देहरादून- गंगा के लिए खतरे की घंटी बज रही है। भारत की सदानीरा और सबसे अधिक पवित्र मानी जाने वाली गंगा नदी अपने जन्मस्थान से ही संकट में पड़ गई है। वैश्विक स्तर पर हो रहा ग्लोबल वार्मिंग तो गंगा के उद्गम स्थान गंगोत्री को प्रभावित कर ही रहा है, अत्यधिक मानवीय गतिविधियां भी इस स्थान को नुकसान पहुंचा रही हैं। बीती सदी भर हुए शोधों से साफ हो गया है कि भले ही किसी भी ग्लेशियर का पिघलना सतत और प्राकृतिक क्रिया है लेकिन जिस तेजी से गंगोत्री ग्लेशियर पिघल रही है उससे तो यह इशारा मिल रहा है कि आने वाली सदी से पहले ही दुनिया के चुनिंदा बड़े और खूबसूरत ग्लेशियर का वजूद बच नहीं पाएगा। गंगा का उद्गम स्थल गंगोत्री ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग के कारण बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है। यह खुलासा आईएमएफ, दिल्ली की टीम ने साल भर किए गहन अध्ययन के बाद किया है। पर्वतारोही एवं पर्यावरणविद् हर्षवंती विष्ट सहित अनेक वैज्ञानिकों के दल ने अध्ययन के बाद पाया है कि पिछले डेढ़ सौ सालों में यह ग्लेशियर 3.5 किलोमीटर पीछे हट गया है। चौखंबा बेस कैंप में गहन अध्ययन करने वाली टीम ने इसके लिए 144 साल पहले ब्रिटेन के फोटोग्राफर सैमुअल वर्न्स के फोटो से भी वर्तमान स्थितियों का तुलनात्मक अध्ययन किया।
हर्षवंती विष्ट के मुताबिक 3,982 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह ग्लेशियर 30 किलोमीटर लंबा और 4 किलोमीटर चौड़ा था जो अब केवल 18 किलोमीटर रह गया है। राज्य और केंद्र सरकारें भले ही गंगा और गंगोत्री ग्लेशियर को बचाने के बड़े-बड़े दावों के साथ ही, करोड़ों की भारी-भरकम योजनाएं भी संचालित कर रही हों लेकिन आज भी गंगोत्री ग्लेशियर को कार्बन कचरे से मुक्त नहीं बनाया जा सका है। आज भी ग्लेशियर में सैकड़ों क्विंटल प्लास्टिक का कूड़ा, पॉलीथिन, खाली बोतलें और यहां तक कि तरह-तरह के स्नैक्स के खाली पैकेट यहां-वहां पड़े मिल जाएंगे। गंगा की बेहतरी के लिए चल रही योजनाओं का हाल यह है कि गंगोत्री जाने वाले यात्रियों को कूड़ा न फैलाने के प्रति जागरूक करने में भी हमारी योजनाएं नाकाम रही हैं। रही-सही कसर इस खूबसूरत ग्लेशियर के अंतिम छोर पर स्थित गंगोत्री धाम मंदिर में लगातार बढ़ रही मानव गतिविधियों ने पूरी कर दी है। साल दर साल बढ़ते दर्शनार्थी तो हैं ही, व्यापारियों द्वारा बनाए जा रहे होटल, व्यापारिक प्रतिष्ठान और अवैध कब्जों ने यहां मानव दखल बढ़ाने में अहम भूमिका अदा की है। हाल में किए गए एक सर्वे में सिचाई विभाग उत्तराखंड ने पाया कि बीते एक साल के दौरान ही गंगोत्री धाम के आसपास 20 से अधिक अवैध कब्जे किए गये हैं।
