मानवीय विकास की एक सीमा 21वीं सदी में प्रारम्भ होते ही मानव भूल गया है वह भौतिकवादी विचारधाराओं के चलते सम्पूर्ण प्राकृतिक व मानवीय संसाधनों पर अपना अस्तित्व बनाए रख कर अपने को श्रेष्ठ बताना चाहता हैं, आज देश-दुनिया में नए-नए अनुसंधान, विकास के कार्य जोरों से चल रहे हैं इसका परिणाम सभी देखते भी है, बातें भी करते हैं लेकिन सत्ता शक्ति के सामने हिम्मत नहीं जुटा पाते अंत में उन्हें इसका परिणाम भुगतना पड़ता है जैसे जोशी मठ में हो रहा है।
जोशीमठ में भूगर्भीय संरचनाओं, मिट्टी पानी, वनस्पतियों के साथ आतंरिक बाहरी भौगोलिक परिस्थितियों को समझने के बावजूद यहां तपोवन विष्णु गाड़ पर पन बिजली परियोजना की स्थापना कर दी जाती है और पहाड़ो को चीर कर लम्बी-लम्बी सुरंगें बनाई जाती है।
एनटीपीसी को अपनी परियोजना को शुरू करने से पहले यह पता होना चाहिए था कि यहां कि मिट्टी ग्लेशियरो पर जमा धुल से बनी हुई हैं, इसमें अधिक वज़न सहने की क्षमता नहीं है,अंदर से खोखला होने पर ऊपरी भाग के गिरने की सम्भावना ज्यादा बन जाती है। इन सभी से प्राकृतिक आपदाएं भूस्खलन, भूकंप, बाढ़ का आना स्वाभाविक होता है पिछले एक दशक में दर्जनों घटनाएं हुई जिनमें मानव इसके लिए कहीं न कहीं जिम्मेदार है। जैसे 2013 में केदारनाथ धाम की त्रासदी, 2021 में धोली गंगा में बाढ़ से अलकनंदा में बाढ़ से कटाव व टिहरी बांध से उपजी समस्या हो। यह सभी मानव की प्रकृति के साथ हुएं छेड़छाड़ से उत्त्पन्न हुई है। इसके परिणाम स्वरूप आज जोशी मठ के धराशायी होने के संकेत देकर प्रकृति ने यह अहसास करा दिया है की वर्तमान विकास ही विनाश का कारण है।
एल पी एस विकास संस्थान के प्रकृति प्रेमी राम भरोस मीणा ने अपने निजी विचारों में बताया की धार्मिक तथा प्राकृतिक सौंदर्य स्थलों पर बढ़ते दबाव के साथ पर्यावरणीय छेड़छाड़ को रोकना बहुत जरूरी है, जनसंख्या का बढ़ता दबाव इन क्षेत्रों में ख़तरे से कम नहीं होता इसलिए जोशीमठ के साथ-साथ ग्लेशियर क्षेत्रों में विकसित होते शहरीकरण पर प्रतिबंध होना जरूरी है जिससे किसी प्रकार की आगामी समय में त्रासदी पैदा नहीं हो सकें।इन क्षेत्रों में विकास की गतिविधियां ना होकर सरकार व समाज को संरक्षण देना चाहिए जिससे इनका अस्तित्व बना रह सके।
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