आज सुबह जब मैं बनारस में गंगा जी के घाटों पर गया, तो ललिता घाट से पैदल गुजरते हुए मैंने लक्ष्य किया कि दक्षिणवाहिनी गंगा जब बनारस में उत्तरवाहिनी होती है तो एक अर्द्धचन्द्राकार हार सी आकृति बनाती है. पहले वहां एक निरवरोध प्रवाह बना रहता था. ललिता घाट पर बनने वाला वह प्राकृतिक वृत्त, आज देखा तो नष्ट कर दिया गया है और वहां अब एक त्रिकोण सा निर्मित हो गया है. इसका सबसे पहला नुकसान तो ये हुआ है कि अब गंगा की गाद वहां से आगे बढ़ ही नहीं पाएगी. अब सारी गाद घाटों और सीढ़ियों पर जमा होगी. हमारा जो प्राचीन और पारम्परिक ज्ञान रहा है, अपनी धरोहरों के प्रति, अपनी विरासतों के प्रति, अपनी नदियों और जलाशयों के प्रति, असल में वह लोक की सम्पदा रहा है. यह ज्ञान पीढ़ियों से पीढ़ियों को हस्तांतरित होता चला आया है. जैसे नदियों के किनारे बसने वाले मल्लाहों और निषादों को परम्परा से यह ज्ञान रहा है की धारा का प्रवाह कैसे बना रहेगा. घाट कैसे बनाने हैं. कहाँ किस मोड़ पर कितना घुमाव रखना है आदि. अब यहाँ बनारस में तो इन मूल बाशिंदों को घाटों से बेदखल कर दिया और ये सारे अनियोजित और आधुनिक निर्माण विज्ञान के सहारे किये जा रहे हैं. सदियों से जो हमारी मूल समझ थी, उसे दरकिनार करके विकास के नाम पर आधुनिक विज्ञान का यह जो तांडव किया जा रहा है, दरअसल यह विनाश का रास्ता है.
आज आपने बनारस में जो गंगा देखी, आप बता रहे हैं कि घाटों का स्वरूप बदलने से, अर्द्धवृत्ताकार घुमाव को त्रिकोणात्मक करने से घाटों पर सिल्ट जमा होने की आशंका बढ़ गयी है. लेकिन मुझे लगता है कि समस्या केवल इतनी ही तो नहीं है. जब हम नदी के प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाड़ कर रहे हैं, तो नदी की प्राकृतिक संरचना या हमारे पारिस्थितिकी तंत्र पर भी तो उसका कुप्रभाव पड़ने वाला है. उस पर कुछ रोशनी डालें.
देखिये, किसी भी नदी का जो अपना ईकोसिस्टम होता है, उससे अधिक महत्वपूर्ण उस नदी के जीवन के लिए और कुछ नहीं होता. गंगा के किनारे बसी वह आबादी, जिसका जीवन नदी की धारा के साथ जुड़ा होता है, उनसे बड़ा कोई दूसरा नदी वैज्ञानिक आप सारी धरती पर कहीं नहीं पायेंगे. गंगा के लोगों ने, इनके पूर्वजों ने जो घाट अपने ज्ञानतंत्र से बनाये थे, वे कहीं ज्यादा वैज्ञानिक थे, बनिस्पत आज के अवैज्ञानिक और इस घातक बदलाव के. यह गंगा के लिए डिजास्टर पैदा करेगा. आज तो मैंने देखा, इन घाटों पर होटल खड़े कर दिए गये हैं और इन होटलों का सारा वेस्ट गंगा में बहा रहे हैं, तो इस वैज्ञानिकता और इस विकास में तो एक धोखा भी है, लोक-आस्था के साथ मजाक भी है और अहंकार व मनमानी तो है ही.
अभी यहाँ बनारस में खिड़किया घाट पर नदी के पेटे में लगभग पचास मीटर तक अंदर घुस के घाट और हाइड्रोलिक हेलीपैड आदि बना रहे हैं. जहाँ यह माना जाता है कि नदियों के किनारे पक्के घाट तक नहीं बनाने चाहिए, क्योंकि अपने कच्चे घाटों पर नदी सांस लेती है. विज्ञान के इन स्पष्ट निर्देशों के बावजूद अगर हम नदी के प्रवाह क्षेत्र में घुसकर इस तरह अनियंत्रित, अनियोजित निर्माण करेंगे, घाट बनायेंगे तो ऐसे में क्या नदी का सोता सूख जाने की भी आशंका है?
