चिपको आन्दोलन की 45वीं वर्षगाँठ पर विशेष
उत्तराखंड को जन आन्दोलनों की धरती भी कहा जा सकता है, उत्तराखंड के लोग अपने जल-जंगल, जमीन और बुनियादी हक-हकूकों के लिये और उनकी रक्षा के लिये हमेशा से ही जागरुक रहे हैं। चाहे 1921 का कुली बेगार आन्दोलन, 1930 का तिलाड़ी आन्दोलन हो या 1974 का चिपको आन्दोलन, या 1984 का नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन या 1994 का उत्तराखंड राज्य प्राप्ति आन्दोलन, अपने हक-हकूकों के लिये उत्तराखंड की जनता और खास तौर पर मातृ शक्ति ने आन्दोलन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। चिपको आंदोलन की जननी गौरा देवी के बारे में बता रहे हैं शेखर पाठक।
जनवरी 1974 में जब अस्कोट-आराकोट अभियान की रूपरेखा तैयार हुई थी, तो हमारे मन में सबसे ज्यादा कौतूहल चिपको आन्दोलन और उसके कार्यकर्ताओं के बारे में जानने का था।
1973 के मध्य से जब अल्मोड़ा में विश्वविद्यालय स्थापना, पानी के संकट तथा जागेश्वर मूर्ति चोरी संबंधी आन्दोलन चल रहे थे; गोपेश्वर, मंडल और फाटा की दिल्ली-लखनऊ के अखबारों के जरिये पहुँचने वाली खबरें छात्र युवाओं को आन्दोलित करती थीं लेकिन तब न तो विस्तार से जानकारी मिलती थी, न ही उस क्षेत्र में हमारे कोई सम्पर्क थे।
हम लोग कुमाऊँ के सर्वोदयी कार्यकर्ताओं को भी नहीं जानते थे। सरला बहन का जिक्र सुना भर था, भेंट उनसे भी नहीं थी। हममें से अनेक भावुक युवा इस हलचल से एक गौरव-सा महसूस करते थे पर प्रेरणा के स्रोतों के बावत ज्यादा जानते न थे। तब सिर्फ सुन्दरलाल बहुगुणा, कुंवर प्रसून तथा प्रताप शिखर से शमशेर बिष्ट और मेरी मुलाकात हुई थी।
1974 के अस्कोट आराकोट अभियान के समय हमारी मुलाकात चमोली के चिपको कार्यकर्ताओं में शिशुपाल सिंह कुँवर तथा केदार सिंह रावत से ही हो पाई थी। अगले 10 सालों में हम लोग उत्तराखंड के छोटे-बड़े आन्दोलनों से जुड़े किसी व्यक्ति से अपरिचित नहीं रहे, पर किसी से अगर प्रत्यक्ष मुलाकात नहीं हो सकी तो वह रैणी की गौरा देवी थीं।
दसौली ग्राम स्वराज्य संघ द्वारा आयोजित चिपको पर्यावरण शिविरों में भी उनसे मिलने का मौका नहीं मिला। 1984 के अस्कोट-आराकोट अभियान के समय उनसे मुलाकात हो सकी और यह मुलाकात हमारे मन से कभी उतरी नहीं।
गौरा शिखर पर 12 जून 1984 को कुँवारी पास को पार करते हुए जब हम- गोविन्द पन्त ‘राजू’, कमल जोशी और मैं उड़ते हुए से ढाक तपोवन पहुँचे थे तो गौरा देवी एक पर्वत शिखर की तरह हमारे मन में थीं कि उन तक पहुँचना है। ढाक तपोवन में चिपको आन्दोलन के कर्मठ कार्यकर्ता हयात सिंह ने हमारे लिये आधार शिविर का काम किया। उन्होंने 1970 की अलकनन्दा बाढ़ से चिपको आन्दोलन और उसके बाद का हाल आशा और उदासी के मिले-जुले स्वर में बताया।
13 जून 1984 को हम तीनों और पौखाल के रमेश गैरोला तपोवन-मलारी मोटर मार्ग में चलने लगे। कुछ आगे से नन्दादेवी अभ्यारण्य से आ रही ऋषिगंगा तथा नीती, ऊँटाधूरा तथा जयन्ती धूरा से आ रही धौली नदी का संगम ऋषि प्रयाग नजर आया। ऋषिगंगा के आर-पार दो मुख्य गाँव हैं- रैंणी वल्ला और रैणी पल्ला।
आस-पास और भी गाँव हैं। जैसे- पैंग, वनचैरा, मुरुन्डा, जुवाग्वाड़, जुगसू आदि। ये सभी ग्रामसभा रैंणी के अन्तर्गत हैं। कुछ आगे लाटा गाँव है। इनमें ज्यादातर राणा या रावत जाति के तोल्छा (भोटिया) रहते हैं। लगभग 150 मवासे और 500 की जनसंख्या। ऋषि गंगा-धौली गंगा संगम के पास एक ऊँची दीवार की तरह बैठी साद (मलवा) इन नदियों के नाजुक जलग्रहण क्षेत्रों का मिजाज बताती थी। गौरा देवी का गाँव रैंणी वल्ला है।
