देश में बढ़ते प्रदूषण के चलते गंभीर स्थिति हो गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 90 देशों के एक हजार शहरों में अध्ययन कर बताया है कि वायु प्रदूषण के कारण भारत तथा चीन के शहरों में फेफड़ों के कैंसर रोग बढ़े हैं। गैसीय एवं कणीय पदार्थों के साथ-साथ ध्वनि प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है। आधुनिक विकास की अंधी दौड़ में देश की 150 नदियां नाले में तब्दील हो चुकी हैं। भारत पर्यावरण के आपातकाल की ओर बढ़ता जा रहा है। इसी आपातकाल के बारे में जानकारी देते डॉ. ओ.पी. जोशी।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट, नई दिल्ली ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि रायपुर, झरिया, जालंधर, कानपुर, अलवर, लखनऊ, सतना, कोरबा, फरीदाबाद व इन्दौर में वायु प्रदूषण काफी बढ़ गया है। देश के 50 से ज्यादा शहरों में वायु प्रदूषण की स्थिति गम्भीर है। शहरों की वायु में खतरनाक माने जाने वाले निलम्बित कणीय पदार्थ (एस.पी.एम.) एवं श्वसनीय निलम्बिय कणीय पदार्थ (आर.एस.पी.एम.) की मात्रा तेजी से बढ़ रही है। देश के 88 में से 75 औद्योगिक क्षेत्र बुरी तरह प्रदूषित हैं। गुजरात का वापी दुनिया का चौथा प्रदूषित शहर है एवं बंगलूरु अस्थमा की राजधानी बन गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 90 देशों के एक हजार शहरों में अध्ययन कर बताया है कि वायु प्रदूषण के कारण भारत तथा चीन के शहरों में फेफड़ों के कैंसर रोग बढ़े हैं। वायु प्रदूषण के ही कारण देश के नागरिकों की श्वसन क्षमता में यूरोपीय देशों की तुलना में 25 से 30 प्रतिशत की कमी देखी गई है।
गैसीय एवं कणीय पदार्थों के साथ-साथ ध्वनि प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है। दिल्ली, मुम्बई एवं हैदराबाद दुनिया के ज्यादा शोर वाले शहरों में स्थान पा चुके हैं जहां अधिकतम औसत शोर की तीव्रता क्रमश: 92.0, 129.0 एवं 90.03 डेसीबल आंकी गई है। चेन्नई तथा लखनऊ में अधिकतम तीव्रता 86.0 डेसीबल तथा कोलकता एवं बंगलूरु में 80.07 एवं 75.05 डेसीबल का आंकलन किया गया। भारतीय मानव संस्थान के अनुसार दिन के शोर का स्तर 50 एवं रात्रि में 40 डेसीबल का होना चाहिए। बढ़ते शोर से लोगों में बहरापन, तनाव, अनिद्रा एवं आमकता बढ़ती जा रही है। सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के कारण वायुमंडल में प्रदूषण के रूप में विकिरण की समस्या भी बढ़ती जा रही है। अंतर्राष्ट्रीय विकिरण सुरक्षा परिषद ने कुछ वर्ष पूर्व देश भर में लगे मोबाइल टॉवर्स का अध्ययन कर बताया था कि इनमें से ज्यादातर विकिरण फैला रहे हैं।
