आज जब भारत के गांव बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं ऐसे में गांवों में चल रहे परंपरागत व्यवसायों को भी नया रूप देने की जरूरत है। गुजरात के राजकोट निवासी मनसुख भाई ने कुछ ऐसा ही नया करने का बीड़ा उठाया है। पेशे से कुम्हार मनसुख ने अपने हुनर और इनोवेटिव आइडिया का इस्तेमाल करके न सिर्फ अच्छा बिजनेस स्थापित किया, बल्कि नेशनल अवार्ड भी हासिल किया। आज उनके नाम और काम की तारीफ भारत ही नहीं पूरी दुनिया में हो रही है। उनके मिट्टी के बर्तन विदेशों में भी बिक रहे हैं। पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने उन्हें ‘ग्रामीण भारत का सच्चा वैज्ञानिक’ कहा। राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने उन्हें सम्मानित करते हुए कहा कि ग्रामीण भारत के विकास के लिए उनके जैसे साहसी और नवप्रयोगी लोगों की जरूरत है। आज वे उद्यमियों के लिए एक मिसाल हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से उनके काम को लगातार प्रोत्साहित किया गया और भरपूर सहयोग मिला। इससे उनका हौंसला बढ़ता रहा। ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से मिले प्रोत्साहन के बाद मनसुखभाई प्रजापति जिस राह पर चले तो फिर आगे बढ़ते ही गए। उनके काम में कई तरह की बाधाएं भी आई। भूकंप के कारण उनका कारोबार तबाह हो गया, लेकिन वे अपनी मेहनत के दम पर दोबारा उठ खड़े हुए और कुछ ही समय में अपने कारोबार को दोबारा स्थापित कर दिया।
मनसुखभाई प्रजापति बताते हैं कि बचपन से ही मिट्टी के बर्तन देखते आए। समय के बदलाव के साथ मिट्टी के बर्तनों की डिमांड कुछ कम हो गई। ‘‘मैं हमेशा सोचता कि इस पुश्तैनी कारोबार को कैसे बरकरार रखा जाए। फिर हमने तय किया कि कारोबार को समय के अनुसार परिवर्तित करना होगा। मिट्टी के बर्तन बनाने वाले परिवार की पहले बहुत पूछ होती थी। घर में कोई भी आयोजन हो, लोग हमारे घर की ओर दौड़े चले आते थे, लेकिन बाजारवाद की वजह से अपनी साख पर बट्टा लगता नजर आ रहा था, इसलिए मैंने तय किया कि अपना पुश्तैनी कारोबार भी जिंदा रखूंगा और मिट्टी की खुशबू भी, बस उसमें थोड़ा परिवर्तन करने की सोची। यानी इस कारोबार को माडर्नाइज रंग में रंगने की कोशिश शुरू की। साइंटिफिक तरीके से मिट्टी की नई-नई चीजें विकसित की। इसके बाद तो यह कारोबार फर्राटे मारने लगा।’’
मनसुखभाई प्रजापति का जन्म गुजरात राज्य के राजकोट जिले में स्थित मोरबी के निचीमंडल में हुआ। उनके परिवार के लोग मिट्टी के बर्तन, खिलौने आदि बनाते थे। बचपन से वह भी इस काम को बड़ी ही सहजता से देखते आए थे। मौका दिवाली का हो या अन्य कोई पर्व, मिट्टी के खिलौने बनाए जाते। खिलौना बनाने के काम में वह खुद भी लग जाते थे। मिट्टी के रंगबिरंगे खिलौने उन्हें बहुत पसंद थे। यही वजह है कि वह अपनी पसंद के खिलौने बनाया करते। मिट्टी को नया रूप और नए रंग में रंगने के बाद परिवार के लोगों को दिखाते। वर्ष 1979 में मोरबी का माछू डैम टूट गया। डैम की तबाही में उनके परिवार ने सब कुछ खो दिया। उनके परिवार को वहां से पलायन करना पड़ा। वे वांकानेर आ गए और यहां उनके पिताजी ने एक मजदूर के रूप में जिंदगी की नई शुरुआत की।
मनसुखभाई प्रजापति बताते हैं कि उन्होंने 10वीं तक पढ़ाई की। वह और पढ़ना चाहते थे, लेकिन पारिवारिक कारणों से आगे की पढ़ाई नहीं कर पाए। परिवार का खर्चा चलाने के लिए उन्होंने कुछ करने की सोची। वे परंपरागत कारोबार को आगे बढ़ाना चाहते थे, लेकिन बाजार में चले प्लास्टिक के चलन और परिवार की आर्थिक तंगी ने उनके इस कदम को रोकने की कोशिश की। कुछ दिन तक इधर-उधर कामधंधा करते रहे। उन्होंने चाय की दुकान भी खोली, लेकिन छह माह में ही बंद कर दी। दूसरे कामों में मन लगाने की कोशिश करते, लेकिन पुश्तैनी कारोबार छोड़ने को मन नहीं तैयार हुआ। इसके बाद उन्होंने मिट्टी के बर्तन बनाने वाले एक कारखाने में नौकरी कर ली। वर्ष 1985 में उन्हें तीन सौ रुपए प्रति माह मेहनताना मिलता था। यहां वह तीन साल तक काम करते रहे और मिट्टी के बर्तनों को नया स्वरूप देने की योजना को भी मूर्त रूप देते रहे। एक कारखाना चलाने के लिए किन-किन बातों का विशेष ध्यान रखना होता है, यह भी यहीं से सीखा।
