हमारे दूसरे शहरों की तरह कोलकाता अपना मैला सीधे किसी नदी में नहीं उंडेलता। शहर के पूर्व में कोई 30 हजार एकड़ में फैले कुछ उथले तालाब और खेत इसे ग्रहण करते हैं और इसके मैल से मछली, धान और सब्जी उगाते हैं। यह वापस शहर में बिकती है। इस तरह साफ हो चुका पानी एक छोटी नदी से होता हुआ बंगाल की खाड़ी में विसर्जित हो जाता है। हुगली नदी के साथ कोलकाता वह नहीं करता जो दिल्ली शहर यमुना के साथ करता है या कानपुर और बनारस गंगा के साथ। इस अद्भुत कहानी को समझने का किस्सा बता रहे हैं एक सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी, जिनके कई सालों के प्रयास से यह व्यवस्था आज भी बची हुई है।
कोलकाता शहर को इतनी सेवाएं मुफ्त मिल रही हैं। अगर शहर ढेर-सा रुपया खर्च कर यह सब करने के आधुनिक संयंत्र लगा भी ले तो उनका क्या हश्र होगा? जानना हो तो राजधानी दिल्ली के सीवर ट्रीटमेंट संयंत्रों को देख लें। बेहद खर्चीले यंत्रों का कुछ लाभ है, प्रभाव है- इसे समझना हो तो यमुना नदी का पानी जांच लें। प्रकृति की सुंदरता का दर्शन करने की मेरी यात्रा गंदगी से शुरू हुई थी -सीवर के नाले बनाने से। इंजीनियरी की पढ़ाई मैंने सन् 1970 के थोड़ा पहले ही कोलकाता में पूरी कर ली थी। पर ढूंढ़ने पर भी नौकरी कहीं नहीं थी। फिर 100 रुपए की तनख्वाह पर एक जगह जूनियर इंजीनियर का काम मिला। बड़े व्यास के सीवर बनाने से मेरी नौकरी शुरु हुई और वह जल्दी ही छूट भी गई। फिर पढ़ाई और शोध के कुछ सालों बाद मुझे कलकत्ता महानगर जल और सफाई प्राधिकरण में सहायक इंजीनियर का काम मिल गया, नए मोहल्लों के बड़े सीवर डलवाने में।
नौकरी तो मिल गई पर किन्हीं कारणों से मुझे काम नहीं दिया या कहें दिया गया काम छीन लिया गया। एक वरिष्ठ इंजीनियर ने मुझसे कहा कि यही अवसर है वह पढ़ाई करने का जो मैं मन से करना चाहता था। मेरी रुचि थी ईकॉलॉजी यानि परिस्थिति विज्ञान पढ़ने की। लेकिन कलकत्ता विश्वविद्यालय में उस समय इस विषय पर शोध करने वाले के लिए कोई निरीक्षक भी नहीं था। मेरा सौभाग्य था कि उस समय दुनिया के जाने माने ईकॉलॉजी वैज्ञानिक रिचर्ड मायर मेरे शोध का निरीक्षण करने को राजी हो गए। वे अपने खर्च पर साल में एक बार कलकत्ता आते और मेरे शोध की तरक्की का जायजा लेते। जल्दी ही मेरी पी.एच.डी. पूरी हो गई और अब मैं अपने सहयोगियों के लिए एक नई उलझन बन गया। तब के इंजीनियर ईकॉलॉजी विज्ञान नहीं पढ़ते थे।
उन्हीं दिनों न जाने क्यों पश्चिम बंगाल के वित्तमंत्री को लगा कि राज्य का योजना बोर्ड पता करे कि कोलकाता शहर के सीवर में बहने वाले मैले पानी का सदुपयोग कैसे हो सकता है। मैं इस काम के लिए स्वाभाविक उम्मीदवार था। सन् 1981 में मुझसे कहा गया कि मैं एक साल लगाकर देश भर से मैले पानी के उपयोग पर एक रपट तैयार करूं। इस काम के लिए मेरी पहली यात्रा थी मुंबई की ओर। इस शहर में देश का सबसे कारगर सीवेज ट्रीटमेंट संयंत्र लगा था। मेरा मुंबई का टिकट निकल आया था। तब ध्यान आया कि मुझे यह तो पता ही नहीं है कि कोलकाता शहर के मैले पानी का क्या होता है। जब मुझे अपनी ही परिस्थिति नहीं पता तो मैं दूसरों से क्या पूछता फिरूंगा? कोई मुझसे पूछेगा कि हम अपने मैले पानी का क्या करते हैं तो मैं जवाब क्या दूंगा!
