गंगाः नदी का प्रवाह
पांच राज्यों से होकर बहने वाली गंगा के प्रवाह क्षेत्र में देश का लगभग 26 प्रतिशत भूभाग आता है। इसकी सफाई पर अकूत धन खर्च करने के बावजूद यह नदी आज भी प्रदूषित है। इससे भी बुरी बात यह है कि प्रदूषण अब उन हिस्सों में भी पाया जा रहा है जो पहले साफ माने जाते थे।
नोट: एमएलडी: मिलियन लीटर प्रति दिन (ये मात्रायें नालों से नदी में गिरने वाले कुल निस्सरण को दर्शात हैं) स्रोत: सीपीसीबी 2013, प्रदूषण मूल्यांकनः गंगा नदी, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, जुलाई
गंगा 'का बेसिन भारत का सबसे बड़ा नदी बेसिन है। यह देश के 26 प्रतिशत भूभाग पर फैला हुआ है तथा यहां की 43 प्रतिशत आबादी का पोषण करता है। भारत सरकार ने 1986 में गंगा एक्शन प्लान (जीएपी) की शुरुआत की। अगस्त 2009 में पुनर्गठित राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन अथॉरिटी (प्राधिकार) के साथ गंगा एक्शन प्लान को पुनः प्रारंभ किया गया। बीते हुए 30 वर्षों में लक्ष्य समान रहे हैंः प्रदूषण को नदी तक पहुंचने से रोकना। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो, सीवेज को रोकना तथा नदी में इसे छोड़ने से पहले ट्रीटमेंट की प्रक्रिया के द्वारा नदी की जल-गुणवत्ता को स्वीकार्य स्तर तक सुधारना (जिसे नहाने योग्य पानी की गुणवत्ता कहा गया है)। किंतु कार्यक्रमों, उपलब्ध कोष तथा थोड़े-बहुत कार्यों के बावजूद, गंगा अब भी प्रदूषित हो रही है। इससे भी बदतर यह है कि, हालिया शोधों में दिखाया गया है कि नदी के उन खंडों में भी, जिन्हें पहले साफ माना गया था, अब प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। अब क्या किया जा सकता है? आगे क्या रास्ता है?
स पत्रक में नदी की वर्तमान अवस्था, तथा गंगा को हमेशा 'जीवित' बनाए रखने के लिए आवश्यक कदमों की रूपरेखा प्रस्तुत की गई है।
क. प्रदूषण
वर्तमान अवस्था, इसके कारण तथा भविष्य की परिकल्पना
गंगा एक्शन प्लान (जीएपी-1) में उत्तर प्रदेश, बिहार तथा प. बंगाल में गंगा के किनारे स्थित 25 शहरों को चुना गया था। 1993 में, द्वितीय चरण (जीएपी-11) में कार्यक्रम को यथावत जारी रखा गया, किंतु इसमें इसकी चार सहायक नदियों यमुना, गोमती, दामोदर और महानदी के कार्य को भी सम्मिलित कर लिया गया।
अगस्त 2009 में, सरकार ने पुनर्गठित राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन अथॉरिटी (एनजीआरबीए) के साथ गंगा एक्शन प्लान को पुनः प्रारंभ किया। दिनांक 20 फरवरी, 2009 की अधिसूचना के अंतर्गत, सरकार ने इसे राष्ट्रीय नदी का दर्जा प्रदान किया। इसका उद्देश्य था प्रदूषण को पूर्णतः समाप्त करना और नदी का संरक्षण करना। पहले और वर्तमान गंगा एक्शन प्लान (जीएपी) के बीच का एक मुख्य अंतर है. अब यह स्वीकार कर लिया गया है कि योजना तथा क्रियान्वयन का आधार संपूर्ण नदी के बेसिन को माना जाना चाहिए। निचले प्रवाह क्षेत्रों में प्रदूषण के प्रभाव की पहचान किए बिना, किसी एक शहर के लिए योजना बनाना पर्याप्त नहीं है। यह स्वीकार किया गया है कि प्रदूषण नियंत्रण के किसी भी योजना में नदी में पर्याप्त पानी और इसके प्राकृतिक प्रवाह की आवश्यकता का ध्यान रखा जाना चाहिए।
मुख्य समस्याएं तथा समाधान के उपाय
तीन मुख्य समस्याएँ हैं, जिन पर गंगा के प्रदूषण का एक समन्वित समाधान तलाशने के संदर्भ में ध्यान देने की आवश्यकता है.
