गांवों को न सहेजने का ख़ामियाज़ा

जल संसाधन की बड़ी-बड़ी परियोजनाएं बनीं, विशालकाय बांध बनाए गए, पर गांव स्तर पर जल के संरक्षण और संग्रहण को पर्याप्त महत्व नहीं दिया गया। फसल-चक्र में, फ़सलों की किस्मों में तेजी से रसायनों तथा मशीनों की मदद से कई ऐसे बदलाव किए गए जिससे अल्पकाल में उत्पादकता तो बढ़ी, पर आगे के लिए जो मिट्टी का उपजाऊपन कम होने का संकट उत्पन्न हुआ उस पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया।

आज़ादी के बाद गाँवों में हुए विविधतापूर्ण बदलाव को समझने के दृष्टिकोण अलग-अलग हो सकते हैं। गाँवों से जुड़े हुए किसी भी व्यक्ति को इस बात से इंकार नहीं होगा कि गरीबी अभी तक बड़े पैमाने पर मौजूद है। ब्रिटिश साम्राज्य के दिनों की सबसे बड़ी दुखभरी दास्तान उन भयानक अकालों की है, जिसमें समय-समय पर भारतीय गाँवों में लाखों की संख्या में लोग मारे जाते थे। स्वतंत्रता के बाद की यह एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है कि इन अकालों से हमने सफलतापूर्वक छुटकारा पाया। लेकिन गाँवों से भूख, कुपोषण और गरीबी को सदा के लिए दूर कर देने के लक्ष्य में अभी हमें सफलता नहीं मिली है। एक अन्य मुख्य विफलता है टिकाऊ और स्थाई विकास की संभावनाओं का कम होना। तेजी से वन-विनाश हुआ व अंधाधुंध जल-दोहन के कारण जल-स्तर नीचे चला गया। रासायनिक खाद के अत्यधिक और असावधान उपयोग के कारण कृषि भूमि का उपजाऊपन कम हुआ। इससे पर्यावरण का संकट विकट हुआ और अगली पीढ़ी के लिए समस्याएं बढ़ीं। वैकल्पिक वनीकरण भी वन विनाश की क्षति पूर्ति नहीं कर पाया।

जल संसाधन की बड़ी-बड़ी परियोजनाएं बनीं, विशालकाय बांध बनाए गए, पर गांव स्तर पर जल के संरक्षण और संग्रहण को पर्याप्त महत्व नहीं दिया गया। फसल-चक्र में, फ़सलों की किस्मों में तेजी से रसायनों तथा मशीनों की मदद से कई ऐसे बदलाव किए गए जिससे अल्पकाल में उत्पादकता तो बढ़ी, पर आगे के लिए जो मिट्टी का उपजाऊपन कम होने का संकट उत्पन्न हुआ उस पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। गरीबी की समस्या बने रहने और पर्यावरण का संकट विकट होने और उसके कारणों को समझने के लिए गाँवों में परंपरा और बदलाव के बीच हो रहे टकराव पर ध्यान देना जरूरी है। आज़ादी के समय हमारे गाँवों की जो दयनीय स्थिति थी उसे 1940 के दशक में पड़े बंगाल के अकाल ने बहुत क्रूरता से स्पष्ट कर दिया था। इस अकाल में लगभग तीस लाख लोग मारे गए थे।

ब्रिटिश साम्राज्य का मुख्य उद्देश्य था हमारे गाँवों में अपना अधिपत्य बनाए रखना और उन्हें आर्थिक संसाधनों के लिए निचोड़ना और वहां से अधिक से अधिक आर्थिक संसाधन अपने साम्राज्य के लिए एकत्र करना। साथ ही उन्होंने जुलाहों जैसे अनेक दस्तकारों की उपेक्षा ही नहीं की, बल्कि इनके विनाश की नीतियाँ भी अपनाईं। ताकि ब्रिटेन के मशीनीकृत तरीकों से तैयार वस्त्र और अन्य औद्योगिक वस्तुओं की बिक्री भारत में बढ़ सके। इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए उन्होंने भारतीय समाज में पहले से चली आ रही विषमताओं को और गहरा किया। भूमि और अन्य तरह के संसाधनों से वंचित कर्ज में डूबे हुए और कई बार तो बंधक मज़दूर की तरह काम करते हुए सबसे गरीब परिवारों को हमें अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए था। यहीं हमसे भूल हो गई। हम सबसे निर्धन परिवार तक नहीं पहुंच सके। यह सच है कि जमींदारी समाप्त करने का कानून जोर-शोर से बना, कुछ हद तक सामंती शोषण पर चोट भी की गई, पर विषमता की व्यवस्था में जो व्यापक बदलाव आना चाहिए था, वह नहीं आ सका।

