ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव (Effects of Global Warming in Hindi)

ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव,Pc-Hwp
ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव,Pc-Hwp

हमारी पृथ्वी के चारों ओर का वायुमंडल एक कांच की खिड़की की तरह है जो सूर्य से आने वाले अधिकांश विकिरण को पृथ्वी के धरातल तक प्रवेश करने तो देता है, किन्तु पृथ्वी द्वारा वापस भेजे जाने वाले लंबे विकिरण को अंतरिक्ष में जाने से रोकता है। बाहर जाने वाले इस लंबे अवरक्त विकिरण को ग्रीनहाऊस गैस द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है जो कि वायुमंडल में साधारण रूप में मौजूद रहती हैं। वायुमंडल पुनः इसके कुछ भाग को वापस पृथ्वी पर भेजता है विकिरण का यही वापसी प्रवाह ग्रीनहाऊस प्रवाह कहलाता है जो कि पृथ्वी को गर्म रखता है। इस प्रकार वायुमंडलीय ग्रीनहाऊस गैस पृथ्वी के ऊपर एक कंबल की तरह काम करती है जो पृथ्वी से बाह्य अंतरिक्ष को भेजी जाने वाली ऊष्मा को नियंत्रित करती है ताकि पृथ्वी की गर्मी को स्वास्थ्य की दृष्टि बरकरार रखा जा सके। यह अद्भुत स्थिति ही  ग्रीनहाऊस प्रभाव कहलाती है। पृथ्वी का औसत बार्षिक तापमान लगभग 15° C है। यदि ग्रीनहाऊस गैस न हो तो पृथ्वी का तापमान गिरकर लगभग 20°C हो जाएगा। पृथ्वी को गर्म रखने की वायुमंडल की यह क्षमता ग्रीनहाऊस गैसों की उपस्थिति पर निर्भर करती है। यदि इन ग्रीनहाऊस गैसों की मात्रा में वृद्धि हो जाए तो ये अल्ट्रावॉयलेट (पराबैंगनी किरणों को अत्यधिक मात्रा में अवशोषित कर लेंगी। परिणामस्वरूप ग्रीनहाऊस प्रभाव बढ़ जाएगा जिससे वैश्विक तापमान में अत्यधिक वृद्धि हो जाएगी। तापमान में वृद्धि की यह स्थिति ही ग्लोबल वार्मिंग (वैश्विक कोष्णता) कहलाती है।

ग्लोबल वार्मिंग के लिए वास्तव में मानवीय गतिविधियां ही जिम्मेवार हैं जिनके कारण हमारी सुन्दर पृथ्वी का स्वरूप बदलता जा रहा है। तीव्र औद्योगिक विकास, नगरीकरण, जीवाश्म ईंधन के द्वारा ऊर्जा उत्पादन, भूमि उपयोग का बदलता स्वरूप तथा जंगलों के कृषि योग्य भूमि में बदलने के कारण विश्वव्यापी कार्बन चक्र प्रभावित हो रहा है। विश्व के अनेक देश जैसे अमेरिका, आस्ट्रेलिया, ब्राजील आदि में प्रत्येक वर्ष देश के किसी न किसी वन प्रदेश में भीषण आग लगने के कारण जहां हजारों हेक्टेयर में फैले जंगल नष्ट हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर वायुमंडल में अत्यधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड गैस इकट्ठी हो रही है। यही नहीं, विभिन्न मानवीय गतिविधियों के कारण अत्यधिक मात्रा में मीथेन, क्लोरोफ्लोरोकार्बन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रोफ्लोरो कार्बन आदि वायुमंडल में जमा हो रही हैं। ये सभी ग्रीनहाउस गैस कहलाती हैं क्योंकि ये लंबे अवरक्त विकिरण (इंफ्रारेड रेडियेशन) को अवशोषित करती हैं। वायुमंडल में इन्हीं ग्रीनहाऊस गेसों की  मात्रा में वृद्धि होने के कारण वैश्विक जलवायु परिवर्तित हो रही हैं, और यही परिवर्तन विश्वव्यापी जलवायु परिवर्तन कहलाता है।

संयुक्त राज्य अमेरिका के मौनालीया निरीक्षणशाला में एक अध्ययन में पाया गया है कि वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बीसवीं सदी के छठे दशक से ही बढ़ रही है। यदि यह प्रवृत्ति इसी रफ्तार से जारी रही तो उम्मीद की जाती है कि वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की यह मात्रा इक्कीसवीं सदी के अंत तक 600 से 900 पार्टिकल प्रति 10 लाख (पी.पी.एम.) के स्तर पर पहुंच जाएगी। वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा में हुयी अप्रत्याशित वृद्धि के फलस्वरूप उत्पन्न हुयी ग्लोबल वार्मिंग की स्थिति के लिए कई कारण है जो निम्न प्रकार हैं

तीव्र औद्योगिकीकरण

बीसवीं सदी में द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् विभिन्न देशों में तीव्र औद्योगिक विकास की आवश्यकता महसूस की गयी। फलस्वरूप उद्योगों की स्थापना और उनसे होने वाले उत्पादन का जो सिलसिला चला वह आज भी अनवरत जारी है तीव्र औद्योगिक विकास की भूख ने मनुष्य को इतना स्वार्थी बना दिया कि उसने प्रकृति और पर्यावरण के संतुलन की परवाह न करते हुए सारे नैसर्गिक नियम-कानून ध्वस्त कर दिए। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध से सदी के अंत तक लगभग पांच दशकों में अमेरिकी और यूरोपीय देश पूर्णतः औद्योगिक रूप में परिवर्तित हो चुके थे जिनमें प्रमुख हे संयुक्त राज्य अमेरिका, भूतपूर्व सोवियत संघ इंग्लैंड, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली आदि। एशियाई देशों में चीन, जापान, भारत, इंडोनेशिया, सिंगापुर, मलेशिया, ताइवान, उत्तरी तथा दक्षिणी कोरिया आदि देश भी औद्योगिकीकरण की इस अंधी दौड़ में शामिल हो गये। वर्तमान में ये सभी विकसित और विकासशील देश हैं जिनकी पर्यावरण को प्रदूषित करने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ये वही देश हैं जो सर्वाधिक मात्रा में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित करते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार एक अध्ययन में यह पाया गया है कि औद्योगिकीकरण आधारित विकास में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित करने वाले देशों में अमेरिका पहले और कनाडा दूसरे स्थान पर है। 1980 के दशक के बाद इसमें कुछ अन्य देश भी शामिल हो गये जो आज विकासशील देश कहे जाते हैं।

