पंचायत राज दिवस यानि 24 अप्रैल 2016 को ‘ग्रामोदय से भारत उदय अभियान’ का नारा दिया गया। झारखण्ड के जमशेदपुर के जेआरडी टाटा स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में अपने सम्बोधन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गाँव पंचायतों को खुद अपनी योजना बनाने और लागू करने को ललकारा। पीएम ने दिल्ली की संसद से बड़ी गाँव की ग्रामसभा को बताते हुए कहा कि अब गाँवों के लिये अलग बजट आता है इसलिये गाँवों के लिये पैसों की कमी नहीं है।
केन्द्र सरकार की ‘ग्रामोदय से भारत उदय’ अभियान के तहत संकल्पना है कि केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के साथ ही ‘गाँव सरकार’ का चेहरा सबको दिखने लगे यानि उनके अधिकार को और स्पष्ट किया जाये। जिससे गाँव सरकार अपने निर्णय खुद करने लगें।
उत्तर प्रदेश ही नहीं बुन्देलखण्ड के प्रत्येक ग्राम पंचायत में आने वाले पाॅंच वर्षों में ग्राम पंचायत विकास योजना बनाये जाने का प्रावधान भारत सरकार एवं राज्य सरकार के संयुक्त प्रयास से किया जा रहा है। उसके लिये भारत सरकार व केन्द्र सरकार दोनों के वित्त आयोग की सिफारिश के अनुसार एक निश्चित धनराशि ग्राम पंचायतों को सीधे हस्तान्तरित की जा रही है।
बुन्देलखण्ड के लगभग सभी पंचायतों में दिसम्बर 2015 में 14वें वित्त आयोग के संस्तुतियों के आधार पर पैसा पहुँच चुका है। यह पैसा गाँवों को अपनी योजना बनाने और लागू करने के लिये दिया गया है। अब हर ग्रामसभा को अपनी योजना खुद बनानी है। इसके लिये हरेक गाँव सरकार के खाते में न्यूनतम 12 लाख से लेकर 80 लाख रुपये तक की राशि पहुँच चुकी है।
बुन्देलखण्ड के सभी गाँवों में ही यह पैसा खाते में आ चुका है। बुन्देलखण्ड की पंचायतों के खाते में आये हुआ पैसा कि अभी कोई प्रभावी प्लान दिखाई नहीं पड़ा रहा है। ‘तीसरी सरकार’ अभियान के संयोजक चन्द्रशेखर प्राण कहते हैं कि 14वें वित्त आयोग के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश की ग्राम पंचायतों को वर्ष 2015-16 से 2019-2020 तक रुपये 35,775 करोड़ से भी अधिक धनराशि हस्तान्तरित की जा रही है। ऐसे में यह निहायत जरूरी हो जाता है कि पंचायतें सशक्त बनें और अपनी जरूरतों के अनुसार योजनाएँ बनाएँ।
पर जमीनी सच्चाई यही है कि गाँव सरकार को आया पैसा मात्र 10 से 30 प्रतिशत ही खर्च हुआ है। एक तरफ 14वें वित्त आयोग का पैसा पड़ा हुआ है, दूसरी तरफ बुन्देलखण्ड के गाँवों में पलायन भयानक रूप से जारी है। गाँव के गाँव खाली होते जा रहे हैं। गाँवों में पीने का पानी नहीं है। गाँव के लोग अपने जानवरों को छोड़ रहे हैं। करीब 2 साल पहले की एक रिपोर्ट के आँकड़े के अनुसार पलायन का दंश सुरसा की तरह विकराल होता जा रहा है।
गाँव सरकार को 14वें वित्त आयोग और चौथे राज्य वित्त आयोग से भारी भरकम धनराशि देने का मकसद यही है कि गाँव के लोग अपनी अपनी समस्याओं को अपनी जरूरतों के अनुसार प्लानिंग बना कर समाधान करें। इसके लिये हरेक गाँव में पंचायत सदस्यों और प्रधान को गाँव की बेहतर प्लानिंग के लिये एक विशेषज्ञ समिति और एक प्लानिंग समिति बनानी है। विशेषज्ञ समिति का मुख्य काम है कि वार्डवार बैठकें कर लोगों की समस्याओं की पहचान करे और पहचान के बाद प्राथमिकता सूची बनाये।
2 साल पुरानी केन्द्र सरकार में जमा की गई एक रिपोर्ट बताती है कि बुन्देलखण्ड के जिलों में बाँदा से लगभग 7 लाख 37 हजार 920 ,चित्रकूट से 3 लाख 44 हजार 801,महोबा से 2 लाख 97 हजार 547, हमीरपुर से 4 लाख 17 हजार 489 ,उरई (जालौन) से 5 लाख 38 हजार 147, झांसी से 5 लाख 58 हजार 377 व् ललितपुर से 3 लाख 81 हजार 316 लोग पलायन कर चुके हैं यानी लगभग 30 लाख लोग उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड से पलायन कर चुके हैं।
