गंगा का ओरहन

पटना जो कभी मगध साम्राज्य की राजधानी थी। अब राजनीतिक रूप से सबसे ज्यादा गतिशील, लेकिन सामाजिक रूप से सबसे ज्यादा जड़बद्ध और आर्थिक रूप से सबसे ज्यादा विपन्न सूबे की राजधानी है।

कवि ज्ञानेंद्रपति ने नदी और शहर के बदलते रिश्ते पर टिप्पणी करते हुए एक बार कहा था, ‘‘पहले नदियों के किनारों पर शहर बसते थे। अब शहर के किनारों से होकर नदियाँ बहती हैं।’’ यह बात तब की है, जब वे पटना में रहते थे और मैं नया-नया पटना आया था। उसी मोहल्ले में घर लिया था, जहाँ वे रहते थे। वह नया बसा मोहल्ला गंगा के निकट ही है, लेकिन मोहल्ले की जीवन-शैली और दिनचर्या में शायद ऐसा कुछ भी नहीं था, जिससे गंगा के निकट होने का अहसास हो।

यहाँ गंगा अपनी दिशा में बह रही थी, वहीं शहर अपनी गति से चल रहा था। इतना जरूर है कि शहर का सारा कचरा गंगा में डाला जा रहा था। वह अब भी डाला जा रहा है, लेकिन इसका अहसास शहर को न तब था, न अब है। हाँ, गंगा को जरूर इसका अहसास है, जो रोज-रोज गहरा होता जा रहा है और वह लगातार सिमटती-सिकुड़ती जा रही है। ज्ञानेंद्रपति ने कुछ दिनों बाद नौकरी छोड़ दी और बनारस चले गए। वहाँ अब भी गंगा बची हुई है। लोगों में उसके होने का अहसास भी है। उसके कोई दस साल बाद मैंने भी नौकरी छोड़ दी और बौखते-बौखते दिल्ली आ गया, जहाँ उनकी वह उक्ति और ज्यादा याद आने लगी। कभी बसा होगा यह शहर यमुना के किनारे, लेकिन अब तो!

खैर, दिल्ली तो दिल्ली है, लेकिन मैं अपनी स्मृति के शहर पटना को याद करूँ, तो वह मुझे सबसे ज्यादा विस्मृति का नगर लगता है। यानी, एक नगर है, जो कभी मगध साम्राज्य की राजधानी थी। अब राजनीतिक रूप से सबसे ज्यादा गतिशील, लेकिन सामाजिक रूप से सबसे ज्यादा जड़बद्ध और आर्थिक रूप से सबसे ज्यादा विपन्न सूबे की राजधानी है। पूरब से पश्चिम तक फैले इस अधिक लम्बाई और कम चौड़ाई वाले अर्द्ध आयताकार शहर के उत्तरी किनारे से होती हुई गंगा बहती है। आश्चर्य है कि पटना के शहरियों को साल में सिर्फ एक बार छठ पर्व के दिन गंगा किनारे बसे होने का अहसास होता है। नहीं तो बांस घाट में मुर्दा जलाते वक्त भी वाराणसी की मणिकर्णिका या हरिश्चंद्र घाट की कोई झलक नहीं मिलती।

देखा जाए तो, पटना वाराणसी की तरह सांस्कृतिक शहर है भी नहीं। वैसे तो अधकचरी आधुनिकता के साथ-साथ धर्म और राजनीति भी वाराणसी की सांस्कृतिक अस्मिता को काफी चोट पहुँचा रही है, फिर भी वहाँ बहुत कुछ बचा है। इसके विपरीत, पटना को तो बसाया ही गया था बेहद राजनीतिक कारणों से। शुरू में यह दो जनपदों (मगध और वैशाली) के बीच व्यापार के लिए नदी मार्ग का पड़ाव रहा होगा। व्यापारिक केंद्र तो गंगा के उस पार वर्तमान शहर हाजीपुर से कुछ पहले बसा नगर रहा होगा, जिसका ध्वंसावशेष चेचर गाँव में मिला है। वैशाली जनपद के उस व्यापारिक नगर के बारे में इतिहासकार पं. योगेन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि राजधानी पाटलिपुत्र की स्थापना के लिए जिस पाटलिग्राम को चुना गया था, वह तब एक गाँव ही था। लेकिन नदी मार्ग से व्यापार के चलते वह जरूर तब कुछ आर्थिक गतिविधियों वाला गाँव रहा होगा। वैसे तो पटना मुझे आज भी कुछ अधिक सक्रिय गाँव जैसा ही प्रतीत होता है।

पटना मगध ही नहीं, समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में साम्राज्य निर्माण की पहली महत्त्वाकांक्षा का प्रतीक है। उत्तर वैदिक काल में जब कृषि को ब्राह्मणों और क्षत्रियों की स्वीकृति मिली, तो तब जनपदीय राज-व्यवस्था सुस्थिर होने लगी। वैदिक आर्य तो पशुपालक ही थे, किसी हद तक घुमन्तु भी। खेती की शुरूआत दक्षिण के द्रविड़ों, मगध के व्रात्यों, विदेह (उत्तर बिहार) के राजन्यों और कुछ कबीलाई समूहों ने की। इसलिए पशुचारी संस्कृति जहां उत्तर-पश्चिम से नीचे की ओर आई थी, वहीं कृषि संस्कृति पूरब और दक्षिण से ऊपर की ओर गई। कृषि भूमि को लेकर विभिन्न महाजनपदों के बीच संघर्ष होते रहे। आखिरकार मगध सर्व-शक्तिमान बनकर उभरा।

तात्पर्य यह कि पाटलिपुत्र अपने आरम्भ से ही एक राजनीतिक शहर था और इसकी नजर पहले दिनों से ही नदी से कहीं ज्यादा नदी पार की भूमि पर थी। इसलिए गंगा से पटना का वैसा सम्बन्ध नहीं बना, जैसा कि वाराणसी का है, तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अब तो गंगा ने भी पटना से अपना सम्बन्ध तोड़ लिया है। पूर्वी इलाके में गाय घाट से दीदारगंज तक तो नदी अब भी शहर से जुड़ी हुई है और घाटों की सीढ़ियाँ भी कहीं-कहीं सलामत हैं। लेकिन पश्चिमी भाग (नवीन शहर) गाय घाट से दीघा तक गंगा शहर से काफी दूर चली गई है। छाड़न भी अब नहीं बचे। केवल गन्दगी का अम्बार है। गंगा सफाई अभियान में क्या होगा? कहाँ तक होगा? नहीं मालूम। दुख की बात तो यह है कि शहर के लोगों में नदी को वापस बुलाने की बेचैनी भी नहीं दिख रही है। कवि मित्र प्रकाश शुक्ल के शब्द उधार लेकर कहें, तो ‘यातना के खिलाफ’ नदी का ‘ओरहन’ सुनने वाला भी कोई नहीं है।

लेखक साहित्यकार हैं।

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