गंगा को प्रतीक नहीं, परिणाम का इंतजार

<i>गंगा</i>
<i>गंगा</i>

मैं आया नहीं हूं; मुझे गंगा मां ने बुलाया है, नमामि गंगे व नीली क्रांति जैसे शब्द तथा स्व. श्री दीनदयाल उपाध्याय की जन्म तिथि पर जल संरक्षण की नई योजना का शुभारंभ की घोषणा से लेकर पूर्व में गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने तक; निःसंदेह प्रतीक महत्वपूर्ण हैं। किंतु जो प्रतीक स्वयं को ही प्रेरित न कर सकें, उनका क्या महत्व? झाड़ू उठाकर सफाई करते हुए किसी एक दिन फोटो खिंचवाने वाले स्वयंसेवी साथियों, जिलाधीशों व नेताओं से मैं कई बार यह कहने को मजबूर हुआ हूं। मजबूर मैं आज फिर हूं।

मुझे याद है कि जगद्गुरू शंकराचार्य श्री स्वरूपानंद सरस्वती की अगुवाई में गए दल के कहने पर पूर्व प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया था। हालांकि, तत्कालीन पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश की पहल पर उन्होंने गंगोत्री से उत्तरकाशी जिले के 135 किलोमीटर लंबे भगीरथी क्षेत्र को संवेदनशील घोषित किया; तीन पनबिजली परियोजनाएं रद्द की और कुछ फैक्टरियों पर भी कार्रवाई की; किंतु जगद्गुरू और स्वयं पूर्व प्रधानमंत्री राष्ट्रीय नदी के सम्मान की रक्षा के लिए प्रदूषकों, शोषकों और अविरलता में बाधकों के खिलाफ निर्णायक जंग का ऐलान कभी नहीं कर सके।

जयराम रमेश को भी पर्यावरण मंत्री के पद से मनमोहन सिंह जी ने ही हटाया। वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने गंगा की निर्मलता को अपनी पहली प्राथमिकता बताने वाले बयान कई बार दिए हैं। किंतु ऐसा लगता है कि प्रदूषकों, शोषकों और गंगा अविरलता में बाधकों के खिलाफ निर्णायक जंग का ऐलान करने की हिम्मत वह भी नहीं जुटा पा रहे। उंगली अब उनके गंगा संकल्प पर भी उठती दिखाई दे रही है।

उच्च स्तरीय समिति : नई बैठक, बासी बयान


आठ सितंबर, दिन सोमवार! गंगा को लेकर पहली उच्च स्तरीय समिति की बैठक हुई। बैठक से पूर्व इसी दिन एक अखबार में सूत्रों के हवाले से खबर आई कि श्री मोदी ने श्री नितिन गडकरी की गंगा जलमार्ग योजना को नकार दिया है। वे गंगा के व्यावसायिक दोहन के विरुद्ध हैं। उन्होंने कहा है कि अब हम गंगा से कुछ लेंगे नहीं, सिर्फ देंगे ही देंगे। हमने सोचा कि शायद यह सुप्रीम कोर्ट की डांट अथवा प्रधानमंत्री जी की अंतरात्मा से आई किसी आवाज का असर हो।

इस खबर को देश के कई नामी नदी अध्ययनकर्ताओें और कार्यकर्ताओं ने शुभ बताया। किंतु बैठक के बाद भारत सरकार के प्रेस सूचना ब्यूरो द्वारा जारी विज्ञप्ति ने इस शुभ को नकार दिया।विज्ञप्ति में पूर्व प्रकाशित खबर जैसा निर्णायक कुछ नहीं था। आश्चर्यचकित करता है कि प्रत्येक घटना, दुर्घटना व व्यक्ति को एक लाभदायक अवसर में तब्दील कर देने की कला में माहिर श्री मोदी ने गंगा पर पहली उच्च स्तरीय बैठक को कैसे निरर्थक जाने दिया!

नमामि गंगा : नई बोतल में पेश पुराना पेय


गौरतलब है कि विज्ञप्ति में श्री मोदी द्वारा गंगा को पहली प्राथमिकता बताने, जनभागीदारी का आह्वान और गंगा हेतु दुनिया के दूसरे देशों से मदद, तकनीक व ध्यान को आकर्षित करने संबंधी वही पुराना घिसा-पिटा बयान दर्ज था। श्री मोदी ने पीपीपी के जरिए ही देश के 500 शहरों के ठोस कचरा व गंदे जल के प्रबंधन की बात भी कही। कहा कि इस कार्य में गंगा किनारे के शहरों को प्राथमिकता पर रखेंगे।

याद कीजिए कि लगभग डेढ़ साल पहले द्वारा गंगा प्रबंधन योजना दस्तावेज निर्माण की समन्वयक आईआईटी, कानपुर के नई दिल्ली सम्मेलन में बतौर मुख्य अतिथि श्री मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने भी यही कहा था। जलापूर्ति के क्षेत्र में पीपीपी को लेकर खुलते घोटाले और विरोध के बाद उन्होंने भी कचरा से पैसा कमाने की परियोजनाओं में पीपीपी लाने की बात कही थी। गंगा स्वच्छता के लिए जनता-जनार्दन को जोड़ने के मोदी आह्वान में क्या नया है?