देखिये, कहते हैं कि गंगा अपने पंच महाभूतों के साथ जीती और सांस लेती है. गंगा को गंगा की आज़ादी चाहिए, गंगा को गंगा की अविरलता चाहिए, गंगा को गंगा का सूरज और गंगा को गंगा की मिट्टी चाहिए, उसे अपने प्राकृतिक वातावरण के साथ सांस लेने की आज़ादी चाहिए. यह गंगा की मांग है. जब आप गंगा की यह आज़ादी छीनते हैं, तो आप विकास नहीं कर रहे हैं, आप गंगा का मरना सुनिश्चित कर रहे हैं. जब गंगा को गंगा की मिट्टी का स्पर्श नहीं मिलेगा तो वह गंगा नदी नहीं, गंगा नहर हो जायेगी. अगर मैं केवल बनारस की गंगा की बात करूं तो गंगा के पेट में प्लेटफार्म और चबूतरे बनाकर इन लोगों ने गंगा की हत्या कर दी है. यह विकास के नाम पर गंगा का विनाश है.
सरकार के बड़े बड़े झूठे दावों के बावजूद हम रोज़ अपने सामने देख रहे हैं कि जगह-जगह गंगा में सीवर के बड़े-बड़े नाले गिर रहे हैं. हम जहाँ बैठे हैं, यहीं हमारे नीचे से शाही नाले का सीवर गुजर रहा है. जिम्मेदार लोगों के जब दौरे होते हैं तो ये नाले बैनरों और पोस्टरों से ढक दिए जाते हैं. जानते सब हैं कि क्या हो रहा है, पर प्रतिकार नहीं होता और न तो जिम्मेदार लोगों से सवाल पूछे जाते हैं. ऐसे में एक समाज के तौर पर हम क्या और किस तरह के कदम उठा सकते हैं कि गंगा के साथ यह अत्याचार बंद हो?
यह सही है कि गंगा को जानबूझकर मारा जा रहा है. इसके खिलाफ जो लोग आवाज़ उठाते भी हैं, आप सोच भी नहीं सकते, खुलेआम उनकी हत्या करवा दी जाती है. आप जानते हैं कि हमारे दो साथी डॉ जीडी अग्रवाल और निगमानन्द जी यही आवाज़ उठाते हुए, सत्याग्रह करते हुए मार डाले गये. उनकी मृत्यु को मैं हत्या ही मानता हूँ. बाकी लोगों को डरा दिया जाता है. इसलिए अब गंगा का सच बोलने वाले बहुत कम लोग रह गये हैं. लेकिन इसके बावजूद हर खतरा उठाकर भी मेरा कहना है कि गंगा के लिए उठने वाली आवाजें कमजोर नहीं पड़नी चाहिए. अगर गंगा की आवाज़ कमजोर पड़ गयी तो हमारी गंगेय संस्कृति भी मर जायेगी. यदि अपने देश और सत्यमेव जयते के आदर्श को बचाना है तो हमें गंगा को बचाने के लिए अब निर्णायक सत्याग्रह करने की ठान लेनी चाहिए.इसके बाद राजेन्द्र सिंह के आग्रह पर हम सभी खिड़किया घाट पहुंचे. वहां चल रहे सीमेंट कंक्रीट के निर्माण और गंगा के अंदर घुसकर बनाये जा रहे हेलीपैड को देखकर वे वहीं ठिठक गये. उनके मुंह से स्वतःस्फूर्त ये शब्द निकले.
यहाँ का जो दृश्य देख रहा हूँ, काशी के इस ज्ञानक्षेत्र और मोक्षक्षेत्र की विरासत का जो विनाश किया जा रहा है, वह देखकर मुझे उस कहावत का अर्थ समझ में आ गया कि नौ सौ चूहे खा के जो बिल्ली हज को गयी थी, उसका चेहरा कैसा होगा, ऐसा ही होगा! यह विनाश करते हुए गंगा में नहाने का नाटक करना और भक्त बनना, यह सब याद करके मुझे इस कहावत का अर्थ समझ में आ गया. कोई मुझे बताये कि जो गंगा में आस्था रखता होगा, जिसे मां गंगा ने अपनी सेवा के लिए बुलाया होगा, ऐसा कोई भक्त गंगा के सौ मीटर अंदर उसके पेट में घुसकर ऐसा दुराचार कैसे कर सकता है? गंगा के प्रवाह पथ में कंक्रीट के प्लेटफॉर्म और हेलीपैड बना डाला. गंगा के तीन ज़ोन हैं, याद रखिये. घाट की इन सीढ़ियों पर, जहाँ हम बैठे हैं, यह गंगा का बहाव क्षेत्र है, इसे गंगा का ब्लू ज़ोन कहते हैं. जहाँ 25 सालों में गंगा कम से कम पांच बार पहुंचती है, वह गंगा का ग्रीन ज़ोन है और जहाँ गंगा सौ साल में एक बार पहुंचती है, वह गंगा का रेड ज़ोन है. इस रेड ज़ोन तक गंगा की जमीन है, यह सब इनकी क़ानून की किताबों में लिखा पड़ा है. गंगा की अपनी जमीन में घुसकर ऐसा अत्याचार करने की इजाजत किसी को नहीं है. इस अत्याचार को रोकने के लिए सत्याग्रह के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है. यह अत्याचार हम सहन नहीं करेंगे.
