उपरोक्त विषय पर प्रकाश डालने के पूर्व मनुष्य एवं प्रकृति के प्राचानी संबंधों की चर्चा भी की जानी चाहिए। ज्ञातव्य है कि, प्रकृति का आधार है भौमिकी एवं मानव जीवन प्रकृति का दास है, जिसका मूर्त रूप हमारी बस्तियाँ, ग्राम, नगर एवं महानगर की स्थित है। भौमिकी के आधार पर प्रकृति के अनुकूल अपने को परिवर्तित करते रहने की जीवों द्वारा अपनायी गयी प्रक्रिया ने ही कालांतर में मनुष्य को जन्म दिया और यही गुण मानव के निरंतर विकास का कारण भी है। वे जीव, जो मनुष्य से कहीं बड़े आकार के थे, आज केवल जीवाश्म रूप में प्राप्त है। कारण स्पष्ट है कि वे ब्रह्म के मूर्त रूप प्रकृति के पुजारी न बन सके अपितु अज्ञानवश उससे एक विरोधी धारा में बहकर काल के गाल में विलीन हो गये। इस यज्ञ में केवल मनुष्य ही ऐसा रहा जो समय-समय पर अपने ज्ञान द्वारा प्रकृति को पहचान कर आज भी अपना अस्तित्व निरंत ऊँचा उठाता चला जा रहा है।
मानव की इस विकासशील दूरदर्शितापूर्ण प्रक्रिया का रूप हम भली प्रकार से अपनी प्राचीन बस्तियों, ग्रामों, नगर एवं महानगरों के निर्माण एवं विध्वंस में देख सकते हैं। मनुष्य की प्रथम शरणस्थली शैल गुफाओं से लेकर आज के आधुनिकतम सुविधापूर्ण महानगरों तक का रोचक इतिहास भौमिकी पर आधारित प्रकृति एवं मनुष्य के विशेष संबंधों पर अच्छा प्रकाश डालता है। आइये! विश्व की एक प्राचीनतम नगर काशी का, जो अनादिकाल से मानवीय धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, शैक्षणिक एवं नैतिक चेतना की प्रतीक रही है, भौमिकीय दृष्टि से अध्ययन कर उपरोक्त कथन की पुष्टि करें।
प्रकृति का आधार भौमिकी है, अत: मनुष्य ने सर्वप्रथम इसी का पहचान कर प्रकृति से अपने संबंध स्थापित किये। इस संबंध का मूलाधार अपने अस्तित्व की रक्षा रहा है। इस दिशा में उदाहरण स्वरूप हमारी वे वासस्थलियाँ ली जा सकती हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि उनके निर्माण का चयन-स्थल भौमिकी के गूढ़ अध्ययन द्वारा ही किया गया है। प्रचुर मात्रा में उपलब्ध खेती एवं मकान बनाने योग्य भूमि तथा सतह एवं भूगत में प्राप्त जल की बहुलता ने प्रारंभ में मानव सभ्यता का विकास महान नदियों की जलोढ़ अवसादयुक्त उपत्यकाओं में स्थित नगरों से हुआ। यद्यपि ऐसे कितने ही प्राचीन नगर जिनमें मिश्र का ममफिस, सीरिया का बाबील, टिग्रिस तट का नैनवा नगर कालांतर में नष्ट हो गये, परंतु जेरूसेलम, एथेंस, रोम तथा काशी आदि नगर आज भी संसार के महत्त्वपूर्ण स्थानों के रूप में विद्यमान हैं। उत्तर ईसा काल के नदी घाटी में बसे नगर जैसे टोक्यो, मास्को, वियना तो निरंतर विकास द्वारा विश्व के विशिष्ट स्थानों में जाने जाते हैं। सारांश यह है कि जिस मानव-सभ्यता का प्रारंभ नदी घाटियों में हुआ वह आज भी अधिकतर वैसे ही स्थलों में फल फूल रही है। यद्यपि ऐसे अनेक प्राचीन सभ्यता-स्थल जैसे भारत में सिंधु घाटी के नगर आज अवशेष रूप में मिलते हैं। प्रश्न यह होता है कि क्या कारण है कि कहीं किसी प्राचीन नदी घाटी सभ्यता का समूल विलुप्त हो गया और कहीं यह आज भी विकसित होती चली जा रही है।