आगे बढ़े तो राशन के दुकानदार रामसिंह रावत ने आवाज लगाई कि किस रैणी जाना है? ‘गौरा देवी जी से मिलना है’ सुनकर उन्होंने बताया कि वे ऊपर रहती हैं। एक लड़का पल्ला रैणी भेजकर हमने सभापति गबरसिंह रावत से भी बैठक में आने का आग्रह कर लिया। सेब, खुबानी और आड़ू के पेड़ों के अगल-बगल से कुछेक घरों के आँगनों से होकर हम सभी, जो अब 10-15 हो गए थे, गौरा देवी के आँगन में पहुँचे। मुझे तवाघाट (जिला पिथौरागढ़) के ऊपर बसे खेला गाँव की याद एकाएक आई। संगम के ऊपर वैसी ही उदासी और आरपार फैली हुई अत्यन्त कमजोर भूगर्भिक संरचना नजर आई।
छोटा-सा लिन्टर वाला मकान। लिन्टर की सीढ़ियाँ उतरकर एक माँ आँगन में आई। वह गौरा देवी ही थीं। हम सबका प्रणाम उन्होंने बहुत ही आत्मीय मुस्कान के साथ स्वीकार किया, जैसे प्रवास से बेटे घर आये हों। हम सब उन्हें ऐसे देख रहे थे जैसे कोई मिथक एकाएक यथार्थ हो गया हो। वही मुद्रा जो वर्षों पहले अनुपम मिश्र द्वारा खींची फोटो में देखी थी।
कानों में मुनड़े, सिर पर मुन्याणा (शॉल) रखा हुआ, गले में मूँग की माला, काला आँगड़ा और गाँती, चाबियों का लटकता गुच्छा और कपड़ों में लगी चाँदी की आलपिन। गेहुएँ रंग वाले चेहरे में फैली मुस्कान और कभी-कभार नजर आता ऊपर की पंक्ति के टूटे दाँत का खाली स्थान। अत्यधिक मातृत्व वाला चेहरा। स्वर भी बहुत आत्मीय, साथ ही अधिकारपूर्ण। तो गौरा देवी कोई पर्वत शिखर नहीं, एक प्यारी-सी पहाड़ी माँ थीं। वे इन्तजाम में लग गईं। जब उनको रमेश ने बताया कि पांगू से अस्कोट, मुनस्यारी, कर्मी, बदियाकोट, बलाण, रामणी, कुंवारीखाल तथा ढाक तपोवन हो कर पहुंचे हैं ये लोग, तो वे हमें गौर से देख के कहने लगीं कि यह तो दिल्ली से भी ज्यादा दूर हुआ! तख्त पर अपने हाथ से बना कालीन बिछाया।
हम सभी को बिठाया। बात करने का कोई संकेत नहीं। गोविन्द तथा कमल इस बीच हमारे अभियान, चिपको आन्दोलन, पहाड़ों के हालात तथा नशाबन्दी आदि पर बातें करने लगे तो वे सभा की तैयारी में लग गईं। इधर-उधर बच्चे दौड़ाये। महिला मंगल दल के सदस्यों को बुला भेजा। फलों और चाय के बाद खाने की तैयारी भी होने लगी। हमने बताया कि हम खाकर आये हैं तो कुछ नाश्ता बनने लगा। हमने बातचीत के लिए आग्रह किया। बातचीत के बीच ही महिलाओं-पुरुषों का इकट्ठा होना शुरू हो गया।
अपनी जिन्दगी वे बताने लगीं कि कितना कठिन है यहाँ का जीवन और फिर कुछ समय के लिए वे अपनी ही जिन्दगी में डूब गईं। यह अपनी जिन्दगी के मार्फत वहाँ की आम महिलाओं तथा अपने समाज से हमारा परिचय कराना भी था।
गौरा देवी लाता गाँव में जन्मी थीं, जो नन्दादेवी अभ्यारण्य के मार्ग का अन्तिम गाँव है। उन्होंने अपनी उम्र 59 वर्ष बताई। इस हिसाब से वे 1925 में जन्मी हो सकती हैं। 12 साल की उम्र में रैंणी के नैनसिंह तथा हीरादेवी के बेटे मेहरबान सिंह से उनका विवाह हुआ। पशुपालन, ऊनी कारोबार और संक्षिप्त-सी खेती थी उनकी। रैणी भोटिया (तोल्छा) लोगों का बारोमासी (साल भर आबाद रहने वाला) गाँव था। भारत-तिब्बत व्यापार के खुले होने के कारण दूरस्थ होने के बावजूद रैणी मुख्य धारा से कटा हुआ नहीं था और तिजारत का कुछ न कुछ लाभ यह गाँव भी पाता रहा था।
