गंगा भारत की एक मात्र नदी है जिससे देश का सामान्य नागरिक भी परिचित है। गंगा और इसकी सहायक नदियाँ उत्तर, पश्चिम, मध्य और पूर्वी भारत के विशाल हिस्से को तब से सम्पोषित कर रही हैं, जब इस भू-भाग को भारत नाम नहीं दिया जा सका था। भारतवासी पानी, भोजन, जल-मल निकास और औद्योगिक-व्यापारिक गतिविधियों के लिए गंगा और उसकी सहायक नदियों पर प्राचीन काल से ही निर्भर हैं। संस्कृति, धर्म और अनुष्ठान, कुल मिलाकर भारतीय मानस की गहराई में गंगा इस हद तक पैठी है कि वे दूसरी नदियों को भी उसके वास्तविक नाम के साथ-साथ गंगा कहकर पुकारा करते हैं।
भारत और आंशिक रूप से (बांगलादेश तथा नेपाल) के लिए महत्त्वपूर्ण इस नदी प्रणाली का उद्भव पश्चिम-मध्य हिमालय की हिमनदियों से हुआ है। इसका अवतरण अक्षांश से 30 डिग्री 59 अंश उत्तर और 78 डिग्री 55 अंश पूरब मौजूद गोमुख में गंगोत्री नामक हिमनदी से होता है। यह समुद्र तल से 3892 मीटर की ऊँचाई पर मौजूद है। नंदादेवी, त्रिशूल, केदारनाथ, नंदकोट और कमेट नामक शिखरों तथा सतोपंथ और खटलिंग नामक हिमनदियों का पानी भी इसे ही प्राप्त होता है। हिमालय में गंगा की यही तीन प्रमुख धाराएँ हैं। भागीरथी गोमुख से निकलती है। जल प्रवाह की दृष्टि से सबसे अधिक मजबूत और लम्बी अलकनंदा, सतोपंथ और भागीरथ खड़क नामक हिमनदी से निकलती है। इसी में सरस्वती भी गिरती है। केदारनाथ के ऊपर चोरावारी हिमनदी से मंदाकिनी निकलती है।गंगा की मुख्य धारा 2525 किलोमीटर लम्बी है। यह गोमुख से चलकर उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल से गुजरते हुए गंगा सागर में विलीन हो जाती है। मध्य प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान आदि कई अन्य राज्य भी गंगा प्रणाली का हिस्सा हैं। पूरी गंगा घाटी भारत, नेपाल, तिब्बत (चीन), और बंगलादेश के 10,86,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली है। इसका सबसे बड़ा हिस्सा (लगभग 8,62,769 वर्ग किलोमीटर) भारत में मौजूद है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलाजी के आँकड़ों के अनुसार गंगा प्रणाली देश के आठ राज्यों (देखें, तालिका एक) में फैली है। भारत की भूमि का 26 प्रतिशत (3.28 लाख वर्ग किलोमीटर) सिर्फ एक गंगा नदी प्रणाली का हिस्सा है। यह आँकड़ा गंगा के महत्त्व को दर्शाता है।
उक्त तीनों प्रमुख धाराओं के अतिरिक्त मध्य और निचले ढ़लान पर अनेक अन्य सहायक नदियों का जल गंगा में गिरता है। बायें तट से प्रवाहित होने वाली रामगंगा, गोमती, घाघरा, गंडकी, बूढ़ी गंडक, कोसी, महानंदा, और दाहिने तट से प्रवाहित होने वाली यमुना, तमसा, सोन, पुनपुन, बेतवा, चम्बल, तोन, केन, सिंधा, हिंडोन, शारदा इसमें प्रमुख है। हिंडोन-जैसी कुछ सहायक नदियाँ खुद सूख रही हैं। इस तरह यह (गंगा प्रणाली) सिंचित और गैरसिंचित क्षेत्र, दोनों में जलापूर्ति करने वाली सबसे विशाल प्रणाली है। देश के कुल 143 मिलियन हेक्टेयर जल क्षेत्र में गंगा घाटी सबसे बड़ी है। यह अकेले 44 मिलियन हेक्टेयर में है। देश की 55 मिलियन हेक्टेयर बहुफसली सिंचित भूमि में 24 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र सिर्फ गंगा घाटी के जल पर निर्भर है।
विभिन्न राज्यों में मौजूद गंगा के प्रवाह मार्ग
राज्य | प्रवाह मार्ग |
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड | 294,410 |
मध्य प्रदेश | 199,385 |
बिहार | 143,803 |
राजस्थान | 112,490 |
पश्चिम बंगाल | 72,618 |
हरियाणा | 34,271 |
हिमाचल प्रदेश | 4,312 |
दिल्ली | 1,480 |
कुल प्रवाह | 862,769 |