उपरोक्त का उत्तर सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर मिलता है कि इस विडंबना का कारण जहाँ मनुष्य ने अपने जीवन के लिये भौमिकी से सामंजस्य छोड़ दिया वहीं वह ऐसा कठिनाई में पड़ गया कि एक सभ्यता का अस्तित्व ही लुप्त हो गया। सिंधु घाटी सभ्यता के लोप होने के पीछे भी कुछ ऐसी ही बातें हुर्इं। परंतु जहाँ मनुष्य ने जीवन हेतु दूरदर्शिता अपनाकर भौमिकी के ज्ञान का गहराई से उपयोग किया वहीं पुरानी गलती न दुहराकर काशी जैसे नगर बसे जो आज भी अपने महत्त्वपूर्ण अस्तित्व को विकसित करते जा रहे हैं।
गंगाघाटी में नगरों-जैसे काशी की स्थिति भौमिकीय रूप से ऐसी है कि नगर सदैव जीवित रहे, साथ ही हमने इसके अलाभकर रूपों का भली प्रकार निवारण करके इसको अक्षुण्ण रखने का सफल प्रयास भी किया है। प्राय: 5000 वर्ष प्राचीन मानी जाने वाली गीता में एवं अन्य प्राचीन धार्मिक हिन्दु ग्रंथों में काशी का वर्णन प्राप्त है। इससे भी पूर्व वेदकालीन बृहदारण्यक कौशतकी आदि उपनिषदों में ‘‘अजातशत्रुं काश्यं’’, काश्योवां वैदेही वोग्र पुत्र:, ऐसे वाक्य मिलते हैं। काशी का धार्मिक महत्त्व प्रथम तो यह है कि ‘‘काश्यामरणान् मुक्ति:’’ अत: काशी में गंगा तट पर मृत्यु का विशेष आग्रह रहा है। अस्सी ओर वरुणा के मध्य गंगा के तट पर स्थित नगर वाराणसी कहलाया जो तीर्थ कहलाता है। इसका अर्थ ही किसी प्रवाह के पार उतरने से है और प्राकृतिक रूप से मुख्यत: जल को ही प्रवाह का प्रतीक मानते हैं।
अत: गंगा का काशी ऐसे नगरों से मौलिक संबंध रहा है। उदाहरणार्थ कभी गंगा ने काशी का रंचमात्र भी त्याग नहीं किया, जैसे यह पटना, कानपुर, इलाहाबाद, भागलपुर आदि नगरों से दूर हट गयी है। गंगा के अतिरिक्त काशी में अनेक जल-स्थान तीर्थ रूप में प्रसिद्ध रहे जैसे लोलार्क कुण्ड, नागकूप। यह नगर अष्ट कूप और नव बावलियों वाला कहा जाता है। भौमिकील जल की प्रचुर उपस्थिति काशी की भौमिकीय बनावट का ही फल है। इस प्राकृतिक संपदा की देन हमने अनेक कूप, तालाब, बावलियों द्वारा खूब उपयोग में प्रयुक्त की और उनको धार्मिक महत्व देकर बहुत कुछ प्रदूषण से भी दूर रखा। अभी भी काशी के प्राचीन कूपों में नागकूप, चंद्रकूप, धर्मकूप, वापियों में ज्ञानवापी एवं अनेक कुण्ड वर्तमान हैं। भौम जल का इतनी बड़ी मात्रा में उपयोग करने का एक कारण यह भी था कि काशी की भूमि में जलस्तर को पर्याप्त नीचे बनाये रखा जाये जिससे कभी भूमि में दलदल अथवा क्षार उत्पन्न होने की आशंका न रहे।
भौमिकीय रूप से घाटी के नगर गंगा के मैदान में नदियों द्वारा लाये अवसादों पर स्थित है। ये जलोढ़ अवसाद बालू, सिल्ट, मृदा, कंकड़ एवं बजरी द्वारा निर्मित हैं। मैदानी भाग में इनकी मोटाई एवं उपस्थिति अत्यंत परिवर्तनशील है परंतु भौम जल के भंडारण में इन जलोढ़ अवसादों के बालू एवं बजरी का रूप बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। गंगा के मैदान में नदियों द्वारा लाये जलोढ़ अवसादों को दो भागों में बाँटा जाता है। जलोढ़ का यह वर्गीकरण नदी से दूरी, जीवाश्म, अवसादकण के प्रकार एवं गहराई के आधार पर किया जाता है। नदी की घाटियों में प्राप्त जलोढ़ मुख्यत: दो प्रकारों, प्रथम प्राचीन जलोढ़ एवं दूसरे नवीन जलोढ़ के नाम