जब गौरा देवी 22 साल की थीं और एकमात्र छोटा बेटा चन्द्रसिंह लगभग ढाई साल का, तब उनके पति का देहान्त हो गया। जनजातीय समाज में भी विधवा को कितनी ही विडम्बनाओं में जीना पड़ता है। गौरा देवी ने भी संकट झेले। हल जोतने के लिए किसी और पुरुष की खुशामद से लेकर नन्हें बेटे और बूढ़े सास-ससुर की देख-रेख तक हर काम उन्हें करना होता था। फिर सास-ससुर भी चल बसे। गौरा माँ ने बेटे चन्द्र सिंह को अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बना दिया। इस समय तक तिब्बत व्यापार बन्द हो चुका था।
जोशीमठ से आगे सड़क आने लगी थी। सेना तथा भारत तिब्बत सीमा पुलिस का यहां आगमन हो गया था। स्थानीय अर्थ व्यवस्था का पारम्परिक ताना बाना तो ध्वस्त हो ही गया था, कम शिक्षा के कारण आरक्षण का लाभ भी नहीं मिल पा रहा था। चन्द्रसिंह ने खेती, ऊनी कारोबार, मजदूरी और छोटी-मोटी ठेकेदारी के जरिये अपना जीवन संघर्ष जारी रखा। इसी बीच गौरा देवी की बहू भी आ गई और फिर नाती-पोते हो गये। परिवार से बाहर गाँव के कामों में शिरकत का मौका जब भी मिला उसे उन्होंने निभाया। बाद में महिला मंगल दल की अध्यक्षा भी वे बनीं।
पारिवारिक संकट तो उन्होंने कितने सारे झेले और सुलझाये थे, आज उन्हें एक सामुदायिक जिम्मेदारी निभानी थी। कठिन परीक्षा का समय था। खाना बना रही या कपड़े धो रही महिलाएँ इकट्ठी हो गईं। गौरा देवी के साथ 27 महिलाएँ तथा बेटियां देखते-देखते जंगल की ओर चल पड़ीं। आशंका तथा आत्मविश्वास साथ-साथ चल रहे थे। होठों पर कोई गीत न था। शायद कुछ महिलाएँ अपने मन में भगवती नन्दा को याद कर रही हों। रास्ते से जा रहे मजदूरों को बताया कि वे जंगल की रक्षा के लिये जा रही हैं।
1972 में गौरा देवी रैणी महिला मंगल दल की अध्यक्षा बनीं। नवम्बर 1973 में और उसके बाद गोविंद सिंह रावत, चंडी प्रसाद भट्ट, वासवानन्द नौटियाल, हयात सिंह तथा कई दर्जन छात्र उस क्षेत्र में आये। रैणी तथा आस-पास के गाँवों में अनेक सभाएँ हुई। जनवरी 1974 में रैंणी जंगल के 2451 पेड़ों की निलामी की बोली देहरादून में लगने वाली थी।मण्डल और फाटा की सफलता ने आन्दोलनकारियों में आत्म-विश्वास बढ़ाया था। वहाँ अपनी बात रखने की कोशिश में गये चंडी प्रसाद भट्ट अन्त में ठेकेदार के मुन्शी से कह आये कि अपने ठेकेदार को बता देना कि उसे चिपको आन्दोलन का मुकाबला करना पड़ेगा। उधर गोविन्द सिंह रावत ने ‘आ गया है लाल निशान, ठेकेदारो सावधान’ पर्चा क्षेत्र में स्वयं जाकर बाँटा। अन्ततः मण्डल और फाटा की तरह रैंणी में भी प्रतिरोध का नया रूप प्रकट हुआ।
15 तथा 24 मार्च 1974 को जोशीमठ में तथा 23 मार्च को गोपेश्वर में रैंणी जंगल के कटान के विरुद्ध प्रदर्शन हुए। आन्दोलनकारी गाँव-गाँव घूमे, जगह-जगह सभाएँ हुईं लेकिन प्रशासन, वन विभाग तथा ठेकेदार की मिलीभगत से अन्ततः जंगल काटने आये हिमाचली मजदूर रैणी पहुँच गये। जो दिन यानी 26 मार्च 1974 जंगल कटान के लिये तय हुआ था, वही दिन उन खेतों के मुआवजे को बाँटने के लिये भी तय हुआ, जो 1962 के बाद सड़क बनने से कट गये थे।
सीमान्ती गाँवों की गरीबी और गर्दिश ने मलारी, लाता तथा रैणी के लोगों को मुआवजा लेने के लिए जाने को बाध्य किया। पूरे एक दशक बाद भुगतान की बारी आयी थी। सभी पुरुष चमोली चले गये।
26 मार्च 1974 को रैणी के जंगल में जाने से मजदूरों को रोकने के लिए न तो गाँव के पुरुष थे न कोई और। हयात सिंह कटान के लिए मजदूरों के पहुँचने की सूचना दसौली ग्राम स्वराज्य संघ को देने गोपेश्वर गये। गोविन्द सिंह रावत अकेले पड़ गये और उन पर खुफिया विभाग की निरंतर नजर थी।
