गंगा केवल पुराणों में बहेगी


आज नदी बिलकुल उदास थी/ सोयी थी अपने पानी में/ उसके दर्पण पर बादल का वस्त्र पड़ा था/ मैंने उसे नहीं जगाया/ दबे पांव घर वापस आया।’ न जाने वह कौन सी नदी थी, जिसकी उदास और सोयी हुई लहरों पर कवि केदारनाथ अग्रवाल ने इतना सुंदर बिम्ब रचा था। कवि को उस रोज नदी उदास दिखी, उदासी दिल में उतर गई।

उनके पांव थम गए और उन्होंने नदी को उदासी में उसका कोना दे दिया। लेकिन हम अब नदियों को उनके ही घर से बाहर निकाल रहे हैं। अपने इशारों पर उन्हें बहने को मजबूर कर रहे हैं। जिन नदियों ने हमें इतना कुछ दिया उन्हें हम लूट रहे हैं। लगातार दोहन कर रहे हैं और शायद तब तक दोहन करेंगे जब तक वह रिक्त न हो जाएं। अब उदासी नदियों की स्थायी अवस्था है। नदियां उदास हैं क्योंकि वो तिल-तिल कर मर रही हैं या ये कहना ज्यादा उचित रहेगा कि मारी जा रही हैं। इस देश की सबसे महान नदी सबसे ज्यादा उदास है।गंगा खत्म हो रही है। जहां से उसकी लहरों का खेल शुरू होता है वहीं उसके अंत का खूंखार खेल खेला जा रहा है। वैज्ञानिक, समाजसेवी, पर्यावरणविद चिल्ला रहे हैं लेकिन कोई सुनता ही नहीं। महाभारत के रचैता वेद व्यास जैसी हालत हो गई है जो धर्म पालन के संदर्भ में यह कह रहे थे कि मैं अपनी बाहें उठा-उठाकर चिल्लाता हूं लेकिन मेरी कोई सुनता ही नहीं। भला कोई सुनेगा भी क्यों?देश को विकास की राह पर आगे दौड़ना है। भले ही इस दौड़ के लिए कितनी बड़ी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। यह दौड़ अंधी है। पता नहीं इस दौड़ का अंत कब होगा। लेकिन एक बात तय है कि इस दौड़ के अंत से पहले ही गंगा विलुप्त हो जाएगी। जिस महान संस्कृति को उसने जीवन दिया उसका सबसे विकसित रूप देखने तक गंगा का जीवन नहीं बचेगा।

हम शायद इस मुगालते में हैं कि गंगा में पानी का अक्षय भंडार हैं तभी तो एक परियोजना पूरी नहीं होती कि पांच नई परियोजनाओं का लेखा जोखा तैयार हो जाता है। सस्ती बिजली के लिए गंगा को बांधने की तैयारी जोर-शोर से चल रही है। गंगोत्री से निकलने के बाद गंगा के रास्ते में ढेरों पनबिजली परियोजनाएं चलाए जाने की तैयारी है। उन्मुक्त बहने वाली गंगा को बिजली के लिए छोटी-छोटी सुरंगों से होकर बहने को मजबूर किया जा रहा है।

इन परियोजनाओं का भयावह रूप देखकर आप दंग रह जाएंगे। गंगोत्री से महज 50 किलोमीटर की दूरी पर तीन परियोजनाएं चल रही हैं। गंगोत्री से 14 किलोमीटर की दूरी पर भैरो घाटी प्रोजेक्ट 1 और पास ही भैरो घाटी प्रोजेक्ट 2 चलाने की तैयारी है। फिलहाल ये दोनों प्रोजेक्ट रुके हुए हैं लेकिन लोहारीनाग पाला प्रोजेक्ट पर काम जारी है। गंगोत्री से लोहारीनाग के बीच की दूरी सिर्फ 50 किलोमीटर है। लोहारीनाग परियोजना के बिलकुल करीब प्रस्तावित है पाला मानेरी परियोजना। पाला मानेरी में 480 मेगावाट बिजली पैदा की जाएगी। पाला मानेरी से बेहद करीब है मानेरी भाली 1 जो टिहरी डैम प्रोजेक्ट का हिस्सा है और यहां बिजली उत्पादन का काम जारी है। मानेरी भाली 2 का काम 2008 में ही पूरा हो चुका है।

