गंदगी की बला दूसरे के सिर

हमारे जैसे देश में जहां कूड़े-करकट के ढेर लगे रहते हैं, उन्हें साफ करने में कई बार कई दिन लग जाते हैं। क्यों न स्थानीय निकाय सरकारों से सहायता यानी आर्थिक सहायता लेकर विभिन्न मशीनों को खरीदे। बड़े-बड़े काम मशीनों द्वारा किया जा सकता है। आखिर एयरपोर्ट पर काफी कुछ मशीनों से होने लगा है। कम से कम सरकारी दफ्तर व पब्लिक स्थानों पर इन सबका प्रयोग किया जा सकता है। यदि स्वच्छता, शुचिता का पाठ हम देशवासियों को पढ़ाया जाए तो यह शर्म की बात है, क्योंकि हमने स्वयं ही अपने आपको इतना गिरा लिया है और इस स्तर पर ला खड़ा किया है। जबकि हमारे समस्त पर्व-त्यौहार, कर्मकांड तथा रीति रिवाजों में स्वच्छता का बड़ा महत्व है। हर कृत्य सफाई से प्रारंभ होकर खाने पर समाप्त होता है। हमारे देश में दीपावली एक ऐसा त्यौहार है, जो लगभग संपूर्ण देश में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। लेकिन इस त्यौहार की एक विशिष्टता है कि इसे सफाई के साथ जोड़कर देखा जाता है। इस दिन घर के अंदर-बाहर अपने कार्यालयों, संस्थानों, दुकानों या जो भी कार्य स्थल होते हैं, उनकी पूर्णत: सफाई करना पर्व का एक भाग है। वैसे तो सभी पर्वों की यह विशेषता है। यह हर्ष का विषय है कि यह रिवाज इतनी आधुनिकता व प्रगतिशीलता के बावजूद निभाया जाता है।

माननीय प्रधानमंत्री जी ने महात्मा गांधी की जयंती यानी 2 अक्टूबर को स्वच्छता अभियान का दिन घोषित किया और हम देशवासियों को संदेश दिया कि हम इसे सफल बनाएं। अब उन्होंने हरियाणा की चुनावी रैली में यह भी एलान किया कि यह स्वच्छता अभियान अब एक सप्ताह चलेगा, जो पं. जवाहर लाल नेहरु यानी बच्चों के प्रिय चाचा नेहरु के जन्मदिन से प्रारंभ होकर भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जन्मदिन तक चलेगा। मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री जी को बीच में पड़ने वाली दीपावली का ध्यान नहीं आया, नहीं तो दीपावली की सफाई भी इसी क्रम में जुड़ जाती। यानी लगभग संपूर्ण देश में गांव-शहर-महानगर सब एक साथ जुड़ जाते। दीपावली की सफाई लोग स्वेच्छा और उत्साह से करते हैं। यदि इसे भी देश की सफाई के साथ जोड़ दिया जाता तो एक पंथ दो काज हो जाता।

मेरे विचार से अक्टूबर और नवंबर महीनों को स्वच्छता मास के रूप में ही घोषित कर देना चाहिए था। इस लंबी अवधि का यदि सदुपयोग उचित ढंग से किया जाए तो काफी परिवर्तन किया जा सकता है। लोग घर-बाहर की सफाई कर, गंदगी को सड़क पर ढेर करने की जगह उचित स्थान पर शायद रखते। शायद आंखों में गड़ने वाले जगह-जगह पड़े कूड़े-कचरे के ढेरों का भी निस्तारण हो जाता। मैंने अक्सर देखा है कि लोग दीपावली के समय घर में मरम्मत, रंग-रोगन करवाते हैं और फिर वह तोड़-फोड़, कूंची, स्पंज सब सड़कों पर बेतरतीबी से पड़ा रहता है। इन निर्धारित दिनों में सफाई करना या करवाना तो ठीक है, लेकिन उसके बाद उसी प्रकार की सफाई बनी रहे, यह प्रश्न हमेशा चुनौती देता रहेगा।