ऐसा माना जाता है कि राज्य की सारी जानकारी योजना बोर्ड के पास रहती है। पर मेरे सवालों का वहां कोई जवाब नहीं था। मुझे कहा गया कि अगर ऐसी जानकारी सरकार के पास होती तो मुझे इस काम पर भला क्यों लगाया जाता। लाखों लोगों को इस शहर के बारे में कोई जानकारी नहीं थी कि इसका कचरा और मैला कहां जाता है। यहां से एक बड़ी नहर इसे कुल्टीगंग नामक एक नदी तक ले जाती थी। यह नदी मातला नाम की नदी से मिलने के बाद बंगाल की खाड़ी में विसर्जित होती थी।
मैं इस 28 किलोमीटर की नहर के किनारे-किनारे पैदल निकल गया। वहां जो दिखा वह चैंकाने वाला था। मैला पानी एक बांध के सहारे ऊंचा उठा कर एक स्लूस गेट के सहारे छोटे-बड़े तालाबों में ले जाया जा रहा था। तालाब मछलियों से भरे थे और बहुत गहरे नहीं थे क्योंकि उनमें लोग पैदल चल रहे थे। ऐसे तालाबों को बांग्ला में भेरी कहते हैं। दिख नहीं रहा था कि एक दूसरे से जुड़ी इतनी सारी भेरियों में मैला पानी जा कैसे रहा था। यह दिख रहा था कि मैला पानी भेरियों में खड़ा रखा जा रहा था और फिर आगे चलाया जा रहा था मछली पैदा करने के लिए।
भेरियों की रूपरेखा और गहराई ठीक वही थी जिसकी सलाह वैज्ञानिक साहित्य में उष्णकटिबंध के इलाकों के लिए दी जाती है। इन इलाकों में ढेर सारा सूरज का प्रकाश मिलता है जो प्राकृतिक रूप से पानी की गंदगी को साफ करता है। लेकिन इन भेरियों के मछुआरे वैज्ञानिक साहित्य पढ़ने वाले नहीं लग रहे थे। फिर कैसे वे इतनी कुशलता से ठीक वही कर रहे थे जो महंगे विज्ञान से ही पता चलता है? मुझे बाद में अंदाजा लगा कि इन मछुआरों और इनके पुरखों ने भी वही किया होगा जो वैज्ञानिक करते हैं: परीक्षण और ध्यान से जांच। और इन मछुआरों की तो जीविका ही उनके कौशल पर टिकी थी।
इन उथले तालाबों, भेरियों में हवा, धूप और मछलियों से साफ हुआ पानी धान और सब्जी के खेतों में जा रहा था। जो थोड़ा बहुत मैल पानी में बचता था, वह धान की उर्वरता बढ़ाता था। मुझे वहां एक पूरी व्यवस्था, एक पूरी दुनिया दिखी जो खुद से ही चल रही थी। बिना किसी विश्वविद्यालय के शोध के, बिना किसी तकनीकी मदद के, बिना किसी सिविल इंजीनियर के विशेष ज्ञान के। यह व्यवस्था शहर के मैले से ही मछली, धान और सब्जी उगाकर वापस शहर भेज रही थी। सरकार और शहर इस दुनिया से बिल्कुल बेखबर थे। यही नहीं, वहां से कुछ ही दूरी पर बैठी सरकार यह चाहती थी कि मैं देश भर घूम कर वही करने की जानकारी इकट्ठी करूं जो एक मामूली सी की पैदल यात्रा से ही समझ आ गया था। शहर के मैले का इससे अच्छा उपयोग और क्या हो सकता था?
