गांधीः अकथनीय सत्य का ताप भाग-2

गांधीःअकथनीय सत्य का ताप भाग-2
गांधीःअकथनीय सत्य का ताप भाग-2

सावरकर और उनके साथियों के निशाने पर गांधीजी तो वर्षों से थे पर ऐसा मौका तो अभी ही बना था! विभाजन ! वे अब गांधीजी के सिर पर विभाजन का ठीकरा फोड़कर, उनकी हत्या को और अपने हिंदू राष्ट्रवाद को जायज ठहरा सकते थे। इस हत्या के लिए सावरकर के दो मुख्य मोहरे, नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे तैयार थे। गोडसे अब पुणे से छपने वाले उनके मुखपत्र ‘अग्रणी’ का संपादक था, जिसका नाम बाद में बदल कर ‘हिंदू राष्ट्र’ कर दिया गया। आप्टे उसका प्रकाशक था। यह पत्र सावरकर के उग्र हिंदुत्व पर एक भाषण दिया जिसका ऐसा एक नोट मिला। लिखा थाः

नेताः सावरकर

नीतिः नेता का कहा मानना

नेतृत्व का मतलबः नेता से अटूट सम्बन्ध तथा ऊपर से दिए गए आदेशों का शब्दशः पालन

हत्या की तैयारी

गोडसे और आप्टे ने गांधीजी की हत्या के लिए हथियारों का प्रबंध उनके दिल्ली उपवास की घोषणा के पहले ही कर लिया था। 10 जनवरी को ही हथियारों के व्यापारी दिगंबर बडगे को एक सूची दे दी गई थी जिसमें बडगे को जरूरी फिस्फोटक, रिवॉल्वर और हथगोले हिंदू महासभा की मुम्बई ऑफिस में 14 जनवरी तक पहुंचाने का निर्देश और आशीर्वाद दे रहे थे। जब गोडसे और आप्टे ने 12 जनवरी को गांधीजी के उपवास की खबर सुनी तो उन्होंने महात्मा की हत्या की तारीख 20 जनवरी तय की। अपने आखिरी उपवास के पहले दिन 13जनवरी, 1948 को गांधीजी ने कहा कि मैं यह उपवास तभी खत्म करुंगा जब दिल्ली में सम्पूर्ण शांति बहाल हो जाएगी। दिल्ली अगर शांत होगी तो उसका असर सारे देश पर भी और पाकिस्तान पर भी पड़ेगा। जब ऐसा होगा तब कहीं एक मुसलमान इस शहर में निर्भयता से चल सकेगा।

जब बिरला भवन में गांधीजी का उपवास चल रहा था, वहां से निकट ही स्वतंत्र भारत का मंत्रिमंडल एक गहरे विवादास्पद मुद्दे पर बहस कर रहा था। मुद्दा था 55 करोड़ रुपयों का, जो भारत पर पाकिस्तान का बकाया था। कश्मीर-विवाद की वजह से भारत ने वे पैसे रोक लिए थे। कैबिनेट के सदस्यों को पता था कि गांधीजी इस तरह पैसे रोकने से दुखी थे। दूसरी तरफ उनकी उलझन यह थी कि वे पाकिस्तान को अपने ही खिलाफ इस्तेमाल के लिए पैसे कैसे दे दें? एक तरफ यह उलझन और दूसरी तरफ गांधीजी का हिंदू-मुसलमान एकता के लिए चल रहा आमरण उपवास सबके लिए मानसिक और राजनीतिक चुनौती बना हुआ था।

उपवास के दूसरे दिन 14 जनवरी को गोडसे और आप्टे पुणे से निकलकर मुम्बई की हिंदू महासभा की ऑफिस में पहुंचे। यहां वे बडगे और उसके नौकर शंकर से मिले। बडगे के पास खाकी रंग का एक बड़ा-सा थैला था जिसमें वे सारे हथियार रखे थे जिसकी सूची बडगे को दी गई थी। हिंदू महासभा की ऑफिस से निकलकर बडगे, आप्टे और गोडसे सावरकर के घर पहुंचे। बडगे दरवाजे के बाहर ही रुक गया। आप्टे और गोडसे हथियारों से भरा थैला लेकर भीतर चले गए। अगले दिन आप्टे ने बडगे को बताया कि सावरकर ने तय किया है कि जवाहरलाल, गांधीजी और सुहरावर्दी, तीनों को खत्म कर देना है; और यह काम हमें सौंपा गया है। पूरी योजना का खुलासा तब हुआ जब गोडसे ने अपनी गिरफ्तारी के बाद, नेहरू की सुरक्षा के प्रमुख अधिकारी जी.के.हंडू के समक्ष स्वीकार किया कि हमने सोचा था कि विस्थापित हिंदुओं, सिखों की आहत भावनाओं को गांधीजी के विरोध में भड़का कर, देश में उन्माद का माहौल खड़ा किया जाएगा। उसी अंधाधुंधी में सावरकर के मुसलमान विरोधी संगठन आर.एस.एस. और हिंदू महासभा के लोग कांग्रेस के इन दो सबसे बड़े नेताओं की हत्या कर, इन्हें रास्ते से हटा देंगे और फिर जो अफरातफरी मचेगी उसकी आड़ में वे लोग सत्ता पर कब्जा कर लेंगे। इसी भावना और योजना की गूंज उस दिन बिरला भवन में सुनाई दी थी, जब विस्थापितों की एक टोली ने वहां पहुंचकर नारे लगाए थेः खून के बदले खून, हमें बदला चाहिए, गांधीजी को मरने दो आदि। ये नारे गांधीजी के कानों तक भी पहुंचे। वे दुखी तो हुए पर अपने विश्वास से डिगे नहीं।

एक नया मीर आलम

ये सुहरावर्दी कौन थे? कहानी थोड़ी लम्बी है। फिर भी इतना तो कह ही सकते हैं कि जिस तरह दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी को वह पठान मीर आलम मिला था जिसने पहले उनकी हत्या का प्रयास किया और बाद में उनका पक्का संरक्षक बन गया, वैसा ही एक मीर आलम गांधीजी को पश्चिम बंगाल में मिला जिसका नाम शहीद सुहरावर्दी था। मुस्लिम लीग के सुहरावर्दी 1946-47 में संयुक्त बंगाल के ‘प्रीमियर’ हुआ करते थे। कोलकाता में हुई भंयकर सांप्रदायिक खूरेजी में सुहरावर्दी ने अपने ओहदे का पूरा इस्तेमाल कर हत्या-लूट-आगजनी की खुली छूट दे दी थी। उनका पूरा प्रशासन इसमें हिस्सेदार था। जिन्ना ने जिस ‘सीदी कार्रवाई’ का आह्वान किया था, उसका सबसे वीभत्स रूप कोलकाता में फूटा था जिसमें चार अभागे दिनों में, मुसलमानों ने, और जवाबी हमलों में हिंदुओं ने मिलकर 4 हजार लोगों का कत्ल किया था और 11 हजार बुरी तरह घायल हुए थे। गांधीजी ने कोलकाता में, और फिर नोआखाली में ऐसे सुहरावर्दी को अपने साथ ले लिया और शांति के प्रयासों में अपने साथ उन्हें भी झोंक दिया। यह गांधीजी का हृदय परिवर्तन का प्रयोग था। सुहरावर्दी ने भी अपने किए का पश्चाताप महसूस किया और खुद को गांधीजी को सौंप दिया।