चंडी प्रसाद भट्ट तथा दसौली ग्राम स्वराज्य संघ के कार्यकर्ताओं को वन विभाग के बड़े अधिकारियों ने अपने नियोजित कार्यक्रमों के तहत गोपेश्वर में अटका दिया था। मजदूरों के आने की सूचना उन तक नहीं पहुंचने दी। ऐसे में किसी को जंगल बचने की क्या उम्मीद होती! किसी के मन के किसी कोने में भी शायद यह विचार नहीं आया होगा कि पहाड़ों में जिन्दा रहने की समग्र लड़ाई लड़ रही महिलाएं ही अन्ततः रैणी का जंगल बचायेंगी।
26 मार्च 1974 की ठंडी सुबह को मजदूर जोशीमठ से बस द्वारा और वन विभाग के कर्मचारी जीप द्वारा रैणी की ओर चले। रैणी से पहले ही सब उतर गये और चुपचाप ऋषिगंगा के किनारे-किनारे फर, सुरई तथा देवदारु आदि के जंगल की ओर बढ़ने लगे। एक लड़की ने यह हलचल देख ली। वह महिला मंगल दल की अध्यक्षा गौरा देवी के पास गई। ‘चिपको’ शब्द सुनकर मुँह छिपाकर हँसने वाली गौरा देवी गम्भीर थी। पारिवारिक संकट तो उन्होंने कितने सारे झेले और सुलझाये थे, आज उन्हें एक सामुदायिक जिम्मेदारी निभानी थी। कठिन परीक्षा का समय था। खाना बना रही या कपड़े धो रही महिलाएँ इकट्ठी हो गईं।
गौरा देवी के साथ 27 महिलाएँ तथा बेटियां देखते-देखते जंगल की ओर चल पड़ीं। गौरा देवी के साथ घट्टी देवी, भादी देवी, बिदुली देवी, डूका देवी, बाटी देवी, गौमती देवी, मूसी देवी, नौरती देवी, मालमती देवी, उमा देवी, हरकी देवी, बाली देवी, फगुणी देवी, मंता देवी, फली देवी, चन्द्री देवी, जूठी देवी, रुप्सा देवी, चिलाड़ी देवी, इंद्री देवी आदि ही नहीं बच्चियाँ- पार्वती, मेंथुली, रमोती, बाली, कल्पति, झड़ी और रुद्रा- भी गम्भीर थीं। आशंका तथा आत्मविश्वास साथ-साथ चल रहे थे। होठों पर कोई गीत न था। शायद कुछ महिलाएँ अपने मन में भगवती नन्दा को याद कर रही हों। रास्ते से जा रहे मजदूरों को बताया कि वे जंगल की रक्षा के लिये जा रही हैं। मजदूरों को रुकने के लिये कहा। उन्होंने कहा कि खाना बना है ऊपर। तो उनका बोझ वहीं रखवा लिया गया। माँ-बहनों और बच्चों का यह दल मजदूरों के पास पहुँच गया। वे खाना बना रहे थे। कुछ कुल्हाड़ियों को परख रहे थे। ठेकेदार तथा वन विभाग के कारिन्दे (इनमें से कुछ सुबह से ही शराब पिये हुए थे) कटान की रूपरेखा बना रहे थे।
सभी अवाक थे। यह कल्पना ही नहीं की गई थी कि उनका जंगल काटने इस तरह लोग आयेंगे। महिलाओं ने मजदूरों और कारिन्दों से कहा कि खाकर के चले जाओ। कारिन्दों ने डराने धमकाने का प्रयास शुरू कर दिया। महिलाएँ झुकने के लिये तैयार नहीं थीं। डेड़-दो घंटे बाद जब वन विभाग के कारिन्दों ने मजदूरों से कहा कि अब कटान शुरू कर दो। महिलाओं ने पुनः मजदूरों को वापस जाने की सलाह दी। 50 से अधिक कारिन्दों-मजदूरों से गौरा देवी तथा साथियों ने अत्यन्त विनीत स्वर में कहा कि- ‘यह जंगल भाइयो, हमारा मायका है। इससे हमें जड़ी-बूटी, सब्जी, फल, लकड़ी मिलती है। जंगल काटोगे तो बाढ़ आयेगी। हमारे बगड़ बह जायेंगे। खेती नष्ट हो जायेगी। खाना खा लो और फिर हमारे साथ चलो। जब हमारे मर्द आ जायेंगे तो फैसला होगा।’
मजदूर असमंजस में थे। पर ठेकेदार और जंगलात के आदमी उन्हें डराने-धमकाने लगे। काम में रुकावट डालने पर गिरफ्तार करने की धमकी के बाद इनमें से एक ने बंदूक भी महिलाओं को डराने के लिये निकाल ली। महिलाओं में दहशत तो नहीं फैली पर तुरन्त कोई भाव भी प्रकट नहीं हुआ। उन सबके भीतर छुपा रौद्र रूप तब गौरा देवी के मार्फत प्रकट हुआ, जब बन्दूक का निशाना उनकी ओर साधा गया। अपनी छाती खोलकर उन्होंने कहा-‘‘मारो गोली और काट लो हमारा मायका।’’ गौरा की गरजती आवाज सुनकर मजदूरों में भगदड़ मच गई। गौरा को और अधिक बोलने और ललकारने की जरूरत नहीं पड़ी। मजदूर नीचे को खिसकने लगे। मजदूरों की दूसरी टोली, जो राशन लेकर ऊपर को आ रही थी, को भी रोक लिया गया। अन्ततः सभी नीचे चले गये।
