हाल के दशकों में डेंगू का वैश्विक प्रकोप नाटकीय रूप से बढ़ा है। दुनिया भर के लगभग 250 करोड़ लोग यानि दुनिया की आबादी का 2/5 वां हिस्सा इस समय डेंगू के खतरे की चपेट में है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक हाल के आंकलन के मुताबिक हर साल दुनिया में डेंगू से 5 करोड़ लोग ग्रस्त हो सकते हैं। यह रोग इस समय अफ्रीका, अमेरिका, पूर्वी भूमध्यसागरीय क्षेत्र, दक्षिण-पूर्व एशिया और पश्चिमी प्रशांत क्षेत्रों के 100 से ज्यादा देशों में स्थानिक रूप में मौजूद है। जैसे-जैसे रोग नए, क्षेत्रों में अपने पांव पसार रहा है, न सिर्फ रोग के मामलों की संख्या बढ़ रही है बल्कि विस्फोटक महामारियां भी सामने आ रही है। बहुत से संक्रामक रोग इसको फैलाने के लिए जिम्मेदार जीवों के माध्यम से फैलते हैं। ऐसे जीव रोगवाहक या वेक्टर कहलाते हैं। अधिकांश रोगवाहक वातावरणीय कारकों के प्रति संवेदनशील होते हैं और ऐसे रोगवाहक तापमान में वृद्धि से भी प्रभावित होंगे। अध्ययनों से यह ज्ञात हुआ है कि वैश्विक तापवृद्धि के कारण रोग पैदा करने वाले सूक्ष्मजीवों और इनके रोगवाहकों के संभावित प्रसार क्षेत्र का विस्तार हुआ है।
आंकलनकर्ताओं का मानना है कि भूमंडल पर तापमान बढ़ने के कारण ऐसे रोगों, जो पहले उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों तक सीमित थे, का विस्तार अन्य (पूर्व में अपेक्षा ठंडे) क्षेत्रों में भी हो रहा है। सामान्य तौर पर गर्म तापमान और उच्च आर्द्रता स्तर रोगवाहकों के भौगोलिक क्षेत्र में विस्तार को सहयोग करता है। इसके कारण मलेरिया, डेंगू ज्वर, पीत ज्वर और विषाणुजनित मस्तिष्कशोथ जैसे रोगवाहक द्वारा फैलने वाले रोगों के संभावित प्रसार क्षेत्र में विस्तार होगा। उदाहरण के लिए डेंगू ज्वर के प्रसार के लिए जिम्मेदार मच्छर पूर्व में 1,000 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में नहीं पाए जाते थे, परंतु अपेक्षाकृत गर्म तापमान हो जाने के कारण हाल ही में ये मच्छर कोलम्बिया के एन्डिस पर्वतों पर 2,200 मीटर की ऊंचाई पर पाए गए हैं। पिछले कुछ वर्षों में इंडोनेशिया में भी सामान्य से अधिक ऊँचाइयों पर मलेरिया वाहक मच्छरों को देखा गया है। ये परिवर्तन औसत तापमान में लंबे समय तक अत्यंत मामूली बदलाव से भी प्राप्त होंगे।
मौसम की प्रचंड स्थिति जैसे मूसलाधार बारिश या सूखा भी बहुधा रोग प्रकोप की स्थिति उत्पन्न कर देती है। यह विशेष तौर पर अपेक्षाकृत निर्धन क्षेत्रों में अधिक होता है जहां उपचार एवं बचाव के उपाय अपर्याप्त होते हैं।
मच्छर कुख्यात रोगवाहक हैं। ये बहुत बड़ी संख्या में रोगों के प्रसार के लिए जिम्मेदार होते हैं जिनसे पीत ज्वर, मलेरिया, फाइलेरिया (श्लीपद), डेंगू ज्वर, महामारी के रूप में फैलने वाला बहुसन्धिशोथ या पॉलीआरथ्राईटिस, रिफ्ट वैली ज्वर, रॉस नदी ज्वर, सेंट लुई मस्तिष्कशोथ, पश्चिमी नील विषाणु, जापानी मस्तिष्कशोथ, पूर्वी अश्वीय मस्तिष्कशोथ और पश्चिमी अश्वीय मस्तिष्कशोथ सम्मिलित हैं।
मच्छर तापमान के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। मलेरिया वाहक मच्छर आमतौर पर 16 डिग्री सेल्सियस से कम तापमान को सहन नहीं कर पाते। डेंगू के प्रसार के लिए जिम्मेदार मच्छर की प्रजाति शरद में 10 डिग्री सेल्सियस तापमान से नीचे जीवित नहीं रह पाती है। 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान पर भी मच्छरों के जीवित रहने की संभावनाएं क्षीण हो जाती हैं। पर्याप्त नमी होने पर अपेक्षाकृत गर्म तापमान में मच्छरों की संख्या, काटने की दर और सक्रियता में वृद्धि हो जाती है। इसके चलते इनके द्वारा फैलाए जाने वाले परजीवियों और विषाणुओं के उद्भवन में भी तेजी आ जाती है।
इस प्रकार गर्माता भूमंडलीय तापमान ऐसे भौगोलिक क्षेत्र के विस्तार को सहयोग करता है जिसमें मच्छर और परजीवी दोनों ही बड़ी संख्या में जीवित रह सकें और लंबे काल तक रोग प्रसार कर सकें। यह संभावना व्यक्त की गई है कि सन् 2100 तक वैश्विक तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने पर साल 5 से 8 करोड़ मलेरिया रोगियों में वृद्धि होगी। सर्वाधिक बदलाव ऐसे ऊंचे और उच्च अक्षांश वाले क्षेत्रों में होने की संभावना है जो वर्तमान में खतरे वाले क्षेत्रों से सटे हुए हैं। इन क्षेत्रों में, तापमान में वृद्धि वर्तमान में मलेरिया मुक्त कुछ स्थानों को ऐसे स्थानों में परिवर्तित कर सकती है जहां मौसमी मलेरिया की महामारी पाई जाएगी। फिलहाल, दुनिया की 45 फीसदी आबादी ऐसे जलवायु मंडल में निवास करती है जो मलेरिया प्रसार के लिए अनुकूल हैं। कुछ मॉडल इस बात को दर्शाते हैं कि सन् 2070 तक यह आंकड़ा 60 फीसदी हो सकता है। बहुत से मामलों में, प्रभावित जनसमूहों में रोग के प्रति बहुत कम या शून्य प्रतिरोधकता होगी जिससे से महामारियां अधिक संख्या में रोगियों और मौतों का कारण बनेंगी।
