वर्तमान में ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल का 90 प्रतिशत भाग तथा सिंचाई का 40 प्रतिशत भाग भू-जल से प्राप्त हो रहा है। भू-जल पर अत्यधिक निर्भरता के कारण भू-जल का स्तर निरन्तर गिरता जा रहा है। केन्द्र सरकार ने भू-जल के स्तर को नियन्त्रित करने हेतु आपात योजना भी बनाई है। जल की बढ़ती माँग को दृष्टिगत रखते हुए यह आवश्यक हो गया है कि देश में बड़े पैमाने पर वर्षा जल के संचय, जल संरक्षण एवं जल के दक्ष उपयोग एवं भूमिगत जल के पुनर्भरण की व्यवस्था हेतु प्रभावी व ठोस नीति तत्काल कार्यान्वित की जाए। साथ ही फसलों की सिंचाई खुली नालियों द्वारा करने की बजाय सिंचाई की आधुनिक तकनीक यथा बून्द-बून्द तथा छिड़काव पद्धति को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। भू-जल पर अत्यधिक निर्भरता के कारण भू-जल का स्तर निरन्तर गिरता जा रहा है। ड्राई-ज़ोन एरिया में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जा रही है। जल के महत्व को दृष्टिगत रखते हुए ही वर्ष 2007 को ‘जल वर्ष’ घोषित किया गया। इस नीति के अन्तर्गत ‘कृषि क्षेत्र’ में जल की समय पर सही मात्रा में उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए सिंचाई परियोजनाओं को समय पर पूर्ण करने तथा क्षतिग्रस्त सिंचाई परियोजनाओं की मरम्मत व सुधार की व्यवस्था करने पर विशेष जोर दिया गया।
केन्द्रीय भू-जल बोर्ड ने जन-जागृति कार्यक्रमों, जल प्रबन्धन प्रशिक्षण कार्यक्रमों, भू-जल अध्ययन व वर्षा जल संरक्षण के प्रदर्शन और भू-जल पुस्तिकाओं के वितरण जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों को क्रियान्वित करके भू-जल पर मंडराते संकट को दृष्टिगत रखते हुए एक जल निर्देशिका भी तैयार की है जिसमें भू-जल के घटते स्तर को नियन्त्रित करने हेतु राज्य सरकारों के सहयोग की आवश्यकता को रेखांकित किया गया है।
केन्द्र सरकार ने भू-जल के गिरते स्तर को नियन्त्रित करने हेतु “आपात योजना” भी बनाई है। इसके अतिरिक्त केन्द्र सरकार ने सभी राज्यों से एक माॅडल विधेयक तैयार करने की अपील की है जिसके आधार पर भू-जल संरक्षण, वर्षा जल संचयन व भू-जल स्तर में वृद्धि किया जाना संभव हो। ग्रामीण क्षेत्रों में जल प्रबन्धन एवं उपलब्धता हेतु सरकार द्वारा समय-समय पर विभिन्न योजनाएं क्रियान्वित की गई जिनमें से प्रमुख योजनाएं एवं कार्यक्रम निम्न हैं :
इस कार्यक्रम के अन्तर्गत आवंटित धनराशि में बढ़ोतरी करते हुए इस परियोजना के प्रभावी क्रियान्वयन हेतु ग्राम पंचायतों व ग्राम सभाओं की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करने की दिशा में कदम बढ़ाए गए हैं। इस कार्यक्रम में महिलाओं, ग्रामीण निर्धनों व अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों की सहभागिता व प्रतिनिधित्व बढ़ाने पर बल दिया गया। इसके अतिरिक्त, दूर-संवेदी आंकड़ों के उपयोग, वाटरशेड विकास एवं प्रबन्धन में प्राथमिकता प्रदान की गई ताकि इस कार्यक्रम को अधिक प्रभावी व सफल बनाया जा सके। इस कार्यक्रम को मूर्त्त रूप प्रदान करने के लिए आवश्यक वित्तपोषण हेतु ऋणदायी संस्थाओं व बैंकों की कम ब्याज दर पर ऋणों की सहज उपलब्धता सुनिश्चित करवाने हेतु दिशा-निर्देश जारी किए गए। यही नहीं, ईश्वरन कमेटी की सिफारिशों के मद्देनजर केन्द्र सरकार ने परियोजना के क्रियान्वयन में कार्यरत विभिन्न श्रमिकों, कृषकों व महिलाओं के प्रशिक्षण हेतु प्रशिक्षण व्यवस्था का कार्य भी शुरू किया।
निःसन्देह रूप से, वाटरशेड विकास परियोजना ने जल के माध्यम से “ग्रामीण विकास” की परिकल्पना को साकार किया है। वाटरशेड कार्यक्रम के अन्तर्गत चेकडैम निर्माण व जल संरक्षण कार्यों को अपनाए जाने से कुछ सीमा तक जल संकट की मार कम हुई है तथा महिलाओं के सिर पर पेयजल का बोझ हल्का हुआ है।
जल बोर्ड एवं पेयजल आपूर्ति विभाग का गठन
जल संकट की भयावहता को दृष्टिगत रखते हुए सरकार ने वर्ष 1990 में जल बोर्ड का गठन राष्ट्रीय जल नीति की समीक्षा हेतु किया। इसी भांति, वर्ष 1999 में ग्रामीण विकास मंत्रालय में “पेयजल आपूर्ति विभाग” का गठन पृथक रूप से किया गया, ताकि पांच वर्षों के भीतर मार्च 2004 तक सभी गाँवों/बस्तियों में सुरक्षित व स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था का लक्ष्य प्राप्त किया जा सके।
