मात्र 52 परिवारों वाला एक छोटा सा गांव एनाबावी आजकल चर्चा का विषय बना हुआ है। इन दिनों यहां पास के गांव कालेम के किसान लाभदायक कृषि के तौर-तरीके सीखने के लिए जुटे रहते हैं. जिन लोगों ने 1960 के दशक में हरित क्रांति के उत्साह को नहीं देखा था, वे उस जोश की झलक यहां देख सकते हैं. हरित क्रांति और इस क्रांति में फर्क इतना ही है कि अब के किसान सिंथेटिक रसायनों का इस्तेमाल किए बिना ही उत्पादन में जुटे हैं.
हैदराबाद में एयर इंडिया कर्मी अजीत कुमार रोजाना कृषि सहकारी भंडार से सब्जियां खरीदने जाते हैं जो उसके दफ्तर के बगल में ही है. कुमार की पत्नी उसे रोज समय से ऑफिस छोड़ने सहकारी स्टोर पर जाने की याद दिलाती रहती है, क्योंकि वहां मिलने वाली ताजा और कीटनाशक मुक्त सब्जियां दो घंटे के अंदर ही बिक जाती हैं. इसीलिए जैसे ही स्टोर पर सब्जी पहुंचती है, कुमार और उसके जैसे अन्य लोग जल्द से जल्द वहां पहुंचने की कोशिश करते हैं. चूंकि इन सब्जियों का स्वाद अच्छा होता है इसलिए कुमार जैसे लोगों को अतिरिक्त प्रयास करना अखरता नहीं है। ग्राहक इनके लिए ज्यादा पैसे देने के लिए भी तैयार हैं.
स्टोर इंचार्ज क्रुप्पकर रेड्डी के मुताबिक इन सब्जियों की मांग बढ़ने की वजह नॉन-पेस्टीसाइडल मैनेजमैंट है, जिसे एनपीएम कहा जाता है. उन्हें अभी एक ही किसान श्रीनिवास एनपीएम सब्जियों की आपूर्त कर रहा है. वे उसे स्टोर में एक खास जगह देने की योजना बना रहे हैं. वे कहते हैं, दूसरे किसानों को भी शीत भंडारण की सुविधा दी जाएगी.
स्टोर में एनपीएम सब्जियों की सप्लाई कराने वाला किसान मांचल गांव से आता है, जो हैदराबाद से 50 किमी. दूर है. उसने बताया कि मांग बढ़ जाने की वजह से दूसरे किसान भी उसके द्वारा अपनी उपज यहां भेजते हैं. शुरु में उसे 1500 रु. का मुनाफा होता था जो अब बढ़कर तीन गुना हो गया है.
दूसरे गांवों के किसान अपनी एनपीएम सब्जियां कृषि मंडी में बेचते हैं. कडापा जिले की ऐसी ही एक मंडी चिंता कोमादिनी मंडल में किसानों के तीन स्टॉल हैं जहां वें अपनी एनपीएम सब्जियां बेचते हैं. एनपीएम प्रोजेक्ट कडापा जिले के मैनेजर वेंकट ब्राह्मण बताते हैं, यहां किसान सप्ताह में तीन बार सुबह सात बजे आते हैं और एक घंटे के अंदर ही उनकी सारी सब्जियां बिक जाती हैं.
श्रीनिवास की तरह अन्य किसान भी महसूस कर रहे हैं कि कीटनाशक मुक्त सब्जियां, अनाज और दालें उगाना लाभदायक है. रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग को बंद करने से उनकी कृषि लागत भी कम हुई है. उपज तो लगभग उतनी ही होती है लेकिन मुनाफा बढ़ गया है. महबूबनगर जिले के एडिरापल्ली गांव में 62 वर्षीय रिटायर्ड अध्यापक कृष्णा रेड्डी अपने घर के सामने छोटी सी जगह पर मक्का, ज्वार, बाजरा, चना, मूंगफली और सब्जियां उगाते हैं. बॉर्डर पर उन्होंने कुछ मेरीगोल्ड और सूरजमुखी के फूल भी लगाए हैं. इसमें 600 रु. की लागत आती है जबकि उनकी फसल का दाम 3,000 रु. तक है.