मैं अचंभित था। मैंने अमेरिका में अपने निरीक्षक प्रोफेसर रिचर्ड मायर को एक चिट्ठी लिखकर बताया कि मैंने क्या देखा। उनका जवाब तुरंत आया। उन्होंने कहा कि अगर मैं अपने पांच साल इस इलाके में लगा दूं तो इतिहास रचा जाएगा। मैंने जवाब में उन्हें कहा कि मैं पांच क्या, दस साल लगाने को तैयार हूं। आज इस बात को 32 साल हो गए हैं। मैं आज भी इस इलाके में आता जाता रहता हूं। इसको समझना मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि रही है।
कोलकाता के बसने के समय शहर अपना मैला हुगली में बहाता था। सन् 1803 में शहर के सीवर की नालियां हुगली में खुलती थीं। लेकिन यह जमीन की दक्षिण-पूर्वी ढाल से उलटी दिशा में था। जैसे-जैसे शहर बड़ा हो रहा था, ढलान के खिलाफ बनी नालियां बरसात के मौसम में उफनने लगती थीं। फिर हुगली का प्रदूषण भी हो रहा था। शहर का पीने का पानी हुगली से ही आता था। अंग्रेज शासन ने सीवर की नई नालियां बनाना तय किया, जिनका मुंह पश्चिम में बहती हुगली नदी से दूसरी तरफ, ढाल के साथ-साथ दक्षिण-पूर्व में मातला नदी की ओर था।शहर के पूर्व में बसे इस इलाके में मैं नियम से जाने लगा। धीरे-धीरे लोगों से परिचय होता गया, मित्रता बढ़ती गई। अब यहां के रहस्य मेरे सामने खुलने लगे थे और मेरी रुचि केवल विज्ञान से बढ़ती हुई यहां के लोग, उनके समाज में बढ़ती गई। इस इलाके का उत्तरी हिस्सा तो सन् 1960 के दशक में ही ‘सॉल्ट लेक सिटी’ बनाने के लिए पाटा जा चुका था। मुझे दिख रहा था कि यह बचा खुचा इलाका भी आगे पीछे ऐसे ही जमीन के सौदागर और माफिया की भेंट चढ़ेगा। इसलिए मैंने यहां के अध्ययन के लिए सरकार से एक योजना पक्की करा ली। और सॉल्ट लेक से इसे अलग करने के लिए इसका नाम रखा ‘ईस्ट कलकत्ता वेटलैण्ड्स यानि पूर्वी कोलकाता की जलभूमि।’ इस जमीन की मिल्कियत का अता-पता नहीं था और इस इलाके का सर्वे या नक्शा तक नहीं बना था। ये सब काम मैं करना शुरू कर दिया। यहां का पूरा भूगोल समझा। और गोल घूमकर यहां के शानदार लोगों तक आया जो इस भूगोल को न जाने कब से समझ चुके थे। कोलकाता भी हमारे दूसरे बड़े शहरों की ही तरह एक बड़ी नदी के किनारे बसा है। गंगा से निकली एक धारा ही है हुगली नदी। लेकिन कोलकाता में नदी का बहाव यमुना आदि नदियों की तरह एकतरफा नहीं है। हुगली ज्वारी नदी है और बंगाल की खाड़ी से उसका मुहाना कोलकाता से 140 किलोमीटर की दूरी पर है। हर रोज ज्वार के समय समुद्र का पानी कोलकाता तक आता है। ज्वार और भाटे के बीच नदी का स्तर एक ही दिन में कई फुट ऊपर नीचे हो जाता है। पता नहीं कब से गंगा की बड़ी धारा यहीं से बह कर बंगाल की खाड़ी में विसर्जित होती थी और अपने साथ हिमालय से लाई गई साद, कांप से यहां की जमीन को समुद्र की तुलना में थोड़ा ऊंचा बनाए रहती थी। फिर कोई 600 साल पहले गंगा का बहाव बदल गया। ज्यादातर पानी उसकी पश्चिमी धारा पद्मा की ओर जाने लगा। इसका नतीजा ये हुआ कि हुगली के ठीक बगल की जमीन कांप जमने से उठती रही। पर दूर पूरब की जमीन पानी और कांप की कमी में निचली ही बनी रही।