प्रसिद्ध पर्वतारोही व पर्यावरणकर्मी हर्षवंती विष्ट के नेतृत्व में गए आईएमएफ के छह सदस्यीय दल ने गंगोत्री धाम से चौखंबा बेस कैंप तक छह महीनों तक किए अपने तुलनात्मक अध्ययन में पाया कि किस प्रकार लगभग 150 सालों में 30 किलोमीटर लंबा और औसतन 4 किलोमीटर चौड़ा यह ग्लेशियर सिमटकर अब केवल 18 किलोमीटर रह गया है। इस अध्ययन के लिए टीम ने 144 साल पहले ली गई ब्रिटेन के प्रसिद्ध फोटोग्राफर सैमुअल वर्न्स की फोटो का भी ग्लेशियर की वर्तमान स्थितियों से तुलनात्मक अध्ययन किया। टीम ने पाया कि किस प्रकार इन सालों में गंगोत्री ग्लेशियर व उससे लगे बुग्यालों की प्रकृति पर भी ग्लोबल वार्मिंग का गहरा असर हुआ है। अध्ययन में पाया गया कि कुछ दशक पहले तक गंगोत्री में जिस स्थान से गंगा का उद्गम है वह स्थान हमेशा बर्फ से ढंका रहता था केवल जलधारा ही वहां से निकलती दिखती थी लेकिन अब स्थिति यह हो गयी है कि गंगा का उद्गम स्थान पूरी तरह से पत्थरों व रेत का मैदान जैसा लग रहा है। जिसमें बर्फ काफी पीछे खिसक चुकी है। ग्लेशियर के पिघलने के कारण ऊपर उभर आए पत्थर और रेत ग्लेशियर की गर्मी और तेजी से बढ़ा रहे हैं। दल ने पाया कि एक बार पीछे खिसकने के बाद दुबारा उस स्थान पर स्थायी बर्फ का जमना बेहद मुश्किल हो रहा है। यही कारण है कि गंगोत्री ग्लेशियर लगातार पीछे खिसक रहा है।
इस अध्ययन दल में शामिल पर्वतारोहियों पुष्पा, वशुमति, विपुल धस्माना, अनिल, रतन सिंह चौहान का कहना है कि गंगोत्री ग्लेशियर में फैले अजैविक अवशिष्ट भी ग्लेशियर के पिघलने की रफ्तार को बढ़ा रहे हैं। भले ही अनेक अध्ययन ग्लोबल वार्मिंग से गंगोत्री को खतरा बता रहे हों लेकिन लखनऊ विवि के भूविज्ञान विभाग के प्रो. ध्रुव सेन सिंह ने अपने शोध में पाया है कि गंगोत्री में बर्फ का पिघला ग्लोबल वार्मिंग के कारण नहीं बल्कि उसकी अपनी स्थितियों के कारण है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद की ओर से विज्ञान रत्न पा चुके ध्रुव का कहना है कि ग्लेशियर अपने भीतर की छोटी झीलों, नदियों, टीलों और शिलाखंडों में पैदा हो रही हलचल के कारण पिघल रहा है। जितनी रफ्तार बताई जा रही है अगर उतनी बर्फ पिघल रही होती तो नदियों में पानी का जलस्तर भी बढ़ा होता। वहीं सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक गंगोत्री ग्लेशियर 1935 से 1956 के दौरान 2530 वर्ग मीटर पिघला। फिर 1956 से 1962 के बीच यह रफ्तार ढाई गुना बढ़ गई और 1962 से 1971 के बीच यह रफ्तार पांच गुना रही। सर्वे ऑफ इंडिया के ताजा अध्ययन में पाया गया है कि वर्तमान में गंगोत्री ग्लेशियर 25,300 वर्ग मीटर प्रतिवर्ष की दर से भी अधिक तेजी से पिघल रहा है। हर्षवंती विष्ट चेतावनी देते हुए कहती हैं कि पूरी दुनिया को इस समस्या के बारे में एकजुट होकर सोचना होगा और प्रकृति से अधिक छेड़छाड़ को रोकना होगा। हमें वन और पर्यावरण को अधिक से अधिक बचाना होगा तभी ग्लेशियर भी बचेंगे। गंगोत्री पर हुए इस ताजा अध्ययन से एक बार फिर साफ हो गया है कि गंगोत्री के तेजी से सिमटने के कारण गंगा पर भी संकट पैदा हो गया है। हर्षवंती ने उत्तराखंड की राज्यपाल श्रीमती मार्ग्रेट अल्वा से मिलकर उन्हें भी इन स्थितियों से अवगत कराया है।
Email:- Mahesh.pandey@naidunia.com