विश्व में तीव्र औद्योगिक विकास के कारण वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड, क्लोरोफ्लोरोकार्बन, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड आदि गैसों की मात्रा बढ़ने लगी जिससे वैश्विक तापमान में वृद्धि हुई। परिणामस्वरूप मानव सभ्यता के इतिहास में बीता दशक सर्वाधिक गर्म दशक और 1998 सबसे गर्म साल रहा और आज ग्लोबल वार्मिंग के रूप में एक वैश्विक समस्या हमारे समक्ष मौजूद है। यदि यह कहा जाए कि वैश्विक आतंकवाद से भी ज्यादा खतरनाक है 'ग्लोबल वार्मिंग तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि पिछले पचास वर्षो में जितनी कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित हो चुकी है, यदि उसमें हम और बढ़ोत्तरी न भी करें तो भी भविष्य में इसके गंभीर परिणाम होने वाले हैं। यह एक ऐसी समस्या है जिसके लिए विकसित राष्ट्र और उनकी आर्थिक व औद्योगिक गतिविधिया मुख्य रूप से जिम्मेवार हैं किन्तु इसकी सजा सभी को भुगतनी पड़ रही है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि जितने भी विकसित राष्ट्र हैं उनमें से 80% देश समशीतोष्ण जलवायु प्रदेश में स्थित हैं। अनुमान लगाएं कि यदि इतनी ही मात्रा में ग्रीनहाउस गैस उष्णकटिबंधीय जलवायु प्रदेश में स्थित देश उत्पन्न करने लगें तो स्थिति क्या होगी।

औद्योगिकरण के अंतर्गत मानव की विभिन्न गतिविधियां शामिल हैं जो इस धरती के स्वरूप को बदल रही है जैसे तीव्र औद्योगिकरण के कारण जहां एक ओर कृषि योग्य भूमि घटती जा रही है, वहीं दूसरी ओर इसके परिणामस्वरूप विश्वव्यापी कार्बन चक्र प्रभावित हो रहा है। वर्तमान में कोयले के इंधन के रूप में घरेलू तथा औद्योगिक उपयोग के कारण बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड गैस वायुमंडल में एकत्रित हो रही है वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड का मौजूदा स्तर 430 पार्टिकल प्रति 10 लाख है जबकि औद्योगिक क्रांति से पूर्व यह 280 पीपीएम था इस अंतर के कारण विश्व का तापमान लगभग आधा डिग्री सेल्सियस बढ़ गया।

इसी प्रकार कुछ उद्योग ऐसे हैं जो अत्यधिक मात्रा में नाइट्रोजन ऑक्साइड तथा सल्फर डाइऑक्साइड गैस वायुमंडल में छोड़ते हैं जो वायुमंडल में मौजूद अन्य गैसों के साथ मिलकर तीव्र प्रतिक्रिया करती हैं जैसे- लोहा-इस्पात निर्माण उद्योग, तेलशोधक कारखाने, ताप विद्युत संयंत्र, वस्त्र उद्योग, सीमेंट उद्योग, घरेलू ईंधन के रूप में उपयोग किया जाने वाला कोयला एवं लकड़ी तथा मोटरवाहन में उपयोग होने वाला पेट्रोलियम पदार्थ आदि । इसके अलावा बहुत से उद्योग ऐसे हैं जो कार्बन डाइजॉक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड, फ्लोरोकार्बन, नाइट्रोजन मोनोक्साइड, हाइड्रोजन सल्फाइड, नाइट्रस ऑक्साइड, जेट वायुयान द्वारा उत्सर्जित एयरोसोल तथा औद्योगिक कचरा जैसे सीसा, जस्ता, पारा, सायनाइड, औद्योगिक राख एवं अन्य जहरीले पदार्थ वायुमंडल और भूमि पर छोड़ते हैं। यहीं नहीं, मानव निर्मित रसायन क्लोरोफ्लोरोकार्बन की भी ग्लोबल पर्यावरण को बिगाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि इसका उपयोग रेफ्रिजरेटर उद्योग में किया जाता है किन्तु जब इसे तोड़ा जाता है तो यह सीधे वातावरण में घुल जाता है और पर्यावरण को प्रदूषित करता है।

नगरीकरण

तीव्र औद्योगिक और तकनीकी विकास के कारण पिछली एक शताब्दी में विश्व के लगभग सभी देशों में नगरीय जनसंख्या और नगरीकरण में तीव्र वृद्धि दर्ज की गयी विश्व में पूंजीवादी व्यवस्था आने के बाद कल-कारखानों के आकार और उनकी संख्या में वृद्धि होने के साथ-साथ नगरीय स्वरूप में भी आमूल-चूल परिवर्तन हुए मशीनीकरण ने उद्योगों को विशाल रूप प्रदान किया। यूरोप में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप नगरीय जनसंख्या और उसके स्वरूप में तेजी से विकास हुआ और इसका प्रभाव लगभग सारे विश्व में पड़ा। तीव्र औद्योगिक और तकनीकी विकास तथा बढ़ती हुई जनसंख्या ने नगरों में वाहनों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि करने में चुम्बक की भूमिका निभाई। परिणाम यह हुआ कि नगरों के केन्द्रीय भाग (या हृदय स्थल ) का तापमान उनके पृष्ठ प्रदेश की तुलना में काफी बढ़ गया शोधों द्वारा यह बात सत्य प्रमाणित हो चुकी है कि महानगरों के कोर क्षेत्र में उसके बहरबा भाग की अपेक्षा तापमान 2 से 3°C अधिक पाया जाता है। ऐसा विभिन्न प्रकार के वाहनों तथा कारखानों को चिमनियों से निकलने वाले विषैले हुए के कारण होता है।