वर्ष 1988 में ऋण लिया और मिट्टी के तवे बनाने का काम शुरू किया। करीब तीस हजार रुपए का ऋण लेने के बाद एक तरफ कारोबार चलाने की चुनौती थी, तो दूसरी तरफ ऋण अदायगी की। क्योंकि उनकी सोच थी कि ऋण लेना महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि उसको चुकता करना ज्यादा महत्वपूर्ण है। उनके इलाके में तमाम ऐसे लोग थे, जिन्होंने बैंक से ऋण लिया था, लेकिन समय पर अदायगी नहीं कर पाए। ऐसे में लोगों को काफी फजीहत झेलनी पड़ी थी। एक तरफ बैंक कुर्की करने को तैयार था तो दूसरी तरफ ऋण लेने वालों की साख पर भी बट्टा लगा था। ऐसा जोखिम लेने को मनसुख तैयार नहीं थे। वह चाहते थे कि जिस उद्देश्य के लिए उन्होंने ऋण लिया है, वह भी पूरा हो जाए, साख भी बची रहे और ऋण भी अदा हो जाए। तीनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिए दिन-रात मेहनत शुरू की। अपने आप पर भरोसा था। इरादे बुलंद थे। एक-न-एक दिन कामयाब होने का संकल्प था।
बैंक से मिले 30 हजार के ऋण के साथ मिट्टी तवा बनाने का कारोबार शुरू किया। मनसुखभाई बताते हैं कि उनका अनुमान था कि मिट्टी के बर्तनों को हाथों से आकार देने वाला कुम्हार एक दिन में सौ तवे बना सकता है। वह पहले दिन सिर्फ 50 तवे ही बना सके। वह सुबह-शाम तवे बनाते और दिन में उसकी बिक्री के लिए आसपास के गांवों का चक्कर काटते। उनके पास एक पुरानी साइकिल थी। उन्होंने साइकिल से ही तवे बेचने का काम शुरू किए। उनके तवे की मांग बढ़ी तो ज्यादा उत्पादन की जरूरत पड़ी। चूंकि पहले वह अकेले काम में लगे थे, इसलिए जितनी मांग थी, उतना तवा तैयार नहीं कर पा रहे थे।
मनसुखभाई प्रजापति आजकल नया प्रयोग करने में लगे हुए हैं। उनका यह प्रयोग रंग लाया तो ग्रामीण भारत में अपने आप में नया प्रयोग होगा। दरअसल वह एक ऐसा घर बनाना चाहते हैं, जो 24 घंटे ठंडा रहे, लेकिन बिजली की जरूरत न हो। वे बिजली की खपत कम करने के बारे में सोच रहे हैं। यह मकान सिर्फ नेचुरल लाइट का इस्तेमाल करके मकान को ठंडा रखेगा। मनसुख भाई को उम्मीद है कि आज नहीं तो कल वह इसमें भी सफल होंगे।ज्यादा प्रोडक्शन के लिए अपनी फैक्ट्री में हैंड प्रेस मशीन लगाई। यह एक दिन में सात सौ तवे बना सकता था। पहली बार उन्होंने 50 पैसे का तवा बेचा था। इसके बाद उसे 65 पैसे में बेचना शुरू किया। इसके बाद कई तरह की मिट्टियों का इस्तेमाल कर नए-नए प्रयोग शुरू किए। तवे में ही कलात्मकता लाने की कोशिश की, उसे कलरफुल बनाया। इससे बिक्री एकाएक बढ़ गई। वह ट्रेडर्स की नजर में भी आ गए। उनके तवे की डिमांड शहरों में होने लगी। फिर उन्होंने अपने कारखाने में कुछ अन्य कारीगरों को भी रख लिया और भरपूर उत्पादन करने लगे। उनके कारखाने से तैयार माल शहरों में धूम मचाने लगा। तवे बनाने वाले के रूप में नाम कमाने के बाद मनसुखभाई के मन में कुछ नया करने की ललक पैदा हुई। वह रातदिन सोचने लगे कि इस मिट्टी से कोई ऐसी चीज बनाई जाए, जिसे देखकर लोगों को आश्चर्य हो।