हर्षवंती विष्ट के मुताबिक 3,982 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह ग्लेशियर 30 किलोमीटर लंबा और 4 किलोमीटर चौड़ा था जो अब केवल 18 किलोमीटर रह गया है। राज्य और केंद्र सरकारें भले ही गंगा और गंगोत्री ग्लेशियर को बचाने के बड़े-बड़े दावों के साथ ही, करोड़ों की भारी-भरकम योजनाएं भी संचालित कर रही हों लेकिन आज भी गंगोत्री ग्लेशियर को कार्बन कचरे से मुक्त नहीं बनाया जा सका है। आज भी ग्लेशियर में सैकड़ों क्विंटल प्लास्टिक का कूड़ा, पॉलीथिन, खाली बोतलें और यहां तक कि तरह-तरह के स्नैक्स के खाली पैकेट यहां-वहां पड़े मिल जाएंगे। गंगा की बेहतरी के लिए चल रही योजनाओं का हाल यह है कि गंगोत्री जाने वाले यात्रियों को कूड़ा न फैलाने के प्रति जागरूक करने में भी हमारी योजनाएं नाकाम रही हैं। रही-सही कसर इस खूबसूरत ग्लेशियर के अंतिम छोर पर स्थित गंगोत्री धाम मंदिर में लगातार बढ़ रही मानव गतिविधियों ने पूरी कर दी है। साल दर साल बढ़ते दर्शनार्थी तो हैं ही, व्यापारियों द्वारा बनाए जा रहे होटल, व्यापारिक प्रतिष्ठान और अवैध कब्जों ने यहां मानव दखल बढ़ाने में अहम भूमिका अदा की है। हाल में किए गए एक सर्वे में सिचाई विभाग उत्तराखंड ने पाया कि बीते एक साल के दौरान ही गंगोत्री धाम के आसपास 20 से अधिक अवैध कब्जे किए गये हैं।
हमें वन और पर्यावरण को अधिक से अधिक बचाना होगा तभी ग्लेशियर भी बचेंगे। गंगोत्री पर हुए इस ताजा अध्ययन से एक बार फिर साफ हो गया है कि गंगोत्री के तेजी से सिमटने के कारण गंगा पर भी संकट पैदा हो गया है।
चारों ओर से प्राकृतिक रूप से सुरक्षित चारों ओर से प्राकृतिक रूप से सुरक्षित व छोटे-छोटे ग्लेशियरों से घिरा गंगोत्री ग्लेशियर भी खुद को ग्लोबल वार्मिंग के खतरों से बचा पाने में नाकाम हो रहा है। गंगोत्री के आस-पास के किर्ती, घनोहिम, स्वछंद और सतोपथ ग्लेशियरों को गंगोत्री की सहायक ग्लेशियर माना जाता है लेकिन बढ़ती गर्मी और प्रदूषण ने इस पूरी घाटी में ही जोरदार हलचल पैदा कर दी है। भारतीय भूगर्भीय सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक 1935 से 1996 तक गंगोत्री ग्लेशियर के पिघलने की दर 18.80 मीटर प्रतिवर्ष रही है लेकिन रिपोर्ट यह भी कहती है कि यह दर ग्लेशियर के अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग है। वहीं केंद्र सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने 1971 से 2004 के बीच किए गए अपने अध्ययन के निष्कर्षों में कहा है कि गंगोत्री ग्लेशियर प्रतिवर्ष 17.15 मीटर प्रतिवर्ष की दर से पिघल रहा है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की रिपोर्ट के मुताबिक गंगोत्री ग्लेशियर के प्रतिवर्ष सिकुड़ने की दर 7.3 मीटर प्रतिवर्ष माना गया है। इन सभी रिपोर्टों से इतना तो समझा ही जा सकता है कि एक सदी पहले तक लगभग 30 किलोमीटर क्षेत्र में फैला गंगोत्री ग्लेशियर अब तेजी से सिकुड़ रहा है। भले ही जीएसआई, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग और अन्य शोध ग्लेशियर के पिघलने की गति पर एकमत न हों लेकिन सबकी यह राय जरूर है कि गंगोत्री ग्लेशियर तेजी से सिमट रहा है।