से विभक्त किये जाते हैं। प्राचीन जलोढ़ नदी की बाढ़ द्वारा प्रभावित क्षेत्र से दूर, प्लेस्टोसीन युग के विशेष प्राणियों के जीवाश्मों तथा मुख्यत: कंकड़युक्त बालू, मृदा एवं बजरी वाले होते हैं। प्राचीन जलोढ़ में कंकड़युक्त मृदा एवं स्वतंत्र मृदा के अवसाद वाले अलग-अलग स्तर होते हैं जिनमें बालू के ऊपर मृदा एवं कंकड़युक्त मृदा के स्तर प्राप्त होते हैं। यद्यपि इन दोनों स्तरों में भौम जल प्राप्त होता है, पर बालू के स्तर में यह अधिक मात्रा में मिलता है।
इन प्राचीन जलोढ़ की आयु 1 से 4 लाख वर्ष जीवाश्मों के आधार पर आंकी गयी है। दूसरी ओर नवीन जलोढ़ वर्तमान काल में नदियों के तटबंधों के पास, बाढ़ से प्रभावित होने वाले क्षेत्र तक सीमित रहते हैं। ये अधिकतर बालू, सिल्ट एवं मृदायुक्त होते हैं। इनमें कंकड़ बहुत कम एवं मछलियों, सीपी, घोंघे के जीवाश्म मिलते हैं। नवीन जलोढ़ गहराई तक नहीं पाये जाते और न ही इनमें स्तर होता है, साथ ही भौम जल की मात्रा भी प्राचनी जलोढ़ की अपेक्षा कम पायी जाती है। ऐसे जलोढ़ गंगा एवं सहायक नदियों के किनारे के क्षेत्रों में दृष्टिगत होते हैं।
गंगा की घाटी में इन जलोढ़ों के नीचे चट्टानों की उपस्थिति के प्रकार में अभी मतभेद हैं। इस मतभेद का कारण जलोढ़ के नीचे की चट्टानों का पूर्ण विवरण न प्राप्त होने से है। घाटी में जलोढ़ की मोटाई भी कहीं 10,000 फीट तो कहीं 1500 फीट ही है। यह घाटी उत्तर में हिमालय की तराई से लेकर दक्षिण में विंध्य पर्वतमालाओं को स्पर्श करती है। अत: दोनों पर्वत श्रेणियों की चट्टानें इस घाटी की तलहटी में प्राप्त हो सकती हैं। वर्तमान काल में हिमालयी भूकम्पों के धक्के इस घाटी में भी यदा-कदा आने के कारण इस पर्वत श्रेणी की चट्टानों की उपस्थिति का प्राय: अनुमान है। साथ ही घाटी की नदियों में विसर्पों की उपस्थिति इस बात का प्रमाण है कि घाटी की तली भी हिमालय के निरंतर उत्थान से सदा उठ रही है और इस उत्थान का संबंध नदियों के विसर्पण से अन्योन्याश्रित बताया जाता है। ज्ञातव्य है कि गंगा-सिंधु का मैदान दक्षिण के पठार एवं उत्तर में हिमालयी क्षेत्र के आपसी टकराव से मध्य में एक विशालखण्ड की व्युत्पत्ति के बाद धीरे-धीरे हिमालयी नदियों के जलोढ़ द्वारा भरने से बना है। फलत: इन निक्षेपों के नीचे किस पर्वत श्रेणी की चट्टानें हैं, स्पष्ट रूप से कहना कठिन है।
इसी गंगा घाटी में स्थित काशी जैसे नगरों की भी वही भौमिकीय अवस्था है, जो संपूर्ण घाटी की विशेषता है। काशी, जो घाटी के दक्षिणी ओर पर स्थित है, जहाँ से विंध्यपर्वत मालायें अत्यंत निकट हैं और काशी के चकिया क्षेत्र में तो ये दृश्य भी हैं। संपूर्ण वाराणसी जिले में गंगा ही प्रमुख नदी है और इसमें गोमती तथा वरुणा सहायक नदियों के रूप में मिलती हैं। कर्मनाशा नदी इसके दक्षिण पूर्वी भाग में स्थित है और बिहार की सीमा बनाती है। सभी नदियाँ बहुत विसर्पित हैं और अनेक छाड़न झीलों की उपस्थिति उनके प्रचानी विसर्पण का इतिहास बताती हैं।