कोलकाता कत्लेआम के बाद जब सुहरावर्दी से गांधीजी का पहला सामना हुआ, तो गांधीजी ने उनसे सीधा ही पूछा, ‘शहीद साहब, ऐसा क्यों है कि यहां हर कोई आपको गुंडों का सरदार कहता है?’

सुहारवर्दी ने बेशर्मी से जवाब दिया, ‘महात्माजी, आपके पीठ पीछे लोग आपको भी क्या नहीं कहते हैं।’

फीकी हंसी के साथ गांधीजी बोले, ‘हो सकता है...फिर भी कुछ लोग तो हैं कि जो मुझे महात्मा भी कहते हैं! लेकिन मुझे यहां एक आदमी भी नहीं मिला कि जो शहरीद सुहरावर्दी को महात्मा कहता हो!’ यहां से गांधीजी ने सुहरावर्दी को अपने साथ जोड़ा और परिवर्तन के हवन कुंड में डाल दिया। लेकिन सावरकर ने सुहारवर्दी की इस नई भूमिका को न कभी पहचानने की कोशिश की और न उसे कबूल ही किया। हृदय-परिवर्तन के शास्त्र का यह पन्ना उनकी किताब में तो था ही नहीं ! इसलिए गांधीजी और नेहरू के साथ उनका नाम भी हिंदुत्ववादियों द्वारा हत्या की सूची में दर्ज हुआ।

गांधीजी की हत्या के बाद सुहरावर्दी ने पाकिस्तान में लोकतंत्र के समर्थन की मुहिम छेड़ी और उसका नेतृत्व किया। 1956 में वे पाकिस्तानी संसद के सदस्य भी बने और विपक्ष के नेता भी। पाकिस्तान का लोकतांत्रिक संविधान बनाने में उनकी अच्छी भूमिका रही और 1956 के सितम्बर से 1957 के दिसम्बर तक वे पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहे। उनके प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद पाकिस्तान फौजी तानाशाही की भेंट चढ़ा। 1958 में फील्ड मार्शल अय्यूब खान ने सत्ता पर कब्जा कर लिया। सुहरावर्दी ने इस फौजी तानाशाही के खिलाफ आवाज उठाई और प्रताड़ित भी हुए। तानाशाही ने उन्हें राजनीति में हिस्सेदारी के अयोग्य घोषित कर दिया और 1962 में जेल में डाल दिया। जेल से रिहा होते ही सुहरावर्दी ने फिर से 1956 के संविधान की पैरवी शुरू कर दी और लोकतंत्र की वापसी की मुहिम छेड़ दी। आंदोलन जड़ भी पकड़ने लगा कि तभी 5 दिसम्बर, 1963 को बेरुत के होटल के अपने कमरे में सुहरावर्दी मरे पाए गए- कहते हैं कि या तो उन्हें जहर दिया गया था या फिर उनके कमरे में जहरीली गैस छोड़ी गई थी। कोई खोजे तो एक क्रूर, सांप्रदायिक राजनीतिज्ञ के इस अंत में गांधीजी की क्षीण धारा भी खोज सकता है।

निहत्था सैनिक

उपवास के तीसरे दिन डॉक्टरों ने कहा कि गांधीजी की किडनियां जवाब दे रही हैं। अब तक वे इतने कमजोर हो गए थे कि बिस्तर से उठ पाना सम्भव नहीं हो पा रहा था, सो बिस्तर के पास ही माइक लगाकर , गांधीजी ने अपनी बात कहीः यह सच है कि मुसलमानों पर यहां जो अत्याचार हो रहा है, मैं उसके विरोध में उपवास पर हूं। यह जितना सच है उतना ही सच यह भी है कि मेरा उपवास पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों पर हो रहे अत्याचारों के विरोध में भी है उन्होंने कहा कि उनका उपवास ‘हम सबकी आत्मशुद्धि के लिए है।’ उसी दिन भारत सरकार ने घोषणा कर दी की उसने पाकिस्तान का जो 55 करोड़ रुपया बकाया रोक रखा था, उसे वह पाकिस्तान को दे दे रही है। गांधीजी ने सरकार के इस निर्णय पर संतोष प्रकट किया और कहा कि इससे दोनों के बीच के रिश्ते सुधरेंगे और कश्मीर समस्या का भी समाधान निकलेगा। लेकिन ऐसा कहने और सरकार द्वारा बकाया वापस कर देने के बाद भी उन्होंने अपना उपवास नहीं छोड़ा। सावरकर और उनकी टोली का दुष्प्रचार यह था कि गांधीजी का उपवास पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिलवाने के लिए है। यह दुष्प्रचार एकदम झूठा साबित हुआ। जो उपवास पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिलवाने के लिए था ही नहीं वह 55 करोड़ देने से छूटता कैसे!

16 जनवरी को गांधीजी की हालत और खराब हुई। वे पानी नहीं पी रहे थे, सो पेशाब नहीं हो रहा था। जहर फैल रहा था। लोगों ने पूछा कि उन्हें किस बातसे संतोष होगा कि वे उपवास खत्म करेंगे? प्यारेलाल बताते हैं कि तभी एक टेलीग्राम पाकिस्तान से आया। यह उन मुसलमानों का टेलीग्राम था जिन्हें दंगों की वजह से दिल्ली छोड़नी पड़ी थी। उन्होंने टेलीग्राम से गांधीजी से पूछा था कि क्या वे वापस अपने घरों को लौट सकते हैं? गांधीजी ने टेलीग्राम पढ़कर कहाः यह हो जाए तो मुझे संतोष होगा! अब तुम सबकी परीक्षा है। प्यारेलाल ने उस टेलीग्राम की बात सभी सिखों, हिंदू शरणर्थियों के शिविरों तक पहुंचा दी। रात होते-न-होते 1000 लोगों ने लिखित वचन दे दिया कि वे मुसलमानों को उनके घर और उनकी मस्जिदें लौटाएंगे। उपवास से समाज में करुणा की एक लहर दौड़ पड़ी। जो कल तक दुश्मन से थे, आज एक-दूसरे की तरफ सहानुभूति का हाथ बढ़ा रहे थे। तस्वीर बदल रही थी।