विकिरण सुरक्षा उपायों पर कार्य करने वाली दिल्ली की कोंजेट कम्पनी ने दिल्ली के 100 क्षेत्रों में विकिरण की मात्रा का अध्ययन कर केवल 20 स्थान सुरक्षित बताये। वर्तमान में देश में मोबाइल टॉवर्स की संख्या तीन लाख के लगभग है जो 2012 तक बढ़कर पांच लाख हो जाएगी। टॉवर्स के आसपास 500 मीटर के क्षेत्र में रहने वाले लोगों पर विकिरण से पैदा रोगों का खतरा ज्यादा रहता है। हाल ही में केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने देश के 50 शहरों में 1000 मोबाइल, यूडिवेशन डिटेक्शन सिस्टम लगाने की योजना बनाई है। जल, पर्यावरण का दूसरा महत्वपूर्ण घटक है परंतु देश में इसकी स्थिति, मात्रा एवं गुणवत्ता दोनों स्तर पर बिगड़ी है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी विश्व जल विकास रिपोर्ट में देश को सबसे प्रदूषित पेयजल आपूर्ति वाला देश बताया गया है एवं गुणवत्ता के आधार पर यह विश्व में 120वें स्थान पर है। देश की लगभग 150 नदियां प्रदूषण के कारण नालों में बदल गई हैं।
सबसे ज्यादा 28 नदियां महाराष्ट्र में प्रदूषित हैं। लगभग 900 शहरों एवं कस्बों का 70 प्रतिशत गंदा पानी (लगभग 38250 मिलियन लीटर) प्रतिदिन नदियों में बगैर परिष्कृत किये छोड़ दिया जाता है। 3000 शहरों में से केवल 200 में प्रदूषित जल को परिष्कृत करने की आधी अधूरी व्यवस्था है। जल संसाधन मंत्रालय के अनुसार देश के 20 नदी घाटी क्षेत्रों में से 8 में पानी की कमी है। भूजल के उपयोग में पिछली आधी सदी में 115 गुना इजाफा हुआ है, जिसके कारण 360 जिलों में भूजल स्तर में गिरावट आई है। भूजल में प्रदूषण के कारण नाइट्रेट, फ्लोराइड एवं आर्सेनिक की मात्रा भी बढ़ी है, जिससे 2.17 लाख गांवों में पेयजल प्रदूषण से पैदा रोगों से ग्रामीण जनता प्रभावित है। भूमि भी पर्यावरण में अहम है परंतु हमारे कृषि प्रधान देश में भूमि की हालत भी काफी बिगड़ गई है। भारतीय कृषि शोध संस्थान की एक रिपोर्ट अनुसार देश की कुल 150 करोड़ हेक्टेयर खेती योग्य भूमि में से लगभग 12 करोड़ की उत्पादकता काफी घट गई है एवं 84 लाख हेक्टेयर जलभराव व खारेपन की समस्या से ग्रस्त है।
पिछले 20-22 वर्षों में ही देश की कुल खेती योग्य भूमि में 28 लाख हेक्टेयर की कमी आई है जिसके कई कारण हैं। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट 'स्टेट ऑफ एनवायरमेंट' में भी यही बताया गया है कि देश की 15 करोड़ हेक्टेयर भूमि में से लगभग 45 प्रतिशत भूमि अम्लीयता, जलभराव, खारेपन एवं प्रदूषण के कारण बेकार हो गई है। कृषि भूमि के क्षेत्र का घटना एवं उत्पादकता कम होना भविष्य में खाद्यान्न उत्पादन के लिए खतरनाक है। विभिन्न प्रकार की वनस्पतियां एवं जंतु जैव विविधता स्थापित करते हैं एवं देश दुनिया के उन 12 देशों में प्रमुख है, जो जैवविविधता के धनी हैं। पश्चिमी घाट एवं हिमालयीन क्षेत्र के साथ-साथ सुंदरवन एवं मन्नार खाड़ी अपनी अपनी जैव- विविधता के कारण दुनिया भर में मशहूर है। थलीय क्षेत्र में 80 प्रतिशत जैवविविधता वनों में पायी जाती है परंतु वनों का क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है।
