एक प्रदेश गौरैया के नाम

sparrow
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“आ, मेरी गौरैया आ!
चीं चीं फुदक चिरैया आ!!
मैं भी खाऊं! तू भी खा!!
चोंच में दाना लेती जा!
हंसी-हंसी कुछ कहती जा!!’’


गौरैया : दिल्ली की राज्य पक्षीगौरैया : दिल्ली की राज्य पक्षीक्या आपको गौरैया के बारे में ऐसी कुछ लाइनें याद हैं? मुझे याद हैं। तब हमारे दिल्ली वाले मकान में मात्र दो कमरे, रसोई, गुसलखाना, शौचालय और एक बरामदा था। बाहर, अमरूद के नीचे आंगन में खाना खाते, तो एक चिड़ा और कई चिड़िया नियम से हमारे इर्द-गिर्द मंडराते रहते थे। हमें खाना देने के लिए आकर्षित करते। इसके लिए उनमें कभी झगड़ा या यूं कहें कि कुछ प्रतियोगिता जैसी होती। अक्सर चिड़ा भारी पड़ता। हम उन्हें रोटी के टुकड़े तोड़कर देते, जिसे लेकर वे फुर्र से उड़ जाते। फिर आते, फिर जाते। वे तब तक डटे रहते, जब तक कि हम खाना न खा लेते। वे हमसे इतने हिले-मिले थे कि फुदकते-फुदकते कभी-कभी वे हमारी थाली की कोर पर ही आ बैठते। वे अक्सर आंगन में बीट कर देते। पर हमें कभी बुरा नहीं लगता; बल्कि मेरी बहन तो उन्हें रोटी-दाना चुगाने के चक्कर में अक्सर इतनी मगन हो जाती कि खुद खाना ही भूल जाती। इसके लिए उसे डांट भी पड़ती। बावजूद इसके उसके आनंद में कोई कमी नहीं आती। वह ऐसे ही कोई गाना गुनती रहती और मस्त रहती- आ मेरी गौरैया आ....। मैं भी रोज सुबह मिट्टी के बड़े से कटोरे में भरकर उनके लिए साफ पानी रख आता।

जब अम्मा चावल बिनती, पछोरती या गेहूं साफ करती, तब भी गौरैया न मालूम कहां से बिन बुलाये फुर्र से पहुंच जाती। हमारी अम्मा भी अक्सर उन्हें दाना फेंकती रही और गुनगुनाती रहती गाती –

“राम जी की चिरिया, रामजी का खेत।।
खाय ले चिरिया, भर-भर पेट।।

कभी गुस्सा हो जाती – “अब का सारा दाना तुम्हइय दै दूं? चलो भगो, हां अ अ, नहीं तो... जाओ अपौ काम करौ।’’

कभी बुआ को छेड़ देती–
“ननद रानी! इ चिरैया तुम्हरे ससुराल से आई है।’’

फिर चिरैया से कहती- “ऐ चिरिया! जाय के ननदोई राजा से कहिओ कि ठंड परन लगी है। अब तुम्हार दुलहनिया मायके न रहन चाहत। समझि गई। हां! ठीक से कहियो जाय। तोहे मोती से चाउर चुगाउंगी।’’

चिरैया भी जैसे ’हां’ में सिर हिला देती और बुआ शरमा के वहां से भाग जाती। लेकिन यह रिश्ता सिर्फ गौरैया के साथ था और किसी चिड़िया के साथ नहीं। गौरैया ही एक चिरैया थी, जो हमें अपनी सी लगती थी.. अपनी सी, जिसे घर में आने-जाने की तब पूरी आजादी थी। उसने हमारा कभी नुकसान नहीं किया; बल्कि शैतान लड़के ही कभी-कभार गौरैया का घोसला उजाड़ दिया करते। तब दादी बहुत पश्चाताप करती।

15 अगस्त की पूर्व संध्या पर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने गौरैया को राज्य पक्षी का दर्जा देकर उन दिनों की याद ताजा कर दी। अब गांव जाकर ही मेरी बेटी इस आनंद को हासिल कर पाती है। हालांकि अब हमारा दिल्ली का मकान पहले से ज्यादा बड़ा है और रौनकदार भी। लेकिन अब इसमें गौरैया के लिए कोई जगह नहीं है। पहले वह हमारे रौशनदान में घोसला बनाया करती थी। अंडे देने से पहले घास-फूस.. न मालूम क्या-क्या लाने में जुटी रहती। अंडे देने के बाद उसे घंटो सेती। हम ध्यान रखते कि कहीं उसके अंडे गिर न जाये।... आते-जाते कहीं वह पंखे से कट न जाये। जब बच्चे निकल आते, तो उनकी चीं-चीं सुनते बैठे रहते। उन्हें देखने के चक्कर में घोसले के पास जाना चाहते। लेकिन अम्मा डांटकर भगा देती – “छूना मत! मर जायेंगे। पाप लगेगा।’’ फिर एक दिन वे बच्चे भी फुर्र से उड़ जाते और हम कई दिन के लिए उदास हो जाते।

मेरी बेटी पूछ ही बैठी –
“क्यों पापा! अब क्यों नहीं आती गौरैया हमारे घर? गांव में तो आती है।’’