आश्चर्य की बात यह है कि काशी के नगर क्षेत्र में अस्सी से राजघाट तक गंगा का विसर्प अति प्राचीनकाल से काशी को सदा अंकहु लपटाई को सिद्ध करता दीख पड़ता है और कभी यह भाग गंगा के प्रवाह से विरत नहीं हुआ, यद्यपि इसके ठीक उत्तर एवं दक्षिण के भाग में गंगा ने अनेक धाराएँ बदली हैं। इस तथ्य को समझने हेतु संपूर्ण काशी जिले की सतह के नीचे प्राप्त जलोढ़ों के स्तर एवं उनकी स्थिति का ज्ञान करना होगा। यह स्थिति हम जिले में बने नलकूपों के उत्खनन से प्राप्त भूगत जलोढ़ स्तरों के नमूनों से मालूम कर सकते हैं। ये नमूने ज्यादातर ‘‘प्राचीन जलोढ़’’ के हैं जो विभिन्न मोटाई एवं गहराई पर उन स्थानों पर प्राप्त होते हैं, जहाँ से आज गंगा दूर हैं, यद्यपि कभी इसकी उपस्थिति ‘‘प्राचीन जलोढ़’’ के स्तरों द्वारा उस स्थान पर इंगित होती है। काशी का नगर क्षेत्र जो गंगा के विसर्प के बायें किनारे के तटबंध पर स्थित है, मुख्यत: ‘‘प्राचीन जलोढ़’’ स्तर इसके भूतल में प्राप्य है। काशी क्षेत्र में ये ‘‘प्राचीन जलोढ़’’ 120 मीटर तक की गहराई में मिलते हैं। नवीन जलोढ़ गंगा के किनारे जहाँ तक बाढ़ का जल फैलकर जाता है तथा गोमती, कर्मनाशा एवं वरुणा के किनारे प्राप्त होते हैं।
‘‘प्राचीन जलोढ़’’ में अपने सभी गुण पाये जाते हैं। जहाँ तक जीवाश्मों का प्रश्न है, चंदौली तहसील के गंगा-किनारे स्थित प्रहलादपुर ग्राम में हमें प्राचीन हाथी स्टीगोडोन इंडीकस का एक चौघड़ दाँत जो 1 फुट वर्ग का है, प्राप्त हुआ था जो विश्वविद्यालय (बीएचयू) के भौमिकी विभाग में सुरक्षित है गंगा का प्रवाह काशी नगर क्षेत्र में सदा से वर्तमान विसर्प में बना हुआ है, और कोई परिवर्तन इसकी धारा में नहीं हुआ है। यह तथ्य, जैसा कहा गया है, कि नलकूपों से प्राप्त ‘‘प्राचीन जलोढ़’’ की मोटी तह की उपस्थिति से पुष्ट होता है। साथ ही रामनगर के दुर्ग की स्थिति भी बहुत कुछ गंगा के काशी से संबंध को स्थिर रखने में सहायक है। काशी नगर क्षेत्र में प्रवेश होने के ठीक पूर्व, दक्षिण में, गंगा के दाहिने किनारे स्थित यह दुर्ग दक्षिण-पश्चिम से आने वाले गंगा के प्रवाह में एक अवरोध उत्पन्न कर उत्तर में काशी नगरी की ओर धकेल देता है, और यह धारा अपने रोष को बड़े वेग से प्रकट करती हुई एक विसर्प बनाती हुई काशी को बायें किनारे छूती हुई निकलने को बाध्य होती है।
इस विसर्प के नतोदर भाग में काशी औसतन 50 मीटर की ऊँचाई के तटबंध पर बसी है। तटबंध के नीचे घाट बने हैं तथा धारा घाटों को बड़े विग्रह से विशेषकर हरिश्चन्द्र, केदार एवं मर्णिका घाटों को स्पर्श करती हुई जाती है। संभवत: श्मशानघाट की स्थिति धारा के विशेष वेग को देखकर की गयी थी। ज्ञातव्य है कि घाटों के सामने गंगा की गहराई, विसर्प के बायें अथवा नतोदर भाग में स्थित होने के कारण बहुत है जबकि पार में यह अत्यंत उथली है। घाटों के समक्ष की गहराई जल के वेग व मात्रा की द्योतक हैं। साथ ही घाटों की नींव की कटाई का भी संकेत हैं। यद्यपि विसर्प के नतोदर भाग में तटबंध का कटाव एक नैसर्गिक भौमिकीय प्रक्रिया है जिसे नदियाँ सामान्य रूप से अपनाती ही हैं। परंतु, अगर कोई नगर इन तटबंधों पर बसा हो तो यह बात खतरनाक सिद्ध हो सकती है क्योंकि ऐसे तटबंध कालांतर में ध्वस्त हो सकते हैं और नदी उनको अपने कटाव से विलीन कर देती है।