देश के 33 प्रतिशत भूभाग पर वन होना चाहिए परंतु हैं केवल 25 प्रतिशत भाग पर ही। इस 21 प्रतिशत में से केवल 02 प्रतिशत ही सघन वन हैं, 10 प्रतिशत मध्यम स्तर के एवं 09 प्रतिशत छितरे वन हैं। देश में प्रति व्यक्ति वन का क्षेत्र 0.11 हेक्टेयर है जबकि विश्व अनुपात अनुसार यह 0.80 हेक्टेयर होना चाहिये। देश के लगभग 20 प्रतिशत जंगली पौधे व जीव विलुप्ति की ओर अग्रसर हैं। 6 लाख से ज्यादा गांवों में लगभग 50-60 वर्ष पूर्व 20 करोड़ के लगभग गाय, बैल थे, परंतु अब इनकी संख्या भी काफी घट गई है। देश के कत्ल कारखानों में हजारों पशु एवं पक्षियों को काटकर उनका मांस निर्यात किया जा रहा है। देश में जब कानून व्यवस्था बिगड़ने लगती है एवं जनता की शांति भंग होने का खतरा पैदा हो जाता है तब आपातकाल लगाया जाता है। ठीक इसी प्रकार देश के पर्यावरण की हालत भी काफी बिगड़ गई है एवं जनता के लिए वह रोगजन्य होता जा रहा है। अत: पर्यावरणीय आपातकाल लगाया जाना जरुरी है। यह आपातकाल लगाकर 8-10 वर्षों तक जारी भी रखा जाए। इस समयावधि में सरकार पर्यावरण से संबंधित बने सभी कानूनों का सख्ती से पालन करवाए।
देश की लगभग 150 नदियां प्रदूषण के कारण नालों में बदल गई हैं। सबसे ज्यादा 28 नदियां महाराष्ट्र में प्रदूषित हैं। लगभग 900 शहरों एवं कस्बों का 70 प्रतिशत गंदा पानी (लगभग 38250 मिलियन लीटर) प्रतिदिन नदियों में बगैर परिष्कृत किये छोड़ दिया जाता है। 3000 शहरों में से केवल 200 में प्रदूषित जल को परिष्कृत करने की आधी अधूरी व्यवस्था है। जल संसाधन मंत्रालय के अनुसार देश के 20 नदी घाटी क्षेत्रों में से 8 में पानी की कमी है।
मानव पर्यावरण में वायु, जल, भूमि, विभिन्न प्रकार की वनस्पतियां एवं जीव जंतु प्रमुख घटक माने गये हैं। हमारे देश में इन सभी घटकों की हालत बिगड़ चुकी है एवं सभी में प्रदूषण का जहर फैल गया है। आस्ट्रेलिया स्थित एडिलेड वि.वि. के पर्यावरण विभाग द्वारा दो वर्ष पूर्व जारी रिपोर्ट में ज्यादा पर्यावरण प्रदूषण पैदा करने वाले दस देशों में भारत सातवें स्थान पर है। कोलम्बिया एवं मेल वि.वि. के पर्यावरण वैज्ञानिकों द्वारा प्रदूषण नियंत्रण एवं प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन के संदर्भ में 163 देशों में किये गये अध्ययन में हमारा देश 123वें स्थान पर है। राष्ट्रीय स्तर पर भी कई संगठनों एवं संस्थानों द्वारा किये गये अध्ययनों का भी यही निष्कर्ष है कि देश में पर्यावरण की हालत काफी बिगड़ चुकी है। पर्यावरण अब स्वास्थ्यवर्धक न रहकर रोगजन्य हो गया है। वायु जीवन के लिए आवश्यक है परंतु देश के महानगरों के अलावा छोटे शहर भी वायु प्रदूषण के केन्द्र बन गये हैं।सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट, नई दिल्ली ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि रायपुर, झरिया, जालंधर, कानपुर, अलवर, लखनऊ, सतना, कोरबा, फरीदाबाद व इन्दौर में वायु प्रदूषण काफी बढ़ गया है। देश के 50 से ज्यादा शहरों में वायु प्रदूषण की स्थिति गम्भीर है। शहरों की वायु में खतरनाक माने जाने वाले निलम्बित कणीय पदार्थ (एस.पी.