गाद प्रबन्ध: तब और अब

गाद प्रबन्ध: तब और अब
गाद प्रबन्ध: तब और अब

सिंधु नदी घाटी सभ्यता (3000 से 1500 ईसवी पूर्व) के अवशेषों के अध्ययन से पता चलता है कि उस दौर के महत्त्वपूर्ण स्थल धौलावीरा में बरसात के पानी को जमा करने के लिए अनेक तालाब बनवाए गये थे। पुरातात्विक और ऐतिहासिक प्रमाणों से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य (321 से 297 ईसवी पूर्व) के शासन काल में तालाबों, बांधों और सिंचाई के साधनों का निर्माण होने लगा था। तमिलनाडु की एक-तिहाई जमीन अब भी पारम्परिक तालाबों (इरी) से सिंचित होती थी। उन तालाबों की भूमिका सिंचाई के साथ-साथ भूजल रीचार्ज और मिट्टी का बहाव और बाढ़ रोकने में होती थी। कर्नाटक में आज भी चालीस हजार से अधिक परम्परागत तालाब अस्तित्व में हैं। राजस्थान के शुष्क इलाके की ढ़ालू धरती से बहते बरसाती पानी को रोककर खड़ीनों (तालाब) का निर्माण किया जाता था। उक्त प्रमाणों से पता चलता है कि भारत के विभिन्न भागों में सदियों से पानी की टिकाऊ संरचनाओं का निर्माण होता रहा है।

भारत की जलवायु मानसूनी है। मानसूनी जलवायु के असर से चट्टानों में टूट-फूट होती है और रासायनिक प्रक्रिया के कारण वे गाद और मिट्टी में बदलती हैं। गाद और मिट्टी को बरसाती पानी, उनके मूल स्थान से हटाता है और नदी को सौंप देता है। इसी कारण बाढ़ के पानी के साथ बहुत बड़ी मात्रा में गाद पाई जाती है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि मंद ढ़ाल वाले कछारी इलाके की एक हैक्टर धरती से हर साल लगभग 0.5 टन गाद विस्थापित हो जाती है। मिट्टी के अधिक कटाव वाले इलाकों में एक हैक्टर से हर साल लगभग 26 गुना अधिक तक गाद विस्थापित हो सकती है। उक्त आधार पर कहा जा सकता है कि 5000 हैक्टर कैचमेंट से हर साल मुक्त होने वाली गाद की मात्रा 2500 से लेकर 65000 टन तक हो सकती है। यदि इसका प्रबन्ध नही किया तो वह तालाब में जमा होने लगती है। इस कारण तालाब धीरे-धीरे उथला होता है तथा कालान्तर में अनुपयोगी हो जाता है। अनुभव बताता है कि गाद के प्रबन्ध का काम तालाब के अपस्ट्रीम में या तालाब के भराव क्षेत्र में या दोनों जगह किया जा सकता है।

गाद प्रबन्ध को समझने के लिए उसके और पानी के अन्तरंग सम्बन्ध को समझना आवश्यक है। उल्लेखनीय है कि गाद हमेशा बहते पानी के सानिध्य में यात्रा करती है। पानी का वेग जितना अधिक होगा, गाद का विस्थापन उतना अधिक होगा। यदि पानी का वेग कम होता है या उसके रास्ते में रुकावट या तालाब आता है तो पानी का वेग कम हो जाता है और गाद के भारी कण तालाब में जमा होने लगते हैं। हल्के कणों की यात्रा यथावत चलती रहती है।888 भारत के परम्परागत जल विज्ञान पर आधारित तालाबों के गाद के प्रबन्ध का काम कैचमेंट से प्रारंभ होता था। इस हेतु, कैचमेंट से आने वाले पानी की निकासी को सुगम बनाया जाता था। गाद को कैचमेंट में रोकने का इन्तजाम किया जाता था। कैचमेंट में पानी की छोटी-छोटी धाराओं को यहाँ-वहाँ मोड़कर, कुछ प्रमुख रास्तों से सिल्ट रोकने की व्यवस्था बनाई जाती थी। इसके लिए बड़े-बड़े पत्थर कुछ इस तरह से जमा किए जाते हैं ताकि उनके बीच से सिर्फ पानी निकले, मिट्टी और रेत आदि पीछे ही जम जाए, छूट जाए। यह पहली व्यवस्था थी।