तवे का कारोबार बढ़ा तो उसका बिक्री माल पहुंचाने की समस्या आई। मनसुखभाई ने इसके लिए सालभर बाद एक मोटर रिक्शा का भी इंतजाम किया। मोटर रिक्शा हो जाने के बाद जहां एक और व्यक्ति को रोजगार मिला वहीं ऑर्डर मिलते ही संबंधित स्थान पर माल पहुंचने लगा। यह वर्ष उनकी तरक्की के साथ ही जिंदगी के लिए भी अहम था। वह याद करते हैं और कहते हैं कि यह वर्ष उनके लिए कई तरह की खुशियां लेकर आया था। इसी वर्ष उनकी शादी भी हुई और कारोबार भी तेजी से बढ़ा। शादी के बाद पत्नी भी उनके काम में हाथ बंटाने लगी। इससे हौंसला बढ़ता ही गया। वर्ष 1990 में उन्होंने अपने कारखाने को रजिस्टर्ड कराया और नाम दिया मनसुखभाई राघवभाई प्रजापति। वर्ष 1992 में भुज के कुछ ट्रेडर्स उनके कारखाने में आए और कारखाने में तैयार सभी तीन हजार तवे एक साथ खरीद लिए। साथ ही भारी संख्या में तवे का ऑर्डर भी दिया। मनसुखभाई को इतने व्यापक स्तर पर पहली बार ऑर्डर मिला था, इसलिए उनका उत्साह दुगुना हो गया। इसके बाद वह फुटकर तवा बेचने के साथ ही भुज के लिए थोक में तवा सप्लाई करते रहे।
थोक में तवा बेचने पर उन्हें ज्यादा आमदनी नहीं हो रही थी, लेकिन लागत निकलने पर भी उन्हें संतोष था क्योंकि थोक के भाव ऑर्डर मिलने के कारण उनके पास काम की कमी नहीं थी। दूसरी तरफ वह अपने जैसे तमाम लोगों को रोजगार भी मुहैया कराने लगे थे। उनका मानना था कि यदि उनके कारखाने में काम चलता रहा तो तमाम लोगों को रोजगार मिलता रहेगा। ग्रामीण युवाओं को रोजगार के लिए इधर-उधर भटकना नहीं पड़ेगा।
मनसुख के मिट्टी के बने वाटर फिल्टर को देखकर चिरागभाई काफी प्रभावित हुए और उन्होंने पांच सौ पीस का ऑर्डर दे दिया। इस वाटर फिल्टर का अहमदाबाद में लगी प्रदर्शनी में प्रदर्शन किया गया। इसके बाद वर्ष 2001 में मिट्टीकूल नाम से इसका पेटेंट कराया गया।वर्ष 1995 में राजकोट के व्यापारी चिरागभाई वांकानेर आए। उन्हें एक ऐसे व्यक्ति की तलाश थी, जो चिकनी मिट्टी के बर्तन उन्हें थोक में उपलब्ध करा सके। चिरागभाई एक्सपोर्टर थे। वे अपना माल केन्या के नौरोबी सहित कई स्थानों पर भेजते थे। चिरागभाई के आने की खबर मिलते ही मनसुखभाई प्रजापति ने उनसे मुलाकात की। अपने कारखाने ले आए और उन्हें अपने काम को दिखाया। इस दौरान चिरागभाई को वाटर फिल्टर के बारे में जानकारी दी। मनसुख के मिट्टी के बने वाटर फिल्टर को देखकर चिरागभाई काफी प्रभावित हुए और उन्होंने पांच सौ पीस का ऑर्डर दे दिया। इस वाटर फिल्टर का अहमदाबाद में लगी प्रदर्शनी में प्रदर्शन किया गया। इसके बाद वर्ष 2001 में मिट्टीकूल नाम से इसका पेटेंट कराया गया।
मनसुखभाई इस समय इस वाटर फिल्टर को बड़े पैमाने पर बना रहे हैं। हालांकि जनवरी 2001 में आए भूकंप में मनसुखभाई प्रजापति को काफी नुकसान झेलना पड़ा। इस भूकंप में उनके कारखाने में बना सभी सामान नष्ट हो गया था, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। इस दौरान वह गुजरात ग्रासरूट इनोवेशन ऑगमेंटेशन नेटवर्क (जीआईएएन) अहमदाबाद के संपर्क में आए। इसके बाद वाटर फिल्टर को और बेहतरीन बनाने की कोशिश की। तय किया कि इसे फ्रिज जैसा बनाया जाए, लेकिन इसमें बिजली की खपत न हो। इसके लिए उन्होंने विभिन्न वैज्ञानिकों से बातचीत की और अपने मन में आ रहे विचारों से अवगत कराया।
वर्ष 2005 में उन्होंने मिट्टी के फ्रिज का निर्माण किया। एक वैज्ञानिक उनके कारखाने का निरीक्षण करने आया और मिट्टी के फ्रिज को देखकर इतना प्रभावित हुआ कि 100 पीस का ऑर्डर दिया और एडवांस में दो लाख रुपए दे दिए। एडवांस में पैसा मिलने के बाद तो मनसुख रातदिन मेहनत करने लगे और उनके फ्रिज की तारीफ पूरे देश में होने लगी। उनके मिट्टी का वाटर फिल्टर पानी को एक माइक्रोन तक प्यूरिफाई कर सकता है। इसके बाद उन्होंने एक रेफ्रिजरेटर बनाया, जिसमें तीन दिन तक दूध और सप्ताहभर तक सब्जियों को सुरक्षित रखा जा सकता था। रेफ्रिजरेटर बनाते ही उनके नाम और काम दोनों की चर्चा होने लगी। लोगों की ओर से वाहवाही मिली तो हौंसला बुलंद हुआ। वह बताते हैं कि जब लोगों को रेफ्रिजरेटर पसंद आया तो लगा कि मेरा जीवन सफल हो गया।
