ग्लेशियरों का आकार सिमटने से बढ़ी पर्यावरण वैज्ञानिकों की चिन्ता
हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने से जो परिस्थितियाँ बनती जा रही हैं। उससे पहाड़ की आबोहवा बदलने की गहरी चिन्ता सताने लगी है। जिससे यहाँ की बागवानी, कृषि व वनों पर आधारित ग्रामीण आर्थिकी पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। मौजूदा पर्यावरण के लिये वैश्विक उष्मीकरण के साथ-साथ अनेक ऐसे दूसरे कारण भी बताए जा रहे हैं, जो हिमखण्डों के कम होने के लिये हद से ज्यादा उत्तरदायी माने जा सकते हैं। हालांकि अभी तक पहाड़ पर ठंडी हवा के झोकों का आनन्द लेने के लिये लोग विदेशों से भी आ रहे हैं और पहाड़ पर ठंडी हवा के साथ बर्फ का भी आनन्द लेते हैं लेकिन अब वह समय भी दूर नहीं है जब पहाड़ पर ठंडी हवा तो दूर बर्फ के दीदार करने के लिये भी तरसना पड़ेगा।
झुलसती गर्मी पहाड़ को इसी तरह से सताती रही तो पहाड़ पर भी मैदानों जैसा नज़ारा देखने को मिलेगा और अगर ग्लोबल वार्मिंग का असर यूँ ही अपना प्रभाव दिखाता रहा, तो नि:सन्देह एक दिन पहाड़ की ठंडी वादियाँ हमेशा-हमेशा के लिये अपना अस्तित्व खो देगी।
वैज्ञानिकों का दावा इस बात की तस्दीक कर रहा है कि ग्लोबल वार्मिंग हिमालयी क्षेत्र के ग्लेशियरों को अपनी जद में ले रहा है। हाल ही में ग्लेशियर मैपिंग के दौरान चौंकाने वाले तथ्य सामने आये हैं।
अब ये खुलासे राज्य की सेहत के लिये कतई ठीक नहीं कहे जा सकते। जिससे घबराई सरकार भी पूरे एक्शन में आ गई है और ग्लेशियरों को बचाने के लिये कई तरह के एहतियाती कदम उठाने की तरफ अग्रसर हुई है, मगर फिर भी चिन्ता इस बात की सता रही है कि जिस तरह से हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियर पिघलने का सिलसिला चल रहा है।
उसके परिणाम आगे चलकर घातक होने वाले हैं, जो यहाँ की प्रमुख नदियों का वजूद कभी भी समाप्त कर सकता हैं। इसके साथ ही दर्जनों बिजली परियोजनाओं का दम निकल जाएगा, जो अभी उत्तर व मध्य भारत को रोशन करने का काम कर रही हैं।
जानकारी के अनुसार प्रदेश के चेनाब, पार्वती, बास्पा पर आधारित ग्लेशियरों की मैंपिग के दौरान कुछ ऐसे आश्चर्यजनक पहलू सामने आये हैं। जिसमें वर्ष 1962 तक इन तीनों बेसिन पर ग्लेशियरों का आकार 2077 वर्ग किलोमीटर तक का था जो अब घटकर 1628 वर्ग किलोमीटर रह गया है। सीधे तौर पर कहें, तो ग्लेशियर के आकार में 21 फीसदी की कमी आई है।
अध्ययन में यह बात भी भयावह है कि सतलुज बेसिन पर तीन ग्लेशियर काफी ज्यादा खिसके हैं। यह बेसिन बिजली परियोजना के चलाने में अपनी अहम भूमिका निभाते चले आ रहे हैं। सबसे बड़ी नाथपा जल विद्युत परियोजना भी इसी बेसिन की उपज है।
कड़छम वांगतू जल विद्युत परियोजना को भी यही बेसिन चला रहा है। जो आधे भारत को बिजली की आपूर्ति कर रहे हैं। जबकि अध्ययन में चेनाब में 6, ब्यास में 5 व रावी में 2 ग्लेशियर अपनी जगह से छिटक गए हैं। दूसरी तरफ छोटा शिगरी ग्लेशियर ने भी अपना मूल स्थान खो दिया है।