मैं क्या जवाब देता? मैने भी कह दिया-
“शहर में उसका दम घुटता है न, इसीलिए।

गौरैया को खाने के लिए न तो कीट-पतंगे, फल-फूल उतनी संख्या में है और न हवा उतनी माकूल है कि वह रहना चाहें। पानी पीने को कोई देता नहीं। ताल-तलैया बचे नहीं। यमुना का पानी भी ऐसा नहीं कि पीना चाहें। अब मैं बिटिया से कैसे कहता कि अब पानी तो बोतलों में बंद होकर बिकने चला गया है। गौरैया के पास पानी खरीदने को पैसे नहीं है, तो मरे प्यासी और क्या? वह अपनी गुल्लक लेकर आ जाती; कहती कि पापा! इसमें से पैसे ले लो और उसके लिए पानी खरीद लाओ या शायद वह गौरैया को देने के लिए अपने गिलास का पानी लाकर मेरे सामने रख देती और खुद प्यासी रहना पसंद करती।

कोई-कोई तो कह रहा है कि दिल्ली में कबूतरों की संख्या बढ़ गई है, इसलिए गौरैया घट गई है। भई, यह बात मेरी तो समझ में नहीं आई; पर बिटिया! एक बात तो सच है कि गौरैया बहुत नाजुक चिरैया होती है। अब हमारे घर में हरे पेड़-पौधे नहीं रहे। बिजली-टेलीफोन के तारों के फैले जाल में फंसकर घायल होने से उसे डर लगता है। हमारे मोबाइल फोन और इसके लिए लगे ऊंचे-ऊंचे टावरों से कुछ ऐसी तरंगे निकलती हैं, जो हमें तो नुकसान पहुंचाती ही है; उन्हें भी नुकसान पहुंचाती है। बच्चे पैदा करने की उनकी क्षमता घटाती है। उन्हें बीमार बनाती है। अब वह बिजली के मीटर बक्से की खाली जगह में भी घोसला नहीं बनाती। पहले वह कहीं भी थोड़ी ऊंची जगह देखकर घोसला बना दिया करती थी। अब शायद डरती है कि कोई उजाड़ न दे। दिल्ली में 7777 हेक्टेयर रिज एरिया है। लेकिन इसमें पेड़ के नाम पर यदि कुछ है, तो बस! कीकर!! अब न खाने को कीट-पतंगे, फल-फूल उतनी संख्या में है और न हवा उतनी माकूल है कि वह रहना चाहें। पानी पीने को कोई देता नहीं। ताल-तलैया बचे नहीं। यमुना का पानी भी ऐसा नहीं कि पीना चाहें।’’

अब मैं बिटिया से कैसे कहता कि अब पानी तो बोतलों में बंद होकर बिकने चला गया है। गौरैया के पास पानी खरीदने को पैसे नहीं है, तो मरे प्यासी और क्या? वह अपनी गुल्लक लेकर आ जाती; कहती कि पापा! इसमें से पैसे ले लो और उसके लिए पानी खरीद लाओ या शायद वह गौरैया को देने के लिए अपने गिलास का पानी लाकर मेरे सामने रख देती और खुद प्यासी रहना पसंद करती। खैर! उसे यह जानकर थोड़ी तसल्ली हुई कि कोई है, जो 14 से 16 से.मी. लंबी इस घरेलु चिरैया को बचाने की कोशिश कर रहा है। मध्य यूरोप, दक्षिण अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के अलावा भारत जैसे देशों में कभी बहुतायत में पाई जाने वाली इस गौरैया की संख्या में 60 से 80 फीसदी कमी आई है। गौरैया अब विलुप्त प्रजातियों की सूची में दर्ज है। गौरैया के अस्तित्व पर मंडराते खतरे को देखते हुए ब्रिटेन की ‘रॉयल सोसाइटी ऑफ प्रोटेक्शन ऑफ बर्डस्’ ने इसे लाल सूची में दर्ज किया है। मशहूर पर्यावरणविद् दिलावर की पहल पर अब दिल्ली में ‘राइज फॉर द स्पैरोज’ यानी “गौरैया के लिए जागो’’ अभियान शुरू हुआ है। 20 मार्च को ‘विश्व गौरैया दिवस’ के तौर पर मनाने की भी पहल हुई है। गौरैया पर अध्ययन के लिए एक साझा निगरानी कार्यक्रम चलाया जायेगा। अब शीघ्र ही इसके बारे में दिल्ली के बच्चे अपनी स्कूल की किताबों में पढ़ सकेंगे।

लेकिन मेरे प्यारे बच्चों! हम उम्र दोस्तों! गौरैया सिर्फ किताबों का चित्र बनकर न रह जाये। अपने आंगन और छत पर हम इसके साथ फिर से बातें कर सकें, गा सकें। हमारी सुबह गौरैया की चहचहाहट से शुरू हो, इसके लिए दिल्ली सरकार जागी है। अतः हम भी जागें; कुछ दाना, कुछ पानी और अपने घर व दिल में गौरैया के लिए थोड़ी सी जगह के साथ।

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