ऋषिगंगा के किनारे जो सिमेंट का पुल एक नाले में डाला गया था, उसे भी महिलाओं ने उखाड़ दिया ताकि फिर कोई जंगल की ओर न जा सके। सड़क और जंगल को मिलाने वाली पगडंडी पर महिलाएँ रुकी रहीं। ठेकेदार के आदमियों ने गौरा देवी को फिर डराने-धमकाने की कोशिश की। बल्कि उनके मुँह पर थूक तक दिया लेकिन गौरा देवी के भीतर की माँ उनको नियंत्रित किये थीं। वे चुप रहीं। उसी जगह सब बैठे रहे। धीरे-धीरे सभी नीचे उतर गये। ऋषिगंगा यह सब देख रही थी। वह नदी भी इस खबर को अपने बहाव के साथ पूरे गढ़वाल में ले जाना चाहती होगी।
अगली सुबह रैणी के पुरुष ही नहीं, गोविन्द सिंह रावत, चंडी प्रसाद भट्ट और हयात सिंह भी आ गये। रैणी की महिलाओं का मायका बच गया और प्रतिरोध की सौम्यता और गरिमा भी बनी रही। 27 मार्च 1974 को रैणी में सभा हुई, फिर 31 मार्च को। इस बीच बारी-बारी से जंगल की निगरानी की गई। मजदूरों को समझाया-बुझाया गया।
3 तथा 5 अप्रैल 1974 को भी प्रदर्शन हुए। 6 अप्रैल को डी.एफ.ओ. से वार्ता हुई। 7 तथा 11 अप्रैल को पुनः प्रदर्शन हुए। पूरे तंत्र पर इतना भारी दबाव पड़ा कि मुख्यमंत्री हेमवतीनन्दन बहुगुणा की सरकार ने डॉ. वीरेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में रैणी जाँच कमेटी बिठाई और जाँच के बाद रैणी के जंगल के साथ-साथ अलकनन्दा में बायीं ओर से मिलने वाली समस्त नदियों-ऋषिगंगा, पाताल गंगा, गरुण गंगा, विरही और नन्दाकिनी- के जल ग्रहण क्षेत्रों तथा कुँवारी पर्वत के जंगलों की सुरक्षा की बात उभरकर सामने आई और सरकार को इस हेतु निर्णय लेने पड़े। रैंणी सीमान्त के एक चुप गाँव से दुनिया का एक चर्चित गाँव हो गया और गौरा देवी चिपको आन्दोलन और इसमें महिलाओं की निर्णायक भागीदारी की प्रतीक बन गईं।
यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि और भी महिलाओं ने वनान्दोलन में हिस्सेदारी की तो गौरा देवी की ही इतनी चर्चा क्यों? इसका श्रेय चमोली के सर्वोदयी तथा साम्यवादी कार्यकर्ताओं को है। साथ ही गौरा देवी के व्यक्तित्व तथा उस ऐतिहासिक सुअवसर को भी, जिसमें वे असाधारण निर्णय लेने में नहीं चूकीं। कोई दशौली ग्राम स्वराज्य मण्डल पर यह आरोप लगाये कि उसने महिलाओं का इस्तेमाल किया तो यह सिर्फ पूर्वाग्रह ही कहा जायेगा।
रैणी 1984 में पौने पाँच बजे हमारी सभा शुरू हुई। 1974 के रैंणी आन्दोलन में शामिल हरकी देवी, उमा देवी, रुपसा देवी, इन्द्री देवी, बाली देवी, गौमा देवी, बसन्ती देवी आदि सभा में आ गईं। सभापति जी के साथ गाँव के अनेक बच्चे और बुजुर्ग भी जमा हो गये। गौरा देवी ने सूत्रवत् बात की और कहा-‘‘हम कुछ और नहीं सोचते। जब जंगल रहेगा तो हम रहेंगे और जब हम सब एक होंगे तो जंगल बचेगा, बगड़ बचेगा। जंगल ही हमारा रोजगार है, जिन्दगी है, मायका है। आज तिजारत नहीं रही। भेड़ पालन घट गया है। ऊपर को नेशनल पार्क (नन्दा देवी अभयारण्य) बन रहा है। बाघ ने पैंग के उम्मेद सिंह की 22 बकरियाँ एक ही दिन में मार दीं। आखिर हमारी हिफाजत भी तो होनी चाहिये।’’सभापति जी बोले कि विष्णुप्रयाग परियोजना बंद हो रही है। छोटा मोटा रोजगार भी चला जायेगा। ऊपर नेशनल पार्क बन रहा है। हमारे हक-हकूक खत्म हो रहे हैं। उन्होंने चिपको आन्दोलन की खामियाँ भी गिनाई और कहा कि सरकार के हर चीज में टाँग अड़ाने से सब बिगड़ा है। रोजगार की समस्या विकराल थी क्योंकि यहा का भोटिया समाज नौकरियों में अधिक न जा सका था।
