ग्लोबल वार्मिंग से बचाव के लिये जन भागीदारी जरूरी


ग्लोबल वार्मिंगविश्व के समक्ष उत्पन्न विकट समस्या जलवायु परिवर्तन से बचाव के लिये पेरिस में राष्ट्राध्यक्षों की शिखर बैठक हुई, लेकिन कोई खास नतीजा सामने नहीं आया। हालाँकि पिछले 23 वर्षों से लगातार ऐसी बैठकों का आयोजन किया जा रहा है, लेकिन समस्या आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। हाँ, इतना जरूर हुआ है कि पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन दुनिया के समक्ष एक गम्भीर समस्या के रूप में सामने आया है। इस समस्या से सिर्फ राष्ट्राध्यक्षों व पर्यावरण विशेषज्ञों के विचार मंथन से ही निजात नहीं पाई जा सकती, बल्कि जब तक आम जन को जागरूक नहीं किया जाएगा और उनकी भागीदारी नहीं होगी, तब तक इसका समाधान नहीं हो पाएगा।

विकास के लिये विश्व को मौत के मुहाने पर खड़ा करना कभी भी न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। इंसान विकास के नाम पर और अपनी सुख-सुविधाओं के लिये अपने चारों तरफ विनाश का समान इकट्ठा कर रहा है। यह ठीक है कि अभी अपनी गलती हमें दिखाई नहीं दे रही है, लेकिन इसकी आहट हमें सुनाई देने लगी है। क्या आप भुज का भूकम्प और सुनामी की लहरें भूल गए हैं। क्या उत्तराखंड की विनाश लीला और जम्मू-कश्मीर की बाढ़ का दृश्य आँखों से ओझल हो गया है। अब क्या तमिलनाडु और चेन्नई में बाढ़ का मंजर शीघ्र ही भूला पाएगा। इन तमाम प्रश्नों का उत्तर हमारे पास है, नहीं न।

अभी तो यह शुरुआत है, इसका विकट रूप तो हमारे सामने आनेवाला है। कितना मुश्किल होगा, जब पृथ्वी पर दिन पर दिन ऑक्सीजन घटती जाएगी और पृथ्वी पर पाए जाने वाले इंसान व जानवर छटपटा-छटपटा कर दम तोड़ते जाएंगे। क्या उस समय का ऐसा दृश्य हम अपनी आँखों से देख पाएँगे। अभी हाल में ही एक नए अध्ययन में दावा किया गया है कि ग्लोबल वॉर्मिंग से समुद्र के तापमान में कुछ डिग्री का बदलाव धरती पर ऑक्सीजन की मात्रा में नाटकीय ढंग से कमी ला सकता है। इससे बड़े पैमाने पर जानवरों और इंसानों की मौत होगी। ब्रिटेन की लीसेस्टर यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने यह अध्ययन किया है।

इसमें बताया गया है कि समुद्र के तापमान में लगभग छह डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से फाइटोप्लैंक्टन से होने वाला ऑक्सीजन का उत्सर्जन बंद हो सकता है। ऐसा सन 2100 तक हो सकता है। यूनिवर्सिटी के गणित विभाग के प्रोफेसर सर्गेई पेत्रोव्स्की ने कहा है कि ग्लोबल वार्मिंग को विज्ञान और राजनीति का केन्द्र बने दो दशक हो चुके हैं। इससे आने वाली विपदा के बारे में बहुत बातें कही गईं। इनमें सबसे कुख्यात है वैश्विक बाढ़, जो अंटार्कटिका की बर्फ पिघलने से आएगी। यह मानवता के लिये सबसे बड़ा खतरा हो सकता है। क्योंकि धरती की कुल ऑक्सीजन का दो तिहाई सिर्फ फाइटोप्लैंक्टन से उत्सर्जित होता है। इसलिये इसकी समाप्ति वैश्विक ऑक्सीजन के लिये खतरा होगी। इससे बड़े पैमाने पर जीवन का अंत हो सकता है।