सिल्ट प्रबन्ध की दूसरी व्यवस्था श्रृंखलाबद्ध तालाबों में दिखाई देती है। इस व्यवस्था में कैचमेंट से आने वाला गादयुक्त पानी, सबसे पहले सबके ऊपर के तालाब में जमा होता है। इस व्यवस्था के कारण गाद का कुछ अंश सबके ऊपर स्थित तालाब में ही जमा हो जाता है। कम गादयुक्त पानी नीचे के तालाब में पहुँचता है। इस व्यवस्था के कारण नीचे के तालाब में अपेक्षाकृत कम गाद मिलती है। इस व्यवस्था के कारण सबसे नीचे वाले तालाब का पानी काफी हद तक गाद मुक्त होता है। यह व्यवस्था मानसूनी जलवायु वाले क्षेत्रों के लिए बहुत कारगर है। उल्लेखनीय है कि श्रृंखला का सबसे ऊपर का तालाब अकसर छोटा होता है। बडे तालाब की तुलना में उससे गाद निकालना सरल और सुविधाजनक होता है।

सिल्ट प्रबन्ध की तीसरी व्यवस्था के अन्तर्गत कैचमेंट से आने वाले गादयुक्त पानी, तालाब के जल संचय और वेस्टवियर से पानी की निकासी के बीच सटीक सन्तुलन बनाया जाता था। उस सन्तुलन के कारण कैचमेंट से आने वाली गाद का अधिकांश भाग, वेस्टवियर के रास्ते तालाब से बाहर निकल जाता था और तालाब काफी हद तक गाद मुक्त रहता था। इसी कारण परम्परागत तालाब दीर्घजीवी और लगभग गाद मुक्त होते थे। उनकी आयु 500 से 1000 साल होती थी।

सिल्ट प्रबन्ध की चौथी व्यवस्था के अन्तर्गत तालाब से समाज की सहभागिता से हर साल गाद निकाली जाती थी। उस समय गाद के तीन स्टेक-होल्डर थे। किसान, कुम्हार और गृहस्थ। अलग-अलग क्षेत्रों में गाद निकालने का समय अलग-अलग था। गोवा और पश्चिमी घाट के तटवर्ती इलाकों में, यह काम, दीपावली के तुरन्त बाद किया जाता था। उत्तर भारत के बहुत बड़े भाग में यह काम, नव वर्ष अर्थात चैत्र के ठीक पहले तो छत्तीसगढ, उडीसा, बंगाल, बिहार और दक्षिण में बरसात आने के पहले खेत तैयार करते समय, किया जाता था। इस काम को राज और समाज के तालमेल का हिस्सा माना जाता था। गाद समस्या नहीं बन पाती थी। यह चौथी व्यवस्था थी जो गाद के निपटान के लिए हर साल की जाती थी।

आधुनिक काल में बांधों और तालाब का निर्माण, भारत के परम्परागत विज्ञान के स्थान पर पाश्चात्य जलविज्ञान के आधार पर किया जाता है। पाश्चात्य जलविज्ञान के अनुसार, जल संरचनाओं से गाद मुक्ति, पूरी तरह संभव नहीं है। पाश्चात्य जलविज्ञान मानता है कि हर बांध की निश्चित आयु होती है। उसके बाद वह अनुपयोगी हो जाता है। पाश्चात्य जलविज्ञान के अनुसार कैचमेंट में मिट्टी के कटाव को रोकने वाली संरचनाओं के निर्माण से गाद का बनना कम किया जा सकता है। इसके अलावा कृषि पद्धतियों, कैचमेंट में चराई नियंत्रण, सीढ़ीदार खेत बनाकर, रीचार्ज बढ़ाकर या फसल चक्र की मदद से भी गाद जमाव को कम किया जा सकता है। पाश्चात्य जलविज्ञान के अनुसार गाद के हटाने के काम को खुदाई, ड्रेजिंग तथा पानी को विविध यांत्रिक तरीकों से मचाकर भी किया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि पाश्चात्य जलविज्ञान में गाद के प्रबन्ध को वह स्थान या वरीयता हासिल नहीं है जो अन्य घटकों को है। किसी हद तक वह अनदेखी का भी शिकार है।

भारत के परम्परागत जल विज्ञान और पाश्चात्य जलविज्ञान में गाद प्रबन्ध के तरीकों, तकनीकों और विकल्पों को देखकर आसानी से कहा जा सकता है कि गाद के प्रबन्ध के मामले में, हर कसौटी पर, भारत का परम्परागत जल विज्ञान बहुत आगे है। उसकी यह उपलब्धि तकनीकी और कुदरत के साथ समन्वय का जीता-जागता प्रमाण है। गहराते जल संकट के दौर में जब जल संरचनाओं का स्थायित्व बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया हो उस समय यह प्रमाण किसी लाइटहाउस से कम नहीं है।


लेखक - कृष्ण गोपाल 'व्यास' 

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