गाँवों के विकास की कीमत पर बचेंगे शहर

देश में जहाँ 1971 में 3126 शहर थे वहीं 1981 में 4029 तथा 1991 में 4689 शहर बन गए। आज यह आँकड़ा 5000 को पार कर चुका है। 1901 में शहरों में 2.5 करोड़ लोग रहते थे यह संख्या आज लगभग 30 करोड़ हो गई है। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि हमारी शिक्षा प्रणाली में कमी है। वह गाँवों को अपने साथ नहीं जोड़ पाती। अगर शहर को बचाना है तो गाँवों का विकास करना होगा।गाँव से छोटे कस्बों और छोटे कस्बों से बड़े शहरों की ओर लोगों का लगातार पलायन हो रहा है। रोजगार और आजीविका की खोज में व्यक्ति जिस गति से शहर की ओर पलायन कर रहा है, वह अपने-अप में एक चिंता का विषय है। साल दर साल लाखों की संख्या में लोग ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। आदमी का स्वभाव है कि जिस क्षेत्र में जीवनयापन मुश्किल हो वहाँ से वह उस क्षेत्र में पलायन कर जाता है जहाँ जीवनयापन के अवसर ज्यादा हों। पलायन स्थाई भी होता है और अस्थाई भी। यह दूरी पर भी निर्भर करता है। पलायन अंतरराष्ट्रीय, अंतर्देशीय, होता है। गाँव से शहर की तरफ पलायन में ऊपरी तबका यानी पढ़े-लिखे एवं साधन संपन्न लोग ज्यादा हैं। इसके बाद वे लोग आते हैं जो गाँव में भी मजदूरी करके किसी तरह अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। संसाधनों पर बढ़ते दबावों ने इन लोगों के लिए रोजी-रोटी के अवसर भी कम किए हैं। इसलिए ये काम की तलाश में सपरिवार पलायन करते हैं। पलायन पर अनेक अध्ययन हुए हैं। जिनमें माना गया है कि पलायन के कुछ कारण कुदरती हैं तो कुछ सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा तकनीकी। तकनीकी रूप से दक्ष लोग भी और ज्यादा अवसरों की तलाश में पलायन करते हैं। ये लोग वाणिज्य केंद्रों व बड़े शहरों में बड़े उद्योगों के कारण जाते हैं।

कुछ समय पहले रोहतक जिले के गरनावठी गाँव पर पलायन को लेकर एक अध्ययन हुआ था। रोहतक शहर से 12 कि.मी. दूर इस गाँव से अध्ययन के दौरान चौकाने वाले आँकड़े सामने आए हैं। इस गाँव से लगभग 300 लोग रोजाना शहर की तरफ मजदूरी करने जाते हैं। इसके अलावा 200 के लगभग दुकान एवं रेहड़ी लगाते हैं। 100 के लगभग रोजाना रोहतक, झज्जर एवं दिल्ली जैसे शहरों में नौकरी करने जाते हैं। पिछले 5 साल में लगभग 20 लोग गाँव छोड़कर सपरिवार दिल्ली, रोहतक व झज्जर चले गए हैं।

इसी गाँव का जगदीश जब गाँव से चला तो अनेकों सपने लेकर चला था। शहर पहुँचते ही इन सपनों की मौत हो गई। अब वह गाँव नहीं लौटना चाहता। वह यहाँ मजदूरी करके अपना पेट पालना चाहता है। गाँव जाएगा तो बेइज्जती होगी, ताने सहने पड़ेंगे।

73 वर्षीय शांति आज इस गाँव में बिल्कुल अकेली रहती है। उसके सारे बेटे गाँव से पलायन करके दिल्ली में बस गए हैं। शांति बताती है कि अच्छा हुआ जो शहर में बस गए। अन्यथा गाँव में भूखे मरते। वह गाँव में इसलिए रहती हैं कि लड़कियाँ यहीं पर उससे मिलने आ जाती हैं। शांति बताती है कि मेरा बड़ा लड़का ओम प्रकाश कोई 25 साल पहले दिल्ली चला गया था। उसने अपने मामा की टाल पर काम किया। फिर उसके मामा ने उसकी एक दुकान करवा दी। बस उसी से मेहनत कर आज उसने काफी प्रोपर्टी बना ली है। उसने अपने छोटे भाइयों को भी एक-एक कर दिल्ली में कारोबार में लगा दिया। आज शांति कहती है कि गाँव छोड़ने को मन नहीं करता लेकिन अच्छा हुआ मेरे बेटे बाहर चले गए। गाँव के और कितने लोग हैं जो शहर में बस जाना चाहते हैं लेकिन उसके पास इस महंगाई के जमाने में जमीन का एक टुकड़ा खरीदने के लिए पैसे नहीं है। गाँव में जो पुश्तैनी जमीन है वह भी इस लायक नहीं कि परिवार का गुजारा चल सके।