वहीँ मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड का हाल भी वैसा ही है। मध्य प्रदेश के हिस्से वाले बुन्देलखण्ड में टीकमगढ़ से 5 लाख 89 हजार 371 ,छतरपुर से 7 लाख 66 हजार 809,सागर से 8 लाख 49 हजार 148 ,दतिया से 2 लाख 901,पन्ना से 2 लाख 56 हजार 270 और दतिया से 2 लाख 70 हजार 277 किसान और मजदूर रोजी-रोटी की तलाश में पलायन कर चुके हैं।
परिवारों से सामान्यतः युवा और वयस्क सदस्य पलायन करते हैं, बुन्देलखण्ड के सभी रेलवे स्टेशनों पर पलायन करने वाले, गाँव छोड़कर जाने वाले लोगों की भारी भीड़ देखी जा सकती है। बुन्देलखण्ड के बाहर जा रहे लोग अपने साथ एक बड़ी गठरी जरूर लिये रहते हैं, पूछने पर बताते हैं कि 10-15 दिनों के खाने-पीने का चना-चबेना बाँधकर ले जा रहे हैं।
ऐसा इस असमंजस में करते हैं कि जल्दी तो काम मिल नहीं जायेगा। मोटी गठरी लादकर वे ट्रेनों से निकलते हैं, कभी-कभी तो शहरों में बैठे हुए कोई रिश्तेदार या नातेदार इनका सहारा बनाते हैं। पर ज्यादातर इनकी यात्रा बेसहारा ही होती है। जहाँ यह जा रहे होते हैं, वहाँ पर कोई उनको सहारा देने वाला नहीं होता है। सडकों के किनारे, स्टेशन के बाहर, फ्लाईओवर पुलों के नीचे इनका ठिकाना बनता है।
ऐसे में ये ‘बेसहारा रिफ्यूजी’ माफियाओं का आसान चारा बनते हैं। ठेकेदार, लेबर माफिया इनके श्रम का दुरुपयोग, श्रम का उचित मूल्य देने में आनाकानी करते है। और आधे-अधूरे पैसे देकर मारपीट करते हैं।
परिवार से युवा और वयस्क सदस्यों के पलायन के बाद ज्यादातर घरों में बूढ़े माँ-बाप और बच्चे-बच्चियाँ और बहुएँ घर पर रह जाती हैं। परिवार के बूढ़े सदस्यों के पास बच्चों के परवरिश का जिम्मा आ जाता है। उम्र के अन्तिम पड़ाव में जब इन्हें खुद ही सहारे की जरूरत पड़ती है ऐसे में बच्चों की देखरेख का जिम्मा सम्भाल रहे हैं।
गाँव सरकार को 14वें वित्त आयोग और चौथे राज्य वित्त आयोग से भारी भरकम धनराशि देने का मकसद यही है कि गाँव के लोग अपनी अपनी समस्याओं को अपनी जरूरतों के अनुसार प्लानिंग बना कर समाधान करें। इसके लिये हरेक गाँव में पंचायत सदस्यों और प्रधान को गाँव की बेहतर प्लानिंग के लिये एक विशेषज्ञ समिति और एक प्लानिंग समिति बनानी है। विशेषज्ञ समिति का मुख्य काम है कि वार्डवार बैठकें कर लोगों की समस्याओं की पहचान करे और पहचान के बाद प्राथमिकता सूची बनाये। प्राथमिकता के काम तय हो जाने के बाद समस्याओं के निवारण का काम शुरू करें।
‘तीसरी सरकार’ अभियान के संयोजक चन्द्र शेखर प्राण कहते है कि बुन्देलखण्ड ही नहीं उत्तर प्रदेश के किसी भी हिस्से में वित्त आयोग कि राशि का समुचित उपयोग नहीं हो पा रहा है और इससे भी बुरी बात यह है कि गाँव में विशेषज्ञ समितियाँ ही नहीं बन पाई हैं।
गाँव कोष में आये पैसे का उपयोग पलायन को रोकने पेयजल की व्यवस्था, भूजल पुनर्भरण, पुराने तालाबों की उड़ाही में कर सकती थीं। पर पंचायतें अपना काम छोड़ कर राहत पैकज और पैकेट के इंतज़ार में मुंह ताक रही है। बाँदा के डीएम योगेश कुमार ने पत्र लिख कर गाँव पंचायतों को 14वें वित्त आयोग से प्राप्त राशि का सूखे में उपयोग करने को कहा है।
पुरे बुन्देलखण्ड में ब्लेम-गेम का खेल जोरों पर है। राज्य सरकार सूखा राहत के नाम पर केन्द्र के पास दो हज़ार करोड़ रूपए से ज्यादा का माँगपत्र भेज चुकी है। पर जो पैसा गाँव पंचायतों के पास पहुँच चुका है, उसके उपयोग को लेकर गम्भीर नहीं है।
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