विरासत स्वराज यात्रा की जरूरत. उसकी पृष्ठभूमि और इसके उद्देश्य के बारे में बताएं
सूट बूट पहनने वाले गांधी को लगा कि जो कपड़ा मैं पहनता हूँ, उसमें भारत की आत्मा नहीं है. इस देश की आत्मा छूने के लिए मुझे इसी देश के कपड़े पहनने पड़ेंगे. इसके बाद उन्होंने मदुरै में अपना सूट बूट उतारा और आज हम उन्हें जिस रूप में देखते हैं, वह आधी धोती अपनाई. उसी मदुरै से हमने यह विरासत स्वराज यात्रा शुरू की थी. इस यात्रा का उद्देश्य यह है कि इस देश के मूल में जो सादगी है, इस चमक दमक की दुनिया में वह कहीं खो गयी है, उसको पुनर्प्रकट किया जाय. यह गांधी जी की विशेषता थी कि उन्होंने देश के सबसे गरीब आदमी की पोशाक और उसके चरखे को स्वतंत्रता की लड़ाई का सबसे बड़ा हथियार बना दिया. दुनिया के बड़े से बड़े हथियार को उन्होंने हाथ ही नहीं लगाया. मैनचेस्टर के टेक्सटाइल उद्योग के जरिये जिस तरह ब्रिटेन देश को लूट रहा था, उस लूट के खिलाफ एक साधारण से चरखे को गांधी ने अपना सुदर्शन चक्र बना लिया. इसी तरह नमक जैसी मामूली चीज़, आम जनता, गरीब गुरबा से जुड़ी हुई चीज़ को उन्होंने संघर्ष का मोर्चा बनाया. इस तरह सादगी को, साधारणता को, किसान को, मजदूर को और घनघोर अँधेरे में पड़े लोगों को उन्होंने अपने संघर्ष का सिपाही बनाया. हमारी इसी बुनियाद को, इसी विरासत को आज आमने सामने से खतरा महसूस हो रहा है. हमारी आधुनिक शिक्षा प्रणाली हमें हमारी बुनियाद से काट रही है, हमें हमारी विरासत से विलग कर रही है. साबरमती आश्रम से उसकी सादगी छीनकर उसे ग्लोबल टूरिस्ट प्लेस बनाने का काम शुरू हो गया है. जलियांवाला बाग़ में हमारी शहादत की विरासत चमक दमक के नीचे ढक दी गयी है. जहाँ शहीदों का खून गिरा था, वहां अब उत्सव का वातावरण रचा जा रहा है. वर्तमान सरकार हमें हमारी सादगी की विरासत से विमुख करके वाह्याडम्बरों के हवाले करने पर आमादा है.
विरासत स्वराज यात्रा लेकर आप विदेशों में भी गये. देश के विभिन्न हिस्सों में भी गए. कुल मिलाकर अनुभव कैसा आ रहा है?
22 सितम्बर से जब यह यात्रा शुरू हुई, तबसे हम अपने देश के अलावा सात देशों में जा चुके हैं. इस यात्रा का जो सबसे सकारात्मक और असरदार पहलू है, वह यह कि विश्वविद्यालयों में युवाओं का बहुत अटेंशन मिला है. आगे वे कितना साथ आयेंगे, ये हम अभी नहीं कह पायेंगे, लेकिन उन्हें इस बात का एहसास है कि वे जो शिक्षा पा रहे हैं, वह अनुत्पादक है. यह शिक्षा उन्हें लोभी और लालची तो बना रही है, ज्यादा बड़े पैकेज की ओर तो खींच रही है, उन्हें ज्यादा से ज्यादा धन कमाने के रस्ते पर तो ले जा रही है, लेकिन यह शिक्षा आज की पीढ़ी को प्रकृति और मनुष्यता की सेवा नहीं सिखा रही है. हमें यदि प्रकृति और मानवता के काम आना है तो अपनी पुरातन जीवन विद्या की और लौटना पड़ेगा, क्योंकि उस विद्या में शोषण नहीं, संरक्षण का ज्ञान है. विद्या कभी अतिक्रमण नहीं करती, वह हमेशा पोषण करती है. विद्या में कोई कम्पटीशन नहीं होता, वहां सब बराबर होते हैं. आधुनिक शिक्षा प्रतियोगी शिक्षा है. वह कुछ लोगों को बहुत आगे ले जाती है और बहुतों को पीछे छोड़ देती है. ये बातें आज के विद्यार्थियों को आकर्षित कर रही हैं.