टिहरी डैम 2006 में पूरा हो चुका है। टिहरी के बाद बना है कोटेश्वर डैम। कोटेश्वर के बाद है कोटीभेल-1 ए, कोटीभेल-1 बी, फिर कोटीभेल- दो। ये तीनों में बिजली की परियोजनाएं प्रस्तावित हैं।इनके अलावा ऋषिकेश में विदर्भ के नाम से एक परियोजना है। ऋषिकेश से हरिद्वार के बीच चिल्ला परियोजना का काम भी चल रहा है। यानी गंगोत्री से हरिद्वार के बीच सस्ती बिजली के लिए गंगा की छाती पर 12 बड़ी और छोटी परियोजनाओं पर काम चल रहा हैं।जरा अंदाजा लगाइये, इस नदी को किस तरह से रौंदा जा रहा है? कैसे इस बेचारी नदी को बांधा जा रहा है? सरकार सोच रही है कि जब गंगा नदी पर चल रही बिजली परियोजनाएं पूरी हो जाएंगी तो उत्तराखंड के हर गांव में बिजली की रोशनी झिलमिलाएगी। लोग कौड़ी के मोल बिजली खरीदेंगे। सत्य तो यह है कि बिजली तो मिलेगी लेकिन पानी नहीं मिलेगा। जब पानी ही नहीं मिलेगा तो जीवन कैसे चलेगा?

सबसे भयावह बात यह है कि जब ये प्रोजेक्ट पूरे हो जाएंगे तब पहाड़ों के नीचे से कोई मंदाकिनी, कोई अलकनंदा कलकल करती हुई नहीं बहेगी। कोई मनोरम दृश्य हमारी आखों को इस सभ्यता के सैकड़ों पुराने आखानों की याद नहीं दिलाएगा। गंगा पुराणों में बहेगी। इतिहास में उसका जिक्र होगा। कुंभ और मेलों की धूमिल यादें होंगी। खेत खलिहान सूखे होंगे। गंगा की सहायक नदियों के घाट पानी के लिए तरस जाएंगे और जिन छोटी-छोटी धाराओं का वजूद गंगा से है वे जलविहीन हो जाएंगीं।

हमें बिजली चाहिये, सस्ती बिजली। सस्ती बिजली के लिए हम इतनी बड़ी कुर्बानी देने को तैयार हैं। यह आत्मघाती फैसला पता नहीं क्या सोच कर लिया जा रहा है। हमें याद है अपने बचपन की गंगा जब गांव से भागलपुर जाते हुए सरकारी स्टीमर से नदी को पार करते थे। घाट के पास गंगा के पाट देखकर मन कांप उठता था। कलकल करता हुआ पानी अथाह होने का आभास दिलाता था। उस पार उतर पाने की अनिश्चितता हमें डराती थी। स्टीमर से गंगा को पार करने में डेढ़ से दो घंटे लगते थे। अब वहां पुल बन गया है। पुल के ऊपर से गुजरते हुए गंगा दिखती है। लेकिन दोनों किनारों पर खड़े लोग भी दिखते हैं। ये दृश्य गंगा की पतली होती धारा का दुखद अहसास कराते हैं। ऐसा लगता है जैसे नदी पूरे वर्ष वैशाख में बहने वाली नदी जैसी क्षीणकाय हो गई है।

गंगा कई जगहों से कट गई है। वह कटती ही जा रही है और पानी घटता जा रहा है। पटना, बनारस से लेकर इलाहाबाद और कानपुर तक यही हाल है। वैज्ञानिक चेता रहे हैं कि ग्लेशियर पिघल रहे हैं। गोमुख साल दर साल सिकुड़ता जा रहा है। लेकिन क्या फर्क पड़ता है। गंगा को बचाने और शुद्ध करने के नाम पर जो सफाई अभियान चल रहा है, उसकी हालत जगजाहिर है।

गंगा ने हमें बसाया। भारत के बसने की कहानी और हमारी महान सभ्यता संस्कृति का चित्र इस बहती हुई नदी की तरंगों पर अंकित है। महाभारत काल से लेकर अब तक गंगा किनारे की सभ्यता फलती फूलती रही। सबसे उपजाऊ जमीन हमें गंगा ने दी। हम इसी नदी के किनारे पले-बढ़े, और इसी नदी के घाट पर जलकर भस्म हुए। गंगा ने हमें मुक्त किया। अब हम गंगा को मुक्त कर रहे हैं। शायद उसे त्राण दे रहे हैं। इतनी तकलीफें झेलने के बाद गंगा अब बहने के लायक नहीं है। इस संस्कृति को आबाद करने वाली नदी का सूरज आधुनिक संस्कृति के क्षितिज पर डूब रहा है। नदी अपने ही पानी में मर रही है।

हमारी आधुनिक सभ्यता अपने हाथों से इस प्राचीन नदी का श्राद्ध करने वाली है।
 
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