डेंगू मच्छर द्वारा फैलाया जाने वाला विषाणु ज्वर है जो पिछले कुछ सालों में एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय जनस्वास्थ्य संबंधी चुनौती बनकर उभरा है। डेंगू दुनिया भर में उष्णकटिबंधीय और उपोष्ण क्षेत्रों में, प्रमुखतया शहरी और कस्बाई जनसमूहों में पाया जाता है। इस रोग के लक्षणों में ज्वर, दंदोरे या पित्तियां, मांसपेशियों और जोड़ों में दर्द और विशेषकर वयस्कों में अत्यधिक कमजोरी सम्मिलित है। हालांकि समुचित उपचार के बाद रोग से पूरी तरह उबरा जा सकता है।
डेंगू रक्तस्रावी ज्वर या डी.एच.एफ की पहचान 1950 के दशक में फिलीपींस और थाईलैंड में डेंगू महामारियों के दौरान हुई थी। यह एशिया में, विशेषकर बच्चों में, पाया जानेवाला रोग का एक गंभीर स्वरूप है। यह रक्तस्राव, प्रघात और कभी-कभी मृत्यु जैसे कारणों से अधिक गंभीर रूप लेता है। सन् 1990 में थाईलैंड में डी.एच.एफ. के 3 लाख से भी अधिक रोगी पाए गये थे। डी.एच.एफ. आमतौर से उन बच्चों में होता है जिनमें यह दूसरी बार संक्रमण हो और वह भी पूर्व संक्रमण वाले विषाणु से भिन्न सीरोटाईप विषाणु द्वारा ही। पहले संक्रमण के बाद बची हुई एन्टीबॉडी की अल्प मात्रा दूसरे डेंगू विषाणु की संक्रामकता को बढ़ाती है और इस प्रकार दूसरे संक्रमण की गंभीरता भी बढ़ जाती है हालांकि इसके कारणों को पूरी तरह नहीं समझा जा सका है।
हाल के दशकों में डेंगू का वैश्विक प्रकोप नाटकीय रूप से बढ़ा है। दुनिया भर के लगभग 250 करोड़ लोग यानि दुनिया की आबादी का 2/5 वां हिस्सा इस समय डेंगू के खतरे की चपेट में है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक हाल के आंकलन के मुताबिक हर साल दुनिया में डेंगू से 5 करोड़ लोग ग्रस्त हो सकते हैं। यह रोग इस समय अफ्रीका, अमेरिका, पूर्वी भूमध्यसागरीय क्षेत्र, दक्षिण-पूर्व एशिया और पश्चिमी प्रशांत क्षेत्रों के 100 से ज्यादा देशों में स्थानिक रूप में मौजूद है। जैसे-जैसे रोग नए, क्षेत्रों में अपने पांव पसार रहा है, न सिर्फ रोग के मामलों की संख्या बढ़ रही है बल्कि विस्फोटक महामारियां भी सामने आ रही है। सन् 2001 में ब्राजील में 3,90,000 रोग के मामले सामने आए जिनमें से 670 से ज्यादा मामले खतरनाक डी.एच.एफ. के थे।
डेंगू का रोगवाहक, एडीज इजिप्टी ठिठुरन भरे मौसम को नहीं झेल सकता। इसलिए यह उष्णकटिबंधीय और उपोष्ण क्षेत्रों तक सीमित है। मच्छर की यह प्रजाति अच्छा वर्षा वाले क्षेत्रों में पनपती है। परंतु विरोधाभासी रूप से यह रेगिस्तानी इलाकों में भी पनपती है क्योंकि यहां लोग पानी का संग्रहण कर रखते हैं और बहुधा पानी के ये स्थान मच्छरों के प्रजनन का स्थान बन जाते हैं।
वैश्विक तापवृद्धि के दो पक्ष प्रमुख रूप से चिंता का कारण है। पहला, उष्णकटिबंध की तुलना में शीतोष्ण कटिबंध में अधिक गर्माहट की आशंका है और दूसरा दिन की अपेक्षा रात के तापमान में अधिक परिवर्तन की संभावना है। यह दोनों स्थितियां शीतोष्ण क्षेत्र में मच्छरों के प्रसार को अनुकूल बनाती है। रात के तापमान में वृद्धि विशेष रूप से एडीज इजिप्टी के लिए अनुकूल है और इस तरह यह इसके प्रसार को बढ़ावा देकर मानव स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव डाल सकती है।
रोग के कारण को जड़ से मिटाने के लिए महत्वपूर्ण है कि मलेरिया, पीत ज्वर और डेंगू ज्वर के मूलभूत कारणों को जाना जाए। जलवायु और मच्छरों की तादात के बीच रिश्ता अत्यंत जटिल है।
दुनिया में मच्छरों की 3,500 से अधिक प्रजातियाँ हैं और सभी अलग-अलग ढंग से प्रजनन, भोजन और व्यवहार करती हैं।
बढ़ता तापमान और अधिक वर्षा, तथा नमी रोगवाहक जनित रोगों के प्रकोपों और विस्तार को प्रभावित कर सकती है क्योंकि इन स्थितियों में रोगवाहकों के प्रजनन के लिए अनुकूल माहौल तैयार होता है और ये स्थितियाँ उनके तीव्र विकास में भी सहयोगी होती है। इसके बावजूद, श्रीलंका में 1935 में हुई मलेरिया की महामारी, जिसमें लगभग 1 लाख लोगों की मृत्यु हुई थी, अपवादस्वरूप दो शुष्क वर्षों के बाद हुई थी।
कुछ क्षेत्रों में अत्यधिक वर्षा मच्छरों के प्रजनन क्षेत्रों (ताल) को बहा ले जाएगी जिससे मच्छरों की तादाद में कमी आएगी।
मच्छरों प्रचंड गर्मी एवं सर्दी दोनों ही स्थितियों में उच्च अनुकूलता और अत्यंत प्रभावी जीवन दर पाई जाती है। प्रतिकूल परिस्थितियों में वे अपनी भोजनचर्या को बदलने और प्रजनन को आगे बढ़ा सकने में सक्षम है।
मच्छर -10 डिग्री सेल्सियस जैसी प्रचंड शीत में भी जीवित रह सकने की क्षमता रखते हैं। एनोफिलीज गैम्बी प्रजाति सूडान में 55 डिग्री सेल्सियस से अधिक गर्मी में भी जीवित रहती है।
मलेरिया गर्म, उष्णकटिबंधीय देशों से संबंधित है। हालांकि 1950 के दशक के आरम्भ तक यह रोग यूरोप और उत्तरी अमेरिका में विस्तृत रूप से पाया जाता था।
16वीं सदी से 19वीं सदी के मध्य तक संक्रमण और मृत्यु दर एक समान रही।
कृषि पद्धतियों व जीवनशैली में बदलाव तथा उपचार की उपलब्धता के चलते मलेरिया परजीवी प्लाज्मोडियम फाल्सीपैरम कुछ स्थानों से पूर्ण रूप से समाप्त हो गया। डी.डी.टी. कीटनाशक के प्रयोग से द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप से मलेरिया उन्मूलन में सहयोग मिला।
