शहरी जिन्दगी के अन्धानुकरण से गाँवों के पर्यावरण में प्रदूषण की एक और बड़ी वजह बनी है प्लास्टिक। चूँकि प्लास्टिक के थैले, प्लास्टिक की पैकिंग शहरी चकाचौंध के प्रतीक की तरह गाँवों तक पहुँचे इसलिये उसका अन्धानुकरण होना ही था। हालाँकि आज शहर प्लास्टिक से त्राहि-त्राहि कर रहे हैं लेकिन तमाम कानूनी और प्रशासनिक सख्ती के बावजूद इससे पीछा नहीं छूट रहा। गाँवों का भी यही हाल है। शहरों से ज्यादा प्लास्टिक का प्रदूषण गाँवों में फैल रहा है।
एक जमाना था जब शहर के लोग हवा-पानी बदलने के लिये गाँव का रुख करते थे। क्योंकि तब शहर के दमघोंटू वातावरण के मुकाबले गाँवों का पर्यावरण स्वच्छ और ताजगी भरा था, लेकिन अब ऐसे गाँव सिर्फ सुनहरी कल्पनाओं में ही हैं। अब ऐसे गाँव वास्तविकता में नहीं बचे, जहाँ शहर के बीमार पर्यावरण से कोई जाए और स्वस्थ होकर लौटे। क्योंकि शहरों की तरह ही हाल के सालों में गाँवों का पर्यावरण भी बहुत बिगड़ा है। अब गाँवों के पर्यावरण में भी प्रदूषण का शिकंजा कस चुका है। सिर्फ पानी और हवा ही नहीं मिट्टी और फसलें भी तेजी से प्रदूषण का शिकार होती जा रही हैं।दरअसल, गाँवों के प्रदूषण के लिये शासन और प्रशासन दोनों ही जिम्मेदार हैं। दोनों की उपेक्षा से ही गाँव बीमार हो गए हैं। आजादी के बाद से अब तक जितनी भी विकास योजनाएँ बनी हैं उनमें गाँवों को शहरों के लिये कच्चे माल के भंडार के नजरिए से ही सोचा गया है। गाँवों के संसाधनों से शहरों के विकास की कल्पना की गई है, लेकिन कभी शहरों की अर्जित पूँजी से लक्जरी गाँवों की कल्पना नहीं की गई। उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि हमारे यहाँ जिसकी भी जरा सी बेहतर स्थिति हुई वह पहली फुर्सत में गाँव से शहर बसने का फैसला करता है। आज तक ऐसा नहीं हुआ कि गाँवों से कोई शख्स निकलकर कामयाब हो गया हो और कामयाब होने के बाद वह फिर गाँव जाकर बस गया हो। गया भी है, तो रिटायर होने के बाद। सारी उर्वर उम्र शहरों के विकास में लगाकर सिर्फ वहाँ मरने के लिये या गाँव पर बुढ़ापे का बोझ बनने। फिर चाहे वह कोई नौकरशाह हो, नेता हो, बिजनेसमैन हो, लेखक हो, कलाकार हो या कोई भी हो।
गाँवों का पर्यावरण इसलिये भी बिगड़ा क्योंकि जब-जब देश के विकास की योजनाएँ बनीं उसमें गाँवों की जिन्दगी, जीवनशैली, रहन-सहन तथा जीविकोपार्जन की गतिविधियों को महत्त्व ही नहीं दिया गया। न केवल विकास का ब्लूप्रिंट अभी तक शहर केन्द्रित रहा है अपितु गाँवों की जीवनशैली को हमेशा पिछड़ी और भदेस मानने की हमेशा से हमने गर्वभरी भूल की है। यही कारण है कि गाँव के लोगों ने शहरों की जीवनशैली का अन्धाधुन्ध अनुकरण किया है जिसका नतीजा यह निकला कि शहर पर्यावरण विनाश की जिन परिस्थितियों का शिकार हुए, थोड़ी रफ्तार जरूर धीरे रही, मगर आज गाँव भी उन्हीं का शिकार हो चुके हैं। उदाहरण के लिये शहरी जीवन की ललक के कारण और उसकी नकल के चलते गाँवों ने तालाबों की उपेक्षा की, एक तरह से उनसे मुक्ति में लग गए। जबकि एक जमाने में गंवई जीवनशैली में तालाबों, पोखरों आदि का बहुत महत्त्व था।
उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे तमाम राज्यों में तो सैकड़ों की तादाद में ऐसे तालाब थे, जहाँ का पानी लोग पीने में इस्तेमाल करते थे। नहाने-धोने और जानवरों के पीने में तो इन तालाबों का पानी इस्तेमाल होता ही था। जब तालाबों की गाँव के जीवन में इतनी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी, तो गाँव के लोग भी तालाबों के प्रति संवेदनशील थे। बरसात आते ही गाँव के लोग सामूहिक रूप से तालाबों की मरम्मत करते थे, बरसात के मौसम के बाद उसके खरपतवार की नियमित रूप से सफाई करते थे। लेकिन विकास और आधुनिकता के नाम पर गाँवों में जब से पानी की टंकियाँ बना दी गई हैं, तब से तालाबों और पोखरों की बेहद बेकद्री हो गई है। नतीजा यह निकला आज की तारीख में गाँवों में मौजूद ज्यादातर तालाब कूड़े-कचरे, काई, खर-पतवार और गन्दगी कीचड़ से अटे पड़े हैं। उनका पानी पीना तो छोड़िए नहाने-धोने या जानवरों के पीने लायक भी नहीं बचा। सच बात तो यह है कि ज्यादातर तालाबों के पानी से भयानक बदबू आती है उसके आस-पास रहना तक मुश्किल हो जाता है। वास्तव में यह उस जीवनशैली की बेकद्री, उसको हेयदृष्टि से देखने का नतीजा है, जो पर्यावरण के अनुकूल थी।
शहरी जिन्दगी के अन्धानुकरण से गाँवों के पर्यावरण में प्रदूषण की एक और बड़ी वजह बनी है प्लास्टिक। चूँकि प्लास्टिक के थैले, प्लास्टिक की पैकिंग शहरी चकाचौंध के प्रतीक की तरह गाँवों तक पहुँचे इसलिये उसका अन्धानुकरण होना ही था। हालाँकि आज शहर प्लास्टिक से त्राहि-त्राहि कर रहे हैं लेकिन तमाम कानूनी और प्रशासनिक सख्ती के बावजूद इससे पीछा नहीं छूट रहा। गाँवों का भी यही हाल है। शहरों से ज्यादा प्लास्टिक का प्रदूषण गाँवों में फैल रहा है। खेतों से ज्यादा-से-ज्यादा पैदावार हासिल करने के लिये रसायनों का अधिकाधिक उपयोग मिट्टी ही नहीं फसलों को भी जहरीला बना रहा है। कम पड़ती खेती की जमीन के लिये पेड़ों, जंगलों की कटाई की प्रवृत्ति भी कुछ ऐसी बातें हैं जिनके कारण गाँव भी उसी तरह पर्यावरण प्रदूषण के शिकार हो गए हैं, जैसे कि शहर हैं। शायद यही वजह है कि अब गाँवों में बीमार होने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है, साथ ही शहर से लोग हवा-पानी बदलने के लिये गाँवों की तरफ रुख नहीं कर रहे।
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