इस कार्यक्रम का मुख्य लक्ष्य जल की गुणवत्ता सुनिश्चित करना, जल गुणवत्ता की समस्या से त्रस्त क्षेत्रों को चिन्हित करना एवं इन क्षेत्रों के लिए उपयुक्त तकनीक अपना कर इस समस्या का समाधान करना है। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत जल गुणवत्ता परीक्षण प्रयोगशालाओं की स्थापना जिला स्तर पर की गई। इसके अतिरिक्त, प्रत्येक ग्राम पंचायत को सभी पेयजल स्रोतों के जल की गुणवत्ता जाँचने हेतु एक परीक्षण किट दिए जाने का प्रावधान किया गया।
इस बोर्ड का गठन वर्ष 1970 में जल के सर्वेक्षण, आकलन, अन्वेषण व प्रबन्धन व्यवस्था करने हेतु किया गया। इस बोर्ड ने देश में लगभग 20 हजार कुओं को विभिन्न जल-स्तर संकेतकों के आधार पर तैयार कर लिया है ताकि इन कुओं की सहायता से भू-जल स्तर में एवं जल की गुणवत्ता में होने वाले परिवर्तनों का अनुमान नियमित रूप से लगाया जा सके। भू-जल प्रदूषण एवं समुद्री जल-मिश्रण की समस्या के समाधान हेतु भी यहां बोर्ड प्रयासरत है। सुनामी, भूकम्प व सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने में भी इस बोर्ड का योगदान महत्वपूर्ण होता है। सूखा-ग्रस्त इलाकों में 3630 कुओं का निर्माण करवाकर इस बोर्ड ने लोगों को जल की सुविधा उपलब्ध करवाई है। यही नहीं, वर्षा जल संचयन को प्रेरित व प्रोत्साहित करके भू-स्तर बढ़ाने की दिशा में यह बोर्ड प्रयासरत है। इस बोर्ड ने वर्तमान में जल से सम्बन्धित लगभग 165 परियोजनाओं को पूर्ण कर लिया है।
इस परिषद का मूलभूत उद्देश्य भू-जल के सही उपयोग को सुनिश्चित करना है। इस उद्देश्य की परिपूर्ति हेतु 5 हजार गाँवों में किसान भागीदारी कार्यवाही एवं अनुसन्धान कार्यक्रम भी शुरू किया गया है। प्रत्येक गाँव में एक पुरुष को “जल पुरुष” तथा एक महिला को “जल महिला” के रूप में नामांकित किया गया है। ये लोग गाँवों में ‘रोल मॉडल’ की भूमिका निर्वाहित करते हुए गाँवों में भू-जल संरक्षण, कम पानी के उपयोग से अधिकाधिक सिंचाई व्यवस्था हेतु नवीन विधियों के बारे में किसानों को आवश्यक जानकारी प्रदान करेंगे।
जल के तकनीकी पहलुओं से सम्बन्धित इस आयोग की स्थापना वर्ष 1995 में की गई है। यह आयोग देश के नागरिकों में जल संसाधनों के विकास, उपयोग एवं संरक्षण के बारे में जागरूकता उत्पन्न करने जैसा महत्वपूर्ण कार्य सम्पादित कर रहा है। पेयजल व्यवस्था में सुधार, सिंचाई हेतु जल-संसाधनों का संरक्षण एवं बाढ़ नियंत्रण जैसे कार्यों का दायित्व इस आयोग के कन्धों पर है। जल की गुणवत्ता से सम्बन्धित आंकड़ों के संकलन एवं प्रकाशन का कार्य भी इस आयोग के द्वारा किया जाता है। यह आयोग गाद-निपटान, भू-संरक्षण, जल-जमाव विरोधी उपाय एवं सिंचाई प्रबन्धन व्यवस्था करते हुए जल के अनुकूलतम उपयोग हेतु अनुसन्धान व शोध कार्यों को प्रोत्साहित करता है। बाढ़ के पूर्वानुमान, बाढ़ की रोकथाम एवं बाढ़ पीड़ितों के पुनर्वास व भोजन-पानी की व्यवस्था भी इस आयोग द्वारा की जा रही है।
वर्षा जल संचयन हेतु संचालित अनेक योजनाओं व कार्यक्रमों में सामंजस्य व सन्तुलन स्थापित करने हेतु जल के अनुकूलतम उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए इस आयोग का गठन किया गया। भू-जल के गिरते स्तर को रोकने के लिए 800 इलाकों को चिन्हित करके आपात योजना बनाई गई है।
सभी नागरिकों को जल की उपलब्धता सुनिश्चित करने के कानूनी अधिकारों के बारे में शिक्षित, जागरूक व सचेत करने के दृष्टिकोण से राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण द्वारा ‘जल अधिकार अभियान’ प्रारम्भ किया गया। इस अभियान के तहत जल लोक अदालतों के गठन को प्राथमिकता प्रदान की जा रही है। इस प्राधिकरण की प्रस्तावना में जल के वितरण के सम्बन्ध में निम्न तथ्यों को विशेष महत्व दिया गया है-
1. देश के प्रत्येक नागरिक को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध हो।
2. जल से सम्बन्धित सभी विवादों का कानूनन न्यायोचित समाधान किया जाए।
3. जल से जुड़ी समस्याओं, शिकायतों व विवादों का निपटारा जल लोक अदालतों के माध्यम से किया जाए।
4. सूखे के दौरान अनाज व जल प्राप्त नहीं होने पर नागरिकों को अदालत में जाने का कानूनी अधिकार है, यह जानकारी नागरिकों को दी जानी चाहिए।
5. सूखे व बाढ़ से प्रभावित व्यक्तियों को कानूनी सहायता व सामाजिक न्याय दिलाने का प्रावधान सुनिश्चित किया जाए।
6. जल से सम्बन्धित कार्यक्रमों के क्रियान्वयन नहीं होने पर नागरिकों का सरकार से जवाब माँगना उसका कानूनी अधिकार है।