गंगा के रास्ता बदलने से यहां मीठे पानी की कमी हो गई थी। समुद्र के खारे पानी ने इस रिक्त को भरा और यहां समुद्री पानी का दलदल उभर आया, जिसमें खारे पानी की मछलियां भी थीं और कुछ मछुआरे भी। अंग्रेजों के समय कोलकाता जब बसा, तब शहर के पूरब में खारे पानी का दलदल था। अंग्रेजों ने इसे ‘सॉल्ट लेक’ कहा। मलेरिया जैसे रोगों के डर से अंग्रेजों ने अपनी बस्तियां इस दलदल से थोड़ी दूर ही बसाई।
कोलकाता के बसने के समय शहर अपना मैला हुगली में बहाता था। सन् 1803 में शहर के सीवर की नालियां हुगली में खुलती थीं। लेकिन यह जमीन की दक्षिण-पूर्वी ढाल से उलटी दिशा में था। जैसे-जैसे शहर बड़ा हो रहा था, ढलान के खिलाफ बनी नालियां बरसात के मौसम में उफनने लगती थीं। फिर हुगली का प्रदूषण भी हो रहा था। शहर का पीने का पानी हुगली से ही आता था। अंग्रेज शासन ने सीवर की नई नालियां बनाना तय किया, जिनका मुंह पश्चिम में बहती हुगली नदी से दूसरी तरफ, ढाल के साथ-साथ दक्षिण-पूर्व में मातला नदी की ओर था।
‘सॉल्ट लेक’ दलदल के दक्षिण से होती हुई विद्याधरी नाम की एक नदी यह मैला मातला नदी तक ले जाती, जो फिर सुंदरबन से होती हुई सागर से जा मिलती थी। इन नदियों से निकलते हुए कोलकाता का मैला बंगाल की खाड़ी में खाली करने की योजना सन् 1810 में चालू हुई। इसका पहला चरण पूरा हुआ सन् 1885 में। कई तरह की नालियां और नहरें बनाई गईं, नई इंजीनीयरी के स्लूस गेट भी।
इसका असर विद्याधरी नदी पर बुरा ही पड़ा। पानी उसमें तभी से कम रहने लगा था, जब गंगा की बड़ी धारा हुगली को छोड़ पद्मा की ओर बहने लगी थी। धीरे-धीरे बारिश के पानी के रास्ते को पाट कर लोगों ने बस्तियां बना ली थीं। नदी में बारिश का पानी जाना घटने लगा था। नदी के मुहाने की संकरी खाड़ी भी पटने लगी थी, जिससे ज्वार का पानी भीतर तक आना बंद हो गया था। अब नदी में मैला और मलबा ही बहने लगा। सन् 1928 तक विद्याधरी सूख चुकी थी। उसमें इतना बहाव भी नहीं बचा था कि वह मैले को आगे ढकेल सके। खारे पानी की कमी में इन नदियों के उत्तर में और कोलकाता के पूरब में दलदल का निचला इलाका भी वीरान हो चला था। खारे पानी में रहने वाली मछलियां भी यहां से गायब हो गई थीं।
