पहाड़ी कभी वन सम्पदा की दृष्टि से खासी समृद्ध हुआ करती थी। तब यहाँ सघन जंगल में कई वन्य जीव भी रहते थे। पहाड़ी पर वन इस तरह आच्छादित थे कि दिन की रोशनी में भी अकेले आने में लोग डरते थे। वन्य जीवों की बहुलता होने से यहाँ शिकार होने की बात भी सामने आती है। तब यहाँ इमारती लकड़ी के साथ हजारों फलदार पेड़ हुआ करते थे। पानी के झरने बहते थे और कई जगह प्राकृतिक रूप से पानी इकट्ठा हो जाया करता था। शंकरगढ़ की पहाड़ियों से रिसता हुआ पानी देवास शहर के आसपास से ठंड के आखिरी दिनों तक बहता रहता था। एनजीटी ने एक महत्त्वपूर्ण फैसले में शंकरगढ़ पहाड़ी को फिर से हरा-भरा बनाने के निर्देश दिये हैं। यहाँ बीते 40 सालों से मुरम पत्थर का लगातार खनन होते रहने से पहाड़ी को बड़ी तादाद में पर्यावरणीय नुकसान हुआ है। अब तक आधी से ज्यादा पहाड़ी इन खनन कारोबारियों के स्वार्थ की भेंट चढ़ चुकी है। एक बुजुर्ग महिला की याचिका पर अब इस ताजा फैसले ने शहर के पर्यावरण प्रेमियों में नए उत्साह का संचार किया है।
मध्य प्रदेश में भोपाल-इन्दौर हाईवे पर देवास बायपास के नजदीक और देवास शहर से करीब 3 किमी की दूरी पर शंकरगढ़ की पहाड़ी है। यहाँ लम्बे वक्त से खनन होने से पर्यावरण और जमीनी पानी को खासा नुकसान हुआ है। इसे लेकर एनजीटी की भोपाल कोर्ट ने सरकार और ठेकेदारों को आधा-आधा खर्च वहन कर इसे फिर से हरियाली का बाना पहनाने का आदेश दिया है।
करीब दो साल पहले प्रशासन ने यहाँ खनन कार्य बन्द करा दिया है। पहाड़ी को फिर से हर-भरा बनाने के लिये पौधरोपण पर एक मोटे अनुमान के मुताबिक यहाँ करीब 25 करोड़ की राशि खर्च करनी पड़ेगी। इसमें साढ़े बारह करोड़ की राशि पचास ठेकेदारों से यानी प्रति ठेकेदार पाँच लाख रुपए ली जाएगी।
इस आदेश के बाद शहर के ही एक पर्यावरण प्रेमी सामजिक कार्यकर्ता असीम मोदी ने सुप्रीम कोर्ट, एनजीटी की मुख्य बेंच और राष्ट्रपति को जनहित पत्र भेजकर शंकरगढ़ सहित प्रदेश की अन्य पहाड़ियों को भी खनन से मुक्त करने की माँग की है। उन्होंने इस पत्र में यह भी तथ्य दिया है कि यदि उस समय यहाँ जंगल था तो तत्कालीन अधिकारियों ने यहाँ खनन की अनुमति कैसे और क्यों दी। क्यों न इसको हरी-भरी करने का खर्च उन अधिकारियों से व्यक्तिगत रूप से वसूला जाये। उन्होंने पत्र में यह सवाल भी किया है कि लगातार 40 सालों तक ठेकेदार मनमाने ढंग से पहाड़ी का दोहन करते रहे, इस दौरान जिम्मेदार अफसर कैसे चुप रहे और उन्होंने ठेकेदारों के खिलाफ कोई कार्यवाही क्यों नहीं की। पहाड़ी की लीज का नवीनीकरण भी होता रहा पर किसी ने कोई ध्यान नहीं दिया। इसमें कहीं-न-कहीं अधिकारियों की मिलीभगत भी नजर आती है।
इस पहाड़ी पर घने जंगल होने के बावजूद 1970 के दशक में बढ़ते हुए शहर की निर्माण आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये इसके एक हिस्से से मुरम निकालना शुरू किया गया। प्रशासन ने सीमित क्षेत्र की अनुमति दी थी लेकिन शासन की बेपरवाही और ठेकेदारों के स्वार्थ ने इसे धीरे-धीरे वीरान बना दिया। बाद में 1980 के दशक में शंकरगढ़ क्षेत्र में खनन के लिये ठेकेदारों को बाकायदा आमंत्रित कर इसके कुछ हिस्से नीलाम किये जाने लगे। ऊँची-से-ऊँची बोली लगाने वाले ठेकेदारों को इसके पट्टे लम्बे समय के लिये आवंटित कर दिये गए। इसकी अवधि पाँच साल से पच्चीस साल तक दी गई।
करीब पचास ठेकेदारों ने इस पहाड़ी को निजी मिल्कियत समझते हुए इसका अन्धाधुन्ध दोहन किया। सरकार ने भी इससे करोड़ों रुपए की रॉयल्टी कमाई। ठेकेदारों को इससे मनमाँगी मुराद मिल गई। उन्होंने पहाड़ी की जमीन पर मुरम और मिट्टी का जमकर दोहन किया।