प्रसिद्ध पर्वतारोही व पर्यावरणकर्मी हर्षवंती विष्ट के नेतृत्व में गए आईएमएफ के छह सदस्यीय दल ने गंगोत्री धाम से चौखंबा बेस कैंप तक छह महीनों तक किए अपने तुलनात्मक अध्ययन में पाया कि किस प्रकार लगभग 150 सालों में 30 किलोमीटर लंबा और औसतन 4 किलोमीटर चौड़ा यह ग्लेशियर सिमटकर अब केवल 18 किलोमीटर रह गया है। इस अध्ययन के लिए टीम ने 144 साल पहले ली गई ब्रिटेन के प्रसिद्ध फोटोग्राफर सैमुअल वर्न्स की फोटो का भी ग्लेशियर की वर्तमान स्थितियों से तुलनात्मक अध्ययन किया। टीम ने पाया कि किस प्रकार इन सालों में गंगोत्री ग्लेशियर व उससे लगे बुग्यालों की प्रकृति पर भी ग्लोबल वार्मिंग का गहरा असर हुआ है। अध्ययन में पाया गया कि कुछ दशक पहले तक गंगोत्री में जिस स्थान से गंगा का उद्गम है वह स्थान हमेशा बर्फ से ढंका रहता था केवल जलधारा ही वहां से निकलती दिखती थी लेकिन अब स्थिति यह हो गयी है कि गंगा का उद्गम स्थान पूरी तरह से पत्थरों व रेत का मैदान जैसा लग रहा है। जिसमें बर्फ काफी पीछे खिसक चुकी है। ग्लेशियर के पिघलने के कारण ऊपर उभर आए पत्थर और रेत ग्लेशियर की गर्मी और तेजी से बढ़ा रहे हैं। दल ने पाया कि एक बार पीछे खिसकने के बाद दुबारा उस स्थान पर स्थायी बर्फ का जमना बेहद मुश्किल हो रहा है। यही कारण है कि गंगोत्री ग्लेशियर लगातार पीछे खिसक रहा है।
इस अध्ययन दल में शामिल पर्वतारोहियों पुष्पा, वशुमति, विपुल धस्माना, अनिल, रतन सिंह चौहान का कहना है कि गंगोत्री ग्लेशियर में फैले अजैविक अवशिष्ट भी ग्लेशियर के पिघलने की रफ्तार को बढ़ा रहे हैं। भले ही अनेक अध्ययन ग्लोबल वार्मिंग से गंगोत्री को खतरा बता रहे हों लेकिन लखनऊ विवि के भूविज्ञान विभाग के प्रो. ध्रुव सेन सिंह ने अपने शोध में पाया है कि गंगोत्री में बर्फ का पिघला ग्लोबल वार्मिंग के कारण नहीं बल्कि उसकी अपनी स्थितियों के कारण है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद की ओर से विज्ञान रत्न पा चुके ध्रुव का कहना है कि ग्लेशियर अपने भीतर की छोटी झीलों, नदियों, टीलों और शिलाखंडों में पैदा हो रही हलचल के कारण पिघल रहा है। जितनी रफ्तार बताई जा रही है अगर उतनी बर्फ पिघल रही होती तो नदियों में पानी का जलस्तर भी बढ़ा होता। वहीं सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक गंगोत्री ग्लेशियर 1935 से 1956 के दौरान 2530 वर्ग मीटर पिघला। फिर 1956 से 1962 के बीच यह रफ्तार ढाई गुना बढ़ गई और 1962 से 1971 के बीच यह रफ्तार पांच गुना रही। सर्वे ऑफ इंडिया के ताजा अध्ययन में पाया गया है कि वर्तमान में गंगोत्री ग्लेशियर 25,300 वर्ग मीटर प्रतिवर्ष की दर से भी अधिक तेजी से पिघल रहा है। हर्षवंती विष्ट चेतावनी देते हुए कहती हैं कि पूरी दुनिया को इस समस्या के बारे में एकजुट होकर सोचना होगा और प्रकृति से अधिक छेड़छाड़ को रोकना होगा। हमें वन और पर्यावरण को अधिक से अधिक बचाना होगा तभी ग्लेशियर भी बचेंगे। गंगोत्री पर हुए इस ताजा अध्ययन से एक बार फिर साफ हो गया है कि गंगोत्री के तेजी से सिमटने के कारण गंगा पर भी संकट पैदा हो गया है। हर्षवंती ने उत्तराखंड की राज्यपाल श्रीमती मार्ग्रेट अल्वा से मिलकर उन्हें भी इन स्थितियों से अवगत कराया है।
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