क्या हम कचरा खाने के लिए हैं?
“क्या विश्व बैंक को नहीं चाहिए कि वह गंदगी फैलाने वाले उद्योगों को कम मजदूरी वाले देशों में पलायन करने के लिए और अधिक प्रोत्साहित करे? सेहत को नुकसान पहुंचाने वाले प्रदूषण की माप इस बात पर निर्भर करती है कि उसके कारण बढ़ी बीमारी तथा मौतों से कितनी कमाई का नुकसान हुआ। इस दृष्टि से सेहत के लिए नुकसानदेह प्रदूषण न्यूनतम लागत वाले देशों में किया जाना चाहिए यानी न्यूनतम मजदूरी वाले देशों में। मैं सोचता हूं कि जहरीले कचरे को न्यूनतम मजदूरी वाले देशों में भरने के पीछे का आर्थिक तर्क दोषरहित है।’’
लॉरेन्स समर, प्रमुख अर्थशास्त्री, विश्व बैंक द्वारा दिसंबर,1991 में अपने एक साथी को भेजे गये गोपनीय स्मरण पत्र का एक अंश। यह अंश 1992 में प्रसिद्ध पत्रिका ’इकोनॉमिस्ट’ में प्रकाशित हुआ। शीर्षक था- “उन्हें प्रदूषण खाने दें।’’
ज्यादातर गुणवत्ता वाली खदानें तथा खनिज उद्योग इकाइयां... बांध व जलाशय के करीब हैं। इन इकाइयों का कचरा बैसरणी बेसिन में बड़ी मात्रा में गाद भर रहा है। यह एक ऐसी खतरनाक बात है, जो कि परियोजना की सुरक्षा तथा क्षमता पर ही प्रश्न लगा देगी। न ये बांध 100 वर्ष प्रस्तावित अवधि तक सुरक्षित रह पायेंगे और न ही बांध के कमांड एरिया के दो लाख किसानों के खेतों को सींचने का वादा पूरा हो पायेगा। ये हालात आपदा लायेंगे, सो अलग।
उक्त पंक्तियां विश्व बैंक के पर्यावरणीय नजरिये की एक बानगी भर है। इससे समझ सकते हैं कि विश्व बैंक की गतिविधियों की प्राथमिकता क्या है: पर्यावरण या उद्योग? जीवन या पैसा? गरीब देशों को मदद या अमीर देशों की स्वार्थपूर्ति? इसी से यह भी समझा जा सकता है कि विश्व बैंक के सदस्य देश भारत जैसे देशों में औद्योगिक निवेश को क्यों बेताब हैं? जाहिर है कि विश्व बैंक के नजरिये से भारत जैसे देश कचराघर हैं। जहरीले से जहरीला कचरा डालने के लिए माकूल जगह। आर्थिक मंदी के इस दौर में अमेरिका-यूरोप की तुलना में कम मजदूरी में काम करना भारत जैसे देशों की ताकत मानी जानी चाहिए। किंतु विश्व बैंक के नजरिये से तो जैसे यह हमारा दोष ही साबित हो रहा है। अपने सदस्य देशों की प्रकृति व जिंदगी को प्रदूषण मुक्त रखने के लिए विश्व बैंक जहर पीने के तथाकथित कायदे व फायदे दूसरे देशों को इसी तरह समझाता आ रहा है। क्या हम मूर्ख देश हैं? या वे हमारे देवता हैं और हम भगवान नीलकंठ? नहीं!.... तो क्या सिर्फ कम मजदूरी और मौत के कम मुआवजे के कारण ही हम किसी भी देश को कचराघर बनाने की इजाजत दे सकते हैं? लेकिन आर्थिक उदारीकरण के नाम पर भारत पिछले दो दशक से तो इसकी इजाजत दे ही रहा है।गत माह दिल्ली में आयोजित नदी न्याय जनसुनवाई के दौरान केंदुझार सिटीजन फोरम के प्रतिनिधि किरण शंकर साहू ने विश्व बैंक के इस गोपनीय एजेंडे का खुलासा किया। श्री साहू ने बैतरणी नदी बेसिन में हो रहे प्रदूषण व शोषण संबंधी अन्याय के लिए विश्व बैंक के उक्त नजरिये को जिम्मेदार ठहराया। उन्होने कहा कि उस नजरिये के कारण ही कच्चे लोहे की खदानों, क्रशरों और फैक्ट्रियों ने मिलकर केंदूझार को लौह कचराघर में तब्दील कर दिया है। इससे बैतरणी जैसी पुण्योतमा जलधारा का बेसिन तबाह हो रहा है। विश्व बैंक के उपरिलिखित स्मरण पत्र के लिखे जाने के दो दशक बाद आज केंदूझार जिला खनिज उद्योग व उन्हें कच्चा माल मुहैया कराने वाली खदान ही खदान हैं। 