22 अप्रैल पृथ्वी दिवस पर विशेष
जीवन, जैवविविधता, धरती के भीतर और बाहर मौजूद जल, खनिज, वनस्पति, वायु, आकाश वह सब कुछ जो उसकी पकड़ में संभव है। नये तरीके का विकास बढ़ेगा तो भोग बढ़ेगा, दोहन बढ़ेगा, कार्बन उत्सर्जन बढ़ेगा, तापमान बढ़ेगा। घटेगी तो सिर्फ पृथ्वी की खूबसूरती और समृद्धि। फिर एक दिन ऐसा भी आयेगा कि विकास, भोग, दोहन, उत्सर्जन, तापमान सब कुछ बढ़ाने वाले खुद सीमा में आ जायेंगे। बापू का संदेश ही इस पृथ्वी दिवस का संदेश है कि प्रकृति हमारी हर जरूरत को पूरा कर सकती है, लेकिन लालच किसी एक का भी नहीं। यही मानवीय भी है और पर्यावरणीय भी।
भारतीय प्रधानमंत्री ने कहा कि गंगा के पास समय कम है। समय तो इस पूरी पृथ्वी के ही पास बहुत कम है। दुनिया का सबसे बड़ा जीवंत ढांचा कहे जाने वाले ग्रेट बैरियर रीफ का अस्तित्व खतरे में है। 2012 के इस पृथ्वी दिवस से 13 साल पहले ही प्रशांत महासागर का एक टापू किरीबाटी समुद्र में समा चुका है। ताज्जुब नहीं कि वनुबाटू द्वीप के लोग द्वीप छोड़ने को विवश हुए। न्यू गिनी के लोगों को भी एक टापू से पलायन करना पड़ा। भारत के सुंदरवन इलाके में स्थित लोहाचारा टापू भी आखिरकार डूब ही गया। तीन दिन की प्रलयंकारी बारिश ने मुंबई शहर का सीवर तंत्र व जमीनी ढांचों की उनकी औकात बता दी। सुनामी का कहर अभी हमारे जेहन में जिंदा ही है। हिमालयी ग्लेशियरों का 2077 वर्ग किमी का रकबा पिछले 50 सालों में सिकुड़कर लगभग 500 वर्ग किमी कम हो गया है। जिस अमेरिका में पहले वर्ष में 5-7 समुद्री चक्रवात का औसत था, उसकी संख्या 25 से 30 हो गई है। न्यू आर्लिएंस नामक शहर ऐसे ही चक्रवात में नेस्तनाबूद हो गया। लू ने फ्रांस में हजारों को मौत दी। कायदे के विपरीत आबूधाबी में बर्फ की बारिश हुई। जमे हुए ग्रीनलैंड की बर्फ भी अब पिघलने लगी है। पिछले दशक की तुलना में धरती के समुद्रों का तल 6 से 8 इंच बढ़ गया है। सबसे खतरनाक बात तो यह कि इस पृथ्वी पर पर्यावरणीय संतुलन की सबसे प्राचीन कहे जाने वाली प्रणाली मूंगा भित्तियां (कोरल रीफ) नष्ट हो रही हैं।मूंगा भित्तियां कार्बन अवशोषित करने का प्रकृति प्रदत अत्यंत कारगर माध्यम हैं। हमारी पृथ्वी पर सबसे पहले मूंगा भित्तियों में ही जीवन का संचार हुआ। यदि प्रथम जीवन संचार का ही नाश होना शुरू हो जाये, तो समझ लेना चाहिए कि अंत का प्रारंभ हो चुका है। समुद्र का तापमान आधा इंच मात्र तापमान बढ़ने से ही मूंगा भित्तियों का अस्तित्व पड़ सकता है। लाखों एकड़ मूंगा भित्तियां हम पहले ही खो चुके हैं। यदि इस सदी में 1.4 से 5.8 डिग्री सेल्सियस तक वैश्विक तापमान वृद्धि की रिपोर्ट सच हो गई,...अगले एक दशक में 10 फीसदी आधिक वर्षा का आकलन झूठा नहीं हुआ, तो समुद्रों का जलस्तर 90 सेंटिमीटर तक बढ़ जायेगा; तटवर्ती इलाके डूब जायेंगे, आदि अदि जैसे विनाशकारी नतीजे तो आयेंगे ही धरती पर जीवन की नर्सरी कहे जाने वाली मूंगा भित्तियां पूरी तरह नष्ट हो जायेंगी। तब जीवन बचेगा इस बात की गारंटी कौन दे सकता है?