वर्ष 2008 में सात्विक ट्रेडिभान फूड फेस्टिवल में वह अपने उत्पाद लेकर पहुंचे थे। चिकनी मिट्टी के बने तवे, हांडी, गिलास, कटोरी आदि देखकर कुछ ग्राहकों ने कहा कि क्या मिट्टी का कुकर भी बन सकता है। यह विचार उन्हें पसंद आया और उन्होंने चिकनी मिट्टी के कुकर बनाने की रणनीति तय की। अगले वर्ष जब फेस्टिवल लगा तो उन्होंने कुकर का भी प्रदर्शन किया।
मिट्टी का रेफ्रिजरेटर बनाने के बाद हुनर को सम्मान मिला। ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार की ओर से सम्मानित किए जाने के बाद तो मनसुख का यह कारोबार और तेजी से आगे बढ़ने लगा। वह बताते हैं कि जब उन्हें ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से दिल्ली में आयोजित समारोह में सम्मानित किया गया तो ऐसा लगा कि वर्षों से किए गए संघर्ष का फल मिल रहा है। इस सम्मान ने संघर्ष के दौरान मिले सारे दुखों को दूर कर दिया। इससे हौंसला बढ़ा और आगे बढ़ने की ललक पैदा हुई।
मनसुखभाई की ओर से लगाई गई प्रदर्शनी को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने देखा। उन्होंने एक-एक आविष्कार को बड़े गौर से देखा। मनसुखभाई के बारे में पूछा। जब उन्हें पता चला कि मनसुख सिर्फ दसवीं तक पढ़े हैं तो कुछ पल के लिए आश्चर्य में पड़ गए और मनसुख को सच्चा वैज्ञानिक बताया। कलाम ने भी हौंसला अफजाई की और मेरे काम की तारीफ की। कलाम की ओर से मिली तारीफ के बाद और कुछ अलग करने की ललक पैदा हुई।
मनसुखभाई प्रजापति कहते हैं कि काम के लिए आपका पैमाना जितना अधिक होगा, आपको उतनी ही कम समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। हमेशा सकारात्मक सोचे और पूरा मन लगाकर अपना काम करें। बिजनेस के साथ ही सामाजिक जिम्मेदारी भी समझे। मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति न पनपने दें। सकारात्मक सोच और अपनी मेहनत से पैसा कमाने की प्रवृत्ति रहेगी तो एक-न-एक दिन सफलता जरूर मिलेगी।
मनसुखभाई प्रजापति आजकल नया प्रयोग करने में लगे हुए हैं। उनका यह प्रयोग रंग लाया तो ग्रामीण भारत में अपने आप में नया प्रयोग होगा। दरअसल वह एक ऐसा घर बनाना चाहते हैं, जो 24 घंटे ठंडा रहे, लेकिन बिजली की जरूरत न हो। वे बिजली की खपत कम करने के बारे में सोच रहे हैं। यह मकान सिर्फ नेचुरल लाइट का इस्तेमाल करके मकान को ठंडा रखेगा। मनसुख भाई को उम्मीद है कि आज नहीं तो कल वह इसमें भी सफल होंगे। इसके लिए उनके मन में जो भी विचार आते हैं, वह वैज्ञानिकों से भी संपर्क करके विचार-विमर्श करते हैं। आईआईएम, अहमदाबाद के कई वैज्ञानिक भी उनका हौंसला बढ़ा रहे हैं।
मनसुखभाई प्रजापति का बेटा अब मृत्तिका शिल्पी तकनीक (सेरेमिक टेक्नोलॉजी) में डिप्लोमा कर रहा है। वह पढ़ाई के दौरान जो भी सीखता है, उसके बारे में जानकारी देता है। इससे वह अपने कारोबार को और चमकदार बना रहे हैं। इस काम में उनके पिता का भी बहुत सहयोग रहता है। कारखाने का काम उनकी पत्नी देखती हैं। वह विभिन्न स्थानों पर लगने वाली प्रदर्शनी में भी भाग लेती हैं और अपने उत्पाद को बेहतर बनाने के बारे में ग्राहकों से जो प्रतिक्रिया मिलती है, उसे पूरी तरह से स्वीकार करने की कोशिश करती हैं। मनसुखभाई प्रजापति अब ज्यादातर समय मार्केटिंग में देते हैं। अब उन्होंने बाकायदा अपनी वेबसाइट भी बना ली है। मिट्टीकूल डॉट काम नाम से बनी वेबसाइट पर वह लोगों की प्रतिक्रिया लेते हैं। अपने काम के बारे में बताते हैं और कौन-सा नया उत्पाद तैयार कर रहे हैं, इसके बारे में भी जानकारी देते रहते हैं।