गाँव का एक किसान जयपाल है जिसके पास 12 एकड़ जमीन है। वह भी भूखे मरने के कगार पर है। उसकी कुछ जमीन में सेम है तथा बाकी रेही (कल्लर) है। पाँच बच्चों के पिता जयपाल के लिए परिवार का खर्च चलाना भी मुश्किल हो रहा है।

इसी गाँव के धूप सिंह जो एक किसान है। 1964 में पुलिस में भर्ती हुए। लेकिन चार साल बाद ही बी.एस.एफ की नौकरी छोड़ दी। क्योंकि उसकी जमीन अच्छी थी और बढि़या जमींदारी थी। लेकिन आज जमीन उसके बेटों में बंट चुकी है। उसका मानना है कि मैंने नौकरी छोड़कर भारी भूल की। आज मैं यह सोचता हूँ कि गाँव में खेती, पशु चराने या मजदूरी करने के अलावा कोई काम नहीं है। न यहाँ शिक्षा है, न रोजगार के साधन। वह शहर जाना चाहते हैं। वह कहते हैं कि शहर का माहौल अच्छा हैं। वहाँ पर गाँव की तरह पार्टीबाजी नहीं होती। बच्चों को भी अच्छी शिक्षा दिलवाई जा सकती है। इस गाँव में 1400 एकड़ जमीन ऐसी है जिस पर खेती होती है। इसके अलावा 1400 एकड़ जमीन ऐसी है जो रेही, मारू व शामलाती है। इस पर खेती नहीं होती। यह मारू भूमि यदि खेती लायक बन जाए तो काफी हद तक लोगों को रोजगार मिल सकता है।

दूसरी ओर आतंकवाद के कारण भी बड़ी संख्या में आबादियों का पलायन हो रहा है। किसी समय आतंकवाद से पीड़ित रहे पंजाब से लाखों की संख्या में लोगों ने पलायन किया हैं। इसके अलावा पूर्वोत्तर राज्यों व जम्मू-कश्मीर से भी भारी संख्या में लोगों का पलायन हो रहा हैं। उधर बंगाल, उड़ीसा, बिहार, उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान से भारी संख्या में गरीब आबादी पलायन कर रही है। आज गाँवों से शहरों की तरह पलायन एक भयानक समस्या बन चुका है। साल दर साल लाखों की संख्या में लोग ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की तरफ भाग रहे हैं। इससे शहरों में आवास एवं रोजगार की एक विकट समस्या खड़ी हो गई है तथा शहरी व्यवस्था चरमरा रही है। अध्ययनों के अनुसार ज्यादातर पलायन कम दूरी पर होता है। बहुत दूर पलायन करने वाले कम संख्या में हैं। निम्न तालिका से यह स्पष्ट है :

शहर का नाम

दूरी (कि.मी. में)

पलायन करने वालों की संख्या (प्रतिवर्ष)

15

1000

बी

30

500

सी

45

350

डी

60

250

75

200

एफ

90

175

जी

105

150

 
आँकड़ों के अनुसार भारत के शहरों में 44 प्रतिशत परिवार 1 कमरे में गुजारा करते हैं और शौचालय की सुविधा सिर्फ 24 प्रतिशत आबादी को उलब्ध है। 60 प्रतिशत शहरों में रोज निकलने वाले कूड़े को ठिकाने लगाने की व्यवस्था नहीं है तथा यह यों ही गलियों में खुले में सड़ता है। अधिकतर शहरों में बरसात के पानी की भी समुचित निकासी नहीं है। प्रदूषण की समस्या सबसे ज्यादा शहरों में है और गरीब लोग इसकी चपेट में हैं। हमारे शहरों के अनियंत्रित विकास का कारण, कोई सुव्यवस्थित योजना नहीं होना है। शहरों में कुछ आबादी को तो नागरिक सुविधाएँ हैं लेकिन बाकी इससे वंचित है। क्योंकि सुविधाएँ उपलब्ध करवाने वाली एजेंसियाँ स्वतः होते विस्तार के साथ सुविधाओं का विस्तार करने में सक्षम नहीं हैं।