बदलती तस्वीर पर मुम्बई में भी नजर रखी जा रही थी। बडगे, आप्टे और गोडसे, तीनों फिर से सावरकर के घर गए। गोडसे ने बाद में बताया कि वे लोग ‘उनका आखिरी आशीर्वाद’ लेने गए थे। बडगे ने अदालत में यही कहा। उसने कहा कि उनको विदा करते हुए सावरकर ने कहाः ‘विजयी होकर लौटो!’लौटेते हुए टैक्सी में गोडसे ने बडसे से कहाः ‘सावरकर ने महें लक्ष्य दिया है कि गांधीजी के 100 साल पूरे नहीं होने चाहिए! मुझे कोई शंका नहीं कि हम उनका कहा पूरा करेंगे।’ (पाठक याद रखे कि गांधीजी 125 साल जीना चाहते थे!)। इस सारे खेल में पाकिस्तान से रिफ्यूजी बनकर आया आतंकी मदनलाल पाहवा भी एक बढ़िया प्यादा था। हिंदू महासभा के संयोजक और सावरकर के शिष्य विष्णु करकरे ने मदनलाल पाहवा को हिंदू महासभा का सदस्य बनाया था। करकरे, आप्टे और गोडसे सावरकर के खास प्यादे थे; पाहवा, बडगे बलि के बकरे थे। पाहवा की विस्फोटकों का इस्तेमाल करना आता था। वह रिफ्यूजी था। इसलिए उसके आगे-पीछे का इतिहास किसी को ज्ञात नहीं था। बडगे हथियारों की कालाबाजारी का धंधा करता था। इसलिए सावरकर ने इन दोनों का बलिदान करने की ठानी थी।

18 जनवरी को दिल्ली का नजारा बदला हुआ था। कोई एक मील लम्बा वह शांति जुलूस था जो बिरला भवन पहुंचा था। इसमें लगभग एक लाख लोग शामिल थे। हिंदू भी, सिख भी, मुसलमान भी। पिछली रात 130 लोगों की एक केन्द्रीय शांति समिति ने, जिसमें दिल्ली के अधिकांश प्रमुख लोग शामिल थे- सभी जाति, धर्मों के, सावरकर की हिंदू महासभा और आर.एस.एस. के लोग भी- एक शपथनामा जारी किया था जो हर तरह की शांति की गारंटी लेती थी। 18 जनवरी को इसी शांति समिति की तरफ से यह शांति जुलूस गांधीजी को यह भरोसा दिलाने बिरला भवन पहुंचा था कि सांप्रदायिक शांति का जैसा आश्वासन वे चाहते हैं वह हम बहाल भी करेंगे और बनाए भी रखेंगे। सभी चाहते थे कि किसी भी तरह उनकी जान बचाई जा सके। उपवास खत्म करते हुए अपनी क्षीणतर होती आवाज में उन्होंने कहा कि मैंने यह उपवास सत्य के लिए किया था। सत्य, जिसे हम सब भगवान भी कहेत हैं... सत्य के बगैर भगवान कहीं नहीं है... इसी सत्य के नाम पर मैं यह उपवास छोड़ता हूं। आप सबने ने मेरा उपवास खत्म हो, इसके लिए जो किया उससे अधिक तो मैं मांग भी क्या सकता हूं!...हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी इस शपथपत्र के साथ है, यह मैं देख रहा हूं। लेकिन उनसे मैं कहना चाहता हूं कि यदि वे केवल दिल्ली तक ही शपथ से खुद को बंधा मानते हैं तो यह बहुत बड़ा धोखा होगा.... मैं जानता हूं कि आज हिंदुस्तान में ऐसा धोखा आम चलता है... लेकिन मैं बता देना चाहता हूं कि मुझे जब भी, जहाँ भी जरूरत लगेगी, मैं फिर से उपवास शुरू कर दूंगा...पाकिस्तान से भी कई संदेश आए हैं। कहीं से भी असहमति का स्वर नहीं है... सत्य ही ईश्वर है और वह हमें उसी तरह सद्बुद्धि दें जिस तरह पिछले छह दिनों में दी है।...18 जनवरी को 12.25 मिनट पर, मौलाना आजाद के हाथों संतरे का रस पीकर, गांधीजी ने उपवास खत्म किया।

तुम्हारा बमः हमारी गोली

आप्टे, बडगे और बडगे का नौकर शंकर, तीनों 20 जनवरी की सुबह बिरला भवन का मुआवजा करने पहुंचे। पिछली शाम सातों षडयंत्रकारी, नाथूराम गोडसे, नारायण आप्टे, गोपाल गोडसे, विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, बडगे और शंकर दिल्ली के मरीना होटल में मिले थे यहां आप्टे ने पूरी योजना सबको सुनाई। योजना इस तरह थीः मदनलाल पाहवा बिरला भवन की फीछे की दीवार से बम फेंकेगा। प्रार्थना-सभा में अफरातफरी मच जाएगी। इसका फायदा उठाकर, सबकी नजर से बचते हुए आप्टे, बडगे और शंकर नौकरों के कमरे की खिड़की के पीछे से गांधीजी को गोली मारेंगे और अपना हथगोला भी गांधीजी पर फेंकेंगे। गोपाल गोडसे, पाहवा और करकरे भी अपना बम गांधीजी पर डालेंगे। अगर गांधीजी गोलियों की मार से किसी तरह बच भी जाते हैं तो बमों से बचना नामुमकिन होगा। सम्भवतः इसी झपाटे में सुहरावर्दी भी मारे जाएं। आप्टे ने कहा कि वह और नाथूराम गोडसे सही समय पर इशारा करेंगे ताकि सभी एक साथ हमला कर सकें।

शाम को बडगे जब बिरला भवन पहुंचा तो प्रार्थना शुरू हो चुकी थी। उसने जब वह कमरा देखा जहाँ से गोली चलानी थी, तो उसे लगा कि वहां से भाग पाना मुमकिन नहीं होगा। उसने अपनी गवाही में बाद में बताया कि उसने गोडसे और आप्टे को जल्दी-जल्दी में समझाया कि वह सामने से गोली चलाएगा और शंकर, जो उसका नौकर था और जो उसका ही आदेश मानता था, वह भी सामने से ही गोली चलाएगा। गोडसे और आप्टे ने इस आखिरी बदलाव को स्वीकार कर लिया क्योंकि उनकी समझ में आ गया कि इस योजना से बडगे और पाहवा बड़ी आसानी से मुख्य आरोपी बन जाएंगे। लेकिन बडगे आखिर-आखिर में आकर या तो डर गया या उसने इनसे पल्ला झाड़ने की सोच ली। उसने अपनी और शंकर की रिवॉल्वर और हथगोले एक तौलिए में लपेटकर थैले में रखे और वह थैला टैक्सी के पीछे की सीट के नीचे सरका दिया। उसके बाद वह गोडसे और आप्टे के साथ प्राथना-सभा में पहुंचा। उसके दोनों हाथ जेब में थे, मानो वह हमले के लिए तैयार हो।