वर्तमान में मुम्बई, दिल्ली और कोलकाता जैसे महानगरों में बढ़ते तापमान का मुख्य कारण वहां उनकी क्षमता से अधिक वाहनों का होना है। ऐसा अनुमान है कि मुम्बई और दिल्ली में प्रतिदिन तीन लाख वाहन सड़कों पर दौड़ते हैं और वातावरण में छोड़ी जाने वाली कार्बन मोनोक्साइड में 50 प्रतिशत योगदान इन्हीं वाहनों का होता है। कार्बन मोनोक्साइड अत्यंत जहरीली गैस है जो खून में ऑक्सीजन धारण करने की क्षमता को घटा देती है कुछ नगरीय क्षेत्रों में तो होने वाले वायु प्रदूषण में 80 प्रतिशत तक योगदान इन्हीं वाहनों का होता है। लगभग यही स्थिति विश्व के अन्य महानगरों के साथ भी है खोज के पश्चात् ज्ञात हुआ है कि फ्रांस की राजधानी पेरिस की सड़कों पर प्रति 100 क्यूविक लीटर हवा में 92 लीटर कार्बन डाइऑक्साइड का अनुपात है जबकि कार्बन डाइऑक्साइड की अधिकतम सीमा, जिसमें मनुष्य आरोग्य रह सकता है, वह 100 लीटर ही है। कमोवेश यही स्थिति न्यूयॉर्क, लंदन, टोकियो, मेक्सिको सिटी, शंघाई आदि नगरों की भी है। कुछ वर्ष पूर्व विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा कराये गये सर्वेक्षण के अनुसार विश्व के 10 सर्वाधिक प्रदूषित नगरों में दिल्ली और मुम्बई भी शामिल हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अत्यधिक जनसंख्या, उद्योगों का केन्द्रीकरण, वाहनों की अधिकता के फलस्वरूप वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों के अनुपात में वृद्धि होती है जो ग्लोबल वार्मिंग का एक महत्वपूर्ण कारण बनती है।

प्राकृतिक संसाधनों का दोषपूर्ण विदोहन

विश्व के अधिकांश देश ऐसे हैं जिनकी अर्थव्यवस्था प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित है। इन देशों का सकल घरेलू उत्पाद और उनसे प्राप्त होने वाली आय में इन प्राकृतिक संसाधनों की अहम भूमिका हैं। उदाहरण के लिए हम दक्षिणी और दक्षिण-पश्चिमी एशिया को ही लें। दक्षिणी एशिया में चीन और भारत दो ऐसे विकासशील देश हैं जो आज भी अपनी ऊर्जा की जरूरत का अधिकांश भाग कोयता और लकड़ी द्वारा प्राप्त करते हैं, वहीं दक्षिण-पश्चिमी एशिया के अधिकांश देशों की अर्थव्यवस्था खनिज तेल पर ही टिकी हुई है। इन दो जनसंख्या बाहुल्य  प्रदेशों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन प्रकृति का संतुलन बिगाड़ रहा है आज भी चीन और भारत विश्व के दो बड़े कोयला उत्पादक एवं उपभोक्ता देश हैं, वहीं ओपेक देशों द्वारा खनिज तेल के उत्पादन पर पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था टिकी हुई है।

 सिर्फ इतना ही नहीं, विश्व में वन क्षेत्र बहुत ही तीव्र गति से सिकुड़ते जा रहे हैं, विशेषकर विकासशील देशों में जो उष्णकटिबंधीय प्रदेशों में स्थित हैं। एक अनुमान के मुताबिक यदि समशीतोष्ण वन प्रदेश में एक प्रतिशत जंगल की कमी होती है तो उष्णकटिबंधीय वन प्रदेश में 40 प्रतिशत तक जंगल की कमी हो सकती है। वनों के क्षेत्रफल में कमी का मुख्य कारण कृषि भूमि का विस्तार, औद्योगिकीकरण नगरीकरण लकड़ी का अत्यधिक वाणिज्यिक उपयोग तथा ईंधन के रूप में घरेलू उपयोग आदि है। वर्तमान में उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में लगभग 10 मिलियन हेक्टेयर प्रतिवर्ष की दर से वन सिकुड़ते जा रहे हैं और यदि यह गति इसी तरह अनवरत जारी रही तो एक शताब्दी के अंदर अत्यंत गंभीर परिणाम सामने आयेंगे।

बीसवीं सदी के प्रारंभ में भारत में लगभग 50 प्रतिशत भूमि वनाच्छादित थी परन्तु बीसवीं सदी के समाप्त होते-होते यह 19.4 प्रतिशत ही रही गयी यह राष्ट्रीय वन नीति 1988 द्वारा अनुमोदित मैदानी क्षेत्रों में 33 प्रतिशत तथा पर्वतीय क्षेत्रों में 67 प्रतिशत अनिवार्य वन प्रदेश से काफी कम है। यही स्थिति दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी एशिया के देश जैसे चीन, - श्रीलंका, इंडोनेशिया आदि की भी है जहां पिछले कुछ दशकों में लगभग 11 प्रतिशत वन भूमि में कमी आयी है।

 इससे स्पष्ट है कि समशीतोष्ण कटिबंधीय प्रदेश में स्थित देशों की तुलना में उष्णकटिबंधीय प्रदेश में स्थित देशों की स्थिति कहीं ज्यादा गंभीर है क्योंकि इन वन प्रदेशों में घटते वन के कारण ग्रीनहाउस गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड का अनुपात बढ़ता जा रहा है जो ग्लोबल वार्मिंग की स्थिति उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों का सीमित या कम उपयोग 

विश्व में बढ़ती ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति हेतु विकासशील और अविकसित या निर्धन देशों द्वारा अब भी ऊर्जा के परंपरागत स्रोतों का ही प्रयोग अधिक हो रहा है जैसे विद्युत उत्पादन और उद्योगों के संचालन में कोयले का उपयोग, रेलगाड़ी के परिचालन में डीजल एवं कोयले तथा घरेलू ईंधन के रूप में कोयले तथा लकड़ी द्वारा ही ऊर्जा की आवश्यकता पूरी की जा रही है जबकि ऊर्जा के गैर-परंपरागत स्रोतों का उपयोग बहुत ही कम क्षेत्रों में हो रहा है। सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, ज्वार शक्ति, भू-तापीय शक्ति तथा जल शक्ति जैसे ऊर्जा के अनेक वैकल्पिक स्रोत हैं जिनका न सिर्फ बारम्बार उपयोग किया जा सकता है अपितु ये अक्षय ऊर्जा के भी स्रोत हैं परन्तु इनके अल्प विकास के कारण विश्व की अर्थव्यवस्था इन्हीं परंपरागत ऊर्जा के स्रोतों पर निर्भर है जिससे न सिर्फ पर्यावरण में प्रदूषण बढ़ रहा है अपितु वैश्विक तापमान में भी वृद्धि हो रही है जो अंततोगत्वा ग्लोबल वार्मिंग का कारण बनती है।