एटमोस्फियर, हाइड्रोस्फियर और लिथोस्फियर - इन तीन के बिना किसी भी ग्रह पर जीवन संभव नहीं होता। ये तीनों मंडल जहां मिलते हैं, उसे ही बायोस्फियर यानी जैवमंडल कहते हैं। इस मिलन क्षेत्र में ही जीवन संभव माना गया है। यदि इन तीनों पर ही प्रहार होने लगे यदि ये तीनों ही नष्ट होने लगें, तो जीवन पुष्ट कैसे हो सकता है? यह सच है कि अपनी धुरी पर घुमती पृथ्वी के झुकाव में आया परिवर्तन, सूर्य के तापमान में आया सूक्ष्म आवर्ती बदलाव तथा इस ब्राह्मंड में घटित होने वाली घटनायें भी पृथ्वी की बदलती जलवायु के लिए कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं। लेकिन इस सच को झूठ में नहीं बदला जा सकता कि विकास और विकास के लिए अधिकतम दोहन से जुड़ी इंसानी गतिविधियों ने इस पृथ्वी का सब कुछ छीनना शुरू कर दिया है। जीवन, जैवविविधता, धरती के भीतर और बाहर मौजूद जल, खनिज, वनस्पति, वायु, आकाश वह सब कुछ जो उसकी पकड़ में संभव है। नये तरीके का विकास बढ़ेगा तो भोग बढ़ेगा, दोहन बढ़ेगा, कार्बन उत्सर्जन बढ़ेगा, तापमान बढ़ेगा। घटेगी तो सिर्फ पृथ्वी की खूबसूरती और समृद्धि। फिर एक दिन ऐसा भी आयेगा कि विकास, भोग, दोहन, उत्सर्जन, तापमान सब कुछ बढ़ाने वाले खुद सीमा में आ जायेंगे। पुनः मूषक भव।
दुर्योग है कि मानव प्रकृति का नियंता बनना चाहता है। वह भूल गया है कि प्रकृति अपना नियमन खुद करती है। मनुस्मृति के प्रलय खंड में प्रलय आने से पूर्व लंबे समय तक अग्नि वर्षा और फिर सैकड़ों वर्ष तक बारिश ही बारिश का जिक्र किया गया है; वैसे लक्षणों की शुरूआत हम अभी फिर देख ही रहे हैं। कहीं यह एक अंत का प्रारंभ तो नहीं है? खुद से सवाल कीजिए और खुद से ही जवाब लीजिए कि पृथ्वी के जीवन की सबसे पुरानी इकाई तक जा पहुंचे इस संकट को लाने में मेरी निजी भूमिका कितनी है।
निजी जरूरतों को घटाये और भोग की जीवन शैली को बदले बगैर इस भूमिका को बदला नहीं जा सकता है। बढ़ रहे भोग के चलन के मुताबिक तो कल हमारे लिए ऐसी तीन पृथ्वियों के संसाधन भी कम पड़ जायेंगे। संकट साझा है पूरी धरती का है; अतः प्रयास भी सभी को साझे करने होंगे। समझना होगा कि अर्थव्यवस्था को वैश्विक करने से नहीं, बल्कि भारत की वसुधैव कुटुंबकम की पुरातन अवधारणा को लागू करने से ही यह पृथ्वी और इसका जीवन बच पायेगा। यह नहीं चलने वाला कि विकसित को साफ रखने के लिए वह अपना कचरा विकासशील देशों में बहाये। बापू का संदेश ही इस पृथ्वी दिवस का संदेश है कि प्रकृति हमारी हर जरूरत को पूरा कर सकती है, लेकिन लालच किसी एक का भी नहीं। यही मानवीय भी है और पर्यावरणीय भी।
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