गांधीजी उपवास की वजह से काफी कमजोर हो गए थे।उन्हें कुर्सी पर बिठाकर प्रार्थना-सभा में लाया गया। उनकी आवाज भी काफी कमजोर थी और उस दिन माइक भी चल नहीं रहा था। इसलिए वे जो भी बोल रहे थे, डॉ.सुशीला नैयर उसे अपनी ऊंची आवाज में दोहरा कर सबको सुना रही थीं। उन्होंने धीमी आवाज में कहा कि मैं आशा करता हूं कि जिन्होंने भी शांति की शपथ उठाई है उन्होंने ईश्वररूपी सत्य को साक्षी मानकर उठाई है। मैंने सुना है कि जिन्होंने हिंदू महासभा की तरफ से शपथ उठाई थी, उन्होंने उसका परित्याग कर दिया है। यह बहुत दुःख की बात है। फिर उन्होंने अपने दोनों शिष्यों और भारत , सरकार के दो सबसे बड़े सदस्यों, प्रधानमंत्री नेहरू और उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल के बारे में बताया कि वे सबको बता देना चाहते हैं कि जो मुसलमानों का दुश्मन है, वह देश का दुश्मन है।... इसी वक्त श्रोताओं में बैठे आप्टे ने पाहवा को इशारा किया कि वह रस्सी जला दी। इधर उनकी जान लेने वाले बम की रस्सी जल रही थी, उधर गांधीजी अमरीका और भारत में अल्पसंख्यकों के प्रति हो रहे व्यवहार की तुलना कर रहे थे। उन्होंने कहा, ‘अमरीका में आज भी कालों के प्रति गुलाम-सा व्यहार किया जाता है, इसके बावजूद अमरीका सामाजिक समानता की बड़ी-बड़ी बातें करता है। वे लोग अपने ही हाथों हो रहे अन्याय को नहीं पहचानते हैं। मुझे लगता था कि हम उनसे बेहतर हैं और हम वैसा नहीं करेंगे, पर देखो, यहाँ भी क्या हो रहा है...’ और तभी जोरों का धमाका हुआ। पूरा प्रार्थना-स्थल हिल गया। धुंए और धूल से पूरा माहौल भर गया। थोड़ी भगदड़ भी हुई। गोडसे बंधु, आप्टे और करकरे व्याकुलता से इंतजार कर रहे थे कि बडगे और शंकर गांधीजी पर अगला वार करेंगे। लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ। गांधीजी ने हाथ के इशारे से लोगों को शांत किया। सभी वापस प्रार्थना में बैठने लगे। लोगों ने पाहवा को पकड़ लिया था, सो वह पुलिस को सौंप दिया गया। बाकी छह उस भीड़ में गुम हो गए।

बिरला भवन में ही मदनलाल से प्रारम्भिक पूछताछ हुई। वह एक ही बात बार-बार दोहराता रहा, ‘मुझे गांधीजी की दोस्ती और शांति बनाए रखने की नीति पसंद नहीं थी।’

जान बच जाने की खुशी जाहिर करते हुए सब ओर से गांधीजी को बधाई के संदेश मिलने लगे। लेडी माउंटबेटन ने भी इस बहादुरी के लिए गांधीजी की प्रशंसा की, तो गांधीजी ने कहाः ‘यह बहादुरी नहीं थी! मुझे कहां पता था कि कोई जानलेवा हमला होने को है! बहादुरी तो तब कहलाएगी जब कोई सामने से गोली मारे और फिर भी मेरे मुख पर मुस्कान हो, मुंह में राम का नाम हो!’ पाहवा के लिए उन्होंने कहा कि उस युवक को दोष नहीं देना चाहिए। उसने तो यह मान लिया है कि मैं हिंदू धर्म का दुश्मन हूं। वह कह रहा है कि उसने यह काम भगवान के नाम पर किया है; तब तो उसने भगवान को भी अपने इस दुष्कर्म का भागीदार बना लिया है। पर ऐसा तो हो नहीं सकता। इसलिए जो उसके पीछे हैं या जिन्होंने उसे हथियार बनाया है, मैं उनसे कहना चाहता हूं कि ऐसा सब करने से हिंदू धर्म बच नहीं सकता है।

कर्जन विली के 1909 के हत्याकांड की तरह इस बार भी गांधीजी पहचान रहे थे कि हत्यारा कहीं परदे के पीछे छिपा है। सच्चाई तो यही थी- इन दोनों हत्याओं के पीछे एक ही व्यक्ति की प्रेरणा थी- विनायक दामोदर सावरकर! गांधीजी को ऐसी गलतफहमी थी ही नहीं कि पाहवा की गिरफ्तारी से सारे खतरे टल गए। जब मनु ने कहा कि यह किसी पागल का कारनामा है, तो गांधीजी ने तीखा जवाब दिया, ‘तुम मूर्ख हो! क्या तुम्हें दिखाई नहीं देता कि यह एक भयानक साजिश का हिस्सा है?’ घटना के बाद सभी अपने-अपने कामों में लग गए। गांधीजी भी अपनी तरफ आती मौत से मिलने की तैयारी में लग गए।

बम का प्रयास विफल होने के तुरंत बाद ही नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे मुम्बई लौट गए। करकरे भी साथ आ जुड़े। दिल्ली में बम की विफलता को, हत्यारों के प्रतिनिधि अखबार ‘हिंदू राष्ट्र’ ने मुख्य समाचार के रूप में इस तरह छापाः ‘गांधीजी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति के विरोध में हिंदू शरणार्थी का सांकेतिक प्रतिरोध!’ शरणार्थी की आड़ लेना उस समय सर्वाधिक तार्किक था। आखिर शरणार्थी मदनलाल पाहवा ही तो था जो घटना-स्थल से पकड़ा गया था!