मलेरिया के प्रति संवेदनशीलता क्षेत्रवार भिन्नता रखती है। वर्तमान में एशिया में सर्वाधिक जनसंख्या इसके खतरे में है। रोग की सर्वाधिकता उप सहारी अफ्रीका में पाई जाती है।
यह निश्चित है कि दुनिया में बढ़ती तपिश के परिणाम मलेरिया, डेंगू ज्वर, पीत ज्वर, मस्तिष्कशोथ और श्वसन संबंधी रोगों के बढ़ते मामलों तक ही सीमित नहीं रहेंगे। कीट एवं कृंतक जनित रोग पूरे अमेरिका और यूरोप में बढ़ जाएंगे। विश्व के कम विकसित क्षेत्रों में खसरे जैसे जलजनित रोगों की महामारी भारी बरसातों के बाद देखी जाएगी। विश्व में बढ़ते ताप के कारण इनमें अभी से ही वृद्धि दिखाई देने लगी है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एवियन इन्लूएंजा या ‘बर्ड फ्लू’ को पशु-पक्षियों का ऐसा छूत का रोग घोषित किया है जो विषाणुजनित है और सामान्यतया यह सिर्फ पक्षियों और कभी-कभार शूकरों में संक्रमण पैदा करता है। एवियन इन्लूएंजा विषाणु अत्यंत जातिगत होता है परंतु अपवादस्वरूप इतने प्रजाति की दीवार को तोड़कर मनुष्य में भी संक्रमण पैदा किया है। इन्लुएंजा-ए विषाणुओं की कई उपजातियां होती है। हाल ही में अत्यंत रोगजनक एवियन इंलुएंजा के प्रकोप, जो दक्षिण-पूर्व एशिया में 2003 के मध्य में आरम्भ हुए शेष रिकार्ड में आज तक के सबसे बड़े और घातक प्रकोप थे। इस रोग के इतिहास में इससे पहले कभी भी इतने सारे देश एक के बाद एक रोग की चपेट में नहीं आए थे जिसमें इतनी बड़ी संख्या में पक्षियों की मौत हुई।
बर्ड फ्लू रोग का कारक, एच5एन1 विषाणु खासा अड़ियल साबित हुआ है। लगभग 15 करोड़ पक्षियों की मौत या उन्हें नष्ट कर दिए जाने के बावजूद भी यह माना जा रहा है कि यह विषाणु अभी इंडोनेशिया और वियतनाम के कई भागों में, कम्बोडिया, चीन, थाइलैंड और संभवतया लाओ पीपल्स डेमोक्रेटिक रिपब्लिक के कुछ भागों में स्थानिक रूप से छुपकर बैठा है। कुक्कुट में रोग की रोकथाम में कई वर्ष लग जाने की संभावना है। एच5एन1 विषाणु मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से भी विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।
जैसे-जैसे पृथ्वी गर्म होती जाएगी, बर्ड फ्लू के विस्तार में तेजी आने की आशंका है। संयुक्त राष्ट्र के एक अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि ग्लोबल वार्मिंग दुनिया भर में जलीय स्थान समाप्त करने में योगदान कर रही है। इसके चलते अभी ही रोगवाहक प्रवासी पक्षी एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते हुए पशु-पक्षी फार्मों पर विश्राम के लिए रूकने के लिए मजबूर होने लगे हैं क्योंकि अपनी लंबी यात्रा में उन्हें पानी वाले स्थानों पर रुकना होता है। फार्मों पर ये प्रवासी पक्षी पालतू कुक्कुटों के संपर्क में आते हैं और पशु-पक्षी से मानव या मानव से मानव में रोग फैलने का खतरा बढ़ जाता है।
आम आदमी को प्रत्यक्ष रूप से यह नहीं दिखाई पड़ता कि ग्लोबल वार्मिंग से श्वसन तंत्र संबंधी समस्याओं में वृद्धि होती है। परंतु अधिकांश लोग इस बात को मानेंगे कि कुछ क्षोभकों (इरिटेंस) के सम्पर्क में बार-बार और लंबे समय तक आने से फेफड़ों संबंधी रोगं को बढ़ावा मिलता है। हवा में धुले कण फेफड़ों के लिए समस्या पैदा कर सकते हैं। बहुधा प्रलंबित विविक्त द्रव्य या सस्पेंडेड पारटीकुलेट मैटर (एस.पी.एम.) कहे जाने वाले ये कण धूल, पराग, फफूंद, गंदगी, मिट्टी, राख और कालिख का मिलाजुला रूप होते हैं। हवा में एस.पी.एम. कई स्रोतों से आ सकते हैं जैसे कारखाने, धुएं की चिमनियां, धुएं की निकास नलियां, आग, खदानें, निर्माण कार्य और कृषि। ये कण जितने महीन होंगे फेफड़ों को उतना ही अधिक नुकसान पहुंचाएंगे क्योंकि ये आसानी से फेफड़ों में गहराई तक सांस द्वारा पहुंच जाएंगे जहां से यह शरीर में अवशोषित कर लिए जाएंगे।
ऐरोसॉल किसी गैस में निलंबित ठोस या द्रव के सूक्ष्म कणों को कहते हैं। ये प्राकृतिक हो सकते हैं या इंसानी कार्यकलापों की देन भी हो सकते हैं। प्राकृतिक ऐरोसॉल ज्वालामुखी, धूल भरी आंधियों, जंगल या घास के मैदानों की आग, जीवित वनस्पतियों या समुद्री फुहारों से पैदा होते हैं। ऐरोसॉल का सबसे बड़ा मानवीय स्रोत दहन की क्रिया है जिसमें मोटरगाड़ियों और ऊर्जा संयंत्रों के आंतरिक दहन इंजनों में जीवाश्म ईंधनों का जलना और निर्माण स्थलों या ऐसी अन्य भूमि, जहां से वनस्पतियां नष्ट कर दी गई हों, से हवा के साथ उड़ती धूल प्रमुख हैं। इन कणों में से कुछ तो सीधे वायुमंडल में उत्सर्जित हो जाते हैं (प्रत्यक्ष या प्राथमिक उत्सर्जन) और कुछ गैसों के रूप में उत्सर्जित होते हैं तथा वायुमंडल में पहुंचकर कणों का निर्माण करते हैं (परोक्ष या द्वितीयक उत्सर्जन)। पूरे भू-मंडल का औसत लिया जाए तो मानवीय गतिविधियों से उत्पन्न एरोसॉल की मात्रा वायुमंडल में कुल एरोसॉल की 10 प्रतिशत है।
निलंबित कणों का आकार यह निर्धारित करता है कि श्वसन तंत्र में ये कण कहां जाकर टिकेंगे। अपेक्षाकृत बड़े कण नाक और गले में रुक जाते हैं और समस्या पैदा नहीं करते। सूक्ष्म कणिकाएं स्वासनली या फेफड़ों तक पहुंच सकती है और स्वास्थ्य संबंधी समस्या पैदा कर सकती है।