कुछ बातें औरों ने भी रखीं। हम बस, सुनते जा रहे थे। उन सबकी सरलता, पारदर्शिता और अहंकार रहित मानसिकता का स्पर्श लगातार मिल रहा था। सभा समाप्त हो गई। उनका रुकने का आग्रह हम स्वीकार न कर सके। विदा लेते हुए सभी को प्रणाम किया। सबने अत्यन्त मोहक विदाई दी।
गौरा देवी ने हम तीनों के हाथ एक-एक कर अपने हाथों में लिये। उन्हें चूमा और अपनी आँखों तथा माथे से लगाया। वे अभी भी मुस्कुरा रहीं थीं और हम सभी भीतर तक लहरा गये थे उनकी ममता का स्पर्श पाकर। धीरे-धीरे सड़क में उतरते, ऊपर को देखते थे। ऊपर से गौरा माता अपनी बहिनों के साथ हाथ हिला रही थीं। हम तपोवन की ओर चल दिये। इतनी-सी मुलाकात हुई थी हमारी गौरा देवी से। बिना इसके उनके व्यक्तित्व की भीतरी संरचना को हम नहीं समझ पाते
गौरा देवी और चिपको आन्दोलन
गौरा देवी चिपको आन्दोलन की सर्वाधिक सुपरिचित महिला रहीं। इस पर भी उनकी पारिवारिक या गाँव की दिक्कतें घटी नहीं। चिपको को महिलाओं का आन्दोलन बताया गया पर यह केवल महिलाओं का कितना था? अपनी ही संपदा से वंचित लोगों ने अपना प्राकृतिक अधिकार पाने के लिए चिपको आन्दोलन शुरू किया था। इसके पीछे जंगलों की हिफाजत और इस्तेमाल का सहज दर्शन था।
चिपको आन्दोलन में तरह-तरह के लोगों ने स्थायी-अस्थायी हिस्सेदारी की थी। महिलाओं ने इस आन्दोलन को ग्रामीण आधार और स्त्री-सुलभ संयम दिया तो छात्र-युवाओं ने इसे आक्रामकता और शहरी-कस्बाती रूप दिया। जिला चमोली में मण्डल, फाटा, गोपेश्वर, रैणी और बाद में डूँगरी-पैन्तोली, भ्यूंढार, बछेर से नन्दीसैण तक; उधर टिहरी की हैंवलघाटी में अडवाणी सहित अनेक स्थानों और बडियारगढ़ आदि क्षेत्रों तथा अल्मोड़ा में जनोटी-पालड़ी, ध्याड़ी, चांचरीधार (द्वाराहाट) के प्रत्यक्ष प्रतिरोधों में ही नहीं बल्कि नैनीताल तथा नरेन्द्रनगर में जंगलों की नीलामियों के विरोध में भी महिलाओं और युवाओं की असाधारण हिस्सेदारी रही।
दूसरी ओर सर्वोदयी कार्यकर्ताओं के साथ अनेक राजनैतिक कार्यकर्ताओं का भी योगदान रहा। वे जन भावना और चिपको की चेतना के खिलाफ जा भी नहीं सकते थे। जोशीमठ क्षेत्र में तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का महत्वपूर्ण योगदान था, जैसे उत्तरकाशी के लगभग विस्मृत बयाली (उत्तरकाशी) के आन्दोलन में था।
इसी तरह कुमाऊँ में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी तथा उससे जुड़े लोगों ने आन्दोलन को एक अलग रूप दिया। नेतृत्व में सर्वोदयी या गैर राजनीतिक (किसी भी प्रचलित राजनीतिक दल से न जुड़े हुए) व्यक्ति भी उभरे तो यह इस आन्दोलन की एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी। अन्ततः सभी की हिस्सेदारी का प्रयास सफल हुआ। चिपको में मतभेद, विभाजन और विखंडन का दौर तो बहुत बाद में गलतफहमियों, पुरस्कारों और 1980 के वन बिल के बाद शुरू हुआ।
यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि और भी महिलाओं ने वनान्दोलन में हिस्सेदारी की तो गौरा देवी की ही इतनी चर्चा क्यों? इसका श्रेय चमोली के सर्वोदयी तथा साम्यवादी कार्यकर्ताओं को है। साथ ही गौरा देवी के व्यक्तित्व तथा उस ऐतिहासिक सुअवसर को भी, जिसमें वे असाधारण निर्णय लेने में नहीं चूकीं। कोई दशौली ग्राम स्वराज्य मण्डल पर यह आरोप लगाये कि उसने महिलाओं का इस्तेमाल किया तो यह सिर्फ पूर्वाग्रह ही कहा जायेगा।