‘पानी दृष्टि 2025 दस्तावेज’ में यह स्पष्ट किया गया है कि देश को वर्ष 2025 में 1027 अरब घन मीटर पानी की आवश्यकता होगी ताकि खाद्यान्न सुरक्षा, लोगों को पानी की आवश्यकता तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी व पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी पानी की जरूरतों को पूरा किया जा सके। वर्ष 2025 में 730 अरब घन मीटर पानी की आवश्यकता सिंचाई हेतु, 70 अरब घनमीटर घरों में जल-आपूर्ति हेतु, 77 अरब घनमीटर की पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी जरूरतों के लिए, 12 अरब घनमीटर औद्योगिक क्षेत्रों तथा शेष अन्य क्षेत्रों के लिए होगी।
भारत जैसे विशाल देश में जल-संचयन संरक्षण एवं इसके प्रभावी उपयोग हेतु मात्र केन्द्र या राज्य सरकार पर निर्भर रहना ठीक नहीं है। भारत में प्राचीन-काल से चली आ रही जनसहभागिता की अवधारणा से जल संकट का समाधान त्वरित रूप से एवं दीर्घकालीन तौर पर सम्भव हो सकता है। आज भी विभिन्न क्षेत्रों में इस हेतु व्यक्तिगत रूप से, सामाजिक संगठनों एवं स्वयंसेवी संगठनों द्वारा बहुत प्रभावी व सार्थक प्रयोग किए जा रहे हैं जिनमें से कुछ का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है:-
महाराष्ट्र के रालेगाँव सिद्धी और राजस्थान के अलवर के जन-सामान्य ने अपने बलबूते पर छोटी-छोटी संरचनाओं को निर्मित करके बंजर भूमि को हरा-भरा कर दिया, फल-फूल व वृक्षों से धरती लहलहाने लगी तथा पेयजल की समस्या का समाधान भी हो गया। इसी भान्ति, मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले के निवासियों ने श्रमदान करके पुरातन जल-स्रोतों का पुनरुद्धार करके पीने व सिंचाई के लिए पानी की व्यवस्था की है। स्पष्ट है कि जन-सामान्य भी जागरूक व सक्रिय होकर जल संरक्षण के पुनीत कार्य में अहम योगदान देकर जल-संकट की भयावहता का समाधान करने में सक्षम है। इस सन्दर्भ में परलिया, मारूगाँव व बरगाना गाँव के उदाहरण उल्लेखनीय हैं जहां ग्रामवासियों ने चँदा एकत्रित करके व्यर्थ बहते पानी का संरक्षण किया एवं पोखर को झील में परिवर्तित कर दिया। मंदसौर जिले के ग्राम निवासियों ने 33 झीलों का मरम्मत-सुधार कार्य किया, 166 झीलों, सरोवरों की गाद निकाली, छः बान्ध बनाये तथा 3447 पोखर, सरोवर आदि की खुदाई करके जल संरक्षण व संचयन में उल्लेखनीय योगदान दिया है।
जल संरक्षण के लिए गुजरात राज्य के बिचियावाड़ा नामक गाँव में भी ग्रामीणों ने संयुक्त रूप से मिल-जुल कर 12 चैक बान्ध बनाए। इन बान्धों के द्वारा 3000 एकड़ भूमि की सिंचाई आसानी से की जा सकती है। इसी भांति भावनगर जिले के खोपाला गाँव में ग्रामीणों ने 210 छोटे-छोटे बान्ध बनाकर जल-संकट की समस्या के समाधान में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वर्षा न्यून होने के बावजूद भी यहां की नहरें वर्ष-पर्यंत लबालब भरे रहने के कारण सिंचाई व्यवस्था व पेयजल व्यवस्था पर कोई संकट नहीं आता है।
पंजाब राज्य की काली वेन नदी, जिसके तट पर गुरु नानक देव जी को आत्मज्ञान प्राप्त हुआ था, प्रदूषण का शिकार हो गई थी किन्तु सरकार एवं बाबा बलवीर सिंह सीचेवाल के सक्रिय प्रयासों की वजह से इस नदी का कालाकल्प हुआ और इसने पुनः ताजे पानी से प्रवाहित नदी का रूप धारण कर लिया। इसी क्रम में, वर्ष 1995 में मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में वर्षा जल संचयन एवं संरक्षण के व्यापक कार्यक्रम के अन्तर्गत चैक बान्ध, टैंक व लिफ्ट सिंचाई परियोजनाओं को मूर्त रूप प्रदान किया गया। यही नहीं, पंजाब राज्य की काली वेन नदी, जिसके तट पर गुरु नानक देव जी को आत्मज्ञान प्राप्त हुआ था, प्रदूषण का शिकार हो गई थी किन्तु सरकार एवं बाबा बलवीर सिंह सीचेवाल के सक्रिय प्रयासों की वजह से इस नदी का कालाकल्प हुआ और इसने पुनः ताजे पानी से प्रवाहित नदी का रूप धारण कर लिया। 300 कार सेवकों ने इस नदी में गिरने वाले गन्दे नालों को रोकते हुए साढ़े तीन वर्षों में 160 किलोमीटर लम्बी इस नदी को साफ करके एक मिसाल कायम की है। सरकार ने तर्किना बान्ध से इस नदी हेतु ताजे पानी की व्यवस्था की। सुखद तथ्य है कि इस नदी के प्रवाहित होने से भू-जल स्तर में बढ़ोतरी हुई एवं सूखे हुए हैण्डपम्पों से पानी मिलना प्रारम्भ हो गया है। वस्तुतः स्थानीय स्तर पर नागरिकों की सक्रिय सहभागिता एवं उत्साह नदियों, तालाबों व झीलों के पुनर्जीवन एवं संरक्षण हेतु आवश्यक है।