वैज्ञानिक अध्ययनों द्वारा कणिका प्रदूषण, खासतौर पर सूक्षाम कणिकाओं को स्वास्थ्य संबंधी कई गंभीर समस्याओं के साथ जोड़ा गया है, जिनमें निम्नांकित सम्मिलित हैं:
श्वसन संबंधी लक्षणों में वृद्धि जैसे श्वासनाल में जलन, खांसी, घरघराहट और फेफड़ों के कार्य में कमी या श्वास लेने में तकलीफ।
फेफड़ों की कार्यक्षमता घटना।
दमा की गंभीरता में वृद्धि।
श्वासनली में दीर्घकालिक सूजन जैसी समस्या का विकसित होना।
दिल की धड़कन की अनियमितता।
दिल के दौरे, जिनमें मृत्यु की संभावना नहीं होती।
दिल या फेफड़ों के रोगों से ग्रस्त लोगों की असामयिक मौत।
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी ‘नासा’ से संबद्ध गोडार्ड अंतरिक्ष अध्ययन संस्थान और अमेरिका के ही कोलंबिया विश्वविद्यालय के अंतरिक्ष अध्ययन के अर्थ संस्थान के डॉ. जेम्स हैंन्सन और लारिसा नाजारेंकों ने यह बताया कि सतही तापमान बढ़ाने में प्रमुख ग्रीनहाउस गैस कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में कालिख दोगुनी प्रभावशाली होती है। उनके अध्ययन के अनुसार विगत सदी में वैश्विक तापवृद्धि में काले धुएं के अत्यधिक उत्सर्जन का प्रमुख योगदान रहा होगा और साथ ही हाल के दशकों में वसंत ऋतु में हिम, बर्फ और पाले के सामान्य से कहीं जल्दी पिघलनें के जो रूझान नजर आ रहे हैं उसमें भी इस कालिख का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। उनका विचार है कि कालिख ग्लेशियरों, समुद्री बर्फ और बर्फ की चादरों को अपेक्षाकृत कम तापमान पर पिघलने पर मजबूर कर देती है क्योंकि स्वच्छ बर्फ और हिम की तुलना में काला कार्बन अधिक सौर ऊर्जा अवशोषित करता है। उनके अनुसार “कालिख प्मुखतया काला कार्बन है, जो जीवाश्म ईंधन, पौधों और लकड़ियों के अपूर्ण दहन का धूल भरा उप-उत्पाद है।” कार्बन कणों की मात्रा समय और स्थान के साथ भिन्न होती है परंतु बहुधा यह उन भौगोलिक क्षेत्रों के ऊपर अधिक होती है जहां कोयले और कार्बनिक ईंधनों का घरेलू उपयोग होता है और उन क्षेत्रों के ऊपर भी जहां डीजल का प्रयोग सर्वाधिक होता है। “ऑक्युपेशनल एंड इनवायरमेंटल मेडिसिन” नामक जर्नल में प्रस्तुत एक शोध में वैज्ञानिकों ने इंसानी प्रतिरक्षा कोशिकाओं, नाभिरज्जु कोशिकाओं और फेफड़ों की कोशिकाओं को एस.पी.एम. (विविक्त पदार्थ) के सम्पर्क में रखा। हर मामले में खून की जमने अथवा गाढ़ा होने की क्षमता बढ़ गई एवं प्रतिरक्षा कोशिकाओं की मृत्यु दर में भी महत्वपूर्ण वृद्धि दर्ज की गई और अन्य निष्कर्षों से ज्ञात हुआ कि कालिख की अल्प मात्रा के प्रभाव द्वारा ही रक्त में गाढ़ापन आ गया और संभावित हानिकारक शोथ या सूजन को बढ़ावा मिला।
हम यह जानते हैं कि ग्रीनहाउस गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), मीथेन (CH4), नाइट्रस ऑक्साइड (N2O), जलवाष्प (H2O) और अन्य संघटक सम्मिलित होते हैं। काला कार्बन काले धुएं का प्रमुख संघटक है। यह काला तत्व फार्म उपकरणों, निर्माण कार्य से जुड़ी मशीनों, बसों, यात्री वाहनों, जनरेटरों और उन अन्य मशीनों की निकास नलियों से निकलता नजर आ जाता है जो डीजल या जैट ईंधन पर आधारित होती है और कुछ हद तक अन्य ईंधन आधारित मशीनों से भी प्राप्त होता है। आज तक की ग्लोबल वार्मिंग में लगभग 47 प्रतिशत योगदान कार्बन डाइऑक्साइड का, 16 प्रतिशत काले कार्बन का, 14 प्रतिशत मीथेन का और 4 प्रतिशत नाइट्रस ऑक्साइड का है। हालांकि इसमें जलवाष्प के योगदान को शामिल नहीं किया गया है जो काफी महत्वपूर्ण है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण वर्तमान में नजर आने वाले और भविष्य में हो सकने वाले प्रभावों में क्षेत्रीय तापमान में अधिकतम वृद्धि, गर्मी जनित रोग और मृत्यु, संक्रमण के प्रति संवेदनशीलता, प्रचंड मौसमी घटनाएं, महासागरों का अम्लीकरण, समुद्र के स्तर में वृद्धि और तटीय क्षेत्रों में जलप्लावन और कृषि उत्पादन में बदलाव सम्मिलित है।
सर्द हवाओं, टाइफून और बर्फीले तूफानों से पहले वायुमंडलीय विद्युत क्षेत्रों में बदलाव तंत्रिका और श्वसन तंत्र से संबंधित रोगों को प्रमुखता से बढ़ाता है। इनमें काली खांसी, दमा, श्वासनाल शोथ, गले में खराश, जोड़ों का दर्द और रीढ़ के रोग सम्मिलित हैं।
इस तरह की मौसमी परिस्थितियों में पाचन संबंधी रोग जैसे दस्त और पेचिश भी प्रबल होते हैं। गर्म और नम वातावरण मच्छर, मक्खियों, चूहों, कीटों जैसे रोगवाहकों और जीवाणुओं की वृद्धि के लिए भी अनुकूल होता है।
संक्रमणकर्ता और इनके वाहक जीव तापमान, सतही जल, नमी, हवा, मिट्टी की नमी जैसे कारकों में परिवर्तन और वनों के फैलाव के प्रति संवेदनशील होते हैं। विशेष तौर पर रोगवाहक जनित रोगों के लिए यह तथ्य अत्यंत कारगर है। इसलिए यह अनुमान व्यक्त किया गया है कि वैश्विक तापवृद्धि और मौसम क्रिया में बदलाव बहुत से रोगवाहक जनित तथा अन्य संक्रामक रोगों के प्रसार क्षेत्र (अक्षांश एवं ऊंचाई दोनों), तीव्रता और मौसम को प्रभावित कर सकते हैं।
स्रोत : साइंस न्यूज, पब्लिशेस बायॅ साइंस सर्विस, 1719, एन.स्ट.एन.डब्ल्यू, वाशिंगटन, डी.सी 20036।