पर खारे पानी के जाने से यहां से जीवन चला नहीं गया। बारिश का थोड़ा बहुत पानी इकट्ठा होता ही था। धीरे-धीरे मीठे पानी की मछलियों ने यहां घर कर लिया। फिर उनके पीछे मछुआरे भी आ बसे। सन् 1929 में उन्हीं में से एक मछुआरे को यह समझ आया कि नाली के मैल को एक खास मात्रा में भेरी में, उथले तालाब में छोड़ने से मछलियां तेजी से फलती फूलती हैं। यहां से ये जानकारी कैसे दूसरे मछुआरों को मिली ये ठीक से पता नहीं है। लेकिन 15 साल के भीतर ही यहां एक अनूठे तरह का मछली पालन होने लगा था। यह केवल प्रकृति के इशारे भर से नहीं हुआ। इसमें कोलकाता महानगर पालिका के मुख्य इंजीनीयर श्री भूपेंद्रनाथ डे का भी बड़ा योगदान था।
मैले पानी के उपयोग के बारे में श्री भूपेंद्रनाथ जानते ही होंगे। उन्होंने मैले के निकास के लिए नई योजना बनाई जो सन् 1945 के आसपास पूरी हो पाई। सीधे दक्षिण-पूर्व की ओर जाकर विद्याधरी में खुलने की बजाए एक बड़ी नहर पूर्व की ओर बनाई उन्होंने, कुल्टीगंग नदी की ओर। पर नदी तक नहर के पहुंचने के बहुत पहले ही उन्होंने एक स्लूस गेट बना कर मैले पानी का एक बांध बना दिया था। अब गेट खोलकर मैला पानी ढाल के सहारे किसी एक दिशा में एक छोटी नहर में डालकर भेजा जा सकता था।
जहां एक समय खारे पानी का दलदल था, वहां अब मैले पानी में मछली पालने वाली भेरियां फैलने लगीं। जो मैला पानी शहर के लिए बेकार और नदियों के लिए प्रदूषण का कारण था, वह मछली के लिए भोजन, मछुआरों के लिए जीविका और किसानों के लिए खाद बन गई। इन भेरियों के मछुआरे और किसान यह बात बहुत पहले से जानते थे। व्यवहार और जीवन से, न कि किसी किताब से। कई बरसों के प्रयोग से उन्होंने मैले पानी के उपयोग के ऐसे तरीके खोज लिए हैं जो व्यवहार में तो बहुत सुगम हैं पर विज्ञान की आंख से समझने में काफी जटिल।
यह माना गया कि दुनिया भर में अनूठा यह इलाका जैसा है, वैसा ही बना रहना चाहिए। अब यहां की जमीन गांठना भू-माफिया के लिए आसान नहीं रहा। हालांकि उनकी आंखें हमेशा यहां लगी रहती हैं, क्योंकि शहर अब इस इलाके के बगल तक बढ़ आया है।मैले पानी को पहले तीन से चार फुट गहरी भेरियों में खड़ा किया जाता है। सूरज की रौशनी, ऊष्मा और खड़े पानी में वो खास परिस्थिति बनती है, जिसमें सूक्ष्म जीवाणु, जैसे बैक्टीरिया और शैवाल एक दूसरे के भोजन बनने-बनाने में सहारा देते हैं। देखते-देखते शहर का मैला शैवाल और बैक्टीरिया में बदलने लगता है। यह तेजी से तभी होता है जब भेरी की गहराई इतनी ज्यादा न हो कि सूरज की धूप नीचे तक न पहुंच पाए। फिर शैवाल ज्यादा हो जाएं तो पानी में घुली सारी प्राणवायु खुद ही चट कर जाएं। इसलिए शैवाल के फलने-फूलने के बाद यह पानी उन भेरियों में डाला जाता है, जिनमें मछलियां पनप रही होती हैं। जैसे-जैसे मैल और उर्वरता से भरा पानी ऊपर से आता है, साफ हो चुका पानी नीचे की तरफ छोड़ दिया जाता है, जहां धान और सब्जी के खेत हैं। सूरज की रौशनी और मछुआरों के श्रम से शहर का मैला वापस शहर में मछली, धान और सब्जी के रूप में पहुंचता है।
