुद्ध है तभी मानव की आत्मा को शांति प्रदान करता है स्वर्ग लोक से प्रवाह में निकली इस देवी को शिव के सिर के केशों में जगह मिली फिर वे गंगोत्री से धरा की ओर चलीं। स्वर्ग से आई गंंगा का जल अमृत कहा जाता है। यमुना भी उत्तराखंड में यमुनोत्री से चलीं। आज दोनों ही नदियाँ बेहद प्रदूषित हैं जिनके प्रदूषण को लेकर अदालतें तक चिंतित हैं लेकिन प्रशासन सिर्फ बयान और विज्ञापन जारी करता है। यह नहीं बताता कि पिछले तीन साल में इन दोनों नदियों का प्रदूषण कितना कम हुआ। इसकी योजनाओं का क्या असर रहा। नागरिकों के जत्थे भी सक्रिय नहीं दिखे कि वे नदियों का प्रदूषण रोकेंगे। यही हाल उस लचर प्रशासनिक तबके का है जो किंतु-परंतु के भयावह मकड़जाल में फँसा हुआ है। वह मीडिया से बातचीत में दावे तो करता है लेकिन कभी ‘आॅन द स्पाट’ जाकर गड़बड़ी या समस्या को न तो ‘चेक’ करता है और न ‘निदान’ पर सलाह लेता है जब तक उसके अधिकारी उससे न कहें।
उत्तराखंड में गंगा नदी के प्रति तमाम आस्थाओं के बावजूद सभी मठों और साधु-सन्यासियों के आलीशान आधुनिक आश्रमों की गंदगी नाली से सीधे नदी में गिरती है। यही हाल नदी किनारे बसे होटलों, रेस्टोरेंट, विला और अस्पतालों का है। अभी मुख्यमंत्री भी देश की सत्ता पार्टी के सांस्कृतिक-वैचारिक संगठन राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के प्रचारक रहे हैं। देखना है कि वे सीवेज की गंदगी, नालियों की गंदगी को किस तरह नदी में गिराने की बजाए वैकल्पिक व्यवस्था क्या कर पाते हैं। मजेदार बात तो यह है कि स्विस सहयोग से लगे वाटर ट्रीटमेंट प्लांट से हो रही गंगा की सफाई का परीक्षण रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र भले करें लेकिन इस बात पर भी ध्यान दें कि अशुद्ध जल तेजी से नदी में यहीं से वापस भेजा जा रहा है। इस गलती पर प्लांट के इंचार्ज, राज्य के प्रशासनिक अधिकारियों की जबावदेही होती है। पर कोई ध्यान क्यों दे।

सदियों से बह रही गंगा-यमुना नदियों को कम से कम सात अन्य नदियों से मिल कर बहता हुआ प्राचीन ग्रंथों और पुराणों में बताया गया है। इसीलिए इन नदियों के लोकपूजन समारोह में जो लोकगीत नदी किनारे बसी आबादी में प्रचलित हैं उनमें हर कुएँ, तालाब, पोखर, और स्रोतों के जल काे भी गंगा-यमुना ही कहा जाता है, पूजा जाता है। लेकिन ऐसी पूजनीय नदियों को सीवेज वाही बना दिया गया। इसका कभी विरोध तक नागरिकों ने नहीं किया।
गंगा के निर्मल जल के प्रति सदियों से इस देश में आस्था है। मिथक बताते हैं कि देश भर में न जाने कितनी ऐसी प्राकृतिक सुरंगें हैं जहाँ से गंगा के जल में प्रवाह बढ़ता है। ऐसी आस्थावान नदी के संरक्षण में व्यवस्था और नागरिकों का सहयोग बहुत जरूरी है। इसे नजरअंदाज नहीं किया जाने चाहिए। यहाँ तक कि दक्षिणी भारत में तो मंदिरों में बनी जल टंकियों तक को शिवगंगा कहा जाता है। ओड़ीसा में तो बिरज शहर में एक कुआँ है। जिसमें कहते है कि काशी से सुरंग से गंगा-जल आता है।
नदियों का अपना विशाल अन्तर्सम्बंध है। भारत जैसे विशाल देश में जो मिथक गंगा-यमुना, नर्मदा, कावेरी, गोदावरी, पेरियार आदि नदियों से जुड़े हैं वे देवी के तौर पर सम्मानित होनी चाहिए। शासन-प्रशासन को उनकी साफ-सफाई पर ध्यान देना चाहिए। कुछ किलो दूध बहा देने से सफाई नहीं होती बल्कि वैज्ञानिक तरीके से पानी का हमेशा परीक्षण करना चाहिए और उसमें उपयुक्त रसायन डालने चाहिए जिससे जलचर भी स्वस्थ रहे और जल भी स्वच्छ-निर्मल हो। नदियाँ जब नाराज होती हैं तो सूखा, अकाल और बाढ़ जैसी विपदाएँ आती हैं। आप विश्व इतिहास में और भारत के इतिहास में विभिन्न सभ्यताओं के विनाश का ब्यौरा जान सकते हैं।
नदियों की परम्परा जानने के लिये वेद, पुराण यदि पढ़े जाएँ तो यह अनुमान लग सकता है कि नदी, पेड़-पौधों, फूल-फलों और जड़ी-बूटियों का आपसी संतुलन है। अमूमन विकास और दोहन के बहाने इन्हें नष्ट किया जाता है। धीरे-धीरे वो विलुप्त हो जाते हैं। उत्तराखंड में अभी हाल आई विपदा ऐसे ही कुटिल साधु-संतों, धर्म, राजनीतिकों और लालची व्यवसायियों के चलते आई। इस विपदा के बीते इतने वर्ष बाद भी प्रशासन दुर्घटना में हुए नुकसान और मारे गए लोगों की सही संख्या का आंकलन आज तक नहीं लगा सका। ऊँची केदार घाटी पर नरमुंड और कंकालों का मिलना अब भी जारी है।

इस विज्ञापन में दावा किया गया है कि गंगा हमारे जीवन का जरिया रही है। हमें गंगा स्वच्छता पखवाड़ा अभियान में भाग लेकर आने वाली सदियों तक इसे साफ रखना है।
जागरुकता कार्यक्रम में गंगा स्वच्छता संदेश रैलियाँ, नुक्कड़ नाटक/ स्किट, जागरुकता शिविर, सांस्कृतिक कार्यक्रम, वर्कशॉप और सिंपोजियम, प्रतियोगताएँ, सामुदायिक मेल-जोल, सार्वजनिक बैठकें, गंगा चौपाल होंगे। इसी तरह एक्शन एक्टिविटीज में हैं स्वच्छता अभियान और पौधारोपण, गंगा शपथ, गंगा के घाट को गोद लेना।
यह विज्ञापन बताता है कि सरकार गंगा स्वच्छता अभियान में कितनी सक्रिय है। लोकिन लोग हैं कि मानते नहीं।

letters@thelka.com, (किसान नेता और गंगा सेवी भूपेंद्र रावत से बातचीत के आधार पर)
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