रोग/रोगवाहकों के भौगोलिक परिक्षेत्र का विस्तार
आंकलनकर्ताओं का मानना है कि भूमंडल पर तापमान बढ़ने के कारण ऐसे रोगों, जो पहले उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों तक सीमित थे, का विस्तार अन्य (पूर्व में अपेक्षा ठंडे) क्षेत्रों में भी हो रहा है। सामान्य तौर पर गर्म तापमान और उच्च आर्द्रता स्तर रोगवाहकों के भौगोलिक क्षेत्र में विस्तार को सहयोग करता है। इसके कारण मलेरिया, डेंगू ज्वर, पीत ज्वर और विषाणुजनित मस्तिष्कशोथ जैसे रोगवाहक द्वारा फैलने वाले रोगों के संभावित प्रसार क्षेत्र में विस्तार होगा। उदाहरण के लिए डेंगू ज्वर के प्रसार के लिए जिम्मेदार मच्छर पूर्व में 1,000 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में नहीं पाए जाते थे, परंतु अपेक्षाकृत गर्म तापमान हो जाने के कारण हाल ही में ये मच्छर कोलम्बिया के एन्डिस पर्वतों पर 2,200 मीटर की ऊंचाई पर पाए गए हैं। पिछले कुछ वर्षों में इंडोनेशिया में भी सामान्य से अधिक ऊँचाइयों पर मलेरिया वाहक मच्छरों को देखा गया है। ये परिवर्तन औसत तापमान में लंबे समय तक अत्यंत मामूली बदलाव से भी प्राप्त होंगे।
मौसम की प्रचंड स्थिति जैसे मूसलाधार बारिश या सूखा भी बहुधा रोग प्रकोप की स्थिति उत्पन्न कर देती है। यह विशेष तौर पर अपेक्षाकृत निर्धन क्षेत्रों में अधिक होता है जहां उपचार एवं बचाव के उपाय अपर्याप्त होते हैं।
वैश्विक तापवृद्धि और मच्छर जनित रोग
मच्छर कुख्यात रोगवाहक हैं। ये बहुत बड़ी संख्या में रोगों के प्रसार के लिए जिम्मेदार होते हैं जिनसे पीत ज्वर, मलेरिया, फाइलेरिया (श्लीपद), डेंगू ज्वर, महामारी के रूप में फैलने वाला बहुसन्धिशोथ या पॉलीआरथ्राईटिस, रिफ्ट वैली ज्वर, रॉस नदी ज्वर, सेंट लुई मस्तिष्कशोथ, पश्चिमी नील विषाणु, जापानी मस्तिष्कशोथ, पूर्वी अश्वीय मस्तिष्कशोथ और पश्चिमी अश्वीय मस्तिष्कशोथ सम्मिलित हैं।
मच्छर तापमान के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। मलेरिया वाहक मच्छर आमतौर पर 16 डिग्री सेल्सियस से कम तापमान को सहन नहीं कर पाते। डेंगू के प्रसार के लिए जिम्मेदार मच्छर की प्रजाति शरद में 10 डिग्री सेल्सियस तापमान से नीचे जीवित नहीं रह पाती है। 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान पर भी मच्छरों के जीवित रहने की संभावनाएं क्षीण हो जाती हैं। पर्याप्त नमी होने पर अपेक्षाकृत गर्म तापमान में मच्छरों की संख्या, काटने की दर और सक्रियता में वृद्धि हो जाती है। इसके चलते इनके द्वारा फैलाए जाने वाले परजीवियों और विषाणुओं के उद्भवन में भी तेजी आ जाती है।
इस प्रकार गर्माता भूमंडलीय तापमान ऐसे भौगोलिक क्षेत्र के विस्तार को सहयोग करता है जिसमें मच्छर और परजीवी दोनों ही बड़ी संख्या में जीवित रह सकें और लंबे काल तक रोग प्रसार कर सकें। यह संभावना व्यक्त की गई है कि सन् 2100 तक वैश्विक तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने पर साल 5 से 8 करोड़ मलेरिया रोगियों में वृद्धि होगी। सर्वाधिक बदलाव ऐसे ऊंचे और उच्च अक्षांश वाले क्षेत्रों में होने की संभावना है जो वर्तमान में खतरे वाले क्षेत्रों से सटे हुए हैं। इन क्षेत्रों में, तापमान में वृद्धि वर्तमान में मलेरिया मुक्त कुछ स्थानों को ऐसे स्थानों में परिवर्तित कर सकती है जहां मौसमी मलेरिया की महामारी पाई जाएगी। फिलहाल, दुनिया की 45 फीसदी आबादी ऐसे जलवायु मंडल में निवास करती है जो मलेरिया प्रसार के लिए अनुकूल हैं। कुछ मॉडल इस बात को दर्शाते हैं कि सन् 2070 तक यह आंकड़ा 60 फीसदी हो सकता है। बहुत से मामलों में, प्रभावित जनसमूहों में रोग के प्रति बहुत कम या शून्य प्रतिरोधकता होगी जिससे से महामारियां अधिक संख्या में रोगियों और मौतों का कारण बनेंगी।
दुनिया की बदलती जलवायु और डेंगू
डेंगू मच्छर द्वारा फैलाया जाने वाला विषाणु ज्वर है जो पिछले कुछ सालों में एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय जनस्वास्थ्य संबंधी चुनौती बनकर उभरा है। डेंगू दुनिया भर में उष्णकटिबंधीय और उपोष्ण क्षेत्रों में, प्रमुखतया शहरी और कस्बाई जनसमूहों में पाया जाता है। इस रोग के लक्षणों में ज्वर, दंदोरे या पित्तियां, मांसपेशियों और जोड़ों में दर्द और विशेषकर वयस्कों में अत्यधिक कमजोरी सम्मिलित है। हालांकि समुचित उपचार के बाद रोग से पूरी तरह उबरा जा सकता है।
डेंगू रक्तस्रावी ज्वर या डी.एच.एफ की पहचान 1950 के दशक में फिलीपींस और थाईलैंड में डेंगू महामारियों के दौरान हुई थी। यह एशिया में, विशेषकर बच्चों में, पाया जानेवाला रोग का एक गंभीर स्वरूप है। यह रक्तस्राव, प्रघात और कभी-कभी मृत्यु जैसे कारणों से अधिक गंभीर रूप लेता है। सन् 1990 में थाईलैंड में डी.एच.एफ. के 3 लाख से भी अधिक रोगी पाए गये थे। डी.एच.एफ. आमतौर से उन बच्चों में होता है जिनमें यह दूसरी बार संक्रमण हो और वह भी पूर्व संक्रमण वाले विषाणु से भिन्न सीरोटाईप विषाणु द्वारा ही। पहले संक्रमण के बाद बची हुई एन्टीबॉडी की अल्प मात्रा दूसरे डेंगू विषाणु की संक्रामकता को बढ़ाती है और इस प्रकार दूसरे संक्रमण की गंभीरता भी बढ़ जाती है हालांकि इसके कारणों को पूरी तरह नहीं समझा जा सका है।