इसी संदर्भ में, पेरियार मणिअम्मई महिला प्रौद्योगिकी महाविद्यालय द्वारा तमिलनाडु के तंजौर जिले में वल्लभ के निकटवर्ती गाँवों के लोगों के पीने और सिंचाई हेतु जल प्रबन्धन स्कीमें तैयार की गई। इन स्कीमों के तहत जलाशयों व चैक बान्धों का निर्माण किया गया ताकि वर्षा जल को संग्रहित किया जा सके। यही नहीं, कोयम्बटूर के निवासियों ने कोयम्बटूर के 9 जलाशयों में से 5 प्रमुख जलाशयों की गाद निकालकर उनके तटबन्धों पर अनेक पौधे लगाये हैं। इन जलाशयों में बड़े पैमाने पर वर्षा जल का संचयन किया जा रहा है। जल संरक्षण के क्षेत्र में ग्वालियर जिले के सिरोही पंचायत के गाँव रामनगर ने भी उदाहरण प्रस्तुत किया है। गोपाल किरण समाजसेवी संस्था एवं स्व-सहायता समूह की महिला सदस्यों ने संयुक्त रूप से गाँव के तालाब का गहरीकरण एवं जीर्णोद्धार करके सिंचाई व जानवरों के पीने के पानी की व्यवस्था की। यही नहीं, इस तालाब के किनारे ग्राम समुदाय ने आँवला, नीम व शीशम आदि विविध प्रकार के वृक्ष भी लगाये हैं।
जल संरक्षण की अनूठी मिसाल मनासा तहसील के गाँव बरलाई के पाटीदार समाज ने कायम की है। बारिश के व्यर्थ बहते पानी की बून्द को सहेजने की दृढ़ इच्छा-शक्ति का परिचय देते हुए एक किसान ने अपने खर्चे पर एक तालाब का निर्माण किया। जिसका अनुकरण करते हुए अन्य गाँववालों ने एक के बाद एक 12 तालाब बना दिए। इन तालाबों के कारण यह गाँव पानी और सिंचाई के दृष्टिकोण से आत्मनिर्भर हो गया है। यही नहीं, दस नये तालाब बनाने का संकल्प अन्य ग्रामीणों ने लिया है। इस उदाहरण से प्रेरणा लेते हुए देश के अन्य गाँव जल-संकट की त्रासदी से उभर सकते हैं।
जल संचयन व संरक्षण के साथ इसके पुनः प्रयोग को कानूनी रूप से सभी राज्यों में अनिवार्य करके ही इस विकट समस्या का समाधान सम्भव है। गौरतलब है कि तमिलनाडु सरकार ने इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए गाँवों सहित सभी परिवारों के लिए जल-संचयन को कानूनी तौर पर अनिवार्य बना दिया है। विभिन्न अध्ययनों व सर्वेक्षणों से यह स्पष्ट हुआ है कि ऐसा किए जाने पर वहां भू-जल स्तर में पर्याप्त वृद्धि हुई है तथा जल-संकट में कमी आई है। खुशी की बात है कि कई राज्यों ने जल संरक्षण के लिए लाखों जलाशयों, तालाबों व पोखरों के पुनरुद्धार व खुदाई का कार्य प्रारम्भ कर लिया है।
देश के इन परम्परागत पोखरों, जोहड़ों, तालाबों, कुओं व बावड़ियों को पुनर्जीवित करके न केवल जल आपूर्ति व्यवस्था में सुधार सम्भव है अपितु इन जल-स्रोतों के किनारे विविध प्रकार की औषधियां, वनस्पतियां व पौधे भी उगाये जा सकते हैं। इन जल-स्रोतों के संरक्षण से अनेक पशुओं, पक्षियों व जल-जीवों को आश्रय मिलने के साथ मत्स्य-पालकों को रोजगार भी उपलब्ध होगा। जल, जमीन और जंगल के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध को दृष्टिगत रखते हुए जल संरक्षण के साथ पर्यावरण-संरक्षण पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। इस दृष्टिकोण से विशाल पैमाने पर वृक्षारोपण किया जाना चाहिए ताकि ‘ग्लोबल वार्मिंग’ पर नियंत्रण करके बढ़ते जल-संकट को रोका जाना सम्भव हो। वर्तमान समय की माँग है कि जल संरक्षण को ‘राष्ट्रीय मिशन’ बनाकर उस पर प्रभावी ढंग से तत्काल कार्यवाही की जाए।
“जल ही जीवन है”, इस वास्तविकता को दृष्टिगत रखते हुए यह जरूरी है कि जल का उपयोग एक कीमती वस्तु की भान्ति मितव्ययितापूर्वक किया जाए। यदि मानव ने जल को मुफ्त की वस्तु मानकर अनियन्त्रित रूप से इसका दोहन किया तो बढ़ते जल संकट एवं सूखते भूमिगत जल स्रोत की मार सम्पूर्ण समुदाय को सहनी पड़ेगी। आर्थिक विकास, कृषि विकास व जीवनरक्षक के रूप में जल के महत्व को प्रतिपादित करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव कोफी अन्नान ने विश्व शिखर सम्मेलन 2002 में निर्धारित पाँच विषयों में से एक विषय ‘जल’ रखा था। निःसन्देह रूप से, देश की भौगोलिक एवं वातावरण सम्बन्धित विविधताओं को दृष्टिगत रखते हुए जल प्रबन्धन का विषय अति संवेदनशील एवं जटिल है। ऐसी स्थिति में जल नीति समन्वित, एकीकृत व सर्वसहमति पर आधारित होनी चाहिए।