- अपशिष्ट के तनुकरण तथा उत्ते अंतर्विष्ट करने के लिए नदी में पानी का पर्याप्त प्रवाह।
- नदी के किनारे स्थित शहरों के अनुपचारित अपशिष्ट प्रवाह की बढ़ती मात्रा।
- नदी में उद्योगों द्वारा अपशिष्ट-विसर्जन के स्रोत स्थल प्रदूषण पर रोक का अभाव।
नदी कितनी प्रदूषित है?
प्रदूषण की चुनौतियां भयावह बनी हुई हैं। जुलाई 2013 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के आकलन के अनुसार, नदी के ऊपरी प्रवाह को छोड़कर, गंगोत्री से लेकर डायमंड हार्बर तक के लगभग 2,500 किमी. के मुख्य अपवाह क्षेत्र के सभी खंडों में फीकल कोलीफॉर्म (विष्ठाजनित कोलीफॉर्म जीवाणु) का स्तर, स्वीकार्य स्तर से ज्यादा बना हुआ था। किंतु इन प्रसारों के अलावा, रुद्रप्रयाग और देवप्रयाग जैसे स्थलों पर अपशिष्ट प्रवाह स्तर में वृद्धि के चिंताजनक संकेतों से यह पता चलता है कि इन उच्च-आक्सीजनयुक्त खंडों में भी अपशिष्ट के तनुकरण के लिए पर्याप्त प्रवाह नहीं है। (ग्राफ देखेंः गंगा की यात्राः गंगोत्री से डायमंड हार्बर तक)
संवेदनशील स्थलों पर प्रदूषण का स्तर चिंताजनक है, जैसे कि नदी के किनारे स्थित विशाल तथा तेजी से विकसित होते हुए शहरों में। सीपीसीबी मॉनिटरिंग आंकड़ों के अनुसार, हरिद्वार, कन्नौज तथा कानपुर के निचले प्रवाह क्षेत्र में बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) (जैविक ऑक्सीजन मांग) काफी उच्च स्तर पर, तथा वाराणसी में सबसे चरम स्तर पर है। किंतु सबसे चिंताजनक बात यह है कि सभी खंडों में प्रदूषण की स्थिति बिगड़ती जा रही है। इन सभी उच्च जनसंख्या आकीर्ण खंडों के किनारे के भागों में, नदी से स्वच्छजल का अंतग्रर्हण बढ़ता जा रहा है। इस प्रकार से, खेती, उद्योग और शहरों के लिए पानी खींचा जाता है, लेकिन बदले में जो वापस किया जाता है, वह केवल अपशिष्ट है।
मशीनरी की उपयोगिता और दक्षता का अधिक ध्यान रखे बिना ही, मूल ढ़ांचे के निर्माण में वित्तीय कोषों का उपयोग किया गया है। लेकिन इन सभी कार्यों के बावजूद, शहर यह लडाई जीत नहीं पा रहे हैं।
प्राकृतिक प्रवाह और जलमिश्रण (तनुकरण या डाइल्यूशन) की आवश्यकता
नदियों के पास खुद को साफ रखने की क्षमता होती है जिससे समावेशन (अनुकूलन) तथा जैविक अपशिष्टों का उपचार संभव होता है। लेकिन जहां नदी से प्रदूषणकारी पदार्थों का निष्कासन कम लेकिन उस तुलना में प्रदूषणकारी पदार्थों का नदी में निस्सारण बहुत ज्यादा है, ऐसी मौजूद स्थिति में प्रदूषण का होना तो अनिवार्य होगा ही।
नदी के ऊपरी प्रवाह क्षेत्र में जहां नदी की ऑक्सीजिनेशन की क्षमता अधिक होती है. संदूषण के लक्षणों में वृद्धि देखी जा रही है। इससे यह प्रकट होता है कि यहां भी जलविद्युत के लिए पानी का इस्तेमाल किया जाना गंगा के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है (ग्राफ देखेंः फीकल कोलीफॉर्म का वार्षिक रुझानः ऊपरी प्रवाह क्षेत्र)।
नदी के समतल जमीन में उतरने पर, सिंचाई और पेयजल के लिए उससे पानी निकालने की मात्रा उच्चतम हो जाती है। ऋषिकेश से इलाहाबाद तक के नदी के प्रवाह में जाड़े और गर्मी के दिनों में पानी की भारी कमी रहती है। दूसरे शब्दों में कहें तो इन दिनों नदी का प्रवाह ठहर सा जाता है। इन दिनों नदी में केवल अपशिष्ट पहुंचते हैं और इसका रूप सीवर जैसा हो जाता है। (ग्राफ देखें: गंगा में मौसमी औसत निस्सरण)।