गंगा कार्य योजना का शुभारंभ करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने भी यही आह्वान किया था। जनता कैसे विश्वास करे कि यह सरकार गंगा निर्मलता के लिए कुछ नया और नायाब करने वाली है?

विरोधाभासी कदम यह है कि मोदी सरकार गंगा के लिए जनांदोलन का आह्वान तो कर रही है, किंतु पनबिजली परियोजनाओं और गंगा जलमार्ग परियोजना के विरोध में उठे जनांदोलनकारियों से चर्चा करने से भी बच रही है। श्री मनमोहन सिंह भी राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण की बैठक बुलाने से कतराते रहे; श्री मोदी भी कतरा रहे हैं।

गंगा पर कार्यक्रम निर्माण से पहले गंगा और शेष नदियों की अविरलता-निर्मलता से जुड़े विवादित मसलों पर एक अलग निर्णायक नीति व कानूनों के निर्माण की मांग पिछले डेढ़ दशक से उठती रही है।

न अटल सरकार ने यह हौसला दिखाया और न मनमोहन सरकार ने। प्रदूषण नियंत्रण कानूनों का पालन न करने वाली कंपनियों के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट द्वारा कानूनी मदद के आश्वासन के बावजूद उच्च स्तरीय समिति नीति व कानून निर्माण के मसले पर कुछ ऐलान नहीं कर सकी।

100 दिन की घोषणाएं नहीं करती आश्वस्त


बजटीय प्रावधानों के अलावा अब तक संबंधित मंत्रालय ने गंगा की ऑनलाइन निगरानी की घोषणा की। सर्वेक्षण शुरू किया। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा पूर्व में चिन्हित 764 औद्योगिक इकाइयों का आंकड़ा सदन में रखा। ये ऐसे इकाइयां हैं, जो प्रतिदिन 50 करोड़ लीटर से अधिक गंदा प्रदूषित जल गंगा में डाल रही हैं। 165 को नोटिस जारी किए। 48 को बंद करने के आदेश जारी किए। राज्यों को मलशोधन संयंत्रों को सुचारु रूप से चलाने के निर्देश दिए।

एसपीएमजी में कर्मचारियों तथा समन्वय की कमी की ओर ध्यान दिलाया। उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार ने गंगा सफाई परियोजनाओं के आंतरिक ऑडिट की बात कही। लगभग सभी राज्यों ने स्थानीय निकायों के पास धनाभाव का रोना रोया। केंद्र ने भी राज्यों को हरसंभव सहयोग की रटी-रटाई बात कही।

गंगा जलमार्ग, घाट निर्माण व सौंदर्यीकरण, रेणुका बांध निर्माण और गंगा प्रदूषण मुक्ति के नाम पर ऑनलाइन निगरानी जैसे ऐलान जारी किए गए। ऐसे में तो वाकई अगले 200 साल में भी गंगा साफ होने से रही। यदि वाकई गंगा की सेहत सुधारनी है तो जरूरी है कि सरकार नीतिगत निर्णयों को अपनी प्राथमिकता बनाए। वरना देखना झेलम-चिनाब की तरह किसी दिन गंगा भी तट तोड़कर निकल पड़ेगी-खुद अपना इलाज ढूंढ़ने।

इसके अलावा केन्द्र सरकार ने बिहार में कोसी-मेची और बूढ़ी गंडक-नून बाया नदी जोड़ परियोजनाओं को मंजूरी दी। गंगा जलमार्ग परियोजना को लेकर विश्व बैंक का दौरा कराया। किसी डेनिश कंपनी से करार करने की बात सामने आई। नदी सफाई को लेकर जर्मनी, ऑस्ट्रेलियाई अनुभवों से लाभ लेने की बात कही।

गंगा को लेकर कोर्ट के समक्ष 29 पन्नों का हलफनामा पेश किया; फिर भी सरकार 29 बड़े, 23 छोटे और 48 उपनगरों से गुजरने वाली गंगा की सफाई को कोई ठोस-समयबद्ध खाका पेश नहीं कर पाई। लिहाजा, गंगा को अपनी पहली प्राथमिकता बताने वाली सरकार ने देश की सबसे बड़ी अदालत से डांट खाई।