ये ग्लेशियर चंद्रा बेसिन पर आधारित है। यह 1963 से 1984 तक 8 मीटर की दर से खिसका है। इसके पिघलने की रफ्तार और भी तेज होती जा रही है। 1984 से 1986 के बीच इसने 23 मीटर तक फिसलने का अनोखा करतब दिखाया। महज दो साल में इतने स्तर पर खिसकने से वैज्ञानिक भी कम हैरान नहीं है।
यह बात साबित हो गई है कि हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने से जो परिस्थितियाँ बनती जा रही हैं। उससे पहाड़ की आबोहवा बदलने की गहरी चिन्ता सताने लगी है। जिससे यहाँ की बागवानी, कृषि व वनों पर आधारित ग्रामीण आर्थिकी पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। मौजूदा पर्यावरण के लिये वैश्विक उष्मीकरण के साथ-साथ अनेक ऐसे दूसरे कारण भी बताए जा रहे हैं, जो हिमखण्डों के कम होने के लिये हद से ज्यादा उत्तरदायी माने जा सकते हैं।
पर्यावरण बदलाव से हिमालयी क्षेत्र को काफी खतरा है तथा आगे चलकर पर्यावरण से हल्का बदलाव लोगों पर कहर बनकर टूटेगा। ऐसे में पर्वतीय पर्यावरण के लिये ये किसी चुनौती से कम नहीं है जिससे राज्य सरकार के साथ-साथ केन्द्र सरकार संयुक्त रूप से हिमालय के सिकुड़ते ग्लेशियरों को बचाने के लिये हर सम्भव उपाय करने में जुट गई है।
जिसके लिये विख्यात वैज्ञानिकों की सेवाएँ भी ली जा रही हैं। अब इनके अनुसन्धान व कोशिशों पर सबकी नजरें टिक गई है कि वैज्ञानिक ग्लेशियरों को सिकुड़ने से बचाने के लिये कहाँ तक और कौन सी विधि का सहारा लेकर कामयाब हो पाते हैं और अगर इसमें सफलता नहीं मिलती है तो निश्चित तौर पर आने वाले खतरों के परिणाम भुगतने के लिये सभी को तैयार रहना होगा।
हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने से जो परिस्थितियाँ बनती जा रही हैं। उससे पहाड़ की आबोहवा बदलने की गहरी चिन्ता सताने लगी है। जिससे यहाँ की बागवानी, कृषि व वनों पर आधारित ग्रामीण आर्थिकी पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। मौजूदा पर्यावरण के लिये वैश्विक उष्मीकरण के साथ-साथ अनेक ऐसे दूसरे कारण भी बताए जा रहे हैं, जो हिमखण्डों के कम होने के लिये हद से ज्यादा उत्तरदायी माने जा सकते हैं। हालांकि अभी तक पहाड़ पर ठंडी हवा के झोकों का आनन्द लेने के लिये लोग विदेशों से भी आ रहे हैं और पहाड़ पर ठंडी हवा के साथ बर्फ का भी आनन्द लेते हैं लेकिन अब वह समय भी दूर नहीं है जब पहाड़ पर ठंडी हवा तो दूर बर्फ के दीदार करने के लिये भी तरसना पड़ेगा।
झुलसती गर्मी पहाड़ को इसी तरह से सताती रही तो पहाड़ पर भी मैदानों जैसा नज़ारा देखने को मिलेगा और अगर ग्लोबल वार्मिंग का असर यूँ ही अपना प्रभाव दिखाता रहा, तो नि:सन्देह एक दिन पहाड़ की ठंडी वादियाँ हमेशा-हमेशा के लिये अपना अस्तित्व खो देगी।
वैज्ञानिकों का दावा इस बात की तस्दीक कर रहा है कि ग्लोबल वार्मिंग हिमालयी क्षेत्र के ग्लेशियरों को अपनी जद में ले रहा है। हाल ही में ग्लेशियर मैपिंग के दौरान चौंकाने वाले तथ्य सामने आये हैं।
अब ये खुलासे राज्य की सेहत के लिये कतई ठीक नहीं कहे जा सकते। जिससे घबराई सरकार भी पूरे एक्शन में आ गई है और ग्लेशियरों को बचाने के लिये कई तरह के एहतियाती कदम उठाने की तरफ अग्रसर हुई है, मगर फिर भी चिन्ता इस बात की सता रही है कि जिस तरह से हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियर पिघलने का सिलसिला चल रहा है।