उच्च तकनीकी ज्ञान पर विकसित देशों का एकाधिकार 

यद्यपि विश्व के कुछ विकसित देश अपनी बढ़ती ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति वैकल्पिक स्रोतों से बखूबी कर रहे है किन्तु इनकी तकनीक महंगी होने के कारण इसका लाभ विश्व के अन्य देशों को नहीं मिल पा रहा है। साथ ही साथ इसके प्रचार-प्रसार में विकसित देशों का रवैया भी उदार नहीं है। यह बात सिर्फ ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में ही लागू नहीं होती अपितु पिछड़े देशों की आधारभूत संरचना के विकास के मामले में भी उनकी सोच भेदभावपूर्ण है। यदि हम अपनी कुल ऊर्जा जरूरत का 25 प्रतिशत हिस्सा भी अक्षय स्रोतों द्वारा प्राप्त कर लें तो यह हमारी बहुत बड़ी उपलब्धि होगी और इससे अप्रत्यक्ष रूप से ही सही पर्यावरण को बचाया जा सकता है।

दोषपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय राजनीति एवं कानून

विश्व के जितने भी विकसित और औद्योगिक देश हैं उनके पिछले कुछ वर्षों में, ग्लोबल वार्मिंग के संबंध में कथनी और करनी का मूल्यांकन किया जाए तो हम पायेंगे कि उनमें पर्याप्त अंतर है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस मामले में उनकी गतिविधियां उनके वक्तव्य के अनुरूप नहीं रही हैं। ये देश दूसरे देशों को वे सभी कार्य करने से रोकना चाहते हैं जिससे वायुमंडल में ग्रीनहाऊस प्रभाव बढ़ता हो परन्तु मे स्वयं वैसे कार्यों में लिप्त रहते हैं। अर्थात् उनकी नीति भेदभावपूर्ण होती है। इस परिप्रेक्ष्य में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका भी संतोषजनक नहीं है और इस संदर्भ में विकसित देशों द्वारा नियम-कानून का घोर उल्लंघन किया जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो ग्लोबल वार्मिंग को रोकने या कम करने की एक ईमानदार कोशिश एवं राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी देखने को मिलती है। यही वार्मिंग के कारण है कि इससे होने वाले दुष्प्रभाव को जानते-समझते हुए भी हाल के वर्षों में ग्लोबल वार्मिंग में कमी आयी है ऐसा हम नहीं कह सकते।

नवीनतम कारण

साइबेरिया क्षेत्र में साल भर जमी रहने वाली मृदा परमोफॉस्ट के गलने से ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रहा है। इसके कारण भारत समेत पूरे विश्व में गर्मी का प्रकोप है। परमोफॉस्ट के गलने से ग्रीनहाऊस गैस बनती है। साइबेरियाई मिट्टी में प्राचीन काल से ही कार्बन दवी हुई है और अब यह कार्बन झीलों के नीचे से ऊपर आकर हवा में मीथेन के रूप में घुलने लगी है। यह ऐसी ग्रीनहाऊस गैस है जिसकी क्षमता कार्बन डाइऑक्साइड के मुकाबले बीस गुणा अधिक होती है। विशेषकर उत्तरी साइबेरिया में पिछले 40 हजार वर्षों से भी अधिक समय से दबी कार्बन गैस अब काफी तेजी से ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने लगी है।

ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव

जलवायु पर प्रभाव वैज्ञानिकों द्वारा गहन शोध के आधार पर यह बात सामने आयी है कि बीसवीं सदी में वैश्विक औसत तापमान लगभग 0.6 बढ़ गया। तापमान में वृद्धि की प्रवृत्ति यदि इसी प्रकार जारी रही तो अनुमान है कि इक्कीसवीं शताब्दी के अंत तक पृथ्वी का तापमान लगभग 6°C तक बढ़ जाएगा। तापमान में यह परिवर्तन मध्य और उच्च अक्षाशिए प्रदेशों में हो सकते हैं। इस प्रकार वायुमंडल में तापमान के बढ़ने से हवा में नमी धारण करने की क्षमता बढ़ जाएगी जिससे क्षोभमंडल और समतापमंडल के स्वरूप प्रभावित होंगे। ऐसा वायुराशि के बदले स्वरूप के कारण होगा जिससे काफी बड़े भू-भाग पर वर्षा का वितरण और उसके स्वरूप प्रभावित होंगें जैसे- दक्षिणी (और पूर्वी एशिया में जहां गर्मियों में तथा उच्च अक्षाशिए प्रदेशों में ग्रीष्म और शीतकालीन वर्षा की मात्रा बढ़ सकती है, वहीं निम्न अवाशिए प्रदेशों में शीतकालीन वर्षा घट सकती है। यही नहीं, पृथ्वी के विभिन्न भागों में बाढ़ और सूखे का प्रकोप बढ़ सकता है।

इसके अलावा औद्योगिक नगरों में यदा-कदा अम्लीय वर्षा भी हो सकती है जिससे जल, भूमि, वनस्पति और भवनों के स्वरूप प्रभावित हो सकते हैं। मथुरा तेल शोधक कारखाने के कारण ही विश्व प्रसिद्ध ताजमहल का रंग पीला पड़ता जा रहा है। इस प्रकार वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारण वैश्विक जलवायु परिवर्तित हो रही है। परिणामस्वरूप विभिन्न प्रकार की बीमारियों का प्रकोप बढ़ रहा है जिससे न सिर्फ मानव अपितु सभी जैविक प्राणियों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है, विशेषकर उष्ण और उपोष्णकटिबंधीय प्रदेशों के निवासियों के लिए, क्योंकि जिस रफ्तार से वायुमंडल में ग्रीन हाऊस गैसों की मात्रा बढ़ रही है उससे आने वाले कुछेक वर्षो में विश्व का तापमान लगभग आधा डिग्री सेल्सियस और बढ़ेगा। परिणामस्वरूप गर्म हवाएं चलेंगी और समुद्री तूफानों का रूप और विकराल हो जाएगा। इससे मानसून भी प्रभावित होगा जिससे विशेषतः दक्षिणी और दक्षिण-पूर्वी एशिया के देश प्रभावित होंगे।

