ग्लोबल वार्मिंग को समझने की जरूरत

Global warming
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जलवायु परिवर्तन को मानवता के लिये सबसे बड़ा खतरा बताते हुए जेटली ने स्वच्छ ऊर्जा और तकनीक के लिये गरीब देशों को वित्तीय मदद देने का भी आह्वान किया। इसी तरह से कुछ दिन पहले पेरू में यहाँ संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में भी भारत ने अपना नजरिया स्पष्ट तरीके से विश्व के समक्ष रखा। यह सम्मेलन कुछ गतिरोध के कारण अपने निर्धारित समय से दो दिन अधिक चलाना पड़ा था। करीब दो हफ्ते तक चले सम्मेलन में कार्बन उत्सर्जन में कटौती पर विकसित और विकासशील देशों के बीच समझौते को लेकर व्यापक रूप से गतिरोध की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। ग्लोबल वार्मिंग के दुष्परिणाम अब सामने आने लगे हैं। वैश्विक स्तर पर अनियमित जलवायु परिवर्तन इसका उदाहरण है। हर देश इस खतरे से डरा हुआ है। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के असली गुनहार ही इससे निपटने के लिये उपाय बता रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि विकसित देशों ने ही अन्धाधुन्ध औद्योगीकरण करके पर्यावरण को नुकसान पहुँचाया है। लेकिन पर्यावरण सुधारने की सारी जिम्मेदारी वे विकासशील और गरीब मुल्कों को थोपने की चाल चल रहे हैं।

आज भारत पर औद्योगीकरण को कम करने का वैश्विक दबाव बढ़ता जा रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में चीन शीर्ष पर है। अमेरिका दूसरे और भारत तीसरे नम्बर पर है। लेकिन विश्व स्तर पर ग्लोबल वार्मिंग को लेकर होने वाले सम्मेलनों में भारत पर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करने का दबाव बना रहता है।

हाल ही में हुए एक नए शोध ने ग्लोबल वार्मिंग के खतरे पर चर्चा को तेज कर दिया है। इस शोध में कहा गया है कि वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से 2 डिग्री सेल्सियस होने पर अंटार्कटिका की बर्फ की चादरें पिघलने लगेंगी। इससे सैकड़ों और यहाँ तक कि हजारों वर्षों तक समुद्र के जलस्तर में वृद्धि होगी।

विक्टोरिया विश्वविद्यालय के अंटार्कटिक शोध से जुड़े डॉ. निकोलस गॉलेज के नेतृत्व वाली टीम ने पता लगाया कि भविष्य में तापमान बढ़ने से किस तरह अंटार्कटिका की बर्फ की चादरों पर प्रभाव पड़ेगा। अत्याधुनिक कम्प्यूटर के जरिए उन्होंने विभिन्न परिदृश्यों में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन से होने वाले तापमान वृद्धि के प्रभाव का पता लगाया। उन्होंने पाया कि एक परिदृश्य में अंटार्कटिका की बर्फ की चादर का एक बड़ा हिस्सा पिघल जाएगा।

इससे पूरे विश्व में समुद्र का जलस्तर काफी बढ़ेगा। गौरतलब है कि यह परिदृश्य 2020 से आगे उत्सर्जन कम करने वाला है। गॉलेज ने बताया कि पर्यावरण स्थिति में बदलाव का अंटार्कटिक की बर्फ की चादरों पर प्रभाव पड़ने में हजारों साल लग सकते हैं। इसका कारण है कि कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में बहुत लम्बे समय तक बना रहता है।

संयुक्त राष्ट्र की आइपीसीसी की 2013 की आकलन रिपोर्ट में कहा गया था कि इस शताब्दी के अन्त तक अंटार्कटिक की बर्फ की चादरों से समुद्र का जलस्तर केवल पाँच सेंटीमीटर बढ़ेगा। लेकिन नए शोध के मुताबिक बर्फ की चादरों के पिघलने से साल 2100 तक जलस्तर करीब 40 सेंटीमीटर बढ़ेगा। अंटार्कटिका की बर्फ की चादरों को पिघलने से रोकने के लिये तापमान को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना होगा। इसके बाद विश्व भर में एक बार फिर से ग्लोबल वार्मिंग पर बहस शुरू हो गई है।

भारत भी अब वैश्विक तापमान पर विकसित देशों के पिछलग्गू की भूमिका से बाहर निकल कर नए तरह से सोचने लगी है। अभी हाल ही में वाशिंगटन में हुए एक सम्मेलन में भारत ने जलवायु परिवर्तन और उससे निपटने के तरीकों पर दुनिया के समक्ष अपना रुख साफ किया। विश्व बैंक की बैठक में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि भारत जलवायु परिवर्तन पर अपनी भूमिका निभाने को तैयार है। उन्होंने विकसित देशों से प्रदूषण रहित तकनीक के क्षेत्र में ज्यादा निवेश करने का भी आह्वान किया।

जलवायु परिवर्तन पर भारत का पक्ष रखते हुए जेटली ने कहा, 'इसमें हमारा व्यापक हित है, क्योंकि पृथ्वी के ज्यादा गर्म होने से भारत समेत गरीब देश ही अधिक प्रभावित होंगे। जबकि विकसित देश इससे निपटने में सक्षम हैं।' वित्त मंत्री ने कार्बन उत्सर्जन को गरीब देशों की ऊर्जा ज़रूरतों से भी जोड़ा। उन्होंने कहा कि कोयले का विकल्प ढूँढे बिना विकास और जलवायु परिवर्तन के लक्ष्यों में सामंजस्य बिठाना सम्भव नहीं होगा।