हाल के दशकों में डेंगू का वैश्विक प्रकोप नाटकीय रूप से बढ़ा है। दुनिया भर के लगभग 250 करोड़ लोग यानि दुनिया की आबादी का 2/5 वां हिस्सा इस समय डेंगू के खतरे की चपेट में है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक हाल के आंकलन के मुताबिक हर साल दुनिया में डेंगू से 5 करोड़ लोग ग्रस्त हो सकते हैं। यह रोग इस समय अफ्रीका, अमेरिका, पूर्वी भूमध्यसागरीय क्षेत्र, दक्षिण-पूर्व एशिया और पश्चिमी प्रशांत क्षेत्रों के 100 से ज्यादा देशों में स्थानिक रूप में मौजूद है। जैसे-जैसे रोग नए, क्षेत्रों में अपने पांव पसार रहा है, न सिर्फ रोग के मामलों की संख्या बढ़ रही है बल्कि विस्फोटक महामारियां भी सामने आ रही है। सन् 2001 में ब्राजील में 3,90,000 रोग के मामले सामने आए जिनमें से 670 से ज्यादा मामले खतरनाक डी.एच.एफ. के थे।
डेंगू का रोगवाहक, एडीज इजिप्टी ठिठुरन भरे मौसम को नहीं झेल सकता। इसलिए यह उष्णकटिबंधीय और उपोष्ण क्षेत्रों तक सीमित है। मच्छर की यह प्रजाति अच्छा वर्षा वाले क्षेत्रों में पनपती है। परंतु विरोधाभासी रूप से यह रेगिस्तानी इलाकों में भी पनपती है क्योंकि यहां लोग पानी का संग्रहण कर रखते हैं और बहुधा पानी के ये स्थान मच्छरों के प्रजनन का स्थान बन जाते हैं।
वैश्विक तापवृद्धि के दो पक्ष प्रमुख रूप से चिंता का कारण है। पहला, उष्णकटिबंध की तुलना में शीतोष्ण कटिबंध में अधिक गर्माहट की आशंका है और दूसरा दिन की अपेक्षा रात के तापमान में अधिक परिवर्तन की संभावना है। यह दोनों स्थितियां शीतोष्ण क्षेत्र में मच्छरों के प्रसार को अनुकूल बनाती है। रात के तापमान में वृद्धि विशेष रूप से एडीज इजिप्टी के लिए अनुकूल है और इस तरह यह इसके प्रसार को बढ़ावा देकर मानव स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव डाल सकती है।
रोग के कारण को जड़ से मिटाने के लिए महत्वपूर्ण है कि मलेरिया, पीत ज्वर और डेंगू ज्वर के मूलभूत कारणों को जाना जाए। जलवायु और मच्छरों की तादात के बीच रिश्ता अत्यंत जटिल है।
शैतान मच्छर, भयानक रोगवाहक
दुनिया में मच्छरों की 3,500 से अधिक प्रजातियाँ हैं और सभी अलग-अलग ढंग से प्रजनन, भोजन और व्यवहार करती हैं।
बढ़ता तापमान और अधिक वर्षा, तथा नमी रोगवाहक जनित रोगों के प्रकोपों और विस्तार को प्रभावित कर सकती है क्योंकि इन स्थितियों में रोगवाहकों के प्रजनन के लिए अनुकूल माहौल तैयार होता है और ये स्थितियाँ उनके तीव्र विकास में भी सहयोगी होती है। इसके बावजूद, श्रीलंका में 1935 में हुई मलेरिया की महामारी, जिसमें लगभग 1 लाख लोगों की मृत्यु हुई थी, अपवादस्वरूप दो शुष्क वर्षों के बाद हुई थी।
कुछ क्षेत्रों में अत्यधिक वर्षा मच्छरों के प्रजनन क्षेत्रों (ताल) को बहा ले जाएगी जिससे मच्छरों की तादाद में कमी आएगी।
मच्छरों प्रचंड गर्मी एवं सर्दी दोनों ही स्थितियों में उच्च अनुकूलता और अत्यंत प्रभावी जीवन दर पाई जाती है। प्रतिकूल परिस्थितियों में वे अपनी भोजनचर्या को बदलने और प्रजनन को आगे बढ़ा सकने में सक्षम है।
मच्छर -10 डिग्री सेल्सियस जैसी प्रचंड शीत में भी जीवित रह सकने की क्षमता रखते हैं। एनोफिलीज गैम्बी प्रजाति सूडान में 55 डिग्री सेल्सियस से अधिक गर्मी में भी जीवित रहती है।
मलेरिया का आविर्भाव
मलेरिया गर्म, उष्णकटिबंधीय देशों से संबंधित है। हालांकि 1950 के दशक के आरम्भ तक यह रोग यूरोप और उत्तरी अमेरिका में विस्तृत रूप से पाया जाता था।
16वीं सदी से 19वीं सदी के मध्य तक संक्रमण और मृत्यु दर एक समान रही।
कृषि पद्धतियों व जीवनशैली में बदलाव तथा उपचार की उपलब्धता के चलते मलेरिया परजीवी प्लाज्मोडियम फाल्सीपैरम कुछ स्थानों से पूर्ण रूप से समाप्त हो गया। डी.डी.टी. कीटनाशक के प्रयोग से द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप से मलेरिया उन्मूलन में सहयोग मिला।
मलेरिया के प्रति संवेदनशीलता क्षेत्रवार भिन्नता रखती है। वर्तमान में एशिया में सर्वाधिक जनसंख्या इसके खतरे में है। रोग की सर्वाधिकता उप सहारी अफ्रीका में पाई जाती है।
वैश्विक तापवृद्धि: मच्छरों और मलेरिया से कहीं आगे
यह निश्चित है कि दुनिया में बढ़ती तपिश के परिणाम मलेरिया, डेंगू ज्वर, पीत ज्वर, मस्तिष्कशोथ और श्वसन संबंधी रोगों के बढ़ते मामलों तक ही सीमित नहीं रहेंगे। कीट एवं कृंतक जनित रोग पूरे अमेरिका और यूरोप में बढ़ जाएंगे। विश्व के कम विकसित क्षेत्रों में खसरे जैसे जलजनित रोगों की महामारी भारी बरसातों के बाद देखी जाएगी। विश्व में बढ़ते ताप के कारण इनमें अभी से ही वृद्धि दिखाई देने लगी है।
एवियन फ्लू का प्रसार