विरोध पर चुप्पी


भूलने की बात यह भी नहीं कि 4200 करोड़ की गंगा जलमार्ग परियोजना के खतरों को लेकर देश के तमाम अखबारों में खूब चर्चा हुई है और विरोध में बैठकें भी। इस बाबत एक 10 सदस्यीय समूह ने तमाम वैज्ञानिक पहलुओं को सामने रखते हुए सरकार को ज्ञापन सौंपा है। ज्ञापन में मिसीसिपी नदी और फरक्का बैराज के अनुभवों को सामने रखते हुए उसके डिज़ाइन में भी बदलाव की मांग रखी गई है। किंतु सरकार चुप है।

नीतिगत निर्णयों से भागती सरकार



गंगागंगा जम्मू-कश्मीर में जल के जलजले का मंजर हमारे सामने है ही। उत्तराखंड में बाढ़ से लगातार तबाही के अनुभव हर साल हमें चेताते ही हैं। पनबिजली परियोजना बांध के कारण डूबने के बाद अपने स्थान से हटाई गई धारी देवी प्रतिमा के प्रति उमाजी की आस्था जगजाहिर है।

विष्णु प्रयाग, लखवार बयासी से लेकर रेणुका बांध परियोजना तक विवाद-ही-विवाद हैं। फिर भी उमाजी सटीक निर्णय लेने की बजाए जाने किस बीच के रास्ते की तलाश कर रही है? मैं नहीं कहते कि पनबिजली परियोजनाओं बंद हों या चलने दी जाएं। किंतु बांधों को लेकर सरकार एक बार नीतिगत निर्णय का हौसला तो दिखाए।

परियोजनाओं की पर्यावरण मंजूरी प्रक्रिया को त्वरित बनाने के नाम पर वन एवं पर्यावरण मंत्री श्री प्रकाश जावडेकर ने मंजूरी प्रकिया को ध्वस्त करते हुए जिस तरह कोल परियोजनाओं की मंजूरी में जनसुनवाइयों की बाध्यता समाप्त करने का दुस्साहस किया है;

गुजरात मुख्यमंत्री रहते हुए श्री मोदी ने जिस तरह कई बार सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने की मांग की; यदि इसी तरह नीतिगत तौर पर एक बार यह तय कर लेने का भी दुस्साहस दिखा दें कि उनकी सरकार बड़े और ऊंचे बांधों की पक्षधर है; तो यह गफलत तो न रहे कि अविरल-निर्मल गंगा, सरकार की प्राथमिकता है।

अनुभवों से कब सबक लेगी सरकार?


यहां मौलिक प्रश्न यह है कि क्या गंगा को अपनी प्राथमिकता बताने वाली नई सरकार और पर्यावरण एवं वन से निकलकर जलमंत्रालय में शामिल हुए गंगा पुनरोद्धार के नियोजकों ने गंगा कार्ययोजना के अनुभवों से कुछ सीखने की कोशिश की है? क्या यह सरकार यह समझ पाई है कि पिछले कुछ सालों में विश्व बैंक समेत भिन्न कारपोरेट सहायकों द्वारा जलापूर्ति और नदी संबंधी जिन प्रस्तावों को आगे बढ़ाया गया है, उनमें भारत के पानी और नदी माई की सेहत से ज्यादा कंपनियों की कमाई का लालच छिपा है?

गंगा माई की सेहत सुधारने के काम में डॉक्टर यदि साधारण फीस कमा ले, तो समझ में आता है। यहां तो लक्ष्य सिर्फ कमाई-ही-कमाई नजर आ रहा है। अब यदि मोदी सरकार भी गंगा से कमाई को ही आगे रखना चाहती है, तो गंगा को माई मानने वाले श्रद्धालुजन भारत सरकार के कंपनी कमाई कार्यक्रमों से क्यों जुड़ें?

ऐसे तो साफ हो चुकी गंगा


पिछले 100 दिन के मोदी कार्यकाल से स्पष्ट है कि सरकार ही नहीं, स्वयं प्रधानमंत्री महोदय भी गंगा कार्य योजना की लापरवाही और गलतियों से कुछ सीखने को तैयार नहीं है। गंगा जलमार्ग, घाट निर्माण व सौंदर्यीकरण, रेणुका बांध निर्माण और गंगा प्रदूषण मुक्ति के नाम पर ऑनलाइन निगरानी जैसे ऐलान तथा जारी किए गए औपचारिक नोटिस गंगा की कोई मदद नहीं कर सकते। ऐसे तो वाकई अगले 200 साल में भी गंगा साफ होने से रही।

यदि वाकई गंगा की सेहत सुधारनी है, तो जरूरी है कि सरकार नीतिगत निर्णयों को अपनी प्राथमिकता बनाए; वरना देखना, झेलम-चिनाब की तरह किसी दिन गंगा भी तट तोड़कर निकल पड़ेगी खुद अपना इलाज ढूंढने।

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Post By: Shivendra
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