ऐसे में अन्तरराष्ट्रीय समुदाय को जल्द-से-जल्द प्रदूषण रहित तकनीक विकसित करनी होगी ताकि उसे गरीब मुल्कों तक पहुँचाया जा सके। जेटली ने इस मौके पर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने के लिये भारत द्वारा उठाए गए कदमों की जानकारी भी साझा की। उन्होंने बताया कि भारत प्रति टन कार्बन के उत्सर्जन पर अन्तरराष्ट्रीय मानक 25 डॉलर (1563 रुपए) से भी ज्यादा का कर वसूल रहा है।

इसके अलावा कोयले पर लेवी लगाई गई है, जिससे प्राप्त धन का इस्तेमाल अक्षय ऊर्जा से जुड़ी परियोजनाओं में किया जा रहा है। बकौल जेटली स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देने की नीति के तहत ही भारत ने वर्ष 2022 तक सौर ऊर्जा उत्पादन के लक्ष्य को 20 से बढ़ाकर सौ गीगावाट कर दिया है। इसके अलावा माल ढुलाई के लिये रेल नेटवर्क का विस्तार किया जा रहा है ताकि प्रदूषण पर लगाम लगाया जा सके।

जलवायु परिवर्तन को मानवता के लिये सबसे बड़ा खतरा बताते हुए जेटली ने स्वच्छ ऊर्जा और तकनीक के लिये गरीब देशों को वित्तीय मदद देने का भी आह्वान किया। इसी तरह से कुछ दिन पहले पेरू में यहाँ संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में भी भारत ने अपना नजरिया स्पष्ट तरीके से विश्व के समक्ष रखा।

यह सम्मेलन कुछ गतिरोध के कारण अपने निर्धारित समय से दो दिन अधिक चलाना पड़ा था। करीब दो हफ्ते तक चले सम्मेलन में कार्बन उत्सर्जन में कटौती पर विकसित और विकासशील देशों के बीच समझौते को लेकर व्यापक रूप से गतिरोध की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। लेकिन बहस के बाद गतिरोध समाप्त हो गया। दुनिया के 194 देशों में आम सहमति बन गई।

भारत की सभी बातों को मानते हुए व चिन्ताओं का निवारण करते हुए दुनिया ने उत्सर्जन कटौती के राष्ट्रीय संकल्प के मसौदे को स्वीकार कर लिया। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन के मुकाबले के लिये वर्ष 2015 में पेरिस में होने वाले एक नए महत्वाकांक्षी और बाध्यकारी करार पर हस्ताक्षर का रास्ता साफ हो गया।

इस वार्ता के अध्यक्ष और पेरू के पर्यावरण मंत्री मैनुएल पुल्गर विडाल ने लगभग दो हफ्ते तक चली बैठक के बाद अपनी घोषणा में कहा था कि दस्तावेज को मंजूरी मिल गई है। मुझे लगता है कि यह अच्छा है और यह हमें आगे ले जाएगा। मसौदे के अनुसार विभिन्न देशों की सरकारों को वैश्विक समझौते के लिये आधार तैयार करने के लिये ग्रीन हाउस गैसों में कटौती की अपनी राष्ट्रीय योजना 31 मार्च 2015 को आधार तिथि मानकर पेश करनी होगी।

इस मसौदे पर पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि भारत की सभी चिन्ताओं का ध्यान रखा गया है। वर्ष 2015 में होने वाले समझौते के लिये होने वाली बातचीत पर वार्ताकारों द्वारा मोटे तौर पर दी गई सहमति के बाद उन्होंने कहा कि हमने लक्ष्य हासिल कर लिये और जो हम चाहते थे हमें मिल गया। इस मसौदे में केवल इस बात का जिक्र है कि सभी देशों द्वारा लिये गए संकल्पों के जलवायु परिवर्तन पर पड़ने वाले संयुक्त प्रभावों की दिसम्बर 2015 में होने वाली पेरिस शिखर बैठक के एक माह पहले समीक्षा की जाएगी।

पेरू में हुए नए समझौते की मूल बात यह है कि इसमें जलवायु परिवर्तन से निपटने की जिम्मेदारी सभी देशों पर डाल दी गई है। इसके पहले 1997 में हुई क्योटो सन्धि में उत्सर्जन में कटौती की जिम्मेदारी केवल अमीर देशों पर डाली गई थी। संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण प्रमुख क्रिस्टियाना फिगुरेज ने कहा कि लीमा में अमीर और गरीब दोनों तरह के देशों की जिम्मेदारी तय करने का नया तरीका खोजा गया है। यह बड़ी सफलता है। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के बारे में यह समझ एकतरफा है।

अमीर देशों ने औद्योगीकरण से पर्यावरण को सबसे अधिक हानि पहुँचाई है। लेकिन अब वे विश्व के गरीब देशों पर भी बराबर की जिम्मेदारी डालना चाहते हैं। जबकि सचाई यह है कि गरीब देश अभी विकास की राह पर हैं। उनके यहाँ औद्योगिक कचरा और ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम होता है। विकसित देश दो सौ वर्षों में प्रकृति का बहुत ही नुकसान पहुँचा चुके हैं। इसलिये पर्यावरण संरक्षण की उनकी जिम्मेदारी अधिक है।

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Post By: RuralWater
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