गाँव-जंगल उजाड़कर कारखाने लगाने या खनन करने और बड़े बाँधों सरीखी परियोजनाओं के कारण देश में हर साल लगभग 5 लाख लोग शहर आते हैं। गाँव उजड़ने का एक बड़ा कारण जमीन पर बढ़ता दबाव भी है। खेती के तौर-तरीके बदल रहे हैं और हाथ का काम छिन रहा है। लोग तेजी से भूमिहीन हो रहे हैं।देश में जहाँ 1971 में 3126 शहर थे वहीं 1981 में 4029 तथा 1991 में 4689 शहर बन गए। आज यह आँकड़ा 5000 को पार कर चुका है। एक सर्वे के अनुसार देश के लगभग 5000 शहरों में लगभग 1850 में नगर पालिका भी नहीं है। 1971-1991 के बीच 20 सालों में 1563 नए शहर बने तथा 1981-1991 के बीच में शहरी आबादी 36.19 प्रतिशत बढ़ी। जहाँ 1901 में शहरों में 2.5 करोड़ लोग रहते थे वहीं 1951 में यह संख्या 6.2 करोड़ थी। 1971 में यह संख्या बढ़कर 10.91 करोड़ हो गई जबकि 1991 में यह संख्या 21.71 करोड़ तथा आज लगभग 30 करोड़ हो गई है।

ग्रामीण क्षेत्रों के पलायन से जहाँ गाँव खाली हो रहे हैं और कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमरा रही है, वहीं शहरी ढाँचा भी चरमरा रहा है। सवाल उठता है कि यह पलायन क्यों हो रहा है तथा इसे कैसे रोका जा सकता है? हालांकि गाँव से पलायन के बाद वहाँ जो खालीपन पैदा होता है, उसे बिल्कुल पिछड़े इलाकों से आने वाले लोग भर देते हैं। जैसे हरियाणा एवं पंजाब में बिहार एवं उत्तर प्रदेश के मजदूर आ गए हैं। पहले पंजाब में खेती में ज्यादातर बिहारी मजदूर थे। लेकिन अब हरियाणा में भारी संख्या में बिहार व उत्तर प्रदेश से मजदूरों ने आकर गाँवों में खेती को संभाल लिया है तथा राज्य के पढ़े-लिखे लोग शहरों की तरफ भाग रहे हैं।

अर्थशास्त्रियों का मानना है कि हमारी शिक्षा प्रणाली में कमी है। वह गाँवों को अपने साथ नहीं जोड़ पाती। पढ़ने के बाद लगता है कि गाँवों का जीवन नीरस व उबाऊ है। पढ़ने-लिखने के बाद तो शहर में ही रहना होगा। ग्रामीणों को अपने बच्चों को पढ़ाना ही आफत बन गया है। पढ़ने के बाद वे पारिवारिक व्यवसायों में हाथ नहीं बंटाना चाहते। उन्हें वे सारे कार्य अपनी पोजीशन के खिलाफ लगते हैं। आज ग्रामीण अपने बच्चों को पढ़ाना तो चाहते हैं लेकिन ऐसी शिक्षा नहीं दिलाना चाहते जो उसमें अलगाव पैदा करे। उधर शहर में जाकर कोई भी व्यक्ति झोंपड़ी और गंदगी में नहीं रहना चाहता। लेकिन गरीबी और बुनियादी सुविधाएँ न होने के कारण वह यहाँ भी नारकीय जीवन जी रहा है। झुग्गियों में रहने वाले गरीब लोग बिजली, पानी एवं शौचालय जैसी मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित हैं। वे बहुत कम पैसे में अमीरों के यहाँ काम करते हैं। वैसे तो ये लोग जाहिल व गंवार हैं। इन्हें शहर में रहने की तमीज नहीं है। इन्होंने शहरों में भीड़ को बढ़ा दिया है लेकिन अमीरों को इनकी जरूरत भी है क्योंकि इनके बिना उनका गुजारा नहीं। यही हमारे शहरी विकास का रूप देखने को मिलता है। एक अनुमान के अनुसार आज लगभग दो-तिहाई आबादी शहरों में अविकसित कॉलोनियों व झोपड़पट्टियों में रहती है।

गाँव-जंगल उजाड़कर कारखाने लगाने या खनन करने और बड़े बाँधों सरीखी परियोजनाओं के कारण देश में हर साल लगभग 5 लाख लोग शहर आते हैं। गाँव उजड़ने का एक बड़ा कारण जमीन पर बढ़ता दबाव भी है। खेती के तौर-तरीके बदल रहे हैं और हाथ का काम छिन रहा है। लोग तेजी से भूमिहीन हो रहे हैं। अभिजात्य वर्ग के लोग इंकम टैक्स से बचने के लिए कृषि से आय दर्शाना चाहता है। इसलिए उसकी नजर खेतों की जमीन पर हैं। गाँव छोड़कर शहर आने वालों से बातचीन करने पर पता चलता है कि मूलभूत सुविधाओं की कमी, आर्थिक लड़ाई-झगड़ों के कारण वे श्हारों की तरफ भाग रहे हैं।

