शास्त्रों के अनुसार पानी का जन्म भगवान विष्णु के पैरों से हुआ है। इसलिए पानी को नीर या नर भी कहा जाता है। गंगा नदी का नाम विष्णोपुदोद्दकी भी है अर्थात भगवान विष्णु के पैरों से निकली हुई। गंगा नदी का मुख्य स्रोत गंगोत्री में हैं लेकिन गंगा नदी में उत्तराखंड की कई गैर बर्फीली सहायक नदियाँ भी जुड़ी हैं। तभी गंगा नदी में पानी होता है।
खास तौर पर जाडों में गैर बर्फीली नदियों के पानी का महत्व गंगा नदी में अधिक होता है। इन्हीं में से एक उत्तराखंड जिला अल्मोड़ा के विकासखंड द्वाराहाट में रिस्कन नदी है। यह नदी गंगा की एक धारा है जिसका मुख्य उद्गम भगवान विष्णु के मंदिर नागार्जुन में उनके चरणों से हुआ है जो सुरुभि नदी कहलाती है। द्वाराहाट क्षेत्र के कई अन्य स्रोतों के साथ पहाड़ियों से नंदनी बहती है। सुरभि-नंदिनी का संगम भगवान शिव के धाम विमाण्डेश्वर में होता है। इस शिवधाम से आगे इस नदी को रिस्कन के नाम से जाना जाता है। यहां से शांत स्वभाव के साथ बहते हुए रिस्कन नदी तिपोला नामक स्थान पर गगास नदी में मिलती है। गगास रामगंगा में व रामगंगा आगे जाकर गंगा नदी में मिलती है।
सुरभि-नंदिनी के उद्गम से तिपोला में गगास में मिलने तक लगभग 48 किमी की दूरी रिस्कन नदी तय करती है। जिसमें 39 गांव के लगभग 100 से अधिक छोटे-बड़े जलस्रोत मिलते थे, उसमें से कई स्रोत अब सूख गए हैं। ग्राम कांडे, असगोली, गवाड़ वलना, छतीना बाड़ी, तल्ली बिठौली व नैनोली के मुख्य जलधाराएं इसी नदी में मिलती हैं। चनंथरिया क्षेत्र का रिजर्व वन क्षेत्र भी इस नदी का जल स्रोत है।
रिस्कन नदी के आसपास के गांव व रिजर्व वन में लगभग 75 प्रतिशत चीड़ के वृक्ष हैं। बंदरों, सुवरों व आवारा पशुओं की संख्या बढ़ने के कारण लोग गांव में खेती से जीवन-यापन नहीं कर पा रहे हैं जिसके कारण पलायन बढ़ रहा है। पलायन के कारण घास व लकड़ी की आवश्यकता ग्रामीणों में कम हो गई है। चीड़ के वृक्षों की अधिकता होना, घास व सूखी लकड़ी जंगलों से न उठाने के कारण जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढ़ रही हैं। पलायन के कारण खेत बंजर हो गए हैं। इन सब का प्रभाव जल स्रोतों पर पड़ने से कई स्रोत सूख गए हैं, जिसके कारण नदी का जलस्तर घटता जा रहा है।
39 गांव के लोग पीने का पानी रोजमर्रा की आवश्यकताओं के साथ-साथ इस नदी के पानी से सिंचाई भी करते थे। वर्ष 2005 के मई -जून माह में यह नदी पूर्ण रूप से सूख गई थी। तब सरकार को गांव में पानी टैंकरों से पहुंचाना पड़ा था, पानी के लिए मची त्राहि-त्रहि से पलायन और अधिक बढ़ने लगा। क्षेत्रीय जनता आंदोलित हो गई। सरकार द्वारा रामगंगा गगास जैसी बड़ी नदियों से पेयजल योजना बनाकर पानी पूर्ति करने का प्रयास किया गया। लेकिन पर्याप्त मात्रा में पानी पीने हेतु भी ना मिल पाने के कारण जनता को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि पहाड़ों में स्रोत सूख जाने से रामगंगा व गंगास जैसी गैर बर्फीली नदियों में भी पानी कम हो रहा है। तब जनता से विचार-विमर्श के दौरान समझ में आया कि अपने गांव के जल स्रोत को सूखाकर नदियों से नल में जल लाना टिकाऊ विकास नहीं हो सकता।
