ग्लेशियर के मलबे पर


देहरादून सूबे की सरकार सचिवालय तक ही कैद होकर रह गयी है,इस बात के जन सवाल हिमालयी गांवों के चौपालों से उठने लगे है।जिसका जबाब देने के लिए सरकार, प्रतिनिधीयों को हिमालयी गाँवों तक जाना होगा। भूस्खलन की पुरी तरह जद में आ चुके द्रोणागिरी गांव पहुंचे भारतीय वैज्ञानिकों के दल ने दैवी आफत के बाद पुराने ग्लेशियर के मलबे पर बसे द्रोणगिरी गांव पहुंच कर इस गांव में रह रहे 150 जनजातिय परिवारों की बदहाली को अपनी आंखों से देखने के बाद हिमालयी जनता के कल्याण में पुरी तरह असफल सरकार के कार्यप्रणाली पर सवाल खड़ा करते हुए सरकार से अपेक्षा किया की इन पौराणिक काल से चर्चित गांव के अस्तित्व रक्षा के लिए सरकार को कुछ गम्भीर प्रयास करना चाहिए।

बद्रीनाथ -मलारी मार्ग पर जुमा स्टेशन से 14 किमी की पैदल दूरी पर बसे द्रोणगिरी गांव में पहाड़ी जन जातीय परिवार रहते है।हिमालय की कोख में समुद्रतल से 3600 मीटर की ऊंचाई पर बसे इस रामयण काल से ही चर्चित गांव का पूरा इलाका छह माह बर्फ से ढ़क जाता है।इस काल में गांव के निवासी निचली घाटियों में चले आते है।वन,वनस्पति मर्मज्ञों का मानना है कि इस गांव सहित पुरा हिमालयी द्रोणागिरी का भाग संजीवनी बूटी सहित अनेक बहुमूल्य बनस्पतियों से भरा पड़ा है।जिसकी खासा जानकारी इस गांव में रहने वाले जनजातिय परिवारों को आज भी बखूबी है।इस गांव के खतरे के जद में आ जाने के बाद इसके गांववासी जनजातिय परिवार क्या करे? कहां जाय ?के सवालों के उहापोह की स्थिति में फंस गयी है।इस गांव में हुए भूस्खलन का अध्ययन करके लौटे वैज्ञानिकों में भौतिक अनुसंधान संस्थान ,अहमदावाद के वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. नवीन जुयाल,हेमवती नंदन बहुगुणा विष्वविद्यालय के भू वैज्ञानिक डा।एस।पी।सती ने संयुक्त रूप से अवगत कराया की इस गांव तक पहुंचने के लिए अब तो रास्ता भी नही बचा है।इस गांव का अध्ययन कर लौटे दल के माथे पर चिंता की उकरी लकीरे चीख-चीख कर यही कह रही थी कि इन हिमलयी गांवों को बचाने के लिए राज्य-केन्द्र सरकार को कुछ करना चाहिए।

जिस पर्वत से रामायण काल में राम-रावण युद्ध के दौरान घायल लक्ष्मण जी के प्राणों की रक्षा के लिए हनुमान जी संजीवनी बुटी ले गये थे उसी की तलहटी में बसे द्रोणागिरी गांव पर आफत आयी हुई है।हिमालयी जनता ने अपनी हर कुर्वानी देकर अलग उत्तराखण्ड राज्य की स्थापना इसी अपेक्षा के साथ की थी कि उसकी अपनी सरकार उनके दुख दर्द की हर घड़ी में उनके साथ होगी।

वैज्ञानिकों के दल ने अपने अध्ययन में पाया कि पुराने ग्लेशियरों के मलबे पर बसे इस गांव पर अब खतरा पुरी तरह गहरा गया है।इनका मानना है कि 1950 में बागनी तथा द्रोणागिरी ग्लेशियरों के ऊपरी क्षेत्रों में ग्लेशियरों झीलों के फटने से द्रोणगिरी गांव के नीचे ढ़ाल बन गयी।जो इस बार की वर्षात की आफत में बडे़ भूस्क्षलन में बदल चुकी है।इस बार का हुआ भूस्खलन इतना तगड़ा है कि इसने पुरी तरह से इस पौराणिक काल के द्रोणगिरी गांव को अपनी जद में ले लिया है।सूबे की सरकार ने हिमनद प्राधिकरण के गठन को सचिवालय स्तर पर मंजूरी दे दी है।इन वैज्ञानिकों का भी मानना है कि सरकार की ठोस घोषणाओं का लाभ हिम की कोख में बसे लोगों को मिलना चाहिए।इस राज्य के वैज्ञानिक,राजनेता अब हिमालय को बचाने की बात मंचों से तो करते रोज दिखाई दे जाते है,मौके पर इन बयानों,घोषणाओं का रत्ती भर असर न दिखना इस राज्य की भोली-भाली जनता को भी अखरने लगा है।हिमालयी जनता चाहती है कि सरकार उनकी अपेक्षा पर खरी उतरे।सरकार का सचिवालय,इलेक्ट्निक मीडिया के कैमरे तक कैद रहना उसे अब नही भा रहा है।हिमालय के संरक्षण की मंशा रखने वाले हर भारतीय नागरिक को इसके लिए एक ईमानदार पहल करने की जरूरत है।उत्तराखण्ड के राजनेता और विकास की हिमायत करने वाली जनता को इस हिमालयी क्षेत्रों में पर्यावरण को क्षति पहुचाने वाली कार्यवाही से बचना होगा।भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भी इस राज्य की जनता अपेक्षा करती है कि हिमालयी नीति बनाने ,हिमालयी इन औषधियों से परिपूर्ण गांवों को हर हाल में बचाने के लिए पहल करना चाहिए।देश की सीमा का प्रहरी हिमालय दीर्घ जीवी हो उससे जुड़े पौराणिक पर्यटन के महत्व के गांवों का अस्तित्व खोने से पहले उन्हे बचाने की हर कोशिश होनी चाहिए।उत्तराखण्ड में राज्य सरकार को भी जमीन पर उतर कर जल,जगंल,वन्यजीवों सहित हिमालय को बचाने की नीति बना कर अपनी भूमिका स्पष्ट करना चाहिए।
 
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