मनसुखभाई प्रजापति कहते हैं कि कुछ लोग गांवों के परंपरागत व्यवसाय के खत्म होने की बात करते हैं, जो गलत है। अभी भी हम ग्रामीण व्यवसाय को जिंदा रख सकते हैं बस उसमें थोड़ी-सी तब्दीली करने की जरूरत है। भारत के गांव अब नई तकनीक और नई सुविधाओं से लैस हो गए हैं। भारत के गांव बदल रहे हैं, इसलिए अपने कारोबार में थोड़ा-सा बदलाव करने की जरूरत है। नई सोच और नए प्रयोग के जरिए ग्रामीण कारोबार को बरकरार रखा जा सकता है और उसके जरिए अपनी जीविका चलाई जा सकती है। जब हम गांव में कोई कारोबार शुरू करते हैं, उससे सिर्फ हमें ही फायदा नहीं मिलता बल्कि हमारी सामाजिक जिम्मेदारी भी पूरी होती है। हम खुद आत्मनिर्भर बनते हैं और तमाम बेरोजगारों को रोजगार देते हैं। हर व्यक्ति की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने साथ ही दूसरे लोगों को भी प्रोत्साहित करे। उन्हें काम करने के प्रति जागरूक करे। इसी से ग्रामीण भारत के सशक्तिकरण का सपना पूरा होगा।
(लेखिका कृषि रिसर्च स्कॉलर हैं)
ई-मेल : skynpr@gmail.com
मनसुखभाई प्रजापति बताते हैं कि बचपन से ही मिट्टी के बर्तन देखते आए। समय के बदलाव के साथ मिट्टी के बर्तनों की डिमांड कुछ कम हो गई। ‘‘मैं हमेशा सोचता कि इस पुश्तैनी कारोबार को कैसे बरकरार रखा जाए। फिर हमने तय किया कि कारोबार को समय के अनुसार परिवर्तित करना होगा। मिट्टी के बर्तन बनाने वाले परिवार की पहले बहुत पूछ होती थी। घर में कोई भी आयोजन हो, लोग हमारे घर की ओर दौड़े चले आते थे, लेकिन बाजारवाद की वजह से अपनी साख पर बट्टा लगता नजर आ रहा था, इसलिए मैंने तय किया कि अपना पुश्तैनी कारोबार भी जिंदा रखूंगा और मिट्टी की खुशबू भी, बस उसमें थोड़ा परिवर्तन करने की सोची। यानी इस कारोबार को माडर्नाइज रंग में रंगने की कोशिश शुरू की। साइंटिफिक तरीके से मिट्टी की नई-नई चीजें विकसित की। इसके बाद तो यह कारोबार फर्राटे मारने लगा।’’
मनसुखभाई प्रजापति का जन्म गुजरात राज्य के राजकोट जिले में स्थित मोरबी के निचीमंडल में हुआ। उनके परिवार के लोग मिट्टी के बर्तन, खिलौने आदि बनाते थे। बचपन से वह भी इस काम को बड़ी ही सहजता से देखते आए थे। मौका दिवाली का हो या अन्य कोई पर्व, मिट्टी के खिलौने बनाए जाते। खिलौना बनाने के काम में वह खुद भी लग जाते थे। मिट्टी के रंगबिरंगे खिलौने उन्हें बहुत पसंद थे। यही वजह है कि वह अपनी पसंद के खिलौने बनाया करते। मिट्टी को नया रूप और नए रंग में रंगने के बाद परिवार के लोगों को दिखाते। वर्ष 1979 में मोरबी का माछू डैम टूट गया। डैम की तबाही में उनके परिवार ने सब कुछ खो दिया। उनके परिवार को वहां से पलायन करना पड़ा। वे वांकानेर आ गए और यहां उनके पिताजी ने एक मजदूर के रूप में जिंदगी की नई शुरुआत की।
दूसरे कामों में नहीं लगा मन
मनसुखभाई प्रजापति बताते हैं कि उन्होंने 10वीं तक पढ़ाई की। वह और पढ़ना चाहते थे, लेकिन पारिवारिक कारणों से आगे की पढ़ाई नहीं कर पाए। परिवार का खर्चा चलाने के लिए उन्होंने कुछ करने की सोची। वे परंपरागत कारोबार को आगे बढ़ाना चाहते थे, लेकिन बाजार में चले प्लास्टिक के चलन और परिवार की आर्थिक तंगी ने उनके इस कदम को रोकने की कोशिश की। कुछ दिन तक इधर-उधर कामधंधा करते रहे। उन्होंने चाय की दुकान भी खोली, लेकिन छह माह में ही बंद कर दी। दूसरे कामों में मन लगाने की कोशिश करते, लेकिन पुश्तैनी कारोबार छोड़ने को मन नहीं तैयार हुआ। इसके बाद उन्होंने मिट्टी के बर्तन बनाने वाले एक कारखाने में नौकरी कर ली। वर्ष 1985 में उन्हें तीन सौ रुपए प्रति माह मेहनताना मिलता था। यहां वह तीन साल तक काम करते रहे और मिट्टी के बर्तनों को नया स्वरूप देने की योजना को भी मूर्त रूप देते रहे। एक कारखाना चलाने के लिए किन-किन बातों का विशेष ध्यान रखना होता है, यह भी यहीं से सीखा।