उधर, एक और चौंकाने वाला मामला सामने आया है। ग्लोबल वार्मिंग के वजह से पिछले 40 साल में माउंट एवरेस्ट में ग्लेशियर 28 फीसदी तक सिमट गए हैं। ब्रह्मपुत्र नदी का दायरा भी 28 फीसदी कम हो गया है। यह दावा चाइनीज एकेडमी ऑफ साइंस ने किया है। आज सारी दुनिया मान रही है कि ग्लोबल वार्मिंग हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौती है और हमारी धरती खतरे में है। पेरिस में सबने इस बात को भी माना कि पूरी दुनिया के स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में कटौती की जरूरत है। आज अगर दुनिया के सामने यह भयावह स्थिति पैदा हुई है तो इसके लिये सबसे बड़ा कारण दुनिया में विकसित देश बनने की मची होड़ है।

हमने आगे बढ़ने के लालच में प्राकृतिक संसाधनों का खुलेआम दोहन शुरू किया, जिसके चलते बाढ़, सूखा और समुद्री जलस्तर बढ़ने का खतरा पैदा हुआ। हम वन और हरियाली समाप्त करते जा रहे हैं, पृथ्वी के अंदर से मिट्टी निकाल कर लोहा भरते जा रहे हैं। जो सदियों से बनी हुई है और जिससे प्रकृति अपना संतुलन बना कर रखती है, हम अपने स्वार्थ के लिये उसे भी तोड़-मोड़कर बदलने में लगे हैं। हम सब छोटे स्तर से लेकर बड़े स्तर तक बदलाव में लगे हैं, आखिर इसका परिणाम भी तो हमें ही भुगतना होगा।

देशों के विकास के लिये और अपनी सुविधाओं के लिये हमने तेजी से शहरों को विकसित किया। चारों तरफ उद्योग, कंक्रीट-पत्थरों की इमारतें, वनों का सफाया और पृथ्वी के अंदर से पानी का दोहन जिस रफ्तार से शुरू किया, उसी रफ्तार से विनाश लीला भी हमारा पीछा कर रही है। अब गाँवों को विकास की कड़ी से हम जोड़ने में लगे हैं। गाँव के लोग भी शहरी सुविधाओं को देखकर वैसा ही जीवन जीने की लालसा में मरे जा रहे हैं। लेकिन प्रकृति का नियम है कि पृथ्वी के तल से गर्म वायु जब ऊपर उठती है तो उसके जगह को भरने के लिये ठंडी वायु तुरंत आ जाती है।

अभी प्रकृति का विनाशकारी रूप हमारे सामने छोटी-छोटी और कुछ क्षेत्रों में देखने को मिल रहा है। सारी दुनिया यह तो मानती है कि जो कुछ भी बिगड़ रहा है, वह सब आज की विकासशैली के होड़ का ही परिणाम है। लेकिन कोई भी देश या इंसान अपनी सुविधाओं पर अंकुश लगाने को तैयार नहीं है। दुनिया के बड़े शहर और लोग पूरी तरह सुविधाओं के चंगुल में फँसे हुए हैं। वे चाहते हैं कि हमारी सुविधाओं में किसी तरह की कमी न आए, लेकिन लोग ज्यादा महत्त्वकांक्षी न हों, जिससे पर्यावरण संरक्षण का बचाव भी हो सके। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया में 69 करोड़ बच्चे ग्लोबल वार्मिंग से सीधे प्रभावित हैं और 53 करोड़ बच्चों को भीषण बाढ़ और तूफान से जूझना पड़ रहा है। अब गाँवों की तरफ इसका असर भी पहुँच रहा है। गाँवों में फूस, खपरैल का घर, गोबर की लिपाई, गाय, बैल, भैंस आदि जानवर प्रकृति प्रेम है और इनसे पर्यावरण को भी बचाया जा सकता है। आज ऐसा दौर हमारे सामने आ गया है कि अब राष्ट्राध्यक्षों व विशेषज्ञों के विचार मंथन से ही ग्लोबल वार्मिंग के नतीजों से निपटने का उपाय नहीं खोजा जा सकता, बल्कि आमजन को भी आगे आना होगा।

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