मांचल मंडल में भी महिलाओं के स्वयं सहायता समूह ने सब्जियों और दालों की 29 किस्में लगाई हैं. राज्य सरकार की ग्रामीण गरीबी उन्मूलन सोसायटी और बागवानी विभाग ने कई गांवों में ऐसे खेतों के मॉडल लगाने के लिए सहायता मुहैया कराई है. किसानों को 90 फीसदी सब्सिडी पर सीड किट मुहैया कराई गई है. कुछ किसानों को 50,000 रु. सालाना का मुनाफा होता है. खेती की लागत भी प्रति एकड़ पर 2500-5,000 रु. तक कम हो गई है.
2005 में एनपीएम एक अभियान की तरह शुरू हुआ, जिसमें राज्य सरकार की ग्रामीण गरीबी उन्मूलन सोसायटी (एसईआरपी) आगे आई और 23 में से 18 जिलों के 3,000 गांवों में इसे लागू किया गया. खम्मम जिले का रामचंद्रपुरम् पहला ऐसा गांव था जहां एनपीएम खेती के लिए नरेगा को लागू किया गया. इस योजना के अंतर्गत मिट्टी के पोषक तत्वों में सुधार के लिए काम जैसे- कृषि तालाबों की खुदाई, खाद गड्ढ़े, भूमि विकास और पानी के सूखे टैंक व तालाबों से गाद निकालने का काम किया जा रहा है. खम्मम के अन्य गांवों पुनुकुला, मुलुकापल्ली और वोपाकोय्यरम् आवरम् में भी ऐसा ही किया जा रहा है.
चिन्नामानडेम मंडल के चिन्नारासुपल्ली गांव के 40 वर्षीय किसान, जी सुबुलक्ष्मी के खेत में सात महीने पहले तक सिंचाई की सुविधा नहीं थी, वह ऐसी फसलें उगा रही था जिसमें पानी की बहुत कम जरूरत हो, लेकिन नरेगा के तहत खेत में तालाब बन जाने के बाद वह अपने 0.6 हे. के खेत में धान की फसल लगा रही है. उसने कीटनाशकों का प्रयोग बिल्कुल बंद कर दिया है. उसने बताया कि कीटनाशकों का इस्तेमाल बंद करने से जो फसल पिछले साल तक 10 बैग होती थी इस साल 25 बैग तक हुई है. एनपीएम के स्टेट प्रोजेक्ट कॉ-ऑर्डिनेटर डीवी रायडू ने बताया कि खेत तालाब बन जाने से किसानों को न केवल सिंचाई की सुविधा मिली है बल्कि भूजल रिचार्ज भी हुआ है.
खैरुन्निसा कहती हैं, पहले कर्ज से परेशान होकर किसान आत्महत्या करने के लिए घर में मौजूद पेस्यीसाइड खा लेते थे लेकिन अब घरों में केवल बायोपेस्टीसाइड हैं जो गौमूत्र, गोबर, आदि से बनते हैं जिसे कोई खाना नहीं चाहेगा. हालांकि पेस्टीसाइड के इस्तेमाल को बंद करने का मकसद केवल कृषि लागतों को कम करना था लेकिन अब किसानों को लग रहा है कि इससे उनके मेडिकल बिल भी कम हुए हैं. रसायनों का छिड़काव करते समय आंखे अक्सर खराब हो जाती थी लेकिन अब इन सब से बचाव हो जाता है.
चित्तरपुर गांव की 60 वर्षीया महिला डूडाकुले घूसिया ने बताया कि उसके पति को अक्सर पेट दर्द, बेचैनी आदि रहती थी कभी-कभी स्प्रे करते समय उसे दौरा भी पड़ता था. उन्हें हर दूसरे दिन हॉस्पिटल जाना पड़ता था जिसमें एक बार में 500 रु. का खर्च हो जाता था, अब वह सब बंद हो गया है.