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एवियन इन्लूएंजा या ‘बर्ड फ्लू’ को पशु-पक्षियों का ऐसा छूत का रोग घोषित किया है जो विषाणुजनित है और सामान्यतया यह सिर्फ पक्षियों और कभी-कभार शूकरों में संक्रमण पैदा करता है। एवियन इन्लूएंजा विषाणु अत्यंत जातिगत होता है परंतु अपवादस्वरूप इतने प्रजाति की दीवार को तोड़कर मनुष्य में भी संक्रमण पैदा किया है। इन्लुएंजा-ए विषाणुओं की कई उपजातियां होती है। हाल ही में अत्यंत रोगजनक एवियन इंलुएंजा के प्रकोप, जो दक्षिण-पूर्व एशिया में 2003 के मध्य में आरम्भ हुए शेष रिकार्ड में आज तक के सबसे बड़े और घातक प्रकोप थे। इस रोग के इतिहास में इससे पहले कभी भी इतने सारे देश एक के बाद एक रोग की चपेट में नहीं आए थे जिसमें इतनी बड़ी संख्या में पक्षियों की मौत हुई।
बर्ड फ्लू रोग का कारक, एच5एन1 विषाणु खासा अड़ियल साबित हुआ है। लगभग 15 करोड़ पक्षियों की मौत या उन्हें नष्ट कर दिए जाने के बावजूद भी यह माना जा रहा है कि यह विषाणु अभी इंडोनेशिया और वियतनाम के कई भागों में, कम्बोडिया, चीन, थाइलैंड और संभवतया लाओ पीपल्स डेमोक्रेटिक रिपब्लिक के कुछ भागों में स्थानिक रूप से छुपकर बैठा है। कुक्कुट में रोग की रोकथाम में कई वर्ष लग जाने की संभावना है। एच5एन1 विषाणु मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से भी विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।
जैसे-जैसे पृथ्वी गर्म होती जाएगी, बर्ड फ्लू के विस्तार में तेजी आने की आशंका है। संयुक्त राष्ट्र के एक अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि ग्लोबल वार्मिंग दुनिया भर में जलीय स्थान समाप्त करने में योगदान कर रही है। इसके चलते अभी ही रोगवाहक प्रवासी पक्षी एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते हुए पशु-पक्षी फार्मों पर विश्राम के लिए रूकने के लिए मजबूर होने लगे हैं क्योंकि अपनी लंबी यात्रा में उन्हें पानी वाले स्थानों पर रुकना होता है। फार्मों पर ये प्रवासी पक्षी पालतू कुक्कुटों के संपर्क में आते हैं और पशु-पक्षी से मानव या मानव से मानव में रोग फैलने का खतरा बढ़ जाता है।
वैश्विक तापवृद्धि और श्वसन संबंधी विकार
आम आदमी को प्रत्यक्ष रूप से यह नहीं दिखाई पड़ता कि ग्लोबल वार्मिंग से श्वसन तंत्र संबंधी समस्याओं में वृद्धि होती है। परंतु अधिकांश लोग इस बात को मानेंगे कि कुछ क्षोभकों (इरिटेंस) के सम्पर्क में बार-बार और लंबे समय तक आने से फेफड़ों संबंधी रोगं को बढ़ावा मिलता है। हवा में धुले कण फेफड़ों के लिए समस्या पैदा कर सकते हैं। बहुधा प्रलंबित विविक्त द्रव्य या सस्पेंडेड पारटीकुलेट मैटर (एस.पी.एम.) कहे जाने वाले ये कण धूल, पराग, फफूंद, गंदगी, मिट्टी, राख और कालिख का मिलाजुला रूप होते हैं। हवा में एस.पी.एम. कई स्रोतों से आ सकते हैं जैसे कारखाने, धुएं की चिमनियां, धुएं की निकास नलियां, आग, खदानें, निर्माण कार्य और कृषि। ये कण जितने महीन होंगे फेफड़ों को उतना ही अधिक नुकसान पहुंचाएंगे क्योंकि ये आसानी से फेफड़ों में गहराई तक सांस द्वारा पहुंच जाएंगे जहां से यह शरीर में अवशोषित कर लिए जाएंगे।
एरोसॉल
ऐरोसॉल किसी गैस में निलंबित ठोस या द्रव के सूक्ष्म कणों को कहते हैं। ये प्राकृतिक हो सकते हैं या इंसानी कार्यकलापों की देन भी हो सकते हैं। प्राकृतिक ऐरोसॉल ज्वालामुखी, धूल भरी आंधियों, जंगल या घास के मैदानों की आग, जीवित वनस्पतियों या समुद्री फुहारों से पैदा होते हैं। ऐरोसॉल का सबसे बड़ा मानवीय स्रोत दहन की क्रिया है जिसमें मोटरगाड़ियों और ऊर्जा संयंत्रों के आंतरिक दहन इंजनों में जीवाश्म ईंधनों का जलना और निर्माण स्थलों या ऐसी अन्य भूमि, जहां से वनस्पतियां नष्ट कर दी गई हों, से हवा के साथ उड़ती धूल प्रमुख हैं। इन कणों में से कुछ तो सीधे वायुमंडल में उत्सर्जित हो जाते हैं (प्रत्यक्ष या प्राथमिक उत्सर्जन) और कुछ गैसों के रूप में उत्सर्जित होते हैं तथा वायुमंडल में पहुंचकर कणों का निर्माण करते हैं (परोक्ष या द्वितीयक उत्सर्जन)। पूरे भू-मंडल का औसत लिया जाए तो मानवीय गतिविधियों से उत्पन्न एरोसॉल की मात्रा वायुमंडल में कुल एरोसॉल की 10 प्रतिशत है।
निलंबित कणों का आकार यह निर्धारित करता है कि श्वसन तंत्र में ये कण कहां जाकर टिकेंगे। अपेक्षाकृत बड़े कण नाक और गले में रुक जाते हैं और समस्या पैदा नहीं करते। सूक्ष्म कणिकाएं स्वासनली या फेफड़ों तक पहुंच सकती है और स्वास्थ्य संबंधी समस्या पैदा कर सकती है।
वैज्ञानिक अध्ययनों द्वारा कणिका प्रदूषण, खासतौर पर सूक्षाम कणिकाओं को स्वास्थ्य संबंधी कई गंभीर समस्याओं के साथ जोड़ा गया है, जिनमें निम्नांकित सम्मिलित हैं:
श्वसन संबंधी लक्षणों में वृद्धि जैसे श्वासनाल में जलन, खांसी, घरघराहट और फेफड़ों के कार्य में कमी या श्वास लेने में तकलीफ।
फेफड़ों की कार्यक्षमता घटना।
दमा की गंभीरता में वृद्धि।
श्वासनली में दीर्घकालिक सूजन जैसी समस्या का विकसित होना।
दिल की धड़कन की अनियमितता।
दिल के दौरे, जिनमें मृत्यु की संभावना नहीं होती।
दिल या फेफड़ों के रोगों से ग्रस्त लोगों की असामयिक मौत।