ऋण लेकर शुरू किया कारोबार
वर्ष 1988 में ऋण लिया और मिट्टी के तवे बनाने का काम शुरू किया। करीब तीस हजार रुपए का ऋण लेने के बाद एक तरफ कारोबार चलाने की चुनौती थी, तो दूसरी तरफ ऋण अदायगी की। क्योंकि उनकी सोच थी कि ऋण लेना महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि उसको चुकता करना ज्यादा महत्वपूर्ण है। उनके इलाके में तमाम ऐसे लोग थे, जिन्होंने बैंक से ऋण लिया था, लेकिन समय पर अदायगी नहीं कर पाए। ऐसे में लोगों को काफी फजीहत झेलनी पड़ी थी। एक तरफ बैंक कुर्की करने को तैयार था तो दूसरी तरफ ऋण लेने वालों की साख पर भी बट्टा लगा था। ऐसा जोखिम लेने को मनसुख तैयार नहीं थे। वह चाहते थे कि जिस उद्देश्य के लिए उन्होंने ऋण लिया है, वह भी पूरा हो जाए, साख भी बची रहे और ऋण भी अदा हो जाए। तीनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिए दिन-रात मेहनत शुरू की। अपने आप पर भरोसा था। इरादे बुलंद थे। एक-न-एक दिन कामयाब होने का संकल्प था।
तवा फैक्ट्री से हुई शुरुआत
बैंक से मिले 30 हजार के ऋण के साथ मिट्टी तवा बनाने का कारोबार शुरू किया। मनसुखभाई बताते हैं कि उनका अनुमान था कि मिट्टी के बर्तनों को हाथों से आकार देने वाला कुम्हार एक दिन में सौ तवे बना सकता है। वह पहले दिन सिर्फ 50 तवे ही बना सके। वह सुबह-शाम तवे बनाते और दिन में उसकी बिक्री के लिए आसपास के गांवों का चक्कर काटते। उनके पास एक पुरानी साइकिल थी। उन्होंने साइकिल से ही तवे बेचने का काम शुरू किए। उनके तवे की मांग बढ़ी तो ज्यादा उत्पादन की जरूरत पड़ी। चूंकि पहले वह अकेले काम में लगे थे, इसलिए जितनी मांग थी, उतना तवा तैयार नहीं कर पा रहे थे।
मनसुखभाई प्रजापति आजकल नया प्रयोग करने में लगे हुए हैं। उनका यह प्रयोग रंग लाया तो ग्रामीण भारत में अपने आप में नया प्रयोग होगा। दरअसल वह एक ऐसा घर बनाना चाहते हैं, जो 24 घंटे ठंडा रहे, लेकिन बिजली की जरूरत न हो। वे बिजली की खपत कम करने के बारे में सोच रहे हैं। यह मकान सिर्फ नेचुरल लाइट का इस्तेमाल करके मकान को ठंडा रखेगा। मनसुख भाई को उम्मीद है कि आज नहीं तो कल वह इसमें भी सफल होंगे।ज्यादा प्रोडक्शन के लिए अपनी फैक्ट्री में हैंड प्रेस मशीन लगाई। यह एक दिन में सात सौ तवे बना सकता था। पहली बार उन्होंने 50 पैसे का तवा बेचा था। इसके बाद उसे 65 पैसे में बेचना शुरू किया। इसके बाद कई तरह की मिट्टियों का इस्तेमाल कर नए-नए प्रयोग शुरू किए। तवे में ही कलात्मकता लाने की कोशिश की, उसे कलरफुल बनाया। इससे बिक्री एकाएक बढ़ गई। वह ट्रेडर्स की नजर में भी आ गए। उनके तवे की डिमांड शहरों में होने लगी। फिर उन्होंने अपने कारखाने में कुछ अन्य कारीगरों को भी रख लिया और भरपूर उत्पादन करने लगे। उनके कारखाने से तैयार माल शहरों में धूम मचाने लगा। तवे बनाने वाले के रूप में नाम कमाने के बाद मनसुखभाई के मन में कुछ नया करने की ललक पैदा हुई। वह रातदिन सोचने लगे कि इस मिट्टी से कोई ऐसी चीज बनाई जाए, जिसे देखकर लोगों को आश्चर्य हो।
धीरे-धीरे करते गए नए प्रयोग
तवे का कारोबार बढ़ा तो उसका बिक्री माल पहुंचाने की समस्या आई। मनसुखभाई ने इसके लिए सालभर बाद एक मोटर रिक्शा का भी इंतजाम किया। मोटर रिक्शा हो जाने के बाद जहां एक और व्यक्ति को रोजगार मिला वहीं ऑर्डर मिलते ही संबंधित स्थान पर माल पहुंचने लगा। यह वर्ष उनकी तरक्की के साथ ही जिंदगी के लिए भी अहम था। वह याद करते हैं और कहते हैं कि यह वर्ष उनके लिए कई तरह की खुशियां लेकर आया था। इसी वर्ष उनकी शादी भी हुई और कारोबार भी तेजी से बढ़ा। शादी के बाद पत्नी भी उनके काम में हाथ बंटाने लगी। इससे हौंसला बढ़ता ही गया। वर्ष 1990 में उन्होंने अपने कारखाने को रजिस्टर्ड कराया और नाम दिया मनसुखभाई राघवभाई प्रजापति। वर्ष 1992 में भुज के कुछ ट्रेडर्स उनके कारखाने में आए और कारखाने में तैयार सभी तीन हजार तवे एक साथ खरीद लिए। साथ ही भारी संख्या में तवे का ऑर्डर भी दिया। मनसुखभाई को इतने व्यापक स्तर पर पहली बार ऑर्डर मिला था, इसलिए उनका उत्साह दुगुना हो गया। इसके बाद वह फुटकर तवा बेचने के साथ ही भुज के लिए थोक में तवा सप्लाई करते रहे।