जगह-जगह पर कचरे को फेंकने के लिए बड़े-बड़े डिब्बे रखना चाहिए। हमारे देश की जनसंख्या को देखते हुए यहां डिब्बे बहुत छोटे रखे जाते हैं। फलस्वरूप लोग उसके बाहर फेंक देते हैं। कई जगहों पर डिब्बे होते ही नहीं। कचरे के डिब्बे न होने पर लोग सड़कों पर ही या बिल्डिंग के अंदर ही फेंक देते हैं। हम लोगों ने पश्चिमी देशों से खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना तो सीख लिया, लेकिन यह नहीं सीखा कि यदि कचरा फेंकने का कोई उचित स्थान नहीं है तो उसे अपने साथ अपने घर ले जाएं। अब कुछ 2 अक्टूबर की बात। प्रधानमंत्री के आह्वान का एक सकारात्मक पहलू यह है कि लोगों ने इसे गंभीरता से लिया। आम नागरिकों के साथ बहुत-सी स्वयंसेवी संस्थाएं भी सामने आईं। अन्य राज्यों के बारे में मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है, किंतु महाराष्ट्र, मुख्यत: हमारे शहर तथा अन्य शहरों में लोगों ने बहुत उत्साह व गंभीरता से इसे लिया। इस अभियान को लोगों ने अपने राजनीतिक झुकाव व समर्थन से ऊपर उठकर सफल बनाने की चेष्टा की। यह एक प्रगतिशील सोच है। देश के आगे दलों को पीछे छोड़ना बुद्धिमानी है।

इसी दिन दोपहर को मैं कुछ छोटे-मोटे, किंतु टाले न जा सकने वाले कामों के लिए बाहर निकली। सड़क पर आते ही देखकर मन प्रसन्न हो गया। सड़क और दिनों की अपेक्षा काफी साफ थी और सड़क के बीच के डिवाइडर को काले और सफेद रंग से पेंट किया जा रहा था। सड़क नई नवेली सजी लग रही थी। मैं जैसे ही एक एटीएम के आगे कार से उतरी, एक सज्जन ने पिच से पान की पीक उस नए पुते डिवाइडर पर थूक दी। मैंने जल्दी से पैर उठाया और उन्हें अग्नेय नेत्रों से देखा और मैं कुछ कहती, वे समझ गए और बड़ी फुर्ती से लगभग भाग गए। यहां तक कि पेंट करने वाले भी असहाय से उन्हें बड़ी देर तक देखते रहे। ऐसे उजड्ड लोगों के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए? दूसरा उदाहरण, मैं एक ऊंची बिल्डिंग के नीचे से निकल रही थी, किसी ने अंदर से जलाकर, सिगरेट बेपरहवाही से नीचे फेंकी। इस तरह के असभ्य लोगों को कौन सिखाएगा, जो महंगे बड़े-बड़े फ्लैट में रहते हैं और उन्हें यह भी तमीज नहीं कि सड़क उनके लिए नहीं साफ की गई है। हमारे देश में समस्या सफाई की नहीं है। हमारे देश में बहुत से लोग इस प्रकार के अभियानों में तन-मन-धन से जुड़ जाते हैं। समस्या है उसे मेनटेन यानी सफाई कायम रखने की।