इंदौर-भोपाल हाईवे निर्माण, औद्योगिक क्षेत्र, शहर में निर्माण कार्य सहित अनेक कामों में यहाँ की लाखों डम्पर मुरम का इस्तेमाल धड़ल्ले से किया गया। कई बार तो ऐसी शिकायतें भी मिली कि ठेकेदारों ने अपने तयशुदा क्षेत्र से आगे बढ़कर आसपास भी खनन गतिविधियाँ संचालित की। एक मामले में तो कोर्ट ने अतिक्रमण कर खनन करने के आरोप में एक निजी कम्पनी पर करोड़ों रुपए का जुर्माना भी आरोपित किया है। ठेकेदारों ने नाममात्र की रॉयल्टी के बदले करोड़ों का मुनाफा कमाया और पहाड़ी बदहाल होती गई। धीरे-धीरे यहाँ का जंगल उजड़ गया। पेड़ नहीं बचे तो पानी भी नहीं थमने लगा। आसपास के नालों से पानी फिसलता हुआ बह जाने लगा।
पर्यावरण की इस बदहाल स्थिति को देखते-समझते हुए भी राजनीतिक दल और बुद्धिजीवी सब चुप ही रहे, लेकिन एक बुजुर्ग महिला राधारानी वाजपेयी चुप नहीं रह सकीं। उन्होंने यहाँ पर्यावरण को हो रहे नुकसान को लेकर 2013 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की भोपाल कोर्ट में प्रकरण दर्ज करवाया। इसके आधार पर 15 दिसम्बर 16 को कोर्ट ने शंकरगढ़ पहाड़ी पर पर्यावरण को बड़ा नुकसान होने की बात को सही पाया और फैसला दिया कि शासन और ठेकेदार पचास-पचास फीसदी राशि खर्च करके इस पहाड़ी को फिर से हरा-भरा बनाएँ।
वे बताती हैं कि यह पहाड़ी कभी वन सम्पदा की दृष्टि से खासी समृद्ध हुआ करती थी। तब यहाँ सघन जंगल में कई वन्य जीव भी रहते थे। देवास की पवार रियासत के दस्तावेज और बुजुर्गों की यादें बताती हैं कि इस पहाड़ी पर वन इस तरह आच्छादित थे कि दिन की रोशनी में भी अकेले आने में लोग डरते थे। वन्य जीवों की बहुलता होने से यहाँ शिकार होने की बात भी सामने आती है। तब यहाँ इमारती लकड़ी के साथ हजारों फलदार पेड़ हुआ करते थे।
पानी के झरने बहते थे और कई जगह प्राकृतिक रूप से पानी इकट्ठा हो जाया करता था। शंकरगढ़ की पहाड़ियों से रिसता हुआ पानी देवास शहर (तत्कालीन कस्बा) के आसपास से ठंड के आखिरी दिनों तक बहता रहता था। इससे आसपास का जल स्तर काफी हद तक अच्छा बना रहता था।
फैसले से खनन ठेकेदार खुश नहीं हैं। खनिज व्यापारी संघ देवास के मोहम्मद इकबाल का कहना है कि 1980 में जब हमें शंकरगढ़ पहाड़ी पर खनन की अनुमति प्रशासन ने जारी की थी तब वहाँ जंगल नहीं था। जंगल होने पर विभाग अनुमति ही नहीं दे सकता था। जब खनन से पहले जंगल नहीं था तो फिर जंगल को नुकसान पहुँचाने के झूठे आरोप के आधार पर खनन ठेकेदारों को किस आशय से दोषी ठहराकर राशि वसूलने की बात कही जा रही है।
हमने शासन के उस समय की सभी जरूरी दस्तावेजी प्रक्रिया का पालन किया है और सरकारी अधिकारियों ने पूरी पड़ताल के बाद ही हमें यहाँ खनन की अनुमति प्रदान की थी। इस दौरान हमने हर साल सरकार के खजाने में करोड़ों रुपए रायल्टी के रूप में जमा किये हैं। अब अचानक हमें दोषी क्यों बनाया जा रहा है, यह बात समझ से परे है। शासन ने उच्च बोली के लिये निविदा आमंत्रण किया था और हमने आवश्यक अहर्ताओं को पूरी करते हुए अनुमति प्राप्त की थी।
एनजीटी का फैसला शंकरगढ़ सहित ऐसी कई पहाड़ियों के लिये वरदान साबित हो सकता है, जो मानव आवश्यकताओं के स्वार्थ की भेंट चढ़कर अपना अस्तित्व खो चुकी हैं या खोने की कगार पर है। पहाड़ी का खत्म होना अकेली पहाड़ी का खत्म होना नहीं है, यह उसके पूरे पर्यावरण के लिये खासा नुकसानदेह है, इससे बारिश के पानी का जमीन में रिसने का प्राकृतिक तंत्र भी बुरी तरह प्रभावित होता है।
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Post By: RuralWater