मुनाफे पर नहीं दिया ध्यान
थोक में तवा बेचने पर उन्हें ज्यादा आमदनी नहीं हो रही थी, लेकिन लागत निकलने पर भी उन्हें संतोष था क्योंकि थोक के भाव ऑर्डर मिलने के कारण उनके पास काम की कमी नहीं थी। दूसरी तरफ वह अपने जैसे तमाम लोगों को रोजगार भी मुहैया कराने लगे थे। उनका मानना था कि यदि उनके कारखाने में काम चलता रहा तो तमाम लोगों को रोजगार मिलता रहेगा। ग्रामीण युवाओं को रोजगार के लिए इधर-उधर भटकना नहीं पड़ेगा।
मनसुख के मिट्टी के बने वाटर फिल्टर को देखकर चिरागभाई काफी प्रभावित हुए और उन्होंने पांच सौ पीस का ऑर्डर दे दिया। इस वाटर फिल्टर का अहमदाबाद में लगी प्रदर्शनी में प्रदर्शन किया गया। इसके बाद वर्ष 2001 में मिट्टीकूल नाम से इसका पेटेंट कराया गया।वर्ष 1995 में राजकोट के व्यापारी चिरागभाई वांकानेर आए। उन्हें एक ऐसे व्यक्ति की तलाश थी, जो चिकनी मिट्टी के बर्तन उन्हें थोक में उपलब्ध करा सके। चिरागभाई एक्सपोर्टर थे। वे अपना माल केन्या के नौरोबी सहित कई स्थानों पर भेजते थे। चिरागभाई के आने की खबर मिलते ही मनसुखभाई प्रजापति ने उनसे मुलाकात की। अपने कारखाने ले आए और उन्हें अपने काम को दिखाया। इस दौरान चिरागभाई को वाटर फिल्टर के बारे में जानकारी दी। मनसुख के मिट्टी के बने वाटर फिल्टर को देखकर चिरागभाई काफी प्रभावित हुए और उन्होंने पांच सौ पीस का ऑर्डर दे दिया। इस वाटर फिल्टर का अहमदाबाद में लगी प्रदर्शनी में प्रदर्शन किया गया। इसके बाद वर्ष 2001 में मिट्टीकूल नाम से इसका पेटेंट कराया गया।
वाटर फिल्टर से मिट्टीकूल फ्रिज का सफर
मनसुखभाई इस समय इस वाटर फिल्टर को बड़े पैमाने पर बना रहे हैं। हालांकि जनवरी 2001 में आए भूकंप में मनसुखभाई प्रजापति को काफी नुकसान झेलना पड़ा। इस भूकंप में उनके कारखाने में बना सभी सामान नष्ट हो गया था, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। इस दौरान वह गुजरात ग्रासरूट इनोवेशन ऑगमेंटेशन नेटवर्क (जीआईएएन) अहमदाबाद के संपर्क में आए। इसके बाद वाटर फिल्टर को और बेहतरीन बनाने की कोशिश की। तय किया कि इसे फ्रिज जैसा बनाया जाए, लेकिन इसमें बिजली की खपत न हो। इसके लिए उन्होंने विभिन्न वैज्ञानिकों से बातचीत की और अपने मन में आ रहे विचारों से अवगत कराया।
वर्ष 2005 में उन्होंने मिट्टी के फ्रिज का निर्माण किया। एक वैज्ञानिक उनके कारखाने का निरीक्षण करने आया और मिट्टी के फ्रिज को देखकर इतना प्रभावित हुआ कि 100 पीस का ऑर्डर दिया और एडवांस में दो लाख रुपए दे दिए। एडवांस में पैसा मिलने के बाद तो मनसुख रातदिन मेहनत करने लगे और उनके फ्रिज की तारीफ पूरे देश में होने लगी। उनके मिट्टी का वाटर फिल्टर पानी को एक माइक्रोन तक प्यूरिफाई कर सकता है। इसके बाद उन्होंने एक रेफ्रिजरेटर बनाया, जिसमें तीन दिन तक दूध और सप्ताहभर तक सब्जियों को सुरक्षित रखा जा सकता था। रेफ्रिजरेटर बनाते ही उनके नाम और काम दोनों की चर्चा होने लगी। लोगों की ओर से वाहवाही मिली तो हौंसला बुलंद हुआ। वह बताते हैं कि जब लोगों को रेफ्रिजरेटर पसंद आया तो लगा कि मेरा जीवन सफल हो गया।
लोगों का सुझाव माना