उधर नए पंचायती राज कानून बने और इसके तहत ग्राम पंचायतों को ज्यादा अधिकार दिए गए जिनमें ग्राम विकास कार्यों में लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करना भी एक था। इससे लगने लगा कि शहर की तरफ होने वाले पलायन पर कुछ अंकुश लगेगा। लेकिन यह उसी गति से जारी है। पंचायतें आज गुटबाजी का अखाड़ा बन गई हैं। जो पंचायते कुछ काम करना चाहती हैं उन्हें अधिकारी काम करने नहीं देते। गाँवों के लिए आवंटित धनराशि सरकारी बाबुओं की जेब में चली जाती है। गाँव तक आते-आते यह कई विभागों के अधिकारियों को संपन्न बना चुकी होती है। सवाल उठता है कि बापू का यह सपना कि असली भारत गाँवों में है, कहाँ गया? गाँवों में बने स्वास्थ्य केंद्रों पर कोई कर्मचारी जाना नहीं चाहता। इसलिए बीमारी होने पर ग्रामीणों को शहर आना पड़ता है। वे सोचते हैं कि जब हर काम के लिए शहर ही जाना पड़ता है तो क्यों न शहर में ही बस जाएँ। वहाँ कोई न कोई रोजगार तो मिल ही जाएगा।

अब सवाल उठता है कि गाँवों से होने वाले पलायन को रोका कैसे जाए? इसके लिए ग्राम पंचायतों को जागरुकता करना होगा। उन्हें और अधिकार देने होंगे। इस पलायन से जहाँ शहरों में रोजगार मुश्किल हुआ है वहीं आवास की समस्या भी विकराल रूप धारण कर रही है। आज जरूरत इस बात की है कि गाँव के समग्र विकास के लिए अधिकाधिक धनराशि प्रदान कर वहाँ के लघु एवं कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवित किया जाए। वहाँ जिस वस्तु का कच्चा उत्पादन अधिक मात्रा में होता हो वहाँ वैसे ही उद्योग छोटी मिलों व फैक्ट्रियों के रूप में विकसित किए जाएँ। गाँव के दर्जी, सुनार, जुलाहे, मोची, बढ़ई, लुहार, तेली, कुम्हार एवं खाती को उनके पुश्तैनी धंधों को पुनर्जीवित करने के लिए आधुनिकतम प्रशिक्षण के साथ-साथ आर्थिक मदद के साथ सरकार जब तक उनका माल बेचने के लिए बाजार सुनिश्चित नहीं करेगी तब तक स्थिति ऐसी ही रहेगी। ऐसा हुआ तो उनके बच्चे भी अपने पुश्तैनी धंधों से जुड़े रह सकेंगे। इससे रोजगार की तलाश में शहर की तरफ शुरू हुई दौड़ पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकेगा। इस कार्य में स्वयंसेवी संस्थाएँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।

साथ ही ग्रामीण विकास योजनाओं पर खर्च किया जाने वाला धन सीधे स्थानीय पंचायतों को मिलना चाहिए। इस पैसे को वे अपनी जरूरतों व परिस्थितियों के अनुसार खर्च कर हर व्यक्ति को काम उपलब्ध कराने के लिए भी जिम्मेवार बनें। युवा वर्ग को परंपरागत उद्यमों के साथ-साथ कृषि आधारित उद्योगों के लिए प्रोत्साहित करना भी जरूरी है। इससे गाँवों में कुटीर उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा। गाँव में परंपरागत उद्योगों की तरफ ध्यान देना भी बहुत आवश्यक है क्योंकि आधुनिकीकरण के कारण ये उद्योग खत्म हो रहे हैं। आज इन उद्योगों को फिर से जीवित करने की जरूरत है। ग्रामीण कारीगरों की कुशलता का आज कोई उपयोग नहीं हो पा रहा है। वहाँ ऐसे अनेक उद्योग स्थापित किए जा सकते हैं जिनमें पूंजी कम लगती है और श्रम ज्यादा। लेकिन इन पारंपरिक उद्योगों के लिए बाजार सरकार को सुनिश्चित करना होगा अन्यथा आर्थिक उदारीकरण के वर्तमान दौर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सामने इनके माल का कोई खरीदार नहीं होगा।

दूसरी ओर शहरों के साथ गाँवों का समुचित विकास भी होना चाहिए। अगर शहरों को बचाना है तो गाँवों का विकास करना होगा। अन्यथा आने वाले समय में शहरों की क्या स्थिति होगी, इसका अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार पलायन की यही गति रही तो आने वाले कुछ ही वर्षों में गांठ खाली हो जाएँगे तथा शहरों की स्थिति भयानक होगी।

(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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