उसके परिणाम आगे चलकर घातक होने वाले हैं, जो यहाँ की प्रमुख नदियों का वजूद कभी भी समाप्त कर सकता हैं। इसके साथ ही दर्जनों बिजली परियोजनाओं का दम निकल जाएगा, जो अभी उत्तर व मध्य भारत को रोशन करने का काम कर रही हैं।
जानकारी के अनुसार प्रदेश के चेनाब, पार्वती, बास्पा पर आधारित ग्लेशियरों की मैंपिग के दौरान कुछ ऐसे आश्चर्यजनक पहलू सामने आये हैं। जिसमें वर्ष 1962 तक इन तीनों बेसिन पर ग्लेशियरों का आकार 2077 वर्ग किलोमीटर तक का था जो अब घटकर 1628 वर्ग किलोमीटर रह गया है। सीधे तौर पर कहें, तो ग्लेशियर के आकार में 21 फीसदी की कमी आई है।
अध्ययन में यह बात भी भयावह है कि सतलुज बेसिन पर तीन ग्लेशियर काफी ज्यादा खिसके हैं। यह बेसिन बिजली परियोजना के चलाने में अपनी अहम भूमिका निभाते चले आ रहे हैं। सबसे बड़ी नाथपा जल विद्युत परियोजना भी इसी बेसिन की उपज है।
कड़छम वांगतू जल विद्युत परियोजना को भी यही बेसिन चला रहा है। जो आधे भारत को बिजली की आपूर्ति कर रहे हैं। जबकि अध्ययन में चेनाब में 6, ब्यास में 5 व रावी में 2 ग्लेशियर अपनी जगह से छिटक गए हैं। दूसरी तरफ छोटा शिगरी ग्लेशियर ने भी अपना मूल स्थान खो दिया है।
ये ग्लेशियर चंद्रा बेसिन पर आधारित है। यह 1963 से 1984 तक 8 मीटर की दर से खिसका है। इसके पिघलने की रफ्तार और भी तेज होती जा रही है। 1984 से 1986 के बीच इसने 23 मीटर तक फिसलने का अनोखा करतब दिखाया। महज दो साल में इतने स्तर पर खिसकने से वैज्ञानिक भी कम हैरान नहीं है।
ग्लेशियरों के पिघलने से नदियों का वजूद खतरे में
यह बात साबित हो गई है कि हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने से जो परिस्थितियाँ बनती जा रही हैं। उससे पहाड़ की आबोहवा बदलने की गहरी चिन्ता सताने लगी है। जिससे यहाँ की बागवानी, कृषि व वनों पर आधारित ग्रामीण आर्थिकी पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। मौजूदा पर्यावरण के लिये वैश्विक उष्मीकरण के साथ-साथ अनेक ऐसे दूसरे कारण भी बताए जा रहे हैं, जो हिमखण्डों के कम होने के लिये हद से ज्यादा उत्तरदायी माने जा सकते हैं।
पर्यावरण बदलाव से हिमालयी क्षेत्र को बढ़ा खतरा
पर्यावरण बदलाव से हिमालयी क्षेत्र को काफी खतरा है तथा आगे चलकर पर्यावरण से हल्का बदलाव लोगों पर कहर बनकर टूटेगा। ऐसे में पर्वतीय पर्यावरण के लिये ये किसी चुनौती से कम नहीं है जिससे राज्य सरकार के साथ-साथ केन्द्र सरकार संयुक्त रूप से हिमालय के सिकुड़ते ग्लेशियरों को बचाने के लिये हर सम्भव उपाय करने में जुट गई है।
जिसके लिये विख्यात वैज्ञानिकों की सेवाएँ भी ली जा रही हैं। अब इनके अनुसन्धान व कोशिशों पर सबकी नजरें टिक गई है कि वैज्ञानिक ग्लेशियरों को सिकुड़ने से बचाने के लिये कहाँ तक और कौन सी विधि का सहारा लेकर कामयाब हो पाते हैं और अगर इसमें सफलता नहीं मिलती है तो निश्चित तौर पर आने वाले खतरों के परिणाम भुगतने के लिये सभी को तैयार रहना होगा।
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Post By: RuralWater