गंगा की मुख्य धारा सैद्धांतिक रूप से तीन हिस्सों में बँटी है- (क) हिमनदियों से आरम्भ होकर हरिद्वार (कुछ वैज्ञानिक इसे उत्तर प्रदेश के नरोरा तक मानते हैं) तक का ऊपरी हिस्सा (ख) हरिद्वार से वाराणसी (या नरोरा से बलिया) के बीच का मध्य हिस्सा तथा (ग) वाराणसी से गंगासागर (या बलिया से गंगा सागर) तक का निचला हिस्सा। ऊपरी हिस्से में ढलान के कारण जल का वेग अधिक है। इसमें उग्रता भी है। जल अत्यधिक ठंडा है। इसमें ऑक्सीजन की मात्रा काफी अधिक है। पानी में गाद भी बहुत है। जीव-जन्तुओं की प्रजातियाँ अधिक नहीं हैं। ढलान से नीचे आते ही मध्य और निचले भाग में गाद जमती है और नदी का तल पौष्टिकता से भरपूर हो जाता है। वनस्पतियों और जीव-जन्तुओं की मौजूदगी काफी बढ़ जाती है। गंगा-ब्रह्मपुत्र- मेघना नदी प्रणाली में गाद की मात्रा दुनिया में सबसे अधिक है। इसका स्रोत हिमालय है। यहीं से इसकी मुख्य धाराओं का उद्भव होता है। यह तुलनात्मक रूप से नया और काफी फैला हुआ है। अमेजन प्रणाली की तुलना में भी इसमें गाद काफी अधिक है। जल की प्रचुरता, खनिजों से भरपूर जमा होने वाले गाद और समशीतोष्ण वातावरण के कारण गंगा की घाटी में कृषक सभ्यता का विकास काफी पहले हुआ।
इस पृष्ठभूमि में गंगा के सामने तीन मुख्य चुनौतियाँ मौजूद रही हैं- (क) जल प्रवाह में तेज क्षरण (ख) वहन क्षमता में निरन्तर कमी और (ग) 2200 किलोमीटर से अधिक लम्बे नदी के निचले इलाके पर जनसंख्या का भारी दबाव। इन्हीं चुनौतियों और महत्त्व के बीच गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया गया है। गंगा-प्रणाली को प्रभावी रूप देने के लिए 2009 के आरम्भ में राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण का गठन किया गया। गंगा के अस्तित्व के सामने मौजूद चुनौतियों पर पर्याप्त साहित्य मौजूद है।
इनमें गंगा को जीवंत बनाये रखने के तरीके बताये गये हैं। खनिजों और जैव विविधता के साथ जीवंत प्रवाह अर्थात निरन्तर और पर्याप्त जल प्रवाह गंगा की विशिष्टता है। ऐसा नहीं होने से यह मरगंग में बदलने लगती है। बीसवीं सदी में (1940 के दशक के बाद से) गंगा के प्रवाह को तालिका में प्रदर्शित किया गया है। जाड़े के दिनों के कमजोर प्रवाह और वर्षा के दिनों बढ़े हुए प्रवाह को दिखाने वाले माहवार आँकड़े इसमें मौजूद हैं। जल की कमी वाले मौसम में प्रवाह की निरन्तरता को बनाये रखना गंगा के जलचरों के लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। नदी का पर्यावरण इसी न्यूनतम प्रवाह पर निर्भर है। इस न्यूनतम प्रवाह को पर्यावरणीय प्रवाह भी कहा जाता है और इसकी अलग-अलग व्याख्याओं में एक-दूसरे की तुलना में काफी भिन्नता है।
ध्यान देने लायक तथ्य यह है कि जल की कमी वाले मौसम के प्रवाह के स्वरूप में 1960 के दशक के बाद भारी गिरावट आयी है। वहीं, जल की अधिकता वाले मौसम में प्रवाह में बहुत ही कम वृद्धि हुई है। इसमें एकरूपता की भी कमी है। यह घटता-बढ़ता भी रहा है। जल प्रवाह की कमी वाले मौसम के आँकड़े गंगा के स्वास्थ्य में निरन्तर आती गयी गिरावट की ओर इंगित कर रहे हैं। वहीं प्रवाह में तेजी वाले मौसम के आँकड़े बाढ़ नियन्त्रण के लिए निर्मित संरचनाओं तथा बांधों की असफलता का संकेत एक हद तक कर रहे हैं।
इन परिवर्तनों के तीन कारण हैं- (क) जल की कमी वाले मौसम में इसके प्रवाह को बुरी तरह प्रभावित करते बांध, जिनका निर्माण गंगा और इसकी सहायक नदियों पर बड़ी संख्या में किया गया है (ख) जाड़े के दिनों की फसलों, खासकर रवी की खेती के क्षेत्रफल में 19वीं और 20वीं सदी में भारी वृद्धि, जो सिंचाई के लिए इस विशाल नहर प्रणाली पर निर्भर है। नहर प्रणाली की शुरूआत ब्रिटिश काल के पहले ही हो चुकी थी। इन कारकों के प्रभाव को समझने के लिए गंगा के प्रवाह से जुड़े 19वीं सदी के एक अन्य रिकार्ड को लिया जा सकता है, जो अधिक बड़े कालखंड पर आधारित है।