दिल्ली पुलिस थाने में मदनलाल ने पूरी साजिश कबूल कर ली। उसने सारे घटनाक्रम का सिलसिले से ब्यौरा भी दिया लेकिन वह कितनी चालाकी से बात कर रहा था इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उसने पुलिस को अपने साथ के लोगों के नाम एकदम बदलकर बताए- करकरे को किरक्री बताया, बाकी छह लोगों की भी पहचान तो उसने बताई लेकिन उतनी ही बताई जितने से सीधा कुछ पता न चले- ‘हिन्दू राष्ट्र’ या ‘अग्रणी’ का सम्पादक ककहा लेकिन नाथूराम गोडसे का नाम छिपा गया। पाहवा ने पुलिस को दिल्ली के उस मरीना होटल तक भी पहुंचाया जिसमें एस.और एम. देशपांडे के नाम से गोडसे और आप्टे ने कमरा किराए पर लिया था। हत्या की आखिरी पक्की योजना इसी कमरे में बनी थी। कमरे की तलाशी में पुलिस को एक प्रेस विज्ञप्ति मिली, जो हिंदू महासभा के नेता आशुतोष लाहिरी के नाम से जारी की गई थी। उसमें भी लिखा गया था कि हिंदू महासभा गांधीजी की मुसलमानों के प्रति नीतियों का विरोध करती है। यह एक जरूरी, लिखित सुराग था जो गांधी-हत्या के इस प्रयास से हिंदू महासभा को जोड़ता था। होटल की लांड्री में जो कपड़े धुलने दिए गए थे उस पर अंग्रेजी में ‘एन.वी.जी.’ लिखा था जिसका सीधा मतलब थाः नाथूराम विनायक गोडसे। सारी-की-सारी जानकारियां खुद ही बता रही थीं कि गांधीजी के भावी हत्यारे कौन हैं; और इसी से जुड़ा था पाहवा का वह खौफनाक बयानः ‘वे लोग फिर आएंगें!’ वही हुआ। नाथूराम गोडसे, आप्टे और करकरे 30 जनवरी को गांधीजी की हत्या पूरी करने के लिए फिर दिल्ली लौटे।

यह कैसे हुआ

दोषी को खोजना, उसके बयानों के सूत्रों के आधार पर खोजबीन करना, गुनाहगारों की शिनाख्त करना और केस तैयार करना- यह सब पुलिस के हाथ में था। पाहवा ने पुलिस को बता भी दिया था कि ‘वे फिर आएंगे।’

एक और जरूरी तथ्य! 20 जनवरी को बम से हत्या की इस कोशिश के एक सप्ताह पहले भी हत्या की साजिश की पूरी जानकारी मदनलाल पाहवा ने बताई थी। पाहवा ने, मुम्बई में वह जिनके यहां काम करता था उन प्रोफेसर जे.सी.जैन को हत्या की पूरी योजना के बारे में बताया था और कहा था कि वह खुद लोगों का ध्यान भटकाने के लिए बम फेंकेगा और उसके दूसरे सहयोगी अफरातफरी का फायदा उठाकर गांधीजी की हत्या करेंगे। जैन साहब को लगा था कि पाहवा कहानी बना रहा है लेकिन जब उन्होंने 21 जनवरी के अखबार में पाहवा कि गिरफ्तारी और बम से हमले की खबर पढ़ी तो भौंचक्के रह गए। वे तुरन्त ही मुम्बई के दो सबसे मुख्य व्यक्तियों तक गांधी-हत्या के षडयंत्र की खबर उन्होंने हत्या से एक सप्ताह पहले ही पहुंचा दी थी, ‘पाहवा के अनुसार षयंत्रकारियों की एक टोली है जिसे अहमदनगर के किसी करकरे से पैसा मिल रहा है।’ जैन साहब ने यह भी बताया कि पाहवा और उसकी टोली का सम्बन्ध सावरकर के साथ है, जिनसे वे सब अक्सर मिलते भी रहेत हैं तथा सावरर उनकी हौसला अफजाई करते हैं।

मोरारजी देसाई को इस षडयंत्र के पीछे सावरकर का हाथ होने की शंका थी। उन्होंने जैन से मिली जानकारी उसी रात डिप्टी पुलिस कमीशनर जे.डी.नागरवाला को दी और तीन आदेश भी दिए- सबसे पहला कि करकरे को गिरफ्तार करें (करकरे के ऊपर पहले से किसी दूसरे मामले में गिरफ्तारी का आदेश था भी); दूसरा, सावरकर पर तथा उनके घर पर कड़ी निगरानी रखी जाए और तीसरा, इस षडयंत्र में और कौन-कौन शामिल हैं, यह पता किया जाए। मोरारजी देसाई ने यह भी बताया कि जैन द्वारा दी गई जानकारी उन्होंने दूसरे ही दिन, 22 जनवरी 1948 को, देश के उप-प्रधानमंत्री/गृहमंत्री वल्लभ भाई पटेल को अहमदाबाद में दी। सरकार के सुरक्षा तंत्र के लिए सरदार ही जिम्मेवार थे।

बम की इस घटना के तुरंत बाद पटेल गांधीजी की सुरक्षा- व्यवस्था बढ़ाना चाहते थे। उन्होंने गांधीजी से कहा कि वे प्रार्थना-सभा में आ वाले हर किसी की पुलिस द्वारा शारीरिक जांच करवाना चाहते हैं। गांधीजी ने इससे साफ इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि ‘मेरा धर्म मुझे इस बात की इजाजत नहीं देता है कि मैं प्रार्थना के समय किसी मनुष्य की सुरक्षा पर निर्भर रहूं। प्रार्थना में मैं ईश्वर की शरण में हूं और वही मेरी एकमात्र सुरक्षा है।’ प्यारेलाल ने लिखा है कि गांधीजी के सामने सरदार को हथियार डालने पड़े। परेशान पटेल ने सब ‘नसीब पर छोड़ दिया।’

‘देश के गृहमंत्री ने गांधीजी को ‘उनके नसीब पर’ छोड़ दिया, हत्यारों ने वैसा नहीं किया।’ वे सभी फिर से एकजुट हुए, उन्होंने एक-एक कर अपनी सारी तैयारियों की समीक्षा की और अपने गुरु से आशीर्वाद भी लिया। गांधीजी की हत्या के बाद संसद में सरदार पटेल के इस रवैये पर सवाल उठे। 6 फरवरी 1948 को संसद का एक विशेष सत्र इसी संदर्भ में बुलाया गया। सांसद रोहिणी कुमार चौधरी ने पटेल से सवाल पूछाः ‘पुलिस जिस व्यक्ति की सुरक्षा की जिम्मेवारी लेती है, क्या कभी उसकी सुविधा या उसकी राय पूछती है या उस आधार पर काम करती है? जहाँ सुरक्षा का मामला होता है, गवर्नर हो या गवर्नर जनरल, किसी की भी सुविधा या राय नहीं देखी-सुनी जाती।'