एम.) एवं श्वसनीय निलम्बिय कणीय पदार्थ (आर.एस.पी.एम.) की मात्रा तेजी से बढ़ रही है। देश के 88 में से 75 औद्योगिक क्षेत्र बुरी तरह प्रदूषित हैं। गुजरात का वापी दुनिया का चौथा प्रदूषित शहर है एवं बंगलूरु अस्थमा की राजधानी बन गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 90 देशों के एक हजार शहरों में अध्ययन कर बताया है कि वायु प्रदूषण के कारण भारत तथा चीन के शहरों में फेफड़ों के कैंसर रोग बढ़े हैं। वायु प्रदूषण के ही कारण देश के नागरिकों की श्वसन क्षमता में यूरोपीय देशों की तुलना में 25 से 30 प्रतिशत की कमी देखी गई है।
गैसीय एवं कणीय पदार्थों के साथ-साथ ध्वनि प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है। दिल्ली, मुम्बई एवं हैदराबाद दुनिया के ज्यादा शोर वाले शहरों में स्थान पा चुके हैं जहां अधिकतम औसत शोर की तीव्रता क्रमश: 92.0, 129.0 एवं 90.03 डेसीबल आंकी गई है। चेन्नई तथा लखनऊ में अधिकतम तीव्रता 86.0 डेसीबल तथा कोलकता एवं बंगलूरु में 80.07 एवं 75.05 डेसीबल का आंकलन किया गया। भारतीय मानव संस्थान के अनुसार दिन के शोर का स्तर 50 एवं रात्रि में 40 डेसीबल का होना चाहिए। बढ़ते शोर से लोगों में बहरापन, तनाव, अनिद्रा एवं आमकता बढ़ती जा रही है। सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के कारण वायुमंडल में प्रदूषण के रूप में विकिरण की समस्या भी बढ़ती जा रही है। अंतर्राष्ट्रीय विकिरण सुरक्षा परिषद ने कुछ वर्ष पूर्व देश भर में लगे मोबाइल टॉवर्स का अध्ययन कर बताया था कि इनमें से ज्यादातर विकिरण फैला रहे हैं।
विकिरण सुरक्षा उपायों पर कार्य करने वाली दिल्ली की कोंजेट कम्पनी ने दिल्ली के 100 क्षेत्रों में विकिरण की मात्रा का अध्ययन कर केवल 20 स्थान सुरक्षित बताये। वर्तमान में देश में मोबाइल टॉवर्स की संख्या तीन लाख के लगभग है जो 2012 तक बढ़कर पांच लाख हो जाएगी। टॉवर्स के आसपास 500 मीटर के क्षेत्र में रहने वाले लोगों पर विकिरण से पैदा रोगों का खतरा ज्यादा रहता है। हाल ही में केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने देश के 50 शहरों में 1000 मोबाइल, यूडिवेशन डिटेक्शन सिस्टम लगाने की योजना बनाई है। जल, पर्यावरण का दूसरा महत्वपूर्ण घटक है परंतु देश में इसकी स्थिति, मात्रा एवं गुणवत्ता दोनों स्तर पर बिगड़ी है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी विश्व जल विकास रिपोर्ट में देश को सबसे प्रदूषित पेयजल आपूर्ति वाला देश बताया गया है एवं गुणवत्ता के आधार पर यह विश्व में 120वें स्थान पर है। देश की लगभग 150 नदियां प्रदूषण के कारण नालों में बदल गई हैं।