जल की उपलब्धता एवं जल की आवश्यकता के मध्य सन्तुलन स्थापित करने के लिए सतत व प्रभावी प्रयास किए जाने आवश्यक है। जल-विद्युत परियोजनाओं, बान्धों व नहरों के निर्माण एवं औद्योगिक इकाइयों की स्थापना सम्बन्धित निर्णय लेते समय जल व पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों का समुचित विश्लेषण अपेक्षित है। नदी जल के बंटवारे एवं भूमिगत जल के उपयोग सम्बन्धित बढ़ते विवादों को ध्यान में रखते हुए यह अधिक तर्कसंगत है कि जल को राज्य सूची से निकालकर समवर्ती सूची में समावेशित किया जाए ताकि जल स्रोतों के संरक्षण व प्रबन्धन में प्रभावी भूमिका निभा सकें।
(लेखिका जी.एस.एस. गर्ल्स कॉलजे चिड़ावा में अर्थशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष हैं।)
ई-मेल: anita3modi@gmail.com
केन्द्रीय भू-जल बोर्ड ने जन-जागृति कार्यक्रमों, जल प्रबन्धन प्रशिक्षण कार्यक्रमों, भू-जल अध्ययन व वर्षा जल संरक्षण के प्रदर्शन और भू-जल पुस्तिकाओं के वितरण जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों को क्रियान्वित करके भू-जल पर मंडराते संकट को दृष्टिगत रखते हुए एक जल निर्देशिका भी तैयार की है जिसमें भू-जल के घटते स्तर को नियन्त्रित करने हेतु राज्य सरकारों के सहयोग की आवश्यकता को रेखांकित किया गया है।
केन्द्र सरकार ने भू-जल के गिरते स्तर को नियन्त्रित करने हेतु “आपात योजना” भी बनाई है। इसके अतिरिक्त केन्द्र सरकार ने सभी राज्यों से एक माॅडल विधेयक तैयार करने की अपील की है जिसके आधार पर भू-जल संरक्षण, वर्षा जल संचयन व भू-जल स्तर में वृद्धि किया जाना संभव हो। ग्रामीण क्षेत्रों में जल प्रबन्धन एवं उपलब्धता हेतु सरकार द्वारा समय-समय पर विभिन्न योजनाएं क्रियान्वित की गई जिनमें से प्रमुख योजनाएं एवं कार्यक्रम निम्न हैं :
वाटरशेड कार्यक्रम
इस कार्यक्रम के अन्तर्गत आवंटित धनराशि में बढ़ोतरी करते हुए इस परियोजना के प्रभावी क्रियान्वयन हेतु ग्राम पंचायतों व ग्राम सभाओं की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करने की दिशा में कदम बढ़ाए गए हैं। इस कार्यक्रम में महिलाओं, ग्रामीण निर्धनों व अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों की सहभागिता व प्रतिनिधित्व बढ़ाने पर बल दिया गया। इसके अतिरिक्त, दूर-संवेदी आंकड़ों के उपयोग, वाटरशेड विकास एवं प्रबन्धन में प्राथमिकता प्रदान की गई ताकि इस कार्यक्रम को अधिक प्रभावी व सफल बनाया जा सके। इस कार्यक्रम को मूर्त्त रूप प्रदान करने के लिए आवश्यक वित्तपोषण हेतु ऋणदायी संस्थाओं व बैंकों की कम ब्याज दर पर ऋणों की सहज उपलब्धता सुनिश्चित करवाने हेतु दिशा-निर्देश जारी किए गए। यही नहीं, ईश्वरन कमेटी की सिफारिशों के मद्देनजर केन्द्र सरकार ने परियोजना के क्रियान्वयन में कार्यरत विभिन्न श्रमिकों, कृषकों व महिलाओं के प्रशिक्षण हेतु प्रशिक्षण व्यवस्था का कार्य भी शुरू किया।
निःसन्देह रूप से, वाटरशेड विकास परियोजना ने जल के माध्यम से “ग्रामीण विकास” की परिकल्पना को साकार किया है। वाटरशेड कार्यक्रम के अन्तर्गत चेकडैम निर्माण व जल संरक्षण कार्यों को अपनाए जाने से कुछ सीमा तक जल संकट की मार कम हुई है तथा महिलाओं के सिर पर पेयजल का बोझ हल्का हुआ है।
जल बोर्ड एवं पेयजल आपूर्ति विभाग का गठन
जल संकट की भयावहता को दृष्टिगत रखते हुए सरकार ने वर्ष 1990 में जल बोर्ड का गठन राष्ट्रीय जल नीति की समीक्षा हेतु किया। इसी भांति, वर्ष 1999 में ग्रामीण विकास मंत्रालय में “पेयजल आपूर्ति विभाग” का गठन पृथक रूप से किया गया, ताकि पांच वर्षों के भीतर मार्च 2004 तक सभी गाँवों/बस्तियों में सुरक्षित व स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था का लक्ष्य प्राप्त किया जा सके।
राष्ट्रीय ग्रामीण जल गुणवत्ता चेतावनी एवं निगरानी कार्यक्रम
इस कार्यक्रम का मुख्य लक्ष्य जल की गुणवत्ता सुनिश्चित करना, जल गुणवत्ता की समस्या से त्रस्त क्षेत्रों को चिन्हित करना एवं इन क्षेत्रों के लिए उपयुक्त तकनीक अपना कर इस समस्या का समाधान करना है। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत जल गुणवत्ता परीक्षण प्रयोगशालाओं की स्थापना जिला स्तर पर की गई। इसके अतिरिक्त, प्रत्येक ग्राम पंचायत को सभी पेयजल स्रोतों के जल की गुणवत्ता जाँचने हेतु एक परीक्षण किट दिए जाने का प्रावधान किया गया।
केन्द्रीय भू-जल बोर्ड
