गलत जल बँटवारे से यमुना हो रही मैली

साढ़े चार हजार करोड़ रुपए खर्च करने के बाद भी यमुना नदी की हालत बीते दो दशकों में ज्यादा खराब हुई है। विशेषज्ञ व पर्यावरणविदों का मानना है कि यमुना की दुर्दशा की असल वजह यमुना बेसिन के राज्यों के बीच नदी जल बँटवारे का वह करार है जो 1994 में हुआ था। इस करार के तहत पांच राज्यों हरियाणा, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान व दिल्ली ने तय किया कि वे अपनी सिंचाई व पेयजल ज़रूरतों के लिए यमुना नदी के पानी का इस्तेमाल करेंगे और नदी में पानी कम होने पर यदि उसकी जैविक दशा बिगड़ती है तो सरप्लस पानी को नदी में छोड़ने की व्यवस्था करेंगे। बँटवारा ऐसा किया गया कि नदी का करीब-करीब 100 फीसदी पानी आपस में बांट लिया गया और यमुना को मरने के लिए छोड़ दिया गया।

करार के मुताबिक हथिनीकुंड बैराज पर उपलब्ध जल का करीब 80 फीसदी हरियाणा निकाल लेता है और 15 फीसदी उत्तर प्रदेश निकाल लेता है। उसके बाद यमुना में करीब 5 फीसदी पानी बचता है जो बैराज से आगे बहता है। इसकी गैर-मानसून समय में औसत मात्रा करीब 160 क्यूसेक (कागजी रिकॉर्ड में यही मात्रा दर्ज है) होती है जो दिल्ली तक शायद ही पहुंच पाती है। लेकिन दिल्ली की सीमा छूने के ठीक पहले पल्ला गांव के पास पश्चिमी यमुना नहर का पानी दोबारा यमुना में मिलने से इसकी कुछ दशा सुधरने लगती है लेकिन वह पानी वजीराबाद बैराज में रोक लिया जाता है और उसके आगे यमुना का मौलिक जल शून्य स्तर पर पहुंच जाता है।

ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिक गैरी जॉन्स के नदियों पर किए गए विश्व मान्य शोध के मुताबिक, 'किसी भी नदी को स्वस्थ रहने के लिए उसके 75 फीसदी जल का अविरल बहना जरूरी है। नदी से केवल 25 फीसदी जल ही निकाला जा सकता है। उन्होंने आगे यह भी कहा है कि किसी नदी से ज्यादा मांग व दबाव है तो उससे अधिकतम 50 फीसदी पानी निकाला जा सकता है और 50 फीसदी जल के साथ नदी ठीकठाक हालत में रह सकती है।' यमुना जिए अभियान के संयोजक व पर्यावरणविद मनोज मिश्र का कहना है कि 1994 में जल बँटवारे का करार ही यमुना के लिए मृत्युदंड था। नदी को एक बार मारने के बाद भला करोड़ों करोड़ खर्च करके भी उसे पुनर्जीवित कर पाना असंभव है।

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