इस यात्रा में अभी तक मैं लगभग सौ विश्वविद्यालयों में गया हूँ. हर जगह मैंने वाइसचांसलरों के सामने सवाल पूछा है कि ये तुम नौजवानों को क्या पढ़ा रहे हो. ये लोभ और लालच का जीवन ही अगर इस शिक्षा की मंजिल है, तो इसकी कोई दीर्घकालिक उपलब्धि बता दो. शुभ लाभ की संस्कृति वाली पीढ़ियों को हमने शुभ पढ़ाना बंद कर दिया, अब केवल लाभ पढ़ा रहे हैं. वाइसचांसलर कहते हैं कि हम क्या करें, हमें तो जो सरकार ने पाठ्यक्रम दिया, वह हम पढ़ा रहे हैं. अब बताइए, डेढ़ सौ साल पहले मैकाले ने हम पर जो शिक्षा लादी, हम उसे ढोये जा रहे हैं. मैंने पूछा कि क्या कभी किसी वाइसचांसलर ने सरकार को यह लिखा कि हम जो पढ़ा रहे हैं, वह अनुत्पादक शिक्षा है. उससे किसी समाज का, किसी समूह का उत्थान या भला नहीं होता, इससे किसी का शुभ नहीं होता? अब इसके बाद उनके पास कोई जवाब नहीं होता. इस यात्रा के दौरान हमने पांच सौ से बीस हज़ार तक की संख्या में सभाओं को सम्बोधित किया और मैंने कहा कि आज का जो साइंस है, वह सेंसलेस है. आज की इंजीनियरिंग केवल धरती का पेट चीरकर वहां जो कुछ भी है, उसे अनियंत्रित ढंग से निकालना सिखाती है. आज दो तिहाई धरती का पेट इस इंजीनियरिंग ने खाली कर दिया. पिछले सात सालों में मैंने 120 देशों की यात्रा करके देखा है. इनमे से 90 देशों की आबादी केवल पानी की खोज में यहाँ वहां विस्थापित हो रही है. क्योंकि आधुनिक शिक्षा पद्धति से उपजी अंतहीन शोषण की सीख ने धरती का पेट रिक्त कर दिया है. अभी गनीमत है कि बनारस में हमलोग बेपानी नहीं हुए हैं. अभी यहाँ गंगा जमुना के दोआबे में बहुत पानी शेष है. 42 साल पहले राजस्थान में जहाँ हमने काम करना शुरू किया था, वह जगह लगभग बेपानी हो चुकी थी. अब वह समाज अपने पानी के लिए सचेत है. और यह कोई किताबी ज्ञान नहीं है. हम व्यावहारिक ज्ञान की बात कर रहे हैं.
आपने बताया कि इस यात्रा के दौरान आपके ऐसे अनुभव आये कि आधुनिक शिक्षा से ऊबा हुआ युवा मन हमारी बातों की तरफ आकर्षित है. उसे लग रहा है कि वास्तव में कोई है, जो प्रवाह के विरुद्ध कुछ सच बोल रहा है. आज देश के सामाजिक वातावरण में जो एक विषाक्तता घोली जा रही है, इतिहास के पन्ने बदलने की कोशिश की जा रही है, योजनाबद्ध ढंग से इतिहास पुरुषों की छवि मलिन की जा रही है, नये और चौंकाने वाले प्रतिमान गढ़े जा रहे हैं, सत्य पर मिट्टी डालकर लगातार झूठ बोले जा रहे हैं, ऐसे में आपको क्या लगता है, अपना इतिहास, अपनी बुनियाद, अपनी विरासत बचाने की दिशा में उम्मीद की कोई किरन दिखाई पडती है?