परंतु, काशी तटबंध पर बने पक्केघाट, जल के कटाव को सहकर नगर की रक्षा कर सकने में समर्थ हैं। यद्यपि कटाव के कारण इन घाटों की पक्की नींव भी खोखली होती जा रही है जिसे सरकार द्वारा पत्थर गिराकर पुन: भरा जा रहा है। चूँकि काशीनगर तटबंध पर ऊँचाई पर स्थित है, फलत: नगर के अंदर बाढ़ का पानी बहुत कम प्रविष्ट कर जाता है। साथ ही तटबंध पर स्थित होने से भौमजल भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो जाता है। फलत: अनेक कूप, बावलियों एवं तालाबों द्वारा नगर की जल संभरण की स्थिति भी मजे में निपटायी जा सकती है, साथ ही भौम जलस्तर भी बहुत कुछ नियंत्रित किया जा सकता है जिससे वह अनियमित रूप से वर्षाकाल में ऊपर उठकर भूमि को नष्ट न कर सके। तटबंधों में पाये जाने वाले भौमजल अनेक भूगत स्रोतों के रूप में मुख्य नदी में मिल जाते हैं।
काशी पंचगंगा घाट एवं दशाश्वमेध घाटों पर पायी जाने वाली अनेक पाताल नदियाँ तीर्थ रूप में विख्यात हैं। इनका भी भौमिकीय दृष्टि से महत्व है। ये स्रोत धीरे-धीरे तटबंध में भीतर ही भीतर एक घाटी का निर्माण कर स्थान-स्थान पर कटाव उत्पन्न कर देते हैं। घाटों के निर्माण के समय इनका विशेष ध्यान रखा गया है तथा घाटों की नींव पक्की तथा भरावदार न होकर कूप विधि से रखी गयी है। फलत: कूपों के मध्य से ये स्रोत गंगा में अपना रास्ता बनाये रखे रहें। ये अंतरवाहिकाएं निर्बाध रूप से घाटों के नीचे से बह रही हैं और घाट अपने स्थान पर खड़े हैं। ऐसा न करने पर ये वाहिकाएं नींव को काटकर गंगा में रास्ता बनाती और घाट अपने को संपूर्ण रूप से ले-देकर गंगा में विलीन हो जाते। काशी का सिंधिया घाट इसी स्थिति का सामना करते हुए तीसरी बार कूपदार नींव पर खड़ा किया गया है। अनेक घाट ऐसी स्थिति में न बने होने के कारण कालांतर में भौमजल स्रोतों की वजह से गंगा में ढह चुके हैं। वाराणसी एवं घाटी के नगरों की भौमिकीय स्थिति के अन्य लाभ भी हैं।
जैसा ज्ञात हुआ है कि वाराणसी क्षेत्र के प्राचीन जलोढ़ स्तरों में कंकड़ की बहुतायत है। ये कंकड़ बालू की मोटी तह के ऊपर जमीन से कम गहराई में ही पाये जाते हैं। काशी में अनेक स्थानों में इनकी खुदाई चूना बनाने एवं सड़क बिछाने के कंकड़ हेतु की जाती है जो एक अच्छा उद्योग भी है। इस कंकड़ के ऊपर मृदा भी प्राप्त होती है, जिसका उपयोग खिलौने तथा बर्तन बनाने के कुटीर उद्योग में काम आता है। कंकड़ के नीचे प्राप्त होने वाली बालू की मोटी परत भौमजल के भंडारण का अच्छा स्थान है जहाँ गहरे नलकूपों द्वारा काफी मात्रा में जल प्राप्त किया जा रहा है।
घाटी के नगरों की भौमिकीय स्थिति के अनेक अलाभकर पक्ष भी हैं। गंगा का वेगवान प्रवाह नगरों के तटबंधों को तो काटता रहा है, साथ ही राजघाट जैसे पुलों के खंभों को भी सदा कटाव द्वारा कमजोर करता रहता है, जिस पर निरंतर ध्यान देना पड़ता है। इसके अतिरिक्त गंगा के किनारे नगर एवं ग्रामीण क्षेत्रों से होने वाले बड़ी मात्रा में प्रदूषण को भौमिकीय स्थिति से समर्थन प्राप्त होता है, जिसका अध्ययन एवं रोकथाम आवश्यक है। विस्तृत रूप से इसकी चर्चा किसी अन्य लेख में की जायेगी।
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