वर्ष 2003 में ऐसी ही गर्म हवाओं के चपेट में आने से फ्रांस की राजधानी पेरिस में 3000 व्यक्तियों की मौत हुई। इसी प्रकार मध्य भारत में जाने वाली बरसाती 'अ' 'रनस्टॉम' का ग्लोबल वार्मिंग से सीधा संबंध है। इसके कारण एक दिन में 100 मिली. से अधिक वर्षा होती है मौसमविदों ने एक अध्ययन में यह पाया कि यद्यपि पिछले पांच दशकों में वर्षा के वार्षिक औसत में कोई विशेष अंतर नहीं आया है इसके बावजूद, रेनस्टार्म की संख्या में प्रति दशक 10 प्रतिशत की दर बढ़ोत्तरी हुई है। पिछले पांच दशकों में रेनस्टॉर्म की संख्या दुगुनी तक पहुंच गयी है। इसके ता ऊष्मा में परिवर्तित हो जाती है जिससे मंडल साथ-साथ इसकी तीव्रता भी बढ़कर डेढ़ गुनी अर्थात् एक दिन में 150 मिली. वर्षा तक पहुंच गयी है। इस प्रकार UNEP का विश्व समुदाय को चेताते हुए यह नारा "ग्लोबल वार्मिंग ग्लोबल वार्निंग" तर्कसंगत है।

वनस्पति पर प्रभाव

वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि के फलस्वरूप उत्पन्न ग्लोबल वार्मिंग की स्थिति का प्रभाव बहुत से पेड़-पौधों के विकास पर पड़ेगा, विशेषकर कार्बन तीन (यानी C3) प्रजाति के पौधों पर यद्यपि वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ जाने के कारण पौधों में प्रकाशसंश्लेषण की दर बढ़ सकती है जिससे बहुत ही कम समय में पौधों की संख्या और उसके आकार में 25 प्रतिशत तक की वृद्धि संभव हो सकती है। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड के बढ़ने के फलस्वरूप पौधों की यह प्रतिक्रिया कार्बन डाइऑक्साइड का उर्वरता प्रभाव कहलाता है। तथापि, वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड के बढ़ने के फलस्वरूप उत्पन्न ग्लोबल वार्मिंग के कारण इस पर अंततः हानिकारक प्रभाव ही पड़ेगा।

समुद्र के स्तर में परिवर्तन 

वैज्ञानिक अध्ययन में तो यह बात अब सत्य प्रमाणित हो चुकी है कि बीसवीं शताब्दी में प्रतिवर्ष 2 मिली. मी. की दर से 2 समुद्रः के जल स्तर में वृद्धि हुई और अनुमान है कि इक्कीसवीं शताब्दी के अंत तक समुद्र का जल स्तर लगभग 0.88 मीटर से 3 मीटर तक बढ़ जाएगा। इसमें वैश्विक कोणता ( ग्लोबल वार्मिंग) का बहुत बड़ा योगदान होगा क्योंकि अंटार्कटिका की विशाल हिमराशि और ग्रीनलैंड के हिमचादरों के पिघलने के कारण समुद्र का जल स्तर काफी बढ़ जाएगा जो न सिर्फ मनुष्य को अपितु समूचे (जैव जीव जगत को प्रभावित करेगा, विशेषकर उन समीपवर्ती क्षेत्रों को जो समुद्र तट के 50 किमी. की सीमा में आते हो। इसके फलस्वरूप बहुत से नगर और तटीय क्षेत्र बाढ़ के खतरे के अंदर जा जाएंगे, बहुत से छोटे-छोटे द्वीप डूब जाएंगे। नमकीन दलदलों द्वारा अनेक एश्चुअरी तथा उच्च उत्पादकता वाली कृषि भूमि, पक्षी एवं मछली के प्रजनन क्षेत्रों कारण हो जाएगा। समुद्र तटीय क्षेत्रों में पायी जाने वाली वनस्पति संग्रोव डूब जाएगी। इस प्रकार समुद्र के जल स्तर में वृद्धि का मानव अधिवास, पर्यटन, शुद्ध जलापूर्ति, समुद्री संसाधन, कृषि भूमि, वनभूमि तथा आधारभूत संरचना पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

विभिन्न प्रजातियों के वितरण पर प्रभाव

 बहुत से पेड़-पौध तथा जीव-जंतु एक तापमान विशेष पर ही पाये जाते हैं या यूं कहें कि उनका विकास हो सकता है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण इन जीव-जन्तुओं तथा पेड़-पौधों की लगभग 40% प्रजातियां नष्ट हो सकती हैं या अपने मूल स्थान से स्थानांतरित हो सकती हैं और इस प्रकार इनका अक्षाशिए वितरण प्रभावित हो सकता है। उदाहरण के रूप में समुद्री जीव प्रवाल को ही में, इनका विकास एक निश्चित ढाल, तापमान तथा गहराई पर ही होता है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण बढ़े हुए समुद्र के जल स्तर के फलस्वरूप इनका विकास, वितरण एवं इनके द्वारा निर्मित विभिन्न स्थलाकृतिक संरचनाएं प्रभावित हो सकती हैं। इसी प्रकार बहुत सी वनस्पतियों तथा जीवों का पलायन धीरे-धीरे ध्रुवीय प्रदेशों या उच्च पर्वतीय प्रदेशों की तरफ हो सकता है। ऐसा अनुमान है कि यदि इक्कीसवीं सदी में 2.5°C तापमान में वृद्धि हो जाती है तो उष्णकटिबंधीय प्रदेशों में पायी जाने वाली वनस्पति 250 से 500 किमी. तक ध्रुवीय प्रदेशों की तरफ खिसक सकती है। यही नहीं जब तक वनस्पतियां बढ़े हुए तापमान के अनुरूप अपने आप को ढाल पायेंगी, तब तक बड़ी संख्या में वनस्पतियां नष्ट हो चुकी होंगी और उनका स्थान पास-फूस और कंटीली झाड़ियां ले चुकी होगी। इसके साथ-साथ बहुत सी प्रजातियां  उतनी तीव्र गति से स्थानांतरित नहीं हो पाएंगी, जितनी रफ़्तार से तापमान में वृद्धि हो रही है। फलतः उनके अस्तित्व पर भी संकट के बादल मंडराने लगे हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण मैरियन द्वीप पर देखने को मिलता है जहां पर ग्लोबल वार्मिंग का सबसे अधिक असर देखा जा सकता है। यहां प्रत्येक वर्ष तापमान में वृद्धि दर्ज की जा रही है यह प्रक्रिया पिछले 50 वर्षों से चल रही है जिसके परिणामस्वरूप वहां के जीव-जन्तुओं का विकास और उनका वितरण प्रभावित हो रहा है।