इस बोर्ड का गठन वर्ष 1970 में जल के सर्वेक्षण, आकलन, अन्वेषण व प्रबन्धन व्यवस्था करने हेतु किया गया। इस बोर्ड ने देश में लगभग 20 हजार कुओं को विभिन्न जल-स्तर संकेतकों के आधार पर तैयार कर लिया है ताकि इन कुओं की सहायता से भू-जल स्तर में एवं जल की गुणवत्ता में होने वाले परिवर्तनों का अनुमान नियमित रूप से लगाया जा सके। भू-जल प्रदूषण एवं समुद्री जल-मिश्रण की समस्या के समाधान हेतु भी यहां बोर्ड प्रयासरत है। सुनामी, भूकम्प व सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने में भी इस बोर्ड का योगदान महत्वपूर्ण होता है। सूखा-ग्रस्त इलाकों में 3630 कुओं का निर्माण करवाकर इस बोर्ड ने लोगों को जल की सुविधा उपलब्ध करवाई है। यही नहीं, वर्षा जल संचयन को प्रेरित व प्रोत्साहित करके भू-स्तर बढ़ाने की दिशा में यह बोर्ड प्रयासरत है। इस बोर्ड ने वर्तमान में जल से सम्बन्धित लगभग 165 परियोजनाओं को पूर्ण कर लिया है।
कृत्रिम भू-जल सम्भरण सलाहकार परिषद
इस परिषद का मूलभूत उद्देश्य भू-जल के सही उपयोग को सुनिश्चित करना है। इस उद्देश्य की परिपूर्ति हेतु 5 हजार गाँवों में किसान भागीदारी कार्यवाही एवं अनुसन्धान कार्यक्रम भी शुरू किया गया है। प्रत्येक गाँव में एक पुरुष को “जल पुरुष” तथा एक महिला को “जल महिला” के रूप में नामांकित किया गया है। ये लोग गाँवों में ‘रोल मॉडल’ की भूमिका निर्वाहित करते हुए गाँवों में भू-जल संरक्षण, कम पानी के उपयोग से अधिकाधिक सिंचाई व्यवस्था हेतु नवीन विधियों के बारे में किसानों को आवश्यक जानकारी प्रदान करेंगे।
केन्द्रीय जल आयोग
जल के तकनीकी पहलुओं से सम्बन्धित इस आयोग की स्थापना वर्ष 1995 में की गई है। यह आयोग देश के नागरिकों में जल संसाधनों के विकास, उपयोग एवं संरक्षण के बारे में जागरूकता उत्पन्न करने जैसा महत्वपूर्ण कार्य सम्पादित कर रहा है। पेयजल व्यवस्था में सुधार, सिंचाई हेतु जल-संसाधनों का संरक्षण एवं बाढ़ नियंत्रण जैसे कार्यों का दायित्व इस आयोग के कन्धों पर है। जल की गुणवत्ता से सम्बन्धित आंकड़ों के संकलन एवं प्रकाशन का कार्य भी इस आयोग के द्वारा किया जाता है। यह आयोग गाद-निपटान, भू-संरक्षण, जल-जमाव विरोधी उपाय एवं सिंचाई प्रबन्धन व्यवस्था करते हुए जल के अनुकूलतम उपयोग हेतु अनुसन्धान व शोध कार्यों को प्रोत्साहित करता है। बाढ़ के पूर्वानुमान, बाढ़ की रोकथाम एवं बाढ़ पीड़ितों के पुनर्वास व भोजन-पानी की व्यवस्था भी इस आयोग द्वारा की जा रही है।
राष्ट्रीय वर्षा जल क्षेत्र प्राधिकरण
वर्षा जल संचयन हेतु संचालित अनेक योजनाओं व कार्यक्रमों में सामंजस्य व सन्तुलन स्थापित करने हेतु जल के अनुकूलतम उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए इस आयोग का गठन किया गया। भू-जल के गिरते स्तर को रोकने के लिए 800 इलाकों को चिन्हित करके आपात योजना बनाई गई है।
राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण का जल अधिकार अभियान
सभी नागरिकों को जल की उपलब्धता सुनिश्चित करने के कानूनी अधिकारों के बारे में शिक्षित, जागरूक व सचेत करने के दृष्टिकोण से राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण द्वारा ‘जल अधिकार अभियान’ प्रारम्भ किया गया। इस अभियान के तहत जल लोक अदालतों के गठन को प्राथमिकता प्रदान की जा रही है। इस प्राधिकरण की प्रस्तावना में जल के वितरण के सम्बन्ध में निम्न तथ्यों को विशेष महत्व दिया गया है-
1. देश के प्रत्येक नागरिक को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध हो।
2. जल से सम्बन्धित सभी विवादों का कानूनन न्यायोचित समाधान किया जाए।
3. जल से जुड़ी समस्याओं, शिकायतों व विवादों का निपटारा जल लोक अदालतों के माध्यम से किया जाए।
4. सूखे के दौरान अनाज व जल प्राप्त नहीं होने पर नागरिकों को अदालत में जाने का कानूनी अधिकार है, यह जानकारी नागरिकों को दी जानी चाहिए।
5. सूखे व बाढ़ से प्रभावित व्यक्तियों को कानूनी सहायता व सामाजिक न्याय दिलाने का प्रावधान सुनिश्चित किया जाए।
6. जल से सम्बन्धित कार्यक्रमों के क्रियान्वयन नहीं होने पर नागरिकों का सरकार से जवाब माँगना उसका कानूनी अधिकार है।
‘पानी दृष्टि 2025 दस्तावेज’ में यह स्पष्ट किया गया है कि देश को वर्ष 2025 में 1027 अरब घन मीटर पानी की आवश्यकता होगी ताकि खाद्यान्न सुरक्षा, लोगों को पानी की आवश्यकता तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी व पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी पानी की जरूरतों को पूरा किया जा सके। वर्ष 2025 में 730 अरब घन मीटर पानी की आवश्यकता सिंचाई हेतु, 70 अरब घनमीटर घरों में जल-आपूर्ति हेतु, 77 अरब घनमीटर की पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी जरूरतों के लिए, 12 अरब घनमीटर औद्योगिक क्षेत्रों तथा शेष अन्य क्षेत्रों के लिए होगी।