सबसे ज्यादा 28 नदियां महाराष्ट्र में प्रदूषित हैं। लगभग 900 शहरों एवं कस्बों का 70 प्रतिशत गंदा पानी (लगभग 38250 मिलियन लीटर) प्रतिदिन नदियों में बगैर परिष्कृत किये छोड़ दिया जाता है। 3000 शहरों में से केवल 200 में प्रदूषित जल को परिष्कृत करने की आधी अधूरी व्यवस्था है। जल संसाधन मंत्रालय के अनुसार देश के 20 नदी घाटी क्षेत्रों में से 8 में पानी की कमी है। भूजल के उपयोग में पिछली आधी सदी में 115 गुना इजाफा हुआ है, जिसके कारण 360 जिलों में भूजल स्तर में गिरावट आई है। भूजल में प्रदूषण के कारण नाइट्रेट, फ्लोराइड एवं आर्सेनिक की मात्रा भी बढ़ी है, जिससे 2.17 लाख गांवों में पेयजल प्रदूषण से पैदा रोगों से ग्रामीण जनता प्रभावित है। भूमि भी पर्यावरण में अहम है परंतु हमारे कृषि प्रधान देश में भूमि की हालत भी काफी बिगड़ गई है। भारतीय कृषि शोध संस्थान की एक रिपोर्ट अनुसार देश की कुल 150 करोड़ हेक्टेयर खेती योग्य भूमि में से लगभग 12 करोड़ की उत्पादकता काफी घट गई है एवं 84 लाख हेक्टेयर जलभराव व खारेपन की समस्या से ग्रस्त है।
पिछले 20-22 वर्षों में ही देश की कुल खेती योग्य भूमि में 28 लाख हेक्टेयर की कमी आई है जिसके कई कारण हैं। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट 'स्टेट ऑफ एनवायरमेंट' में भी यही बताया गया है कि देश की 15 करोड़ हेक्टेयर भूमि में से लगभग 45 प्रतिशत भूमि अम्लीयता, जलभराव, खारेपन एवं प्रदूषण के कारण बेकार हो गई है। कृषि भूमि के क्षेत्र का घटना एवं उत्पादकता कम होना भविष्य में खाद्यान्न उत्पादन के लिए खतरनाक है। विभिन्न प्रकार की वनस्पतियां एवं जंतु जैव विविधता स्थापित करते हैं एवं देश दुनिया के उन 12 देशों में प्रमुख है, जो जैवविविधता के धनी हैं। पश्चिमी घाट एवं हिमालयीन क्षेत्र के साथ-साथ सुंदरवन एवं मन्नार खाड़ी अपनी अपनी जैव- विविधता के कारण दुनिया भर में मशहूर है। थलीय क्षेत्र में 80 प्रतिशत जैवविविधता वनों में पायी जाती है परंतु वनों का क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है।
देश के 33 प्रतिशत भूभाग पर वन होना चाहिए परंतु हैं केवल 25 प्रतिशत भाग पर ही। इस 21 प्रतिशत में से केवल 02 प्रतिशत ही सघन वन हैं, 10 प्रतिशत मध्यम स्तर के एवं 09 प्रतिशत छितरे वन हैं। देश में प्रति व्यक्ति वन का क्षेत्र 0.11 हेक्टेयर है जबकि विश्व अनुपात अनुसार यह 0.80 हेक्टेयर होना चाहिये। देश के लगभग 20 प्रतिशत जंगली पौधे व जीव विलुप्ति की ओर अग्रसर हैं। 6 लाख से ज्यादा गांवों में लगभग 50-60 वर्ष पूर्व 20 करोड़ के लगभग गाय, बैल थे, परंतु अब इनकी संख्या भी काफी घट गई है। देश के कत्ल कारखानों में हजारों पशु एवं पक्षियों को काटकर उनका मांस निर्यात किया जा रहा है। देश में जब कानून व्यवस्था बिगड़ने लगती है एवं जनता की शांति भंग होने का खतरा पैदा हो जाता है तब आपातकाल लगाया जाता है। ठीक इसी प्रकार देश के पर्यावरण की हालत भी काफी बिगड़ गई है एवं जनता के लिए वह रोगजन्य होता जा रहा है। अत: पर्यावरणीय आपातकाल लगाया जाना जरुरी है। यह आपातकाल लगाकर 8-10 वर्षों तक जारी भी रखा जाए। इस समयावधि में सरकार पर्यावरण से संबंधित बने सभी कानूनों का सख्ती से पालन करवाए।
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