खाद्यान्न उत्पादन पर प्रभाव  

तापमान में वृद्धि के फलस्वरूप उत्पन्न ग्लोबलवार्मिंग के कारण पौधों में विभिन्न प्रकार की बीमारियों का प्रकोप बढ़ेगा जिसे दूर करने के लिए उतने ही जोर से कीटनाशकों का उपयोग होगा। इन सभी परिस्थितियों में कुल मिलाकर खाद्यान्न का उत्पादन घटेगा तथा साथ ही भूमि और जल दोनों प्रदूषित होंगे। यदि थोड़ी मात्रा में तापमान में वृद्धि होती है तो समशीतोष्ण प्रदेशों में उत्पादकता में अल्पवृद्धि हो सकती है परन्तु यदि तीव्र वृद्धि होती है तो उष्ण तथा उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में निश्चित रूप से फसल की उत्पादकता में हानिकारक प्रभाव पड़ेगा। उदाहरण के लिए विश्व के प्रमुख चावल उत्पादक क्षेत्रों विशेषकर दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी एशिया में प्रति ।  1°C तापमान में वृद्धि उत्पादकता में 5 प्रतिशत तक की कमी ला सकती है। वैज्ञानिक रिपोर्ट बताती है कि वायुमंडल में ग्रीनहाऊस गैसों के बढ़ते प्रभाव के कारण वर्ष 2050 तक सालाना वैश्विक उत्पादन में एक प्रतिशत की कमी जाएगी। अगर तत्काल कोई कार्रवाई नहीं हुई तो प्रति व्यक्ति वैश्विक उपभोग में पांच से 20 फीसदी की कमी आ सकती है। यह स्थिति भविष्य में होने वाले खाद्यान्न संकट का खतरनाक संकेत है। यही नहीं विश्व बैंक के पूर्व अर्थशास्त्री स्टर्न महोदय के अनुसार यदि ग्रीन हाउस  गैसों के उत्सर्जन में तत्काल कोई कटौती नहीं की गयी तो भविष्य में पिछली सदी में आयी भयानक मंदी से भी बड़ा आर्थिक संकट उत्पन्न हो सकता है जो पिछले दो विश्व युद्धों और 1990 की मंदी से हुए आर्थिक नुकसान से भी ज्यादा होगा।

ओजोन परत का क्षतिग्रस्त होना सामान्यतः

समतापमंडल के निचले भाग में धरातल से 16 से 55 किमी. की दूरी पर ओजोन मंडल का विस्तार है। ओजोन परत की मोटाई विषुवतरेखा के ऊपर आसतन 0.29 सेमी. और ध्रुवीय प्रदेशों के ऊपर 0.10 सेमी. है। यह ओजोन परत हमारे लिए रक्षा कवच के रूप में काम करती है जो सूर्य से आने वाली अल्ट्रावायलेट (परावंगनी) किरणों को अवशोषित कर इस सृष्टि की रक्षा करती है। परावंगनी किरणों को अवशोषित करने की यह क्षमता ओजोन परत की मोटाई पर निर्भर करती है।

विज्ञान में तरक्की तथा नवीन प्रौद्योगिकी के फलस्वरूप मानवीय क्रिया-कलापों के कारण ओजोन मंडल में लगातार रिक्तीकरण हो रहा है। 1956 से 1970 के बीच अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन परत की मोटाई औसतन 300 डॉक्सन इकाई रही। वह मोटाई 1979 में कम होकर 225 डोवसन इकाई पर पहुंच गयी 1985 में यह 196, 1994 में 94 तथा 2005 में गिरकर लगभग 85 जोवसन यूनिट पर आ गई । इस प्रकार विगत पांच दशकों में इसमें लगातार क्रमिक ह्रास जारी रहा। ओजोन परत की मोटाई में यह ह्रास अंततोगत्वा ओज़ोन मंडल में एक बड़े छेद के रूप में परिणत हो गया। ओज़ोन मंडल के क्षतिग्रस्त होने में तीव्र गति से उड़ने वाले सुपरसोनिक जेट वायुयानों का कम योगदान नहीं है क्योंकि जब ये 18 से 22 किमी.की ऊंचाई पर ध्वनिगति से दुगुनी रफ्तार से उड़ते तो इनसे निस्सृत नाइट्रोजन ऑक्साइड से ओजोन परत में ह्रास होता है। एक अनुमान के अनुसार यदि 200 सुपरसोनिक विमानों का एक दल प्रतिदिन उड़ान भरता है तो ओजोन परत की मोटाई में 5 प्रतिशत की कमी हो सकती है।

ओजोन परत में छेद को पहली बार 1985 में अंटार्कटिका के ऊपर देखा गया यह छेद क्षेत्रफल में लगभग एक करोड़ साठ लाख वर्ग किमी. के बराबर होगा। इसी प्रकार 1990 में अंटार्कटिका क्षेत्र में भी ओजोन परत क्षतिग्रस्त हो गयी 1980 से 2001 के दौरान ओजोन परत की मोटाई में 3 प्रतिशत वार्षिक की दर से क्रमिक ह्रास दर्ज किया गया ओजोन परत के रिक्तीकरण में सबसे बड़ा योगदान मानव निर्मित रसायन क्लोरोफ्लोरोकार्बन, मीथेन तथा नाइट्रस ऑक्साइड का रहा। ओजोन परत में छेद से संबंधित इस खोज के लिए 1995 में रसायन का नोबेल पुरस्कार शेरवुड रोलैंड , मेरियो मोलिना और पॉल क्रुत्जैन को सम्मिलित रूप से दिया गया।

ओजोन परत में छेद का प्रभाव

ओजोन परत की मोटाई में क्रमिक हास के फलस्वरूप अल्ट्रावॉयलेट रेडियेशन अत्यधिक मात्रा में धरातल पर पहुंचने लगेंगे वैज्ञानिक अनुसंधान में यह पाया गया है कि ओजोन परत में 5 प्रतिशत की क्षति 10 प्रतिशत अल्ट्रावॉयलेट रेडियेशन में बढ़ोत्तरी करती है। इसके फलस्वरूप जीवों में त्वचा कैंसर, मोतियाविन्द, पाचनतंत्र और तंत्रिका तंत्र से संबंधित रोग हो सकते हैं। अत्यधिक मात्रा में अल्ट्रावायलेट विकिरण पौधों में भी प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया को भी प्रभावित करता है।