ग्राफ
घरेलू सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट द्वारा प्रदूषण की समस्या का समाधान नहीं हो सकने के कारण
घरेलू सीवेज नदी के प्रदूषण का एक मुख्य स्रोत है। सीपीसीबी के अनुसार, नदी के किनारे स्थित 50 शहरों द्वारा 2.723 मिलियन लीटर प्रति दिन (एमएलडी) सीवेज का उत्पादन होता है, जो नदी के प्रदूषण भार में 85 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि करता है।
समस्या गंगा के किनारे पर स्थित मुख्य शहरों से होती है। 36 प्रथम श्रेणी के शहर अपशिष्ट जल अपवाह उत्पादन में 96 प्रतिशत योगदान करते हैं। और ट्रीटमेंट क्षमता का 99 प्रतिशत इन्हीं शहरों में स्थापित है। लेकिन समस्या यह है कि ट्रीटमेंट प्लांटों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करने के कारण नदी को साफ करने से ध्यान हट गया है। यही वह चुनौती है जिसका समाधान करना है। लेकिन इसका समाधान केवल नए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों की स्थापना करना ही नहीं है। यह समाधान इस तथ्य पर निर्भर है कि इन शहरों को अलग-अलग तरह से सीवेज प्रबंधन करना होगा। क्यो?
स्थापित क्षमता और ट्रीटमेंट के बीच एक बढ़ता हुआ फासला है
सबसे हालिया आकलनों में बताया गया है कि गंगा के मुख्य खंडों में घरेलू सीवेज के उत्पादन और ट्रीटमेंट क्षमता में विशालकाय अंतर हैं। 2013 का सीपीसीबी आकलन दिखाता है कि यह उत्पादन 2.723.30 एमएलडी है, जबकि ट्रीटमेंट क्षमता इससे कम 1,208.80 एमएलडी है। इसकी तुलना 2009 के आकलन से करना महत्वपूर्ण है (तालिका देखेंः गंगा में सीवेज उत्पादन तथा ट्रीटमेंट क्षमता), जिसमें यह प्रदर्शित किया गया है कि यद्यपि हमने सीवेज ट्रीटमेंट की क्षमता में निवेश किया है, यह अंतर यथावत बना हुआ है। इस आकलन के अनुसार, आधे से अधिक सीवेज बिना ट्रीटमेंट के ही नदी या अन्य जलाशयों में प्रवाहित कर दिया जाता है।
स्थापित सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) भी काम नहीं करते
सीवेज ट्रीटमेंट क्षमता में कमी आने के कारण हैं: प्लांट को चलाने के लिए बिजली की कमी और ट्रीटमेंट करने के लिए प्लांट तक पहुंचने वाले सीवेज में कमी आना। सीपीसीबी की 2013 की रिपोर्ट में 64 में से 51 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों के निरीक्षण क्रम में यह पाया गया है कि, स्थापित क्षमता के 60 प्रतिशत से कम का उपयोग किया जा रहा है, इसके अलावा, 30 प्रतिशत प्लांटों का संचालन भी नहीं हो रहा है (तालिका देखें: गंगा एसटीपीः क्या सफलतापूर्वक चल रहा है और क्या नहीं, जैसा सीपीसीबी के निरीक्षण से पता चलता है।
सीवेज के उत्पादन का कम आकलन किया गया, लिहाजा ट्रीटमेंट क्षमता उच्चतम बनाने की जरूरत है
उत्पादन तथा ट्रीटमेंट का वास्तविक अंतर मोटे तौर पर कम आंका गया है। समस्या उन तरीकों से है, जिनके माध्यम से सरकारें प्रदूषण भार का आकलन करती हैं, तथा सीवेज ट्रीटमेंट की योजना बनाती है। सीवेज के उत्पादन का आकलन पानी की आपूर्ति की मात्रा पर आधारित होता है। धारणा यह है कि आपूर्तित जल का 80 प्रतिशत अपशिष्ट जल के रूप में वापस आता है। लेकिन, चूंकि शहरों को यह पता नहीं होता कि कितना पानी वितरण के दौरान बर्बाद होता. है और उनकी सीमा के अंदर कितने अधिक भूमिगत जल का उपयोग किया जाता है, अतः अपशिष्ट जल का उत्पादन आकलन से काफी ज्यादा हो सकता है। (तालिका देखें वास्तविक तथा मापे हुए सीवेज उत्पादन के बीच अंतर)