सरदार पटेल ने जवाब दिया, ‘यहां जिस आदमी की सुरक्षा की बात हम कर रहे थे, वह एक अलग ही आदमी था, किसी दूसरी ही कक्षा का व्यक्ति था। उनकी सलाह व सहमति के बिना पुलिस के लिए या हमारे लिए कुछ भी करना असम्भव था।’ यह बात सच थी लेकिन क्या इससे गृहमंत्री सरदार पटेल महात्मा गांधीजी की सुरक्षा की जिम्मेवारियों से मुक्त हो सकते थे? गांधीजी की सहमति से सरकार ने बिरला भवन का सुरक्षा घेरा बढ़ा दिया था। गांधीजी ने नेहरू और पटेल का मन देखते हुए इस बात के लिए सहमति दे दी। क्या ऐसा ही आग्रह कुछ दूसरी व्यवस्थाओं के बारे में भी नहीं किया जाना चाहिए था? गांधीजी के आग्रह के सामने सरकार का भी तो कोई आग्रह होना चाहिए था! 1970 में गांधी-हत्या की जांच के लिए सरकार ने जस्टिस जे.एल.कपूर अध्यक्षता में कपूर कमीशन का गठन किया। प्यारेलाल ने इस कमीशन को यही कहा कि ‘बम की घटना के बाद, पुलिस द्वारा सुरक्षा के कोई विशेष कदम उठाए गए हों तो मुझे उस बारे में कोई जानकारी नहीं थी।’ प्यारे लाल का यह कहना जरूर था कि यदि समय रहते मदनलाल पाहवा ने अपने बयान में जिन लोगों का जिक्र किया था उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया होता तो इस हत्या को टाला जा सकता था। ‘जो गिरफ्तारियां सबसे पहले और सामान्य पुलिस कार्रवाई के तहत हो जानी चाहिए थीं, वे क्यों नहीं की गईं?’ सरदार के पास इन सबका कोई जवाब नहीं था।888 21 जनवरी को ही दिल्ली और मुम्बई, दोनों की ही पुलिस के पास षडयंत्र के मुख्य किरदारों की भूमिका वाले पूरे बयान पहुंच चुके थे। फिर भी अगले 9 दिनों तक हत्यारे खुलेआम न सिर्फ घूमते रहे, सावरकर के यहाँ आते-जाते रहे बल्कि उनमें से तीन-आप्टे, गोडसे और करकरे- 30 जनवरी को फिर से गांधीजी की प्रार्थना-सभा में लौटे ही नहीं बल्कि योजना के मुताबिक गोडसे ने गांधीजी को गोली भी मारी। यह सब तब भी बहुत विचित्र था; और आज भी उतना ही विचित्र लगता है। गिरफ्तारियां क्यों नहीं हुईं, तब भी यह समझना मुश्किल था, आज भी मुश्किल है।

20 जनवरी के बम वाले हमले के बाद, 21 जनवरी को दिल्ली के इंस्पेक्टर जनरल टी.जी. संजेवी ने अपने दो अफसरों को मुम्बई भेजा। उन्हें निर्देश दिया कि वे मुम्बई के डिप्टी कमिश्नर नागरवाला को पाहवा के इकबालिया बयान की पूरी जानकारी दें। उन दो अफसरों ने बताया कि जब वे नागरवाला के पास पहुंचे और ऐसे एक गम्भीर षडयंत्र की जानकारी उन्हें दिल्ली के इंस्पेक्टर जनरल के हवाले से दी तो नागरवाला महज औपचारिकतावश उन्हें सुनते रहे। उन्होंने भी नागरवाला को ऐसी कोई जानकारी नहीं दी कि जिससे हत्यारों को पहचाना जा सके। उन दोनों को मालूम था कि पाहवा ने करकरे का नाम लिया है और पुणे से छपने वाले अखबार ‘हिंदू राष्ट्र’ ‘अग्रणी’ के सम्पादक का नाम भी बताया है। लेकिन उन्होंने नागरवाला को यह सब नहीं बताया। नागरवाला ने भी उन दोनों अफसरों को मुम्बई में मिल रही जानकारी के बारे में कुछ भी नहीं बताया जबकि नागरवाला के पास प्रोफेसर जैन का वह पूरा बयान धरा था जिसमें उन्होंने पाहवा, करकरे और सावरकर के साथ उनके सम्बन्धों की पूरी जानकारी दी थी। साधारण-सी समझ रखने वाला कोई आदमी भी यदि इन सारे सबूतों को जोड़कर देखेगा तो समझ लेगा कि सावरकर के शिष्य, सावरकर की सलाह व जानकारी में गांधीजी की हत्या की साजिश कर रहे हैं। लेकिन पुलिस के प्रशिक्षित पेशेवर आला अधिकारी ऐसा कुछ भी न समझ सके, न कर सकें। दोनों पुलिस-पक्षों ने बाद में यह बयान दिया कि सामने वाला पुलिस-तंत्र जांच में असहकार कर रहा था।888 दिल्ली पुलिस बिना किसी कार्रवाई के मुम्बई जाकर दिल्ली लौट आई। उसने इतना भी नहीं किया कि पुणे पुलिस को ‘हिंदू राष्ट्र’ ‘अग्रणी’ के सम्पादक के बारे में या उनके सहयोगियों के बारे में सावधान कर दे। उसने दिल्ली लौटकर अपने असफल मुम्बई दौरे की रिपोर्ट लिखी और फाइल में लगा दी।

अब गांधीजी के पास जीने के पांच दिन बचे थे।

पुलिसवालों का अहंकार

इधर नागरवाला मोरारजी देसाई के आदेशानुसार सावरकर के घर पर नजर रखे हुए थे। वे सब कुछ कर रहे थे सिवा ‘सावधान नजर’ रखने के। अपनी पहली रिपोर्ट में नागरवाला ने लिखा भी कि इस पूरी साजिश के पीछे सावरकर का हाथ है। सावरकर राजनीति से बाहर होने का और बीमारी का बहाना बना रहे हैं। 25 जनवरी को दिल्ली के इंस्पेक्टर जनरल संजेवी मुम्बई के डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल यू.एच.राणा से, जो कि संयोग से दिल्ली में थे, मिले। संजेवी ने राणा को पाहवा के 24 जनवरी के ताजा बयान दिए। जांच-एजेंसी के नाते यह वह जिम्मेवारी थी जिसे दिल्ली पुलिस को प्राथमिकता से, व्यक्तिगत पहल करते हुए मुम्बई पुलिस तक पहुंचानी थी। लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया। संयोग मुम्बई पुलिस का अधिकारी दिल्ली में मिल गया तो हमने उसे कागज पकड़ा दिया, ऐसा यह मामला बना जबकि यह मामला ऐसा था नहीं। मामला तो राष्ट्रपिता की जिंदगी का था! पाहवा ने अपने इस ताजा महत्त्वपूर्ण बयान में न केवल ‘हिन्दू राष्ट्र’ के सम्पादक (नाथूराम गोडसे) का नाम लिया था अपितु उसके प्रकाशक (आप्टे) को भी इस साजिश में शामिल बताया था।