300 वर्ग किमी का एक पूरा लीज एरिया 108 विशाल खानों से हुई अपनी बर्बादी पर आसूं बहाता देखा जा सकता है। किसे परवाह है कि इस 300 में 180 वर्ग किमी. तो घोषित तौर पर वनक्षेत्र है! स्पंज आयरन की 24 यूनिट और 300 से अधिक कच्चे लोहे के क्रशर ग्रामीण इलाकों में दूर-दूर तक फैले हुए हैं।
कच्चे लोहे को बंदरगाह व स्टील फैक्ट्रियों में भेजने से पहले धोकर साफ करना होता है। इसमें बड़ी मात्रा में पानी का खर्च होता है। चूरा बनाने और धुलाई की इस प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर ठोस कचरा बचता है। यह कचरा उसके अलावा होता है, जो घटिया गुणवत्ता के नाम पर अशोधित ही छोड़ दिया जाता है। कचरा निपटान के अपने नियम हैं, किंतु उनकी उचित पालन कोई नहीं करता। यही कचरा वर्षा के दिनों में मैदानी इलाकों में बर्बादी भरी बाढ़ का कारण बन रहा है। बाढ़ के पानी के साथ-साथ खेतों पर फैलने वाला नुकसानदेह लौह कचरा बैतरणी के निचले बेसिन के खेतों की उर्वरा शक्ति का विनाश कर रहा है। इसकी नजाकत को यहां कागज से ज्यादा, मौके पर जाकर ही समझा जा सकता है। विरोध के उठते स्वरों को देखते हुए अब खदानों को लौह अयस्क के कचरे से भरने का प्रस्ताव सामने लाया जा रहा है। बैतरणी किनारे की खदानों में भरकर तो यह कचरा बारिश के दिनों में बहकर बैतरणी को ही कचरे से भर देगा।
बैतरणी बेसिन का दूसरा संकट गाद के रूप में है। बैतरणी की धारा पर बसुदेवपुर में सिंचाई बांध की एक बड़ी परियोजना का निर्माण चल रहा है। परियोजना को 2013 पूरा कर लेने का लक्ष्य है। जलाशय की जलसंग्रहण क्षमता 269 मिलियन क्यूमेक है। कहा जा रहा है कि इससे ऊपरी केंदूझार की सूखाग्रस्त 48 हजार एकड़ भूमि की सिंचाई हो सकेगी। बांध का जलग्रहण क्षेत्र 1565 वर्ग किमी है। चिंतित करने वाला पहलू यह है कि इसमें से 300 वर्ग किमी. क्षेत्र लौह और मैंगनीज अयस्क क्षेत्र होने के कारण लीज पर है। उसमें से भी ज्यादातर गुणवत्ता वाली खदानें तथा खनिज उद्योग इकाइयां... बांध व जलाशय के करीब हैं। इन इकाइयों का कचरा बैसरणी बेसिन में बड़ी मात्रा में गाद भर रहा है। यह एक ऐसी खतरनाक बात है, जो कि परियोजना की सुरक्षा तथा क्षमता पर ही प्रश्न लगा देगी। न ये बांध 100 वर्ष प्रस्तावित अवधि तक सुरक्षित रह पायेंगे और न ही बांध के कमांड एरिया के दो लाख किसानों के खेतों को सींचने का वादा पूरा हो पायेगा। ये हालात आपदा लायेंगे, सो अलग।
यह लापरवाही, जमीनी हकीकत व कायदे-कानूनों की अनदेखी ही है, जो बांधों को ज्यादा विनाशकारी बनाती है। एक ओर बांध बाढ़ लाता है और दूसरी ओर अंधाधुंध जलनिकासी सूखा। क्या विश्व बैंक का उपरोक्त वर्णित नजरिया हमारी औद्योगिक व कृषि विकास दर को घटाने वाला साबित नहीं हो रहा है? यह विचारणीय प्रश्न है। सिर्फ बैतरणी नदी बेसिन के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे भारत की आर्थिक, औद्योगिक कृषि, खनन, पर्यावरण, जल, ग्रामीण विकास एवं रोजगार नीति के नीतिकारों के लिए।
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