यदि चमोली की तीस महिलाएँ एक साथ ‘वृक्षमित्र’ पुरस्कार लेने दिल्ली गई तो इससे उनकी हैसियत ही नहीं सामुहिकता भी पता चलती है। महिलाओं की स्थिति सबसे संगठित और संतोषजनक (यद्यपि यह भी पर्याप्त नहीं कही जा सकती है) चमोली जिले में ही नजर आती है क्योंकि आन्दोलन और बाद के शिविरों में भी इतनी संगठित सामूहिकता कहीं और नहीं दिखती थी। लेकिन अपने मंगल दल के अलावा महिलाओं को व्यापक नेतृत्व नहीं दिया गया।
यह नहीं कहा जाना चाहिये कि इस हेतु महिलाओं के पास पर्याप्त समय नहीं था। अब वे जंगल के अलावा और विषयों पर भी सोचने-बोलने लगीं थीं। उन्हें अपने परिवार के पुरुषों से आन्दोलन या महिला मंगल दल में हिस्सेदारी हेतु भी लड़ना पड़ा था। इसके उदाहरण उत्तराखंड में सर्वत्र मिलते हैं।
चमोली में अनेक जगह महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका प्रकट हुई लेकिन नेतृत्व को झपटने या अग्रिम पंक्ति में आने की कोशिश करना- यह पहाड़ी महिलाओं के लिए संभव नहीं था पर अनेक बार तात्कालिक रूप से उन्होंने अपना नेतृत्व किया। रैणी, डूँगरी-पैन्तोली, बछेर ही नहीं चांचरीधार तथा जनोटी-पालड़ी इसके उदाहरण हैं।
पुरुष नेतृत्व में महिलाओं की हिस्सेदारी या उनके नाम से इसे जोड़ने की होड़ थी। लेकिन यह सबको आश्चर्यजनक लगेगा कि राइटलाइवलीहुड पुरस्कार लेते हुए सुन्दरलाल बहुगुणा तथा इन्दु टिकेकर ने जो व्याख्यान दिये गये थे (हिन्दी रूप चिपको सूचना केन्द्र, सिल्यारा द्वारा प्रकाशित) उनमें गौरा देवी तो दूर चिपको की किसी महिला का भी नाम नहीं लिया गया था।
गौरा देवी अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में गुर्दे और पेशाब की बीमारी से परेशान रहीं। पक्षाघात भी हुआ। पर किसी से उन्हें मदद नहीं मिली या बहुत कम मिली। यह अवश्य सोचनीय है। यद्यपि चंडी प्रसाद भट्ट खबर मिलते ही गौरादेवी की मृत्यु के दो सप्ताह पहले उनसे मिलने जोशीमठ गये थे, जहां तब गौरादेवी का इलाज चल रहा था।
4 जुलाई 1991 की सुबह तपोवन में गौरादेवी की मृत्यु हुई। इसी तरह की स्थिति चिपको आन्दोलन के पुराने कार्यकर्ता केदार सिंह रावत की असमय मृत्यु के बाद उनके परिवार के साथ भी हुई थी। सुदेशा देवी तथा धनश्याम शैलानी को भी कम कष्ट नहीं झेलने पड़े थे। आखिर किसी को आन्दोलनों में शामिल होने का मूल्य तो नहीं दिया जा रहा था। यह काम चिपको संगठन का था। जब वह खुद फैला और गहराया नहीं, मजबूत तथा एक नहीं रह सका, तब ऐसी मानवीय स्थितियों से निपटने का तरीका कैसे विकसित होता? पर अपने अपने स्तर पर संवेदना और संगठन बने भी रहे।
उत्तराखंड के गाँवों में अपने हक-हकूक बचाने के, अपने पहाड़ों को बनाये रखने के जो ईमानदार प्रतिरोध होंगे वे ही संगठित होकर चिपको की परम्परा को आगे बढ़ायेंगे। किसी आन्दोलन का सबसे बड़ा दुर्भाग्य उसका जनता की नजरों से गिरना है। चिपको आन्दोलन भी किंचित इसका शिकार हुआ है। उत्तराखंड की सामाजिक शक्तियाँ और वर्तमान उदासी का परिदृश्य शायद चिपको को रूपान्तरित होकर पुनः प्रकट होने में मदद देगा।