जी हां, कम से कम मुझे उम्मीद की किरणें दिखती है. आज युवाओं में इस बात के लिए मैं आक्रोश देख रहा हूँ कि जो उन्हें बताया जाना चाहिए था, वह उनसे छिपाया जा रहा है. उन्हें एहसास है कि उन्हें अंधेरों की और धकेला जा रहा है. वास्तविक तस्वीर नहीं दिखाई जा रही, उसपर फ्रेमवर्क करके परोसा जा रहा है. जब मैंने विद्यार्थियों के सामने सरकार द्वारा साबरमती आश्रम को वर्ल्ड टूरिस्ट प्लेस बनाने की बात रखी तो उन्होंने पूछा कि आखिर सरकार ऐसा क्यों कर रही है. मैंने उन्हें बताया कि यह सब व्यापार के नये नये अड्डे बनाये जा रहे हैं. यह अपने गौरवशाली इतिहास के पन्ने बेचकर धन कमाने की लिप्सा है. विद्यार्थियों ने कहा कि आखिर वह धन देश का ही तो होगा. लेकिन वे चौंके तब. जब मैंने उन्हें बताया कि यह धन तुम्हारे काम नहीं आने वाला है. यह धन भी कुछ पूंजीपतियों की जेब के हवाले करने के लिए यह सारा कुछ हो रहा है. यह कोई लोकतंत्र नहीं है, यह उद्योगपति तंत्र है, जिसके लिए तुम्हें भी औजार की तरह विकसित किया जा रहा है. यह हमारी डेमोक्रेसी नहीं है. यह पूँजी संचालित लोकतंत्र है. यह बात विद्यार्थियों को समझ में आई. क्योंकि वे जमीनी हालात देख रहे हैं और हमारी बातों से वस्तुस्थिति की तुलना कर रहे हैं. इन युवाओं में मुझे उम्मीद की रोशनी दिखती है. इस यात्रा में मैं ऐसी तमाम जगहों पर गया, जहाँ बापू गये थे. बापू की जो सादगी है न, उस पर लोग मुग्ध रहते हैं. कीनिया में लोगों ने मुझसे कहा कि ये क्या आदमी है यार! कितना सादा और कितना सरल था! इतना बड़ा बैरिस्टर, यहाँ अफ्रीका में अंग्रेजों को अपने सिद्धांतों के सामने झुका देने वाला आदमी एकबएक फकीर बन गया. हमलोग तो सर झुका लेते हैं.
देखिये, हमें अपने तरुणों के बीच पहुंचना पड़ेगा. उनके विश्वविद्यालयों में उनके बीच पहुंचकर हमें परिस्थितियों में आये अंतर को समझाना होगा. उन्हें बताना होगा कि जबतक हम सच्चाई, सादगी और अनुशासन के साथ जीते रहे, प्रत्यक्ष तौर पर अपनी परम्पराओं से जुड़े रहे, तबतक हम शांत जीवन जीते रहे. और जबसे हमने यह झूठ जीना शुरू किया है और ये ग्लोबल इकोनोमी का सपना हमें दिखाया जाने लगा है, तबसे हम लुट रहे हैं, तबसे हम गरीब हो रहे हैं, तबसे हम डर डर के जीने लगे हैं. आज अपने जीवन को चलाने का संकट हमारे सामने है. अगर हम अपने जीवन को ठीक से चलाना चाहते हैं तो हमारा जो अपना भारतीय ज्ञानतंत्र और जीवन पद्धति है, उसे समझकर युवाओं को इसी उम्र में इसके मुकाबले खड़े होना पड़ेगा. सत्तर के दशक में मुझे याद है, हम युवा उसे कहते थे, जो झूठ के खिलाफ, लूट के खिलाफ, भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ बोलता था. तो एक तो यह आवाज़ उठाने की जरूरत है. दूसरे ये ज़ूम आदि नयी टेक्नोलोजी का सदुपयोग करके हमें लोगों को संगठित करना पड़ेगा. युवाओं में एक हलचल तो है, हमें इस हलचल को एक योजनाबद्ध दिशा देनी पड़ेगी. तीसरी बात ये कि जो लोग गांधी को मानते हैं, उन्हें डंट के इस झूठ के खिलाफ खड़ा होना पड़ेगा. ज्योंही हम झूठ के खिलाफ खड़े होते हैं, उसके बाद झूठ चलता नहीं है. वर्तमान झूठ यानी दिखावे के खिलाफ, इस कॉरीडोर और विकास के दिखावे के खिलाफ हमें अपनी अपनी जगह बोलना पड़ेगा. गांधी के सच पर आज जो झूठ का मुलम्मा चढाया जा रहा है, हमें एकजुट होकर उस मुलम्मे को तोड़ना पड़ेगा.
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