अंटार्कटिका में इसके कारण लेक्टन के प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया प्रभावित हो रही है जिसके परिणामस्वरूप वहाँ का भोजन चक्र प्रभावित हो रहा है। यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों में फाइटोप्लेकटन नामक पौधों की संख्या में आश्चर्यजनक रूप से कमी आयी है। यही नहीं, यह साफ और खुले समुद्र के भोजन एक को भी प्रभावित करता है क्योंकि अल्ट्रावॉयलेट किरणों मैं समुद्र के जल को भी पार कर सकने की क्षमता होती है।

इस प्रकार वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की अत्यधिक मात्रा में एकत्रित होने से हमारे समक्ष एक कठिन चुनौती खड़ी हो गयी कि कैसे वातावरण में इन ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा को वर्तमान स्तर से न्यूनतम किया जाए। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु 1987 में 27 औद्योगिक देशों ने मोन्ट्रियल शहर में एक अंतर्राष्ट्रीय समझौते पर हस्ताक्षर किये जिसे मोन्ट्रियल समझौता के नाम से जाना जाता है। इस समझाते में इस बात पर सहमति हुई कि कैसे ओजोन परत में हुए छेद के लिए जिम्मेदार गैसों की उत्पत्ति को कम किया जाए और विकासशील देशों को क्लोरोफ्लोरोकार्बन के विकल्प के इस्तेमाल पर सहायता दी जाए। यह हमारे लिए संतोष की बात है कि इसकी भयावहता और इसके दीर्घकालीन दुष्प्रभाव को महसूस करते हुए आज 175 से अधिक देश समझौते पर हस्ताक्षर कर चुके हैं। 1992 में ब्राजील की राजधानी रियोडिजेनेरियो में पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन, जो पृथ्वी सम्मेलन के नाम से प्रसिद्ध है, आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में इस बात की व्यवस्था की गई कि कैसे ग्रीनपऊस गैस की मात्रा को कम किया जाए। इसी प्रकार इसके आगे  की कड़ी के रूप में दिसम्बर 1997 में जापान के शहर क्योटो में एक सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में विभिन्न देशों ने जलवायु परिवर्तन पर अपने-अपने विचार रखे और इस बात पर सहमति हुई कि सभी संबंधित देश ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को 5 प्रतिशत कम करते हुए 2008-2012 तक की समय सीमा में वर्ष 1990 के स्तर पर लायेंगे । इस तथ्य को प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित कदम उठाने होंगे :

  • जीवाश्म ईंधन का न्यूनतम उपयोग करना ताकि ग्रीनहाऊस गैस का उत्सर्जन कम हो।
  • धरती पर वन भूमि का विस्तार करना जिससे अधिक से अधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित हो सके ।
  •  कृषि में नाइट्रोजन ऑक्साइड उर्वरक का न्यूनतम उपयोग करना ताकि नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन कम हो। इसके स्थान पर जैविक खाद के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करना ।
  •  क्लोरोफ्लोरोकार्बन के विकल्प का विकास हो ।
  •  मोटर वाहन उद्योग में पेट्रोल एवं डीजल के स्थान पर वैकल्पिक ईंधन का प्रयोग करना जैसे बायोडीजल, - सौर ऊर्जा, सी.एन.जी., विद्युत और बैटरी चालित वाहनों का विकास करना। वाहनों में बेरियम मिश्रित ईंधन का प्रयोग भी किया जा सकता है ताकि निस्सृत धुएं की मात्रा कम हो सके।
  • नगरों में उद्योगों के एक ही स्थान पर केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति कम करने के प्रयास हों अर्थात् उद्योगों का विकेन्द्रीकरण हो ।
  •  सभी प्रकार के प्रदूषण (विशेषकर वायु प्रदूषण) के प्रति आम लोगों को जागृत किया जाए।
  • सभी प्रकार के उद्योगों में धुआं संवर्धन संयंत्र की स्थापना सुनिश्चित करना एवं ग्रीन टेक्नोलॉजी के विकास पर जोर देना।
  • प्रदूषण से संबंधित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय कानून का ईमानदारी और कड़ाई से पालन करना ।

ऊर्जा के परंपरागत स्रोतों पर निर्भरता कम करना और इसके विकल्प पर अधिक ध्यान देना जैसे सौर - ऊर्जा, पवन ऊर्जा, ज्वार शक्ति, भू-तापीय शक्ति, जल शक्ति आदि का विकास करना एवं इसकी तकनीक के अंतर्राष्ट्रीय विस्तार के साथ-साथ यह सुनिश्चित करना कि यह तकनीक विश्व के निर्धनतम देश को सुलभ हो । उदाहरण के लिए स्टील उत्पादन में कुछ तकनीक हैं, यदि उन्हें अपनाया जाए तो ग्लोबल वार्मिंग घट सकता है। स्टील उत्पादन के दौरान कोयले को पानी से ठंडा करने की तकनीक अपनाकर निकलने वाली गैस से हम ऊर्जा का उत्पादन कर सकते हैं। इसके लिए गैस को नियंत्रित करना होगा। इसमें एफ. सी.बी. बॉयलर तकनीक लगाकर ऊर्जा पैदा की जा सकती है। इस तरह की तकनीक का प्रयोग नेशनल थर्मल पावर कारर्पोशन (NTPC) कर रहा है और इस का प्रसार जरूरी है। ग्लोबल वार्मिंग को अभी भी नियंत्रित किया जा सकता है। इसके लिए सभी औद्योगिक देशों और उद्योग जगत को आगे आना होगा।

'ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने में वैज्ञानिकों के एक वर्ग का कहना है कि अन्तरिक्ष में सल्फर डाइऑक्साइड फैला दिया जाए जिससे प्रकाश का परिवर्तन हो सके किन्तु इससे आकाश का रंग नीले के बजाए पीला नजर आएगा।

 कुछ वैज्ञानिकों की राय है कि अन्तरिक्ष में लगभग 12 लाख वर्ग मील क्षेत्र में कांच की छतरी फैला दी जाए। इस पर लगभग 3 खरब डॉलर का खर्च आएगा किन्तु वैज्ञानिकों को डर है कि असंतुलन की स्थिति में क्या होगा। यही कारण है कि दोनों उपायों पर अभी तक वैज्ञानिकों के बीच एकमत नहीं बन पाया है। अतः फिलहाल तो हमें कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ता हो