भारत जैसे विशाल देश में जल-संचयन संरक्षण एवं इसके प्रभावी उपयोग हेतु मात्र केन्द्र या राज्य सरकार पर निर्भर रहना ठीक नहीं है। भारत में प्राचीन-काल से चली आ रही जनसहभागिता की अवधारणा से जल संकट का समाधान त्वरित रूप से एवं दीर्घकालीन तौर पर सम्भव हो सकता है। आज भी विभिन्न क्षेत्रों में इस हेतु व्यक्तिगत रूप से, सामाजिक संगठनों एवं स्वयंसेवी संगठनों द्वारा बहुत प्रभावी व सार्थक प्रयोग किए जा रहे हैं जिनमें से कुछ का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है:-
महाराष्ट्र के रालेगाँव सिद्धी और राजस्थान के अलवर के जन-सामान्य ने अपने बलबूते पर छोटी-छोटी संरचनाओं को निर्मित करके बंजर भूमि को हरा-भरा कर दिया, फल-फूल व वृक्षों से धरती लहलहाने लगी तथा पेयजल की समस्या का समाधान भी हो गया। इसी भान्ति, मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले के निवासियों ने श्रमदान करके पुरातन जल-स्रोतों का पुनरुद्धार करके पीने व सिंचाई के लिए पानी की व्यवस्था की है। स्पष्ट है कि जन-सामान्य भी जागरूक व सक्रिय होकर जल संरक्षण के पुनीत कार्य में अहम योगदान देकर जल-संकट की भयावहता का समाधान करने में सक्षम है। इस सन्दर्भ में परलिया, मारूगाँव व बरगाना गाँव के उदाहरण उल्लेखनीय हैं जहां ग्रामवासियों ने चँदा एकत्रित करके व्यर्थ बहते पानी का संरक्षण किया एवं पोखर को झील में परिवर्तित कर दिया। मंदसौर जिले के ग्राम निवासियों ने 33 झीलों का मरम्मत-सुधार कार्य किया, 166 झीलों, सरोवरों की गाद निकाली, छः बान्ध बनाये तथा 3447 पोखर, सरोवर आदि की खुदाई करके जल संरक्षण व संचयन में उल्लेखनीय योगदान दिया है।
जल संरक्षण के लिए गुजरात राज्य के बिचियावाड़ा नामक गाँव में भी ग्रामीणों ने संयुक्त रूप से मिल-जुल कर 12 चैक बान्ध बनाए। इन बान्धों के द्वारा 3000 एकड़ भूमि की सिंचाई आसानी से की जा सकती है। इसी भांति भावनगर जिले के खोपाला गाँव में ग्रामीणों ने 210 छोटे-छोटे बान्ध बनाकर जल-संकट की समस्या के समाधान में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वर्षा न्यून होने के बावजूद भी यहां की नहरें वर्ष-पर्यंत लबालब भरे रहने के कारण सिंचाई व्यवस्था व पेयजल व्यवस्था पर कोई संकट नहीं आता है।
पंजाब राज्य की काली वेन नदी, जिसके तट पर गुरु नानक देव जी को आत्मज्ञान प्राप्त हुआ था, प्रदूषण का शिकार हो गई थी किन्तु सरकार एवं बाबा बलवीर सिंह सीचेवाल के सक्रिय प्रयासों की वजह से इस नदी का कालाकल्प हुआ और इसने पुनः ताजे पानी से प्रवाहित नदी का रूप धारण कर लिया। इसी क्रम में, वर्ष 1995 में मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में वर्षा जल संचयन एवं संरक्षण के व्यापक कार्यक्रम के अन्तर्गत चैक बान्ध, टैंक व लिफ्ट सिंचाई परियोजनाओं को मूर्त रूप प्रदान किया गया। यही नहीं, पंजाब राज्य की काली वेन नदी, जिसके तट पर गुरु नानक देव जी को आत्मज्ञान प्राप्त हुआ था, प्रदूषण का शिकार हो गई थी किन्तु सरकार एवं बाबा बलवीर सिंह सीचेवाल के सक्रिय प्रयासों की वजह से इस नदी का कालाकल्प हुआ और इसने पुनः ताजे पानी से प्रवाहित नदी का रूप धारण कर लिया। 300 कार सेवकों ने इस नदी में गिरने वाले गन्दे नालों को रोकते हुए साढ़े तीन वर्षों में 160 किलोमीटर लम्बी इस नदी को साफ करके एक मिसाल कायम की है। सरकार ने तर्किना बान्ध से इस नदी हेतु ताजे पानी की व्यवस्था की। सुखद तथ्य है कि इस नदी के प्रवाहित होने से भू-जल स्तर में बढ़ोतरी हुई एवं सूखे हुए हैण्डपम्पों से पानी मिलना प्रारम्भ हो गया है। वस्तुतः स्थानीय स्तर पर नागरिकों की सक्रिय सहभागिता एवं उत्साह नदियों, तालाबों व झीलों के पुनर्जीवन एवं संरक्षण हेतु आवश्यक है।
इसी संदर्भ में, पेरियार मणिअम्मई महिला प्रौद्योगिकी महाविद्यालय द्वारा तमिलनाडु के तंजौर जिले में वल्लभ के निकटवर्ती गाँवों के लोगों के पीने और सिंचाई हेतु जल प्रबन्धन स्कीमें तैयार की गई। इन स्कीमों के तहत जलाशयों व चैक बान्धों का निर्माण किया गया ताकि वर्षा जल को संग्रहित किया जा सके। यही नहीं, कोयम्बटूर के निवासियों ने कोयम्बटूर के 9 जलाशयों में से 5 प्रमुख जलाशयों की गाद निकालकर उनके तटबन्धों पर अनेक पौधे लगाये हैं। इन जलाशयों में बड़े पैमाने पर वर्षा जल का संचयन किया जा रहा है। जल संरक्षण के क्षेत्र में ग्वालियर जिले के सिरोही पंचायत के गाँव रामनगर ने भी उदाहरण प्रस्तुत किया है। गोपाल किरण समाजसेवी संस्था एवं स्व-सहायता समूह की महिला सदस्यों ने संयुक्त रूप से गाँव के तालाब का गहरीकरण एवं जीर्णोद्धार करके सिंचाई व जानवरों के पीने के पानी की व्यवस्था की। यही नहीं, इस तालाब के किनारे ग्राम समुदाय ने आँवला, नीम व शीशम आदि विविध प्रकार के वृक्ष भी लगाये हैं।