इस कार्यक्रम ने जहां एक ओर खेती को टिकाऊ बनाने का प्रयास किया है, वहीं कुछ समय से इसके उत्पादों के लिए बाजार पर भी ध्यान दिया जा रहा है. गुंटुर जिले के किसान जिले की कृषि सहकारी समिति के माध्यम से अपने उत्पाद बेच रहे हैं. एसईआरपी गाजियाबाद स्थित राष्ट्रीय जैविक कृषि केंद्र के साथ मिलकर सामुदायिक सहभागिता गारंटी योजना के तहत एनपीएम उत्पादों के सर्टीफिकेशन की योजना भी बना रही है, जिससे किसानों के लिए सर्टीफिकेसन की लागत भी कम हो जाएगी.
हैदराबाद के एपीईडीए के सहायक जेनेरल मैनेजर ने कहा, “इस सर्टीफिकेशन से किसानों के लिए उत्पाद को निर्यात करना संभव नहीं होगा, यह योजना स्थानीय स्तर पर तो ठीक है लेकिन इसे अंतर्राष्ट्रीय मान्यता नहीं मिल पाएगी. खाद्य खुदरा बाजार में उतरने वाली बड़ी कंपनियां किसानों के जैविक उत्पादों को ले कर उनकी मदद कर सकती हैं. एपीईडीए सभी जैविक उत्पादों को मान्यता देने वाली एजेंसी और सचिवालय है.
एनाबावी की सफलता के पीछे सेंटर फॉर रूरल ऑपरेशन प्रोगाम सोसायटी (क्रॉप्स) के सेक्रेटरी आर लिंगैया की महत्वपूर्ण भूमिका है. यह गांव आसपास के गांवों में मशहूर हो गया है, मीलो दूर से लोग यहां आते हैं.
नरसम्मा ने बताया कि अगर किसान केमिकल्स का इस्तेमाल बंद नहीं करते तो शायद ही कभी कर्ज से उबर पाते. गांव में करीब 120 हे. जमीन है जिसका लगभग आधा भाग गिरवी रखा हुआ था. कपास की खेती करने वाले कोया जनजाति के किसानों ने अपनी जमीनें गिरवी रखनी शुरु की, उपज घटती गई और लागतें बढ़ती गईं. लेकिन अब ज्यादातर लोगों ने साहूकार से अपनी जमीनें छुड़ा ली हैं. कर्ज मुक्त होने के बाद रामचंद्रपुरम् को एसईआरपी द्वारा अमेरिका स्थित अशोका फाउंडेशन के चेंज मेकर अवार्ड के लिए भी नामांकित किया गया है.
हैदराबाद में एयर इंडिया कर्मी अजीत कुमार रोजाना कृषि सहकारी भंडार से सब्जियां खरीदने जाते हैं जो उसके दफ्तर के बगल में ही है. कुमार की पत्नी उसे रोज समय से ऑफिस छोड़ने सहकारी स्टोर पर जाने की याद दिलाती रहती है, क्योंकि वहां मिलने वाली ताजा और कीटनाशक मुक्त सब्जियां दो घंटे के अंदर ही बिक जाती हैं. इसीलिए जैसे ही स्टोर पर सब्जी पहुंचती है, कुमार और उसके जैसे अन्य लोग जल्द से जल्द वहां पहुंचने की कोशिश करते हैं. चूंकि इन सब्जियों का स्वाद अच्छा होता है इसलिए कुमार जैसे लोगों को अतिरिक्त प्रयास करना अखरता नहीं है। ग्राहक इनके लिए ज्यादा पैसे देने के लिए भी तैयार हैं.
स्टोर इंचार्ज क्रुप्पकर रेड्डी के मुताबिक इन सब्जियों की मांग बढ़ने की वजह नॉन-पेस्टीसाइडल मैनेजमैंट है, जिसे एनपीएम कहा जाता है. उन्हें अभी एक ही किसान श्रीनिवास एनपीएम सब्जियों की आपूर्त कर रहा है. वे उसे स्टोर में एक खास जगह देने की योजना बना रहे हैं. वे कहते हैं, दूसरे किसानों को भी शीत भंडारण की सुविधा दी जाएगी.
स्टोर में एनपीएम सब्जियों की सप्लाई कराने वाला किसान मांचल गांव से आता है, जो हैदराबाद से 50 किमी. दूर है. उसने बताया कि मांग बढ़ जाने की वजह से दूसरे किसान भी उसके द्वारा अपनी उपज यहां भेजते हैं. शुरु में उसे 1500 रु. का मुनाफा होता था जो अब बढ़कर तीन गुना हो गया है.
