पर्यावरण या ग्लोबल वार्मिंग जैसे मुद्दे तात्कालिक लाभ-हानि के पैमाने पर खरे नहीं उतरते, इसलिए ये चुनाव के मुद्दे तो नहीं ही बनते हैं। लेकिन स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के दो अध्येताओं ने ‘पर्यावरण बदलाव का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव’ पर एक अध्ययन किया है, उसके अनुसार क्लाइमेट चेंज से अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान हो रहा है। भारत के संदर्भ में उनका कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था 31% तक कम हुई है। यह रिपोर्ट बताती है कि पृथ्वी के तापमान में लगातार बदलाव ने दुनियाभर की अर्थव्यवस्था में असमानता बढ़ाई है।
स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के अध्ययन में खुलासा 'ग्लोबल वार्मिंग से दुनिया भर की अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ी
‘प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज’ नामक पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन से पता चला है कि 1960 के दशक के बाद से पृथ्वी के वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ती सांद्रता ने नॉर्वे और स्वीडन जैसे ठंडा प्रदेशों को समृद्ध किया है जबकि भारत और नाइजीरिया जैसे गर्म देशों को आर्थिक विकास में काफी नीचे किया है।
यूनिवर्सिटी के जलवायु वैज्ञानिक नोआह डिफेंबॉ ने कहा है, "हमारे इस अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि पृथ्वी के अधिकांश गरीब देशों की स्थिति ग्लोबल वार्मिंग के बाद से और अधिक दयनीय हुई है।"
1960 के दशक से लेकर 2010 के बीच गरीब देशों में प्रति व्यक्ति आय में 17 से 30% की कमी
इस अध्ययन से यह भी पता चला है कि 1961 से 2010 के बीच मानव गतिविशियों से उत्पन्न होने वाली ग्लोबल वार्मिंग ने देशों के बीच आर्थिक असमानता में 25% की वृद्धि कर दी है। परिणाम स्वरूप अमीर देश और अमीर होते गए हैं, वहीं गरीब देश और गरीब रहने पर मजबूर होते गए। वहीं 1960 के दशक से लेकर 2010 के बीच गरीब देशों में प्रति व्यक्ति आय में 17 से 30% की कमी भी लाई।
इन वर्षों में प्रति व्यक्ति उच्चतम तथा प्रति व्यक्ति निम्नतम आर्थिक उत्पादन के मामले भी में देशों के बीच का अंतर को ग्लोबल वार्मिंग से पहले की तुलना में 25% बढ़ा दिया है।
डिफेंबॉ ने कहा, "यह अंतर बैंक बचत खाते की तरह है, जहां ब्याज दर में छोटा सा अंतर आपके खाते में 30 या 50 से अधिक वर्षों में खाते की राशि में एक बहुत बड़ा अंतर पैदा कर देता है।"
पिछले 50 सालों में आर्थिक उत्पादन में भी देशों के बीच का अंतर 25% तक बढ़ा ग्लोबल वार्मिंग के कारण
शोध के लिए आर्थिक विकास पर तापमान में उतार-चढ़ाव के अर्थव्यवस्था पर प्रभावों का अनुमान लगाने के लिए 165 देशों के वार्षिक तापमान और जीडीपी दर के 50 वर्षों का विश्लेषण किया गया है।
"यह डाटा स्पष्ट रूप से दिखाता है कि फ़सलें अधिक उत्पादक हैं, लोग स्वस्थ हैं और हम ‘काम’ पर भी अधिक प्रोडक्टिव होते हैं, जब तापमान न तो बहुत गर्म होता है और न बहुत ठंडा होता है।" स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में सहायक प्रोफेसर मार्शल बर्क बताते हैं “इसका मतलब है कि ठंडे देशों में, थोड़ा सा वार्मिंग मदद कर सकता है उन स्थानों के तुलना में जो पहले से ही गर्म हैं। शोधकर्ताओं ने इस अध्ययन के लिए दुनिया भर के अनुसंधान केंद्रों द्वारा विकसित 20 से अधिक जलवायु मॉडल के डाटा का संयुक्त अध्ययन किया।
धरती के तापमान में वृद्धि से गरीब देश मुकाबला नहीं कर पाएंगे। जिससे उनके हालात बदतर होते जाएंगे। साथ ही गरीबी बढ़ती जाएगी। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि पर्यावरण को दोयम दर्जे का मुद्दा न मानें, सूखा और बाढ़ की बढ़ती भयावहता से हम सीख सकते हैं। केरल की बाढ़, देश के एक बड़े हिस्से में सूखा सब पर्यावरणीय बदलाव के नतीजे हैं। एक अच्छा पर्यावरण हमें इन सबसे मुक्ति दिला सकता है।
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