अब आप देखें की यू.एच. राणा साहब इस संवेदनशील सूचना को पाने के बाद, एक बड़े जिम्मेवार पुलिस अधिकारी के नाते क्या करते हैं। वे इस संवेदनशील सूचना को लेकर अपने मिशन के लिए निकल पड़ते हैं- वह मिशन, जो समय के साथ प्रतिस्पर्धा तो कर ही रहा था बल्कि जो तत्परता के साथ किया जाता तो गांधीजी का जीवन बचा भी सकता था। लेकिन राणा साहब इस मिशन पर प्लेन की जगह ट्रेन से निकले; और वह भी उस ट्रेन से जो दिल्ली से मुम्बई पहुंचने में पूरे छत्तीस घंटे लेती थी। इतना सारा समय मिला गोडसे और आप्टे को, जो मुम्बई पहुंचकर सावरकर से अपनी अगली चालों के लिए सलाह-मशविरा कर रहे थे और जांच एजेंसियों के रवैये से निश्चित भी थे।

राणा साहब की ट्रेन उन्हें लेकर 27 जनवरी को मुम्बई पहुंची। राणा इधर मुम्बई पहुंचे, उधर गोडसे और आप्टे प्लेन से दिल्ली के लिए रवाना हो चुके थे। गांधी जी के पास अब जीवन के तीन दिन रह गए थे।

मैं शायद न रहूं

राणा मुम्बई पहुंचकर अपने बांस नागरवाला से मिले। राणा ने कपूर कमीशन में गवाही देते हुए बताया कि उन्होंने मदनलाल पाहवा का पूरा बयान नागरवाला को दिखाया लेकिन उन्होंने तो उसे पढ़ने की जहमत भी नहीं उठाई। नागरवाला ने अपने बयान में कहाकि उन्होंने राणा का दिया बयान इसलिए नहीं पढ़ा क्योंकि राणा इस बारे में हो रही कार्यवाही से संतुष्ट नजर आ रहे थे। एक पड़े पुलिस अधिकारी का यह रवैया अचरज भरा था क्योंकि मदनलाल पाहवा का बयान, मोरारजी देसाई द्वारा प्रोफेसर जैन के बारे में नागरवाला को दी जानकारी को पुख्ता करने में मदद करने वाला था। अब सवाल यह भी उठता है कि राणा ने पाहवा के बयान वाली वह फाइल नागरवाला को क्यों नहीं दी? नागरवाला ने अपने पास वह फाइल क्यों नहीं रखी; या उसे पढ़ने की भी जरूरत क्यों नहीं समझी?

कपूर कमीशन ने पाया कि वे सारी जानकारियां दिल्ली की फाइलों में पहले से मौजूद थीं- ‘अग्रणी’ अखबार भी, उसका सम्पादक भी, उसका प्रकाशक भी और इन सबका सावरकर का शिष्ट होना भी दिल्ली की फाइलों में दर्ज था। फिर सावरकर को गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया? नागरवाला ने अपने बयान में कहा कि हत्या से पहले वे सावरकर को गिरफ्तार इसलिए नहीं कर सकते थे क्योंकि महाराष्ट्र में असंतोष फैलता। मतलब यह कि नागरवाला को लगता था कि सावरकर और उनके साथी इतने ताकतवर हैं कि उन्हें रोका नहीं जा सकता था। 27 जनवरी को गांधीजी से मिलने उनके प्रिय प्रख्यात अमरीकी पत्रकार विन्सेंट शीन पहुंचे। शीन दोहरे तनाव में थेः गांधीजी की हत्या के अंदेशे से वे विचलित थे और विश्वयुद्ध के परिणामों से अशांत भी। दोनों टहलते हुए बातें कर रहे थे। शीन जानना चाहते थे कि आखिर यह कैसे हुआ कि जो युद्ध हिटलर से मुकाबले के अच्छे हेतु से शुरू हुआ था उसी युद्ध ने मानव-जाति को समूल नष्ट कर सकने वाले हथियारों के जाल में फंसा दिया है? अपने ही रचे इस दैत्य से मानवता बचेगी कैसे? गांधीजी ने टहलना रोका, गहरी नजरों से शीन की आंखों में देखा और बात बदलते हुए कहा, ‘मैं तुमसे एक बात साफ कह देना चाहता हूं। मुझे टाइफाइड बुखार है। डॉक्टर बुलाए गए हैं और उन्होंने मुझे जीवित रखने के लिए कुछ इंजेक्शन दिए हैं। पर इससे कुछ हो न पाए शायद। हो सकता है कि आज मेरी मौत ही मानवता की सेवा के लिए जरूरी हो!’

गांधीजी ने अपनी बात पूरी की और शीन की तरफ देखा। ‘आज मेरी मौत मानवता के लिए जरूरी है शायद’, अपनी इस बात की शीन पर कोई प्रतिक्रिया न देखकर वे फिर बोले, मेरी बात समझ में आई कि फिर दोहराऊं?’

शीन बोले, ‘नहीं, मुझे लगता है कि मैंने आपकी बात समझ ली है।’ दोनों फिर टहलने लगे।

शीन ने पूछा, ‘ऐसा कैसे हो सकता है कि सही उद्देश्यों के लिए होने वाले युद्ध का परिणाम इतना भयंकर हो?’

गांधीजी बोले, ‘साधन का सवाल है! आप साध्य को साधन से अलग नहीं कर सकते।’यही तो उन्होंने लंदन में सावरकर से भी कहा था, जब स्वतंत्रता के लिए राजनीतिक हत्याओं का सवाल उठ खड़ा हुआ था। अब साध्य-साधन का वही रिश्ता गांधीजी शीन को समझा रहे थे, ‘अगर आप हिंसक साधनों का इस्तेमाल करेंगे तो बुरा परिणाम ही मिलेगा।’

‘क्या यह हर वक्त व स्थान के लिए सही है?’ शीन ने पूछा।

‘मुझे तो ऐसा ही लगता है!’ गांधीजी ने जवाब दिया, ‘किसी अच्छे काम का नतीजा बुरा हो ही नहीं सकता है, और बुरे काम का, भले वह किसी भलाई के लिए किया गया हो, नतीजा अच्छा हो ही नहीं सकता है।’ शीन ने फासिज्म के खिलाफ लड़े गए विश्वयुद्ध की बात की, और फिर कहा, उसका ऐसा नतीजा क्यों आया? गांधीजी रुके, शीन की तरफ झुके, शांति किंतु उदास आवाज में बोले, ‘तुम्हारा साध्य हो सकता है कि अच्छा हो लेकिन तुम्हारे साधन बुरे थे।... नहीं, से रास्तों से तुम सच्चाई तक नहीं पहुंच सकते।’ इसके कबाद गांधीजी ने शीन से प्रतिनिधिक लोकतंत्र की बात की और कहा कि इसमें जो लोग भ्रष्ट आचरण के दोषी हों उन्हें वापस बुला लेने का काम उनका है जो भ्रष्ट नहीं है, वे कुछ ठहरे और फिर बोले, इसका मतलब सत्ता से नहीं है।