दूसरे गांवों के किसान अपनी एनपीएम सब्जियां कृषि मंडी में बेचते हैं. कडापा जिले की ऐसी ही एक मंडी चिंता कोमादिनी मंडल में किसानों के तीन स्टॉल हैं जहां वें अपनी एनपीएम सब्जियां बेचते हैं. एनपीएम प्रोजेक्ट कडापा जिले के मैनेजर वेंकट ब्राह्मण बताते हैं, यहां किसान सप्ताह में तीन बार सुबह सात बजे आते हैं और एक घंटे के अंदर ही उनकी सारी सब्जियां बिक जाती हैं.
आय में वृद्धि
श्रीनिवास की तरह अन्य किसान भी महसूस कर रहे हैं कि कीटनाशक मुक्त सब्जियां, अनाज और दालें उगाना लाभदायक है. रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग को बंद करने से उनकी कृषि लागत भी कम हुई है. उपज तो लगभग उतनी ही होती है लेकिन मुनाफा बढ़ गया है. महबूबनगर जिले के एडिरापल्ली गांव में 62 वर्षीय रिटायर्ड अध्यापक कृष्णा रेड्डी अपने घर के सामने छोटी सी जगह पर मक्का, ज्वार, बाजरा, चना, मूंगफली और सब्जियां उगाते हैं. बॉर्डर पर उन्होंने कुछ मेरीगोल्ड और सूरजमुखी के फूल भी लगाए हैं. इसमें 600 रु. की लागत आती है जबकि उनकी फसल का दाम 3,000 रु. तक है.
मांचल मंडल में भी महिलाओं के स्वयं सहायता समूह ने सब्जियों और दालों की 29 किस्में लगाई हैं. राज्य सरकार की ग्रामीण गरीबी उन्मूलन सोसायटी और बागवानी विभाग ने कई गांवों में ऐसे खेतों के मॉडल लगाने के लिए सहायता मुहैया कराई है. किसानों को 90 फीसदी सब्सिडी पर सीड किट मुहैया कराई गई है. कुछ किसानों को 50,000 रु. सालाना का मुनाफा होता है. खेती की लागत भी प्रति एकड़ पर 2500-5,000 रु. तक कम हो गई है.
2005 में एनपीएम एक अभियान की तरह शुरू हुआ, जिसमें राज्य सरकार की ग्रामीण गरीबी उन्मूलन सोसायटी (एसईआरपी) आगे आई और 23 में से 18 जिलों के 3,000 गांवों में इसे लागू किया गया. खम्मम जिले का रामचंद्रपुरम् पहला ऐसा गांव था जहां एनपीएम खेती के लिए नरेगा को लागू किया गया. इस योजना के अंतर्गत मिट्टी के पोषक तत्वों में सुधार के लिए काम जैसे- कृषि तालाबों की खुदाई, खाद गड्ढ़े, भूमि विकास और पानी के सूखे टैंक व तालाबों से गाद निकालने का काम किया जा रहा है. खम्मम के अन्य गांवों पुनुकुला, मुलुकापल्ली और वोपाकोय्यरम् आवरम् में भी ऐसा ही किया जा रहा है.
चिन्नामानडेम मंडल के चिन्नारासुपल्ली गांव के 40 वर्षीय किसान, जी सुबुलक्ष्मी के खेत में सात महीने पहले तक सिंचाई की सुविधा नहीं थी, वह ऐसी फसलें उगा रही था जिसमें पानी की बहुत कम जरूरत हो, लेकिन नरेगा के तहत खेत में तालाब बन जाने के बाद वह अपने 0.6 हे. के खेत में धान की फसल लगा रही है. उसने कीटनाशकों का प्रयोग बिल्कुल बंद कर दिया है. उसने बताया कि कीटनाशकों का इस्तेमाल बंद करने से जो फसल पिछले साल तक 10 बैग होती थी इस साल 25 बैग तक हुई है. एनपीएम के स्टेट प्रोजेक्ट कॉ-ऑर्डिनेटर डीवी रायडू ने बताया कि खेत तालाब बन जाने से किसानों को न केवल सिंचाई की सुविधा मिली है बल्कि भूजल रिचार्ज भी हुआ है.