जल संरक्षण की अनूठी मिसाल मनासा तहसील के गाँव बरलाई के पाटीदार समाज ने कायम की है। बारिश के व्यर्थ बहते पानी की बून्द को सहेजने की दृढ़ इच्छा-शक्ति का परिचय देते हुए एक किसान ने अपने खर्चे पर एक तालाब का निर्माण किया। जिसका अनुकरण करते हुए अन्य गाँववालों ने एक के बाद एक 12 तालाब बना दिए। इन तालाबों के कारण यह गाँव पानी और सिंचाई के दृष्टिकोण से आत्मनिर्भर हो गया है। यही नहीं, दस नये तालाब बनाने का संकल्प अन्य ग्रामीणों ने लिया है। इस उदाहरण से प्रेरणा लेते हुए देश के अन्य गाँव जल-संकट की त्रासदी से उभर सकते हैं।
जल संचयन व संरक्षण के साथ इसके पुनः प्रयोग को कानूनी रूप से सभी राज्यों में अनिवार्य करके ही इस विकट समस्या का समाधान सम्भव है। गौरतलब है कि तमिलनाडु सरकार ने इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए गाँवों सहित सभी परिवारों के लिए जल-संचयन को कानूनी तौर पर अनिवार्य बना दिया है। विभिन्न अध्ययनों व सर्वेक्षणों से यह स्पष्ट हुआ है कि ऐसा किए जाने पर वहां भू-जल स्तर में पर्याप्त वृद्धि हुई है तथा जल-संकट में कमी आई है। खुशी की बात है कि कई राज्यों ने जल संरक्षण के लिए लाखों जलाशयों, तालाबों व पोखरों के पुनरुद्धार व खुदाई का कार्य प्रारम्भ कर लिया है।
देश के इन परम्परागत पोखरों, जोहड़ों, तालाबों, कुओं व बावड़ियों को पुनर्जीवित करके न केवल जल आपूर्ति व्यवस्था में सुधार सम्भव है अपितु इन जल-स्रोतों के किनारे विविध प्रकार की औषधियां, वनस्पतियां व पौधे भी उगाये जा सकते हैं। इन जल-स्रोतों के संरक्षण से अनेक पशुओं, पक्षियों व जल-जीवों को आश्रय मिलने के साथ मत्स्य-पालकों को रोजगार भी उपलब्ध होगा। जल, जमीन और जंगल के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध को दृष्टिगत रखते हुए जल संरक्षण के साथ पर्यावरण-संरक्षण पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। इस दृष्टिकोण से विशाल पैमाने पर वृक्षारोपण किया जाना चाहिए ताकि ‘ग्लोबल वार्मिंग’ पर नियंत्रण करके बढ़ते जल-संकट को रोका जाना सम्भव हो। वर्तमान समय की माँग है कि जल संरक्षण को ‘राष्ट्रीय मिशन’ बनाकर उस पर प्रभावी ढंग से तत्काल कार्यवाही की जाए।
“जल ही जीवन है”, इस वास्तविकता को दृष्टिगत रखते हुए यह जरूरी है कि जल का उपयोग एक कीमती वस्तु की भान्ति मितव्ययितापूर्वक किया जाए। यदि मानव ने जल को मुफ्त की वस्तु मानकर अनियन्त्रित रूप से इसका दोहन किया तो बढ़ते जल संकट एवं सूखते भूमिगत जल स्रोत की मार सम्पूर्ण समुदाय को सहनी पड़ेगी। आर्थिक विकास, कृषि विकास व जीवनरक्षक के रूप में जल के महत्व को प्रतिपादित करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव कोफी अन्नान ने विश्व शिखर सम्मेलन 2002 में निर्धारित पाँच विषयों में से एक विषय ‘जल’ रखा था। निःसन्देह रूप से, देश की भौगोलिक एवं वातावरण सम्बन्धित विविधताओं को दृष्टिगत रखते हुए जल प्रबन्धन का विषय अति संवेदनशील एवं जटिल है। ऐसी स्थिति में जल नीति समन्वित, एकीकृत व सर्वसहमति पर आधारित होनी चाहिए।
जल की उपलब्धता एवं जल की आवश्यकता के मध्य सन्तुलन स्थापित करने के लिए सतत व प्रभावी प्रयास किए जाने आवश्यक है। जल-विद्युत परियोजनाओं, बान्धों व नहरों के निर्माण एवं औद्योगिक इकाइयों की स्थापना सम्बन्धित निर्णय लेते समय जल व पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों का समुचित विश्लेषण अपेक्षित है। नदी जल के बंटवारे एवं भूमिगत जल के उपयोग सम्बन्धित बढ़ते विवादों को ध्यान में रखते हुए यह अधिक तर्कसंगत है कि जल को राज्य सूची से निकालकर समवर्ती सूची में समावेशित किया जाए ताकि जल स्रोतों के संरक्षण व प्रबन्धन में प्रभावी भूमिका निभा सकें।
(लेखिका जी.एस.एस. गर्ल्स कॉलजे चिड़ावा में अर्थशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष हैं।)
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