इसे सीपीसीबी द्वारा गंगा पर सबसे हालिया संग्रहीत आंकड़ों में दिखाया गया है। गंगा में छोड़े गए अपशिष्ट जल की वास्तविक माप 6,087 एमएलडी है जो अपशिष्ट जल के - आकलित निःस्राव से 123 प्रतिशत ज्यादा है। दूसरे शब्दों में, ट्रीटमेंट किए हुए तथा गैर ट्रीटमेंट के अपशिष्ट के बीच अंतर 55 प्रतिशत नहीं, बल्कि 80 प्रतिशत है। सीपीसीबी के इन आंकड़ों अनुसार, अनुमान यह है कि नदी की मुख्य धारा में बीओडी भार 1,000 टन/दिन है।
संयोजक्ता में कमी के कारण एसटीपी अप्रभावी हैं
गंगा किनारे के ज्यादातर शहरों में किसी प्रकार का अपशिष्ट वहन तंत्र नहीं है। कानपुर, इलाहाबाद और वाराणसी में 70 से 85 प्रतिशत शहरी भाग में भूमिगत ड्रेनेज तंत्र कार्यरत नहीं है। इसके परिणामस्वरूप, नालियां एसटीपी से जुड़ी हुई नहीं हैं। जो निकास खुली नालियों वाले हैं वे नदी में अपना अपशिष्ट प्रवाहित कर देते हैं। इलाहाबाद में 57 नालियां नदी में प्रवाहित होती हैं; शहर के अधिकारियों का कहना है कि इनमें से 10 को प्रदूषित नालियों की तालिका में शामिल नहीं किया गया है क्योंकि इनका निःस्राव नदी तक नहीं पहुंचता (तालिका देखेंः सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का संयोजनः यूपी के शहर)। लेकिन समस्या यह भी है कि यह बिना ट्रीटमेंट किया अपशिष्ट निःस्राव भूमिगत जल को दूषित कर प्रदूषण भार को बढ़ा देता है।
इस वजह से, शहरों को सीवेज प्रणाली से भूमिगत संयोजन की समस्या से आवश्यक रूप से निपटना होगा। यह काम पूरा नहीं किया गया है और आकलन तैयार किए गए हैं, जिनमें सुझाया गया है कि ये शहर जो कि पुराने तथा संकीर्ण है- भूमिगत सीवेज लाइनें डालने और अपशिष्ट को नदियों तक पहुंचने से पहले रोकने की क्षमता से लैस हैं। लेकिन अनुभवों से देखा गया है कि शहर भर में पूर्णतः संयोजित प्रणाली का निर्माण संभव नहीं हो पाता। एसटीपी का निर्माण पहले हो जाता है, लेकिन सीवेज को वहन करने वाली नालियों का निर्माण पूरा नहीं होता, और नदी पूर्ववत प्रदूषित होती रहती है।
शहरों के पास एसटीपी के लिए धन और परिचालन व्यवस्था की कमी है
तीन प्रकार की प्रमुख लागतें होती हैं जिनका योजना बनाते समय आकलन करना जरूरी होता है। पहली, एसटीपी के निर्माण की पूंजीगत लागत, दूसरी, संयंत्र के परिचालन की लागत; और तीसरी, संयंत्र में सीवेज को रोकने और उसे उपचारित करने की लागत। इन सबसे ऊपर है, ड्रेनेज नेटवर्क के रखरखाव की लागत। इन लागतों में अंतर होते हैं जो उत्पादित सीवेज की क्वालिटी और बहिःस्रावी प्रवाह के स्तर पर निर्भर करता है।