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी ‘नासा’ से संबद्ध गोडार्ड अंतरिक्ष अध्ययन संस्थान और अमेरिका के ही कोलंबिया विश्वविद्यालय के अंतरिक्ष अध्ययन के अर्थ संस्थान के डॉ. जेम्स हैंन्सन और लारिसा नाजारेंकों ने यह बताया कि सतही तापमान बढ़ाने में प्रमुख ग्रीनहाउस गैस कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में कालिख दोगुनी प्रभावशाली होती है। उनके अध्ययन के अनुसार विगत सदी में वैश्विक तापवृद्धि में काले धुएं के अत्यधिक उत्सर्जन का प्रमुख योगदान रहा होगा और साथ ही हाल के दशकों में वसंत ऋतु में हिम, बर्फ और पाले के सामान्य से कहीं जल्दी पिघलनें के जो रूझान नजर आ रहे हैं उसमें भी इस कालिख का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। उनका विचार है कि कालिख ग्लेशियरों, समुद्री बर्फ और बर्फ की चादरों को अपेक्षाकृत कम तापमान पर पिघलने पर मजबूर कर देती है क्योंकि स्वच्छ बर्फ और हिम की तुलना में काला कार्बन अधिक सौर ऊर्जा अवशोषित करता है। उनके अनुसार “कालिख प्मुखतया काला कार्बन है, जो जीवाश्म ईंधन, पौधों और लकड़ियों के अपूर्ण दहन का धूल भरा उप-उत्पाद है।” कार्बन कणों की मात्रा समय और स्थान के साथ भिन्न होती है परंतु बहुधा यह उन भौगोलिक क्षेत्रों के ऊपर अधिक होती है जहां कोयले और कार्बनिक ईंधनों का घरेलू उपयोग होता है और उन क्षेत्रों के ऊपर भी जहां डीजल का प्रयोग सर्वाधिक होता है। “ऑक्युपेशनल एंड इनवायरमेंटल मेडिसिन” नामक जर्नल में प्रस्तुत एक शोध में वैज्ञानिकों ने इंसानी प्रतिरक्षा कोशिकाओं, नाभिरज्जु कोशिकाओं और फेफड़ों की कोशिकाओं को एस.पी.एम. (विविक्त पदार्थ) के सम्पर्क में रखा। हर मामले में खून की जमने अथवा गाढ़ा होने की क्षमता बढ़ गई एवं प्रतिरक्षा कोशिकाओं की मृत्यु दर में भी महत्वपूर्ण वृद्धि दर्ज की गई और अन्य निष्कर्षों से ज्ञात हुआ कि कालिख की अल्प मात्रा के प्रभाव द्वारा ही रक्त में गाढ़ापन आ गया और संभावित हानिकारक शोथ या सूजन को बढ़ावा मिला।
विविक्त काला कार्बन
हम यह जानते हैं कि ग्रीनहाउस गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), मीथेन (CH4), नाइट्रस ऑक्साइड (N2O), जलवाष्प (H2O) और अन्य संघटक सम्मिलित होते हैं। काला कार्बन काले धुएं का प्रमुख संघटक है। यह काला तत्व फार्म उपकरणों, निर्माण कार्य से जुड़ी मशीनों, बसों, यात्री वाहनों, जनरेटरों और उन अन्य मशीनों की निकास नलियों से निकलता नजर आ जाता है जो डीजल या जैट ईंधन पर आधारित होती है और कुछ हद तक अन्य ईंधन आधारित मशीनों से भी प्राप्त होता है। आज तक की ग्लोबल वार्मिंग में लगभग 47 प्रतिशत योगदान कार्बन डाइऑक्साइड का, 16 प्रतिशत काले कार्बन का, 14 प्रतिशत मीथेन का और 4 प्रतिशत नाइट्रस ऑक्साइड का है। हालांकि इसमें जलवाष्प के योगदान को शामिल नहीं किया गया है जो काफी महत्वपूर्ण है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण वर्तमान में नजर आने वाले और भविष्य में हो सकने वाले प्रभावों में क्षेत्रीय तापमान में अधिकतम वृद्धि, गर्मी जनित रोग और मृत्यु, संक्रमण के प्रति संवेदनशीलता, प्रचंड मौसमी घटनाएं, महासागरों का अम्लीकरण, समुद्र के स्तर में वृद्धि और तटीय क्षेत्रों में जलप्लावन और कृषि उत्पादन में बदलाव सम्मिलित है।
वायुमंडलीय विद्युत क्षेत्रों में परिवर्तन
सर्द हवाओं, टाइफून और बर्फीले तूफानों से पहले वायुमंडलीय विद्युत क्षेत्रों में बदलाव तंत्रिका और श्वसन तंत्र से संबंधित रोगों को प्रमुखता से बढ़ाता है। इनमें काली खांसी, दमा, श्वासनाल शोथ, गले में खराश, जोड़ों का दर्द और रीढ़ के रोग सम्मिलित हैं।
इस तरह की मौसमी परिस्थितियों में पाचन संबंधी रोग जैसे दस्त और पेचिश भी प्रबल होते हैं। गर्म और नम वातावरण मच्छर, मक्खियों, चूहों, कीटों जैसे रोगवाहकों और जीवाणुओं की वृद्धि के लिए भी अनुकूल होता है।
संक्रमणकर्ता और इनके वाहक जीव तापमान, सतही जल, नमी, हवा, मिट्टी की नमी जैसे कारकों में परिवर्तन और वनों के फैलाव के प्रति संवेदनशील होते हैं। विशेष तौर पर रोगवाहक जनित रोगों के लिए यह तथ्य अत्यंत कारगर है। इसलिए यह अनुमान व्यक्त किया गया है कि वैश्विक तापवृद्धि और मौसम क्रिया में बदलाव बहुत से रोगवाहक जनित तथा अन्य संक्रामक रोगों के प्रसार क्षेत्र (अक्षांश एवं ऊंचाई दोनों), तीव्रता और मौसम को प्रभावित कर सकते हैं।
स्रोत : साइंस न्यूज, पब्लिशेस बायॅ साइंस सर्विस, 1719, एन.स्ट.एन.डब्ल्यू, वाशिंगटन, डी.सी 20036।
रोगवाहक जनित प्रमुख उषणकटिबंधीय रोग | वर्तमान में पीड़ित व्यक्तियों की संख्या (10 लाख में) | जलवायु परिवर्तन से प्रसार क्षेत्र में बदलाव की संभावना |
मलेरिया | 300-500 | अत्यधिक संभावित |
सिस्टोसोमिएसिस | 200 | अत्यधिक संभावित |
लिम्फैटिक | 117 | संभावित |
फाईलेरिएसिस | 12 | संभावित |
लीश्मैनिएसिस | 17.5 | अत्यधिक संभावित |
ऑन्कोसीरिएसिस (सरिता अंधता) |
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अमेरिकी ट्रिपैनोसोमिएसिस (चागा रोग) | 18 | संभावित |
डेंगू | .10-30 नए मामले प्रतिवर्ष | अत्यधिक संभावित |
पीत ज्वर | 0.005 नए मामले प्रतिवर्ष | अत्यधिक संभावित |
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