यह 1850 और 1900 से 1980 के बीच के दिसम्बर से मई महीनों के बीच के आँकड़ों पर आधारित है। इसमें जल की कमी वाले मौसम में जल प्रवाह के स्वरूप में हुई स्पष्ट गिरावट को देखा जा सकता है। आरम्भ में वायुमंडलीय परिवर्तन और इसके प्रभाव में गर्मी के मौसम के प्रवाह में बदलाव स्पष्टत: परिलक्षित है। वहीं, जाड़े और बरसात के मौसम में प्रवाह में कोई खास अन्तर स्पष्ट नहीं।
गंगा और इसकी सहायक नदियों पर निर्मित नहर प्रणाली- गंगा नहर प्रणाली (अपर गंग नहर, मध्य गंग नहर, निचली गंग नहर, आगरा नहर, पूर्वी गंग नहर), यमुना नहर प्रणाली (पूर्वी यमुना नहर, बेतवा नहर, धासन नहर, केन नहर, घाघर नहर और शारदा नहर) से खेती के लिए होने वाले जल के बड़े पैमाने पर दोहन की कल्पना की जा सकती है। इसके बाद बढ़ी हुई आबादी का, जिससे भी यह प्रवाह प्रभावित हो रहा है, बोझ ढ़ो पाने लायक प्रवाह भी शेष नहीं रह जाता। एक ओर तो गंगा घाटी में बसी कृषक आबादी का जीवन है, तो दूसरी ओर गंगा के जल के अनियन्त्रित दोहन के कारण गंगा का अस्तित्व ही खतरे में है। खास कर उत्तर-पश्चिम भारत के हरित क्रांति वाले इलाकों में भूगर्भीय जल के भारी दोहन से जलस्तर में भारी गिरावट आयी।
बहुद्देशीय और विद्युत उत्पादन के लिए बनाये गये बड़ी संख्या में निर्मित बांधों का पानी की कमी वाले मौसम में प्रवाह पर भारी प्रभाव पड़ा है। गंगा प्रणाली पर बनाये गये बांधों की संख्या में पिछले चार दशकों में भारी वृद्धि हुई है। (चित्र चार - एसएएनडीआरपी से) गंगा के जल पर निर्भर इलाकों में शहरी आबादी में भारी वृद्धि भी महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। इन इलाकों में जल की प्रति व्यक्ति खपत में तेजी से वृद्धि हुई है। सिर्फ 1991 से 2001 के दस सालों के बीच इसमें 33 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। लम्बे काल खंड में आबादी वृद्धि का जल के प्रति व्यक्ति खपत पर क्या असर पड़ा होगा, इसका सिर्फ अनुमान किया जा सकता है।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जल की कमी वाले मौसम में गंगा के प्रवाह को प्रभावित करने में अन्य के साथ-साथ ये कारक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। प्रस्तुत आलेख में वातावरणीय परिवर्तन के प्रभाव पर चर्चा नहीं की गयी है। इसपर अलग से चर्चा की जरूरत है। जल की प्रचुरता वाले वाले मौसम की तुलना में जल की कमी वाला मौसम जैविक गतिविधिायों के लिए बहुत ही महत्त्व का है। अगर हम माँ गंगा की दशा पर सचमुच चिन्तित हैं तो, हमें इन बड़े उपभोगों और विनाशकारी उपयोगों को रोकना ही होगा। सभ्यता के आधार की हिफाजत के लिए यह कोई बड़ा मूल्य नहीं होगा।
गंगा में 1940 तक के दशक का माह वार जल प्रवाह
माह | 1940 | 1950 | 1960 | 1970 | 1980 | 1990 |
जनवरी | 2992 | 3407 | 3121 | 2384 | 1705 | 1781 |
फरवरी | 2604 | 3011 | 2640 | 1888 | 1241 | 1110 |
मार्च | 2220 | 2505 | 2281 | 1561 | 1025 | 640 |
अप्रैल | 1948 | 2129 | 2035 | 1725 | 1018 | 628 |
मई | 2154 | 2206 | 2331 | 2012 | 1386 | 1200 |
जून | 3804 | 4627 | 4283 | 4196 | 3430 | 3724 |
जुलाई | 16156 | 19800 | 17662 | 19132 | 18895 | 20148 |
अगस्त | 35211 | 43303 | 37959 | 38318 | 38459 | 36310 |
सितम्बर | 35862 | 36998 | 37697 | 35173 | 40308 | 38173 |
अक्तूबर | 15877 | 19500 | 19729 | 16522 | 16908 | 19914 |
नवम्बर | 6845 | 8086 | 7041 | 6209 | 5757 | 5793 |
दिसम्बर | 4112 | 4615 | 4194 | 3598 | 2805 | 312 |
(लेखक भारत जन विज्ञान जत्था से जुड़े हैं।)
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