हमारे देश में सबको मिलिटरी की ट्रेनिंग अनिवार्य कर देनी चाहिए। कहने का अर्थ यह है कि सैन्य शिक्षा लोगों को शिक्षित तो करती ही है, साथ ही देश प्रेम की भावना भी इससे प्रबल होती है। वहां रोजमर्रा की जिंदगी के पाठ दृढ़ता से पढ़ाए जाते हैं। समय पर आना, गंदगी न करना, स्वास्थ्य का ध्यान रखना तथा अपने आसपास सफाई रखना इत्यादि।मैं पुरुषों से पहले ही माफी मांग लेती हूं, हांलाकि मुझे ऐसा करना नहीं चाहिए, क्योंकि उनका अहम हर काम में आड़े आ जाता है। इस बाहरी गंदगी को बढ़ाने में उनका योगदान सबसे ज्यादा होता है और वह भी ऐसी गंदगी, जिसे साफ करना कठिन होता है। जहां-तहां थूकना, पान की पीक को थूकते समय वे स्वच्छ से स्वच्छ स्थान और समय का लिहाज नहीं करते। बीड़ी, सिगरेट, पान मसाला, तंबाकू की पुड़िया आदि सड़क की गंदगी को दोगुना करते हैं। यही नहीं, जहां-तहां अपनी दुपहिया-चार पहिया को सड़क या बिल्डिंग के किनारे खड़ा करके सरेआम गंदा करने को ये शायद अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। आखिर महिलाएं जब अपने ऊपर नियंत्रण रख सकती हैं तो पुरुष क्यों नहीं? ऐसे लोगों में संकोच जरा भी नहीं आता। बाजार, धर्मशाला, होटल, घर, सड़कें, खेत, यहां तक कि मंदिर का पिछवाड़ा भी, मानो सब इनके अधिकार क्षेत्र में है। जिसका स्वेच्छा से प्रयोग करने का मानो इन्हें लाइसेंस दिया गया है। इनकी मानसिकता कब बदलेगी?

इस बीमारी की दवा क्या है? जी हां, यह बीमारी ही कही जाएगी। सर्वप्रथम इस प्रकार इधर-उधर गंदगी फैलाने वालों के ऊपर एक बड़ा दंड लगाया जाना चाहिए। हम भारतीय विदेश के अनेक देशों, मसलन सिंगापुर की स्वच्छता से अभिभूत रहते हैं। सिंगापुर की स्वच्छता में दंड का प्रावधान बड़ा कठोर है। ये दंड बड़ी कठोरता से लागू किए जाते हैं और हमारे देश की तरह घूस देकर भी काम नहीं चलता। च्यूइंगम खाकर थूकना हमारे लिए छोटी गंदगी है, लेकिन वहां च्यूइंगम अब बेची ही नहीं जाती और जो सैलानी ले आते हैं, यदि उन्होंने थूका तो सौ डालर जुर्माना। सौ डालर का कितना रुपया होता है, हम सब जानते हैं। और, देखिए- लिफ्ट में गंदगी करना, थूकना, सिगरेट पीना, चिड़ियों को जहां-तहां दाना डालना, पब्लिक टॉयलेट में इस्तेमाल करने के बाद फ्लैश यानी पानी न चलाना और कचरा इधर-उधर फेंकना – यह सब जुर्म है। फाइन दीजिए, जेल की हवा भी खाइए।

ऐसे पश्चिमी देश या जिन भी देशों में बर्फ पड़ती है, घर के सामने की वह सारी बर्फ घर में रहने वालों को ही हटानी पड़ती है। गनीमत है कि हमारे देश में पहाड़ी व ऊपरी इलाकों में ही बर्फ पड़ती है, वरना बर्फ पिघलने के बाद जो दबा हुआ कचरा होता, उस सड़े-गले कचरे की दुर्गंध महामारी फैलाने के लिए पर्याप्त होती। कृपया कल्पना कीजिए। हमारे देश का दुर्भाग्य है कि हम प्रत्येक काम को सरकार का काम समझते हैं। मैं एक बार टीवी पर कश्मीर की बर्फबारी के दृश्यों को देख रही थी, जहां पर कुछ स्थानीय नौजवान सरकार को दोष दे रहे थे। वे नौजवान कम से कम अपने घर के आगे की बर्फ को मुख्य सड़क पर ठेल सकते थे, जिसे स्नोलोडर यानी बर्फ ढोने की गाड़ी उठाकर ले जा सकती थी। किंतु यह नहीं हो रहा था। साथ ही रिपोर्टर ने बड़ी हताशा से कहा कि देखिए, साफ दिखाई दे रहा है कि सरकार यहां कोई भी ध्यान नहीं दे रही।