चिपको की महिलाओं को और गौरा देवी को पढ़े-लिखे लोग ‘अनपढ़’ कहते हैं। यह कोई नहीं बताता कि पढ़े-लिखे होने का क्या अभिप्राय है? क्या स्कूल न जा पाने के कारण वे ‘अनपढ़’ कहलाएँ? क्या अपने परिवेश को समझ चुकीं और उसकी सुरक्षा हेतु प्रतिरोध की अनिवार्यता सिद्ध कर चुकीं महिलाएँ किसी मायने में अनपढ़ हैं? क्या वे स्कूल-कालेजों की पढ़ी होतीं तो ऐसे निर्णय लेतीं? गौरा देवी की बात करते हुए कोई उन सच्चाइयों को नहीं देखता जो स्वतः दिखाई देती हैं और जिनसे उनका कद और ऊँचा हो जाता है।12 साल की उम्र में गौरा देवी का विवाह हो गया था और वे 22 साल में विधवा हो गईं थीं। सिर्फ 10 साल का वैवाहिक जीवन रहा उनका! एक पहाड़ी विधवा के सारे संकट उन्हें झेलने पड़े पर इन्हीं संकटों ने उनके भीतर निर्णय लेने की क्षमता विकसित की। वे गाँव के कामों में दिलचस्पी रखने वाली गाँव की बुजुर्ग महिलाओं में एक थीं। एक नैसर्गिक नेतृत्व का गुण उनमें था, जो कठिन परिस्थितियों में निखरता गया। अतः 26 मार्च 1974 को जो उन्होंने किया उसे वे कैसे नहीं करतीं? यह बहुत सहज प्रक्रिया थी। यही नही वे बद्रीनाथ मन्दिर बचाओ अभियान में सक्रिय रही थीं और पर्यावरण शिविरों में भी।
चिपको आन्दोलन ने यदि उन सभी व्यक्तियों, समूहों को अपने साथ बनाये रखा होता, जो इसकी रचना प्रक्रिया बढ़ाने में योगदान देते रहे थे, तो न सिर्फ गौरा देवी की बल्कि चिपको आन्दोलन की प्रेरणा ज्यादा फैलती और खुद गौरा देवी का गाँव उन परिवर्तनों को अंगीकार करता जो उसके लिए जरूरी हैं।
कोई भी आन्दोलन सिर्फ एक जंगल को कटने से बचा ले जाय पर गाँव की मूलभूत जरूरतों को टाल जाय या किसी तरह के आर्थिक क्रिया-कलाप विकसित न करे तो टूटन होगी ही। आखिर हरेक व्यक्ति बुद्ध की तरह तो सड़क में नहीं आया है। चिपको की और गौरा देवी की असली परम्परा को आखिर कौन बनाये रखेंगे? देश-विदेश में घूमने वाले चिपको नेता-कार्यकर्ता? या चिपको पर अधूरे और झूठे ‘शोध’ पत्र पढ़ने वाले विशेषज्ञ? या अभी भी अनिर्णय के चौराहे पर खड़ा जंगलात विभाग? या इधर-उधर से पर्याप्त धन लेकर ‘जनबल’ बढ़ाने वाली संस्थाएँ? नहीं, कदापि नहीं।
चिपको को सबसे ज्यादा वे स्थितियाँ बनाये रखेंगी जो बदली नहीं हैं और मौजूदा राजनीति जिन्हें बदलने का प्रयास करने नहीं जा रही है। स्वयं गौरादेवी का परिवेश तरह-तरह से नष्ट किया जा रहा है। ऋषि गंगा तथा धौली घाटी में जिस तरह जंगलों पर दबाव है; जिस तरह जल विद्युत परियोजनाओं के नाम पर पूरी घाटी तहस-नहस की जा चुकी है और नन्दादेवी नेशनल पार्क में ग्रामीणों के अधिकार लील लिये गये है; मन्दाकिनी घाटी में विद्युत परियोजना के विरोध में संघर्षरत सुशीला भंडारी को दो माह तक जेल में रखा गया; गंगाधर नौटियाल को गिरफ्तार किया गया और पिंडर, गोरी घाटी तथा अन्यत्र जन सुनवाई नहीं होने दी गई; उससे हम एक समाज और सरकार के रूप में न सिर्फ कृतघ्न सिद्ध हो गये हैं बल्कि पर्वतवासी का सामान्य गुस्सा भी प्रकट नहीं कर सके हैं। वहां के ग्रामीण अवश्य अभी भी आत्म समर्पण से इन्कार कर रहे हैं। रैणी तथा फाटा जैसे चिपको आन्दोलन के पुराने संघर्ष स्थानों पर सबसे जटिल स्थिति बना दी गई है।
इसलिए उत्तराखंड के गाँवों में अपने हक-हकूक बचाने के, अपने पहाड़ों को बनाये रखने के जो ईमानदार प्रतिरोध होंगे वे ही संगठित होकर चिपको की परम्परा को आगे बढ़ायेंगे। किसी आन्दोलन का सबसे बड़ा दुर्भाग्य उसका जनता की नजरों से गिरना है। चिपको आन्दोलन भी किंचित इसका शिकार हुआ है।
उत्तराखंड की सामाजिक शक्तियाँ और वर्तमान उदासी का परिदृश्य शायद चिपको को रूपान्तरित होकर पुनः प्रकट होने में मदद देगा। यह उम्मीद सिर्फ इसलिये है कि हमारे समाज और पर्यावरण के विरोधाभास अपनी जगह पर हैं और चिपको की अधिकांश टहनियां अभी भी हरी हैं। उनमें रचना और संघर्ष के फूल खिलने चाहिये।
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