पानी व पर्यावरण संरक्षण हेतु 62 गांव में महिला संगठन व 42 गांव में बच्चों हेतु पर्यावरण शिक्षा केंद्र चलाकर हमारे द्वारा कार्य किया गया। पानी के स्रोतों को बचाने हेतु चौड़े पत्तीदार वृक्ष लगाने व बुजुर्गो द्वारा बनाए गए पुराने खावों यानी तालाबों का जीर्णोद्वार हम वर्ष 1990 से कर रहे थे। वर्ष 1990 से 2012 तक 5000 से अधिक खाव, खंतिया व हजारों चौड़ी पत्तीदार पौधे लगाए गए। लेकिन प्रयास के अनुसार जल स्रोतों का जलस्तर नहीं बढ़ रहा था। महिला संगठनों की एक बैठक में गांव में गिरते जल स्तर पर चर्चा के दौरान एक बूढी महिला ने मुझसे कहा मास्साब यानि मास्टर पानी खेतों में बोया ही नहीं गया तो आयेगा कहां से? तब मैंने उनसे इसका मतलब पूछा।
उन्होंने बताया कि लोग गांव छोड़कर शहरों में चले गए जिसके कारण पहाड़ियों के खेतों पर अब हल जोतना कम हो गया तो निराई गुड़ाई भी समाप्त हो गई जिसके कारण खेत बंजर हो गए, जमीन कठोर हो गई है उन्होंने कहा यदि खेतों में हल जोता जाएगा तथा निराई गुडाई कर खेतों का ढलान हल्का पहाड़ी की और किया जाएगा तथा खेत को मुंडरे थोड़ी ऊंची होगी अर्थात खेत का जल खेत में रोकने का प्रयास करेंगे। तभी वर्षा जल जमीन के अंदर जायेगा। वही जल पहाड़ियों के नीचे जल-स्रोत (नौले-धारे) के रूप में कहीं ना कहीं निकलेगा। अर्थात खेतों में वर्षों से प्राप्त पानी की बूंद को बोना पड़ेगा। तब मैंने ऐसे गांव में जाकर देखा जहां खेती हो रही थी, मैने पाया, जहां खेती हो रही थी वहां के जलस्रोत, आज भी जल से भरे हुए थे। वे गांव पानी में आत्मनिर्भर थे, जहाँ खेती नहीं हो रही, वहां जलस्रोत सूख गए थे। तब हमने नारा दिया पानी बोओ, पानी उगाओ।
पानी की समस्या को सुलझाने के लिए ‘पानी बोओ, पानी लगाओ’ अभियान के अंतर्गत हमने गांव-गांव में बैठकें करना प्रारंभ किया। महिलाओं, युवाओं व बच्चों को इस अभियान से जोड़ा, खेती करना कम कर चुके या समाप्त कर चुके ग्रामीणों को खेती कर रहे गांव में लेजाकर जलस्रोतों का अंतर दिखाया। तब लोगों को पानी की समस्या का कारण समझ में आया। तब हमारे द्वारा लोगों से अपील की गई कि जलस्रोतों के ऊपरी क्षेत्र में या तो अपने बंजर खेतों में हल जोतें या फिर अपने घर में जन्म, शादी, नौकरी लगने पर सेवानिवृत होने पर या मृत्यु होने पर अपने खेतों में खाव यानी छोटे तालाब बनवाएं। जिससे खेत का पानी खेत में बोया जा सके। लोगों ने इसमें बहुत अच्छा सहयोग दिया। वर्ष 2013 से 2022 तक 18 घन मीटर के लगभग 450 से अधिक खाव जनता के आर्थिक सहयोग से रिस्कन नदी के आसपास बनवाये जा चुके हैं। इन खावों की लागत लगभग 12 लाख रुपए से अधिक है।
इनसे करोड़ों लीटर पानी जमीन के अदंर वर्षा के दौरान जाता है। इसके अतिरिक्त ग्राम प्रधानों, सरपंचों, जिला पंचायत सदस्यों व अन्य जनप्रतिनिधियों द्वारा भी ‘पानी बोओ पानी लगाओं’ विचारधारा के अंतर्गत वर्षा जल संरक्षण हेतु खाव बनाकर पानी बोने का कार्य किया जा रहा है. जिसका परिणाम यह है कि आज कुछ सूख गए जलस्रोतों में पुनः पानी निकला है। जिसके चलते रिस्कन नदी अब पूर्ण रूप से गर्मियों में सूखती नहीं है। रिस्कन नदी का जल स्तर बढ़ाने हेतु जनता के साथ-साथ अब हमने राज्य व केंद्र सरकार से भी अपील की है। यदि चौड़ी पत्तीदार पौधे लगाकर पानी को सूर्य से बचाने के साथ-साथ खाव खोदकर पहाड़ों से दौड़ते वर्षा जल को रोककर जल स्रोतों को बचाया जाएगा, तभी नदियाँ बचेंगी। यदि गैर बर्फीली नदियाँ बचेगी, तो गंगा व यमुना जैसी विशाल नदियों में सदा पानी बना रहेगा।
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