एक ध्रुवीय चेतावनी

ग्लोबल वार्मिंग के कारण दुनिया हर पल, हर दिन, हर महीने, हर साल बदल रही है। इसे देखते हुए सन् 2050 में यह जितना बदल जाएगी उसकी कल्पना करना उतना मुश्किल भी नहीं है। सन् 2050 तक में होने जा रहे बदलावों पर हमारी यह पैनी नजर कि प्रत्येक नया साल नई चुनौतियां लेकर आता है और नई चेतावनियां भी  2007 जिस चेतावनी को लेकर आया, वह पिछले कई वर्षों में आयी चेतावनियों से कहीं ज्यादा संगीन और बड़ी रही। ग्लोबल वार्मिंग के कारण आर्कटिक में 66 वर्ग किमी. की विशाल हिम राशि का चटखना महज एक खबर भर नहीं रही। यह अचानक हुआ कोई हादसा भी नहीं था। चेतावनी तो वर्षों पहले से दी जा रही थी। पर्वत श्रेणियों पर हिमनदों के छोटे होते जाने की खबरें तो थीं ही, कहा तो यह भी जा रहा था कि ग्लोबल वार्मिंग इसी तरह बढ़ता रहा तो अंगद के पांव की तरह अटल होने के प्रतीक रही ध्रुवीय हिमराशि भी अतीत की बात बन जाएगी। हालत अगर यही रही तो हो सकता है कि सन् 2050 के बाद आर्कटिक में बर्फ ढूंढने से भी न मिले। देश दुनिया के ठंडे प्रदेशों से आ रही खबरें मौसम के बदलते मिजाज के तल्ख संकेतों से भरी हैं। जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी समिति (IPCC) की रिपोर्ट को देखें तो जो सच सामने आते हैं, वे रूह कंपा देते हैं। ग्लोबल वार्मिंग की हकीकत जिस तेजी से हमारे आस-पास की दुनियां को नरक बना रही है, अगर हम न चेते तो तबाही लगभग तय है।

पिघलते ग्लेशियर, चटखते हिमखंड और सर्दी-गर्मी जैसे हर मौसम में पारे का थोड़ा और उछल जाना ये सब हमें उस भविष्य की ओर ले जा रहे हैं, जहां से लौटना शायद मुमकिन न हो जाए। कुछ पर्यावरणविदों ने ध्रुवीय भालू और सील मछली के बदलते व्यवहार का अध्ययन करके भी चेतावनी दे दी थी। ध्रुवीय बर्फ घटने से वहां का भोजन चक्र प्रभावित हो रहा है और ध्रुवीय जन्तु भोजन की तलाश में मानव बस्तियों के पास आने लगे हैं। यह उनके अब तक के ज्ञात व्यवहार के बिल्कुल विपरीत है। बावजूद इसके हम भालू के बदलते मिजाज में मानव प्रजाति या यूं कहें कि सारी सृष्टि के लिए खतरे की चेतावनी पढ़ने से चूक गये। चेतावनियां और भी थीं। अभी 2005 में आर्कटिक का तापमान सामान्य से 5°C अधिक बढ़ गया। कुछ अध्ययनों में यह भी नतीजा निकाला गया कि आर्कटिक की फिजाओं की गर्मी अब पहले के मुकाबले पूरी रफ्तार से बढ़ रही है पर दुनिया अब तक यही मानकर आश्वस्त रही कि प्रलयंकारी बदलाव कोसों दूर है।

दुनिया के गर्म होते जाने की जानकारी कोई नई नहीं है। पता तो 1824 में ही लग गया था, जब जोसेफ फूरियर ने बताया था कि धरती पर यदि कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ेगी तो धरती का तापमान बढ़ेगा, फलस्वरूप ध्रुवीय हिमखंड पिघल सकते हैं। बावजूद इसके पिछले लगभग 180 वर्षों में हमने कार्बन डाइऑक्साइड एवं अन्य ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन घटाने के लिए कुछ नहीं किया, विशेषकर समृद्ध देशों ने, जो इसके लिए सर्वाधिक गुनाहगार हैं। ग्लोबल वार्मिंग जिस रफ्तार से बढ़ रहा है उसमें 60 प्रतिशत से ज्यादा योगदान विकसित देशों का ही है। एक तर्क यह है कि इसको रोकने की शुरुआत विकसित देशों को ही करनी चाहिए। दूसरा तर्क यह है कि विकसित देशों ने जिस शैली को अपना लिया है, उसे रातों-रात छोड़ना आसान नहीं इसलिए फिलहाल ध्यान उन देशों पर दिया जाए जो तेजी से ग्रीन हाऊस गैस को बढ़ाने वाली शैली को अपना रहे हैं। पर क्या विकासशील देश यह जोखिम ले सकते हैं कि वे ग्लोबल वार्मिंग रोकने में अपनी विकास यात्रा को रोक देगें।

किन्तु अब हाथ पर हाथ धर कर बैठने और एक दूसरे के ऊपर दोषारोपण करने का समय खत्म हो चुका है। ध्रुवों एवं पर्वत शिखरों में जमी बर्फ के पिघलने की रफ्तार कल्पनातीत ढंग से बढ़ चली है। यह और न बढ़े इसके लिए तुरंत कदम उठाने का समय आ गया है। हमारा पिछला रिकार्ड चाहे जितना भी खराब क्यों न हो, लेकिन हम इनका कोई और समाधान अभी भी निकाल सकते हैं बशर्ते कि सीमा, विश्व व्यापार, क्षेत्रीयता, पराये धन पर नजरें गड़ाने एवं सभ्यताओं की जंग जैसे बेवजह झगड़ों को ही सब कुछ मानकर हम इस चुनौती को ही न भूल जाएं। इस सदी में हमें मानव सभ्यता का भविष्य इराक, ईरान, उत्तरी कोरिया, अफगानिस्तान, फिलीस्तीन, डब्ल्यूटीओ, परमाणु परिसीमन और मिसाइल तकनीक से आगे बढ़कर बनाना होगा। मानव सभ्यता और इस सुन्दर सृष्टि को बचाना इस दशक का सबसे बड़ा संकल्प होना चाहिए क्योंकि अब इसका कोई विकल्प नहीं है। ये दोनों काम प्राथमिकता के आधार पर करने ही होंगे क्योंकि 21वीं सदी की इस वैश्विक चुनौती का समाधान हाथ पर हाथ धरे और पुराने तंत्र के भरोसे नहीं किया जा सकता।

संपर्क सूत्र :

श्री शैलेन्द्र कुमार गुप्ता, मुख्य पथ, भगत सिंह चौक, बैंक ऑफ इंडिया के पास, पो.-खूंटी, जि. रांची- 835210 (झारखंड)

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Post By: Shivendra
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