एसटीपी की पूंजीगत लागत सन् 2000 के शुरुआती दिनों में 30 लाख से 60 लाख रु. प्रति एमएलडी थी। अब यह लागत बढ़कर 1-1.25 करोड रु./एमएलडी पर पहुंच गई है, वह भी तब जबकि परियोजना के अंतर्गत आने वाली भूमि की लागत को इसमें शामिल नहीं किया गया है। परिचालन और रखरखाव की लागत जो प्राथमिक रूप से बिजली, रसायन और श्रम के रूप में थी, 0.60 से 3 रु. प्रति किलोलीटर है। लेकिन टर्शियरी ट्रीटमेंट के लिए यह लागत बढ़ सकती है। मौजूदा विस्तारित प्रणाली में जहां नगरनिकायों द्वारा आधारभूत सेवाओं के लिए भुगतान कठिन है, वहां सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का परिचालन करना और भी कठिन हो जाता है।
साथ ही सीवेज नेटवर्क के निर्माण की लागत का आकलन करना भी कठिन होता है, खासकर जहां शहरें ग्रीनफील्ड परियोजनाओं के तहत नहीं है वहां नेटवर्क के निर्माण या मरम्मत जनसंकुल इलाकों में करना होता है। यदि जेएनएनयूआरएम-1 के तहत आने वाली परियोजनाओं को आकलन के लिए लिया जाता है तो कलेक्शन नेटवर्क और ट्रीटमेंट प्लांट सहित समग्र सीवेज परियोजना की औसत लागत 3.33-6 करोड रु. प्रति एमएलडी तक है: प्रति व्यक्ति लागत के रूप में यह 4,000 रु. होता है। लेकिन इसे व्यापक रूप से एक अवमूल्यांकन माना जाता है क्योंकि प्रति व्यक्ति लागत समग्र जलापूर्ति योजना के लिए आंकलित लागत - 4,500 रु. से कम है। कुछ ही ऐसे उदाहरण हैं जहां ऐसे समग्र सीवेज सिस्टम बनाए गए हैं। एनजीआरबी परियोजनाओं के विश्लेषण से यह पता चलता है कि बेगूसराय में 2.4 करोड़ रु. प्रति एमएलडी की लागत में और देवप्रयाग में 7.8 करोड़ रु. प्रति एमएलडी की लागत में ऐसे सिस्टम बने हैं। (देखें तालिकाः सीवेज परियोजनाओं की वास्तविक लागत)।
नोट: नेशनल गंगा बेसिन ऑथरिटीः 2010-2011 में स्वीकृत परियोजनाओं के तहत ट्रीटमेंट प्लांट, ड्रेनेज और पंपिंग स्टेशन को एसटीपीः सीवेज उपचार संयंत्र; एमएलडीः मिलियन लीटर प्रतिदिन
प्रणाली के लिए भुगतान केन्द्र तथा राज्य सरकारों के बीच विवाद का एक मुख्य मुद्दा रहा है। जब यह कार्यक्रम शुरू हुआ इसे पूरी तरह केन्द्र द्वारा वित्त उपलब्ध कराया जाता था। 1990 दशक के शुरुआती दौर में राज्यों से आधा व्यय उठाने को कहा गया। सात साल बाद, नीति में बदलाव लाया गया और केन्द्र संपूर्ण व्यय वहन करने को तैयार हुआ। यह समझौता अधिक दिनों तक नहीं चला। 2001 में एक लागत-विभाजन का नया फार्मुला बनाया गयाः 70 प्रतिशत केन्द्र और 30 प्रतिशत राज्यों द्वारा वहन करने का फॉर्मुला। राज्य द्वारा वहन की जाने वाली लागत की एक तिहाई स्थानीय निकायों द्वारा वहन किया जाना था। संचालन व रखरखाव भी राज्यों तथा स्थानीय निकायों की जिम्मेदारी बनी। नगर निकायों की कमजोर वित्तीय अवस्था के कारण यह भी सफल नहीं रहा।
अब नेशनल क्लीन गंगा मिशन के तहत भुगतान फॉर्मुला की समीक्षा की गई है। केन्द्र परियोजनाओं को पीपीपी स्वरूप में तैयार करेगा जिसके तहत पांच साल के लिए संयंत्रों को डिजायन-बिल्ड-ऑपरेट के रूप में अनुदान की जरूरत होगी। केंद्र पाँच साल तक संपूर्ण लागत वहन करेगा जिसके बाद संयंत्र को राज्य सरकार के हाथों में सौंप दिया जाएगा, यह मानकर कि पांच साल बाद संयंत्र को चलाने लायक धन राज्य के पास उपब्ध होगा। गंगा से जुड़े सभी राज्यों में स्थानीय निकायों की खस्ता माली हालत को देखते हुए यह स्पष्ट नहीं है कि यह प्रणाली कैसे काम करेगी।
लेखिकाः सुनीता नारायण
स्रोत- सेंटर फॉर साइंस एन्ड एन्वायरन्मेंट
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