यहां पर लोग घरों को तो साफ कर लेते हैं, किंतु अपने चारों ओर गंदगी पर बैठे रहते हैं। घर में झाड़ू लगी, कचरा सड़क पर, बागान की सफाई की टहनियों-पत्तियों को सड़क पर डाल कर अपने सुंदर बाग को निहारने बैठ गई। बाहर आम जनता सूखी पत्तियों को रौंदती टहनियों को कपड़ों से छुड़ाती चल रही होती है। हम कोसने बैठ जाते हैं स्थानीय निकायों को। पानी पी-पीकर हम अपने शहर की नगरपालिका व नगर निगमों को गाली दे-देकर हृदय को तो हल्का कर लेते हैं, किंतु गंदगी का भार तो आपने डाला है।

हमारी सोच में कर्तव्य नामक शब्द जन्म के साथ ही अपंग हो जाता है। हमारी मनोवृत्ति है कि शायद हमारा अधिकार है गंदगी फैलओ। और, यह सरकार या सफाई कर्मचारियों का कर्तव्य है कि वे उसे साफ करवाएं या करें। हमारे जैसे देश में जहां कूड़े-करकट के ढेर लगे रहते हैं, उन्हें साफ करने में कई बार कई दिन लग जाते हैं। क्यों न स्थानीय निकाय सरकारों से सहायता यानी आर्थिक सहायता लेकर विभिन्न मशीनों को खरीदे। बड़े-बड़े काम मशीनों द्वारा किया जा सकता है। आखिर एयरपोर्ट पर काफी कुछ मशीनों से होने लगा है। कम से कम सरकारी दफ्तर व पब्लिक स्थानों पर इन सबका प्रयोग किया जा सकता है। दूसरी बात, जगह-जगह पर कचरे को फेंकने के लिए बड़े-बड़े डिब्बे रखना चाहिए। हमारे देश की जनसंख्या को देखते हुए यहां डिब्बे बहुत छोटे रखे जाते हैं। फलस्वरूप लोग उसके बाहर फेंक देते हैं। कई जगहों पर डिब्बे होते ही नहीं। मुख्यतः जहां लोगों का आना-जाना बहुत होता है, ऐसी जगहों पर यह व्यवस्था होनी ही चाहिए, क्योंकि कई बार कचरे के डिब्बे न होने पर लोग सड़कों पर ही या बिल्डिंग के अंदर ही फेंक देते हैं। हम लोगों ने पश्चिमी देशों से खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना तो सीख लिया, लेकिन यह नहीं सीखा कि यदि कचरा फेंकने का कोई उचित स्थान नहीं है तो उसे अपने साथ अपने घर ले जाइए।

एक बात और, हमारे देश में सबको मिलिट्री की ट्रेनिंग अनिवार्य कर देनी चाहिए। जिस भी शहर में कैंटूनमेंट होते है, वहां पर कितना अच्छा रख-रखाव होता है। मैं एक बार उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ गई, वहां जैसे ही हमने सेना क्षेत्र में प्रवेश किया, स्पष्ट अंतर नजर आया। मैंने साथ बैठे अपने मेजबान से पूछा कि क्या यह सेना क्षेत्र है? उन्होंने उत्तर में क्या कहा- आपको कैसे पता लगा? मैंने कहा- सफाई से। कहने का अर्थ यह है कि सैन्य शिक्षा लोगों को शिक्षित तो करती ही है, साथ ही देश प्रेम की भावना भी इससे प्रबल होती है। वहां रोजमर्रा की जिंदगी के पाठ दृढ़ता से पढ़ाए जाते हैं। समय पर आना, गंदगी न करना, स्वास्थ्य का ध्यान रखना तथा अपने आसपास सफाई रखना इत्यादि। पहले जो एनसीसी कॉलेज व विश्वविद्यालयों में अनिवार्य थी, वह एक अच्छा कदम था, लेकिन धीरे-धीरे इसे हटा लिया गया।

अंत में, कृपया अपने देश को स्वच्छ बनाने में मदद कीजिए। प्रधानमंत्री जी, हम लोग इस अभियान में पूर्णतः आपके साथ हैं। शुचिता भगवान का स्मरण है, सब व्याधियों की निर्मूलक है।

(ई-मेल : s161311@gmail.com)

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Post By: pankajbagwan
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