खैरुन्निसा कहती हैं, पहले कर्ज से परेशान होकर किसान आत्महत्या करने के लिए घर में मौजूद पेस्यीसाइड खा लेते थे लेकिन अब घरों में केवल बायोपेस्टीसाइड हैं जो गौमूत्र, गोबर, आदि से बनते हैं जिसे कोई खाना नहीं चाहेगा. हालांकि पेस्टीसाइड के इस्तेमाल को बंद करने का मकसद केवल कृषि लागतों को कम करना था लेकिन अब किसानों को लग रहा है कि इससे उनके मेडिकल बिल भी कम हुए हैं. रसायनों का छिड़काव करते समय आंखे अक्सर खराब हो जाती थी लेकिन अब इन सब से बचाव हो जाता है.
चित्तरपुर गांव की 60 वर्षीया महिला डूडाकुले घूसिया ने बताया कि उसके पति को अक्सर पेट दर्द, बेचैनी आदि रहती थी कभी-कभी स्प्रे करते समय उसे दौरा भी पड़ता था. उन्हें हर दूसरे दिन हॉस्पिटल जाना पड़ता था जिसमें एक बार में 500 रु. का खर्च हो जाता था, अब वह सब बंद हो गया है.
एनपीएम के लिए बाजार
इस कार्यक्रम ने जहां एक ओर खेती को टिकाऊ बनाने का प्रयास किया है, वहीं कुछ समय से इसके उत्पादों के लिए बाजार पर भी ध्यान दिया जा रहा है. गुंटुर जिले के किसान जिले की कृषि सहकारी समिति के माध्यम से अपने उत्पाद बेच रहे हैं. एसईआरपी गाजियाबाद स्थित राष्ट्रीय जैविक कृषि केंद्र के साथ मिलकर सामुदायिक सहभागिता गारंटी योजना के तहत एनपीएम उत्पादों के सर्टीफिकेशन की योजना भी बना रही है, जिससे किसानों के लिए सर्टीफिकेसन की लागत भी कम हो जाएगी.
हैदराबाद के एपीईडीए के सहायक जेनेरल मैनेजर ने कहा, “इस सर्टीफिकेशन से किसानों के लिए उत्पाद को निर्यात करना संभव नहीं होगा, यह योजना स्थानीय स्तर पर तो ठीक है लेकिन इसे अंतर्राष्ट्रीय मान्यता नहीं मिल पाएगी. खाद्य खुदरा बाजार में उतरने वाली बड़ी कंपनियां किसानों के जैविक उत्पादों को ले कर उनकी मदद कर सकती हैं. एपीईडीए सभी जैविक उत्पादों को मान्यता देने वाली एजेंसी और सचिवालय है.
पेस्टीसाइड नहीं कर्ज नहीं
एनाबावी की सफलता के पीछे सेंटर फॉर रूरल ऑपरेशन प्रोगाम सोसायटी (क्रॉप्स) के सेक्रेटरी आर लिंगैया की महत्वपूर्ण भूमिका है. यह गांव आसपास के गांवों में मशहूर हो गया है, मीलो दूर से लोग यहां आते हैं.
नरसम्मा ने बताया कि अगर किसान केमिकल्स का इस्तेमाल बंद नहीं करते तो शायद ही कभी कर्ज से उबर पाते. गांव में करीब 120 हे. जमीन है जिसका लगभग आधा भाग गिरवी रखा हुआ था. कपास की खेती करने वाले कोया जनजाति के किसानों ने अपनी जमीनें गिरवी रखनी शुरु की, उपज घटती गई और लागतें बढ़ती गईं. लेकिन अब ज्यादातर लोगों ने साहूकार से अपनी जमीनें छुड़ा ली हैं. कर्ज मुक्त होने के बाद रामचंद्रपुरम् को एसईआरपी द्वारा अमेरिका स्थित अशोका फाउंडेशन के चेंज मेकर अवार्ड के लिए भी नामांकित किया गया है.
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