मध्यम वर्ग के किसानों को उनके स्वतंत्र विकास की संभावनाएं बढ़ीं जिसका, उनमें से अनेक ने उचित लाभ भी उठाया। किंतु सबसे गरीब भूमिहीन या लगभग भूमिहीन वर्ग की स्थिति में विशेष सुधार नहीं हुआ। कुछ क्षेत्रों में तो आदिवासियों की भूमि बड़े पैमाने पर उनसे छिन गई। भूमि-सुधार के जो कानून बनाए गए उनको भी ठीक से लागू नहीं किया गया। दूसरी ओर जिन क्षेत्रों में हम अपनी समृद्ध परंपरा से वास्तव में कुछ सीख सकते थे वहां हमने इसकी उपेक्षा की। उदाहरण के लिए, कृषि तथा सिंचाई की तकनीक में स्थानीय भौगोलिक परिस्थितियों और जलवायु के अनुकूल कई शताब्दियों से किसानों तथा अन्य ग्रामवासियों ने धीरे-धीरे जो प्रगति की थी, जिसमें कितनी ही पीढ़ियों का ज्ञान संग्रहित था, उसकी ओर हमने पर्याप्त ध्यान नहीं दिया।हमने गाँवों के आर्थिक पिछड़ेपन को देखा और यहां की हर बात को पिछड़ी हुई मान लिया। यह हमारी बहुत बड़ी भूल थी। गांव के पिछड़ेपन और गरीबी का सबसे बड़ा कारण शोषण और विषमता की व्यवस्था थी। यदि इसे हम दूर करने पर ध्यान केंद्रित करते तो हमें साथ ही साथ गाँवों के किसानों-मज़दूरों-दस्तकारों, विशेषकर बुजुर्ग लोगों के पास संग्रहित बहुत सा जानकारी और ज्ञान को समझने का अवसर भी मिलता।

उन्नीसवीं शताब्दी में जैसे-जैसे ब्रिटिश शासन भारत के अधिकांश क्षेत्रों में फैलता गया वैसे-वैसे गाँवों की आर्थिक तबाही बढ़ती गई। इसके बावजूद उस समय के अनेक ब्रिटिश और अन्य यूरोपीय कृषि तथा सिंचाई विशेषज्ञों ने भी इस बात को नोट किया था कि जहां तक कृषि और सिंचाई की परंपरागत तकनीक का सवाल है वह बहुत उत्कृष्ट कोटि की है और भारतीय किसानों के तौर-तरीके बहुत समृद्ध हैं। हमारे गाँवों की परंपरागत तकनीकी में स्थानीय समस्याओं के व्यावहारिक समाधान की कुशलता थी। उदाहरण के लिए हमारे देश में वर्षा मुख्य रूप से मानसून के दो-तीन महीनों में केंद्रित है। अतः जल संरक्षण तथा संग्रहण की विशेष आवश्यकता है। ब्रिटेन में वर्ष भर कुछ न कुछ वर्षा होती रहती है और वह भी धीरे-धीरे। अतः वहां जल संग्रहण तथा संरक्षण की इतनी आवश्यकता नहीं है। वहां की स्थिति के आधार पर काम करने वाले विशेषज्ञों ने भारत के परंपरागत जल संग्रहण और संरक्षण के तौर-तरीकों की उपेक्षा की बात तो समझी जा सकती है पर आज़ादी के बाद हम स्वयं भी यही करते रहे यह विशेष दुख की बात है।

संक्षेप में कहें तो भारतीय गाँवों के संदर्भ में परंपरा के दो पक्ष हैं। एक पक्ष विषमता, अन्याय, अंध-विश्वास, छुआछूत आदि से संबंधित है जिसका जमकर विरोध होना चाहिए। पर परंपरा का एक दूसरा पक्ष भी है जो कई पीढ़ियों और शताब्दियों से किसानों, मज़दूरों, दस्तकारों, वैद्यों, तालाब बनाने वालों, जल-संग्रहण की व्यवस्था से जुड़े विशेष समुदायों, पशु-पालकों द्वारा संग्रहित ज्ञान से संबंधित है। यह ज्ञान प्रायः अलिखित रूप से ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पंहुचता रहा है। इस परंपरा द्वारा ही बहुत सी जैवविविधता बचाई गई है व बेहद विकट परिस्थितियों में जल संकट का सामना करने के उपाय खोजे गए हैं। अतः इन परंपराओं को बचाए रखना बहुत जरूरी है। परंपरा के जिन पक्षों से हमें सीखना था, उसकी हम आधुनिक आकर्षक तकनीक के प्रचार-प्रसार में उपेक्षा कर बैठे। अरबों रुपए के बड़े-बड़े बांध बना दिए लेकिन पहले से चले आ रहे तालाबों की ठीक मरम्मत तक हम नहीं कर सके। इसी के सहकार एवं संरक्षण की विधियों के प्रति तो सामूहिक ज़िम्मेदारी की भावना थी उसका भी ह्रास हुआ।

अभी भी बहुत देर नहीं हुई है और समय रहते हम अपनी ग़लतियों को सुधार सकें तो गाँवों की स्थिति में सुधार व गरीबी में कमी संभव है। इस हेतु ग़रीबों को उनका उचित हक दिलवाने के साथ ही साथ हमारी पारंपरिक जल एवं सिंचाई व्यवस्था को पुर्नजीवित करना होगा तथा जैवविविधता को बचाने के लिए वन विनाश को स्थायी रूप से प्रतिबंधित करना होगा।

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