इस इलाके की हमारी समझ अधूरी है और जानकारी भी कम ही। इसका सही मूल्य भी हमें पता नहीं है। फिर मूल्यांकन करने वाले की आंख और मूल्यों से ही आकलन का पता चलता है। सन् 2005 में मैंने अंदाजा लगाया कि अगर ये भेरियां नहीं होतीं तो कोलकाता शहर को 600 करोड़ रुपए खर्च करने पड़ते, सीवेज ट्रीटमेंट संयंत्र लगाने के लिए।
और फिर 11 साल तक उनको चलाने का सालाना खर्च होता 101 करोड़ रुपए। मैल से मछली का भोजन अगर न मिले तो मछली की खाद खरीदने की सालाना लागत होती 6 करोड़ रुपए। साफ किया पानी जो खेतों की सिंचाई के लिए छोड़ा जाता है, उसकी कीमत 2.6 करोड़ रुपए बनी थी। इन भेरियों में शोध करने पर वैज्ञानिकों को कई तरह के बहुमूल्य जीवाणु मिले हैं, जिनकी आजकल उद्योग जगत में मांग बढ़ रही है और ये भेरियां शहर को बाढ़ से भी बचाती हैं। बाढ़ नियंत्रण जैसी सेवाएं जोड़ने पर यह आंकड़ा 177 करोड़ रुपए सालाना से ऊपर चला गया था। पिछले आठ साल की महंगाई को जोड़ कर तो यह आंकड़ा बहुत बढ़ जाएगा।
सन् 1987 तक मुझे समझ आ गया था कि यह जमीन शहर के इतने पास है, इसलिए इसकी कीमत तो बढ़ेगी ही। मैंने इस अद्भुत दुनिया के कागज तैयार करके इसके संरक्षण की कोशिश शुरू की। सन् 1990 में संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण कार्यक्रम ने ‘ग्लोबल 500’ नाम के कार्यक्रम में मेरा चयन किया। इससे मेरे काम को बड़ा सहारा मिला। उसका नतीजा यह हुआ कि इस इलाके को सन् 2002 में संयुक्त राष्ट्र संघ के ‘रामसार अनुबंध’ की मान्यता मिल गई। यह माना गया कि दुनिया भर में अनूठा यह इलाका जैसा है, वैसा ही बना रहना चाहिए। अब यहां की जमीन गांठना भू-माफिया के लिए आसान नहीं रहा। हालांकि उनकी आंखें हमेशा यहां लगी रहती हैं, क्योंकि शहर अब इस इलाके के बगल तक बढ़ आया है।
कोलकाता शहर को इतनी सेवाएं मुफ्त मिल रही हैं। अगर शहर ढेर-सा रुपया खर्च कर यह सब करने के आधुनिक संयंत्र लगा भी ले तो उनका क्या हश्र होगा? जानना हो तो राजधानी दिल्ली के सीवर ट्रीटमेंट संयंत्रों को देख लें। बेहद खर्चीले यंत्रों का कुछ लाभ है, प्रभाव है- इसे समझना हो तो यमुना नदी का पानी जांच लें। और अगर कोई सरकारी अफसर अपनी नौकरी भर ईमानदारी से करे तो उसे कितना सुकून, कितना प्यार मिलता है यह जानना हो तो मुझसे मिल लें।
सन् 2003 में पश्चिम बंगाल के मुख्य पर्यावरण अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद भी श्री ध्रुबज्योति घोष ‘ईस्ट कलकत्ता वेटलैंड्स’ और उसके मछुआरों के गुणगान और संरक्षण में लगे रहते हैं। यह लेख उनकी किताब और साक्षात्कार पर आधारित है। हिंदी प्रस्तुति सोपान जोशी की है।
अज्ञान भी ज्ञान है (इस पुस्तक के अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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