शीन ने पूछा, ‘तो क्या आप ऐसा कह रहे हैं कि सत्ता भ्रष्ट करती है?’ ‘हां, मैं क्या करूं, मुझे ऐसा ही लगता है।’ जब गांधीजी ऐसा कह रहे थे तब उन्हें पता था कि उनके अपने खास साथी भी सत्ता में हैं, ‘अगर हम परिणाम अच्छा चाहते हैं तो अहिंसा का विकल्प नहीं है।’

शीन ने दोबारा मुलाकात का समय मांगा। गांधीजी ने कहाः ‘तुम्हें खुला निमंत्रण है, जब मिलना चाहो!’ फिर दुश्मन को भी पिघला दे, ऐसी सौम्य आवाज में उन्होंने शीन से कहा, ‘लेकिन अगर मैं समय देने के हाल में ही न रहा तो तुम समझ पाओगे न?’ अमरीका लौटने के बाद शीन ने अपनी इस दिव्य मुलाकात के बारे में लिखा।

अगली रात, 29 जनवरी को सोने से पहले गांधीजी को खांसी का बेदम करने वाला दौरा पड़ा। अपनी सांस पर काबू पाते-पाते उन्होंने मनु से कहाः ‘यदि कोई गोली मार कर मेरी जान ले ले, उसी तरह जिस तरह उस दिन बम फेंका था, और मैं बगैर किसी कराह के भगवान का नाम लेकर मरूं तभी मुझे महात्मा जानना!’

30 जनवरी, उनके जीवन का आखिरी दिन! कभी हिंदू महासभा के अध्यक्ष रहे और अब जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल के सदस्य डॉ. श्याम प्रसाद मुखर्जी के पास गांधीजी ने अनुरोध भिजवाया था कि क्या वे अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर, हिंदू महासभा के सदस्यों को भड़काऊ भाषण देने, कांग्रेस के नेताओं की हत्या करने की धमकियां उछालने से रोकने का प्रयास करेंगे। प्यारेलाल ने उन्हें बताया कि डॉ. मुखर्जी ने अपने संगठन को संयमित कर पाने में अपनी असमर्थता जाहिर की है। गांधीजी के चेहरे पर चिंता की रेखाएं गहरी हुईं। वे डॉ. मुखर्जी के जवाब से निचलित हुए।

शाम के चार बजे थे। गांधीजी सरदार पटेल के साथ अत्यंत गहरी चर्चा में डूबे थे। नेहरू के साथ अपने मतभेद के चलते सरदार पटेल सरकार से इस्तीफा देने का निर्णय कर, गांधीजी से चर्चा करने के इरादे से आए थे। गांधीजी का मानना था कि इस सरकार के और देश के भले के लिए नेहरू व सरदार का साथ रहना जरूरी है। उन्होंने सरदार से मसझौता करने की बात की और कहा कि वे पंडित नेहरू से बात करेंगे। लेकिन सरदार-नेहरू के बीच की खाई पाटने के लिए उन्हें अपनी मौत का सेतु बनाना होगा,यह किसे पता था! उनकी मौत ने नेहरू-सरदार के बीच के समझौते पर मोहर लगा दी। उस शाम, गांधीजी की हत्या के बाद नेहरू ने दूसरी बार अपना पिता खोया और पटेल की गोद में फफक-फफक कर रोये। यह वह पिता था जिसकी पीठ के पीछे, उसके इन दोनों बेटों ने देश का बंटवारा कर लिया था। लेकिन वे दोनों जानते थे कि इस पिता ने उन्हें कभी प्यार करना नहीं छोड़ा।

उस रोज पटेल के साथ बातचीत लम्बी चली और घड़ी ने 5.10 बजा दिए। कुछ और लोग भी मुलाकात की प्रतीक्षा में थे। गांधीजी ने उन्हें संदेश देने को कहाः ‘उनसे कह दो कि प्रार्थना के बाद मिलेंगे, अगर मैं जिंदा रहा तो...’ वे तेज कदमों से उस प्रार्थना के लिए निकले जिसमें देर से पहुंचना उन्हें सख्त नापसंद था। प्रार्थना-स्थल के रास्ते में खाकी कपड़े पहने नाथूराम गोडसे ने उनका रास्ता रोका, हथेली में दबाई पिस्तौल निकाली और तीन गोलियां मार कर गांधीजी की हत्या कर दी।

गांधीजी की हत्या के असर का विवरण डेनिस डाल्टन ने किया हैः ‘विभाजन के बाद की सांप्रदायिक हिंसा का शमन करने का काम यदि किसी एक वजह से हुआ हो तो वह गांधीजी की हत्या थी। इस हत्या का वैसा ही असर हुआ जैसा उनके उपवासों का होता था। गुस्से, डर और दुश्मनी से उन्मत्त भीड़ जहां थी वहीं ठिठक गई.... सभी एक बार सोचने पर मजबूर हो गए कि यह जो कीमत हमने चुकाई, क्या वह सौदे के लायक थी?...अचानक कई तरह की अभिप्रेरणाएं एक साथ काम करने लगी थीं जिनमें दया भी थी, विवेक भी था और साथ ही अपार दुःख और घोर पश्चाताप भी था। सबका मिला-जुला परिणाम यह हुआ कि अंधाधुंध हत्याओं का देशव्यापी दौर रुक गया। यह असर ही उनके जीवन को भारत की जनता की तरफ से दी गई सबसे बड़ी और सबसे पवित्र श्रद्धांजलि थी। कहूं तो यह स्वराज पर गांधीजी का आखिरी बयान ही था।’

गांधी-हत्या के मुकदमे की सुनवाई के दौरान जज आत्माराम चरण ने पुलिस की भूमिका पर बड़ी कड़ी टिप्पणी की। गांधीजी के पड़पोते तुषार गांधी ने सरदार पटेल को दी गई एक खुफिया रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा है कि पुलिस व नौकरशाही के बड़े पर्दों पर बैठे कई अधिकारी आर.एस.एस. और हिंदू महासभा के खुफिया सदस्य थे। ये सब उसी विचारधारा को फैलाने-बढ़ाने में लगे थे। 20-30 जनवरी के बीच घटी घटनाओं का विश्लेषण करें

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