वर्ष 2008 में सात्विक ट्रेडिभान फूड फेस्टिवल में वह अपने उत्पाद लेकर पहुंचे थे। चिकनी मिट्टी के बने तवे, हांडी, गिलास, कटोरी आदि देखकर कुछ ग्राहकों ने कहा कि क्या मिट्टी का कुकर भी बन सकता है। यह विचार उन्हें पसंद आया और उन्होंने चिकनी मिट्टी के कुकर बनाने की रणनीति तय की। अगले वर्ष जब फेस्टिवल लगा तो उन्होंने कुकर का भी प्रदर्शन किया।
हुनर को मिला सम्मान
मिट्टी का रेफ्रिजरेटर बनाने के बाद हुनर को सम्मान मिला। ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार की ओर से सम्मानित किए जाने के बाद तो मनसुख का यह कारोबार और तेजी से आगे बढ़ने लगा। वह बताते हैं कि जब उन्हें ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से दिल्ली में आयोजित समारोह में सम्मानित किया गया तो ऐसा लगा कि वर्षों से किए गए संघर्ष का फल मिल रहा है। इस सम्मान ने संघर्ष के दौरान मिले सारे दुखों को दूर कर दिया। इससे हौंसला बढ़ा और आगे बढ़ने की ललक पैदा हुई।
राष्ट्रपति कलाम के प्यार ने बनाया वैज्ञानिक
मनसुखभाई की ओर से लगाई गई प्रदर्शनी को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने देखा। उन्होंने एक-एक आविष्कार को बड़े गौर से देखा। मनसुखभाई के बारे में पूछा। जब उन्हें पता चला कि मनसुख सिर्फ दसवीं तक पढ़े हैं तो कुछ पल के लिए आश्चर्य में पड़ गए और मनसुख को सच्चा वैज्ञानिक बताया। कलाम ने भी हौंसला अफजाई की और मेरे काम की तारीफ की। कलाम की ओर से मिली तारीफ के बाद और कुछ अलग करने की ललक पैदा हुई।
नए उद्यमियों से ली सीख
मनसुखभाई प्रजापति कहते हैं कि काम के लिए आपका पैमाना जितना अधिक होगा, आपको उतनी ही कम समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। हमेशा सकारात्मक सोचे और पूरा मन लगाकर अपना काम करें। बिजनेस के साथ ही सामाजिक जिम्मेदारी भी समझे। मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति न पनपने दें। सकारात्मक सोच और अपनी मेहनत से पैसा कमाने की प्रवृत्ति रहेगी तो एक-न-एक दिन सफलता जरूर मिलेगी।
भविष्य की योजना
मनसुखभाई प्रजापति आजकल नया प्रयोग करने में लगे हुए हैं। उनका यह प्रयोग रंग लाया तो ग्रामीण भारत में अपने आप में नया प्रयोग होगा। दरअसल वह एक ऐसा घर बनाना चाहते हैं, जो 24 घंटे ठंडा रहे, लेकिन बिजली की जरूरत न हो। वे बिजली की खपत कम करने के बारे में सोच रहे हैं। यह मकान सिर्फ नेचुरल लाइट का इस्तेमाल करके मकान को ठंडा रखेगा। मनसुख भाई को उम्मीद है कि आज नहीं तो कल वह इसमें भी सफल होंगे। इसके लिए उनके मन में जो भी विचार आते हैं, वह वैज्ञानिकों से भी संपर्क करके विचार-विमर्श करते हैं। आईआईएम, अहमदाबाद के कई वैज्ञानिक भी उनका हौंसला बढ़ा रहे हैं।
बेटा करता है तकनीकी सहयोग
मनसुखभाई प्रजापति का बेटा अब मृत्तिका शिल्पी तकनीक (सेरेमिक टेक्नोलॉजी) में डिप्लोमा कर रहा है। वह पढ़ाई के दौरान जो भी सीखता है, उसके बारे में जानकारी देता है। इससे वह अपने कारोबार को और चमकदार बना रहे हैं। इस काम में उनके पिता का भी बहुत सहयोग रहता है। कारखाने का काम उनकी पत्नी देखती हैं। वह विभिन्न स्थानों पर लगने वाली प्रदर्शनी में भी भाग लेती हैं और अपने उत्पाद को बेहतर बनाने के बारे में ग्राहकों से जो प्रतिक्रिया मिलती है, उसे पूरी तरह से स्वीकार करने की कोशिश करती हैं। मनसुखभाई प्रजापति अब ज्यादातर समय मार्केटिंग में देते हैं। अब उन्होंने बाकायदा अपनी वेबसाइट भी बना ली है। मिट्टीकूल डॉट काम नाम से बनी वेबसाइट पर वह लोगों की प्रतिक्रिया लेते हैं। अपने काम के बारे में बताते हैं और कौन-सा नया उत्पाद तैयार कर रहे हैं, इसके बारे में भी जानकारी देते रहते हैं।
ग्रामीणों के लिए सीख
मनसुखभाई प्रजापति कहते हैं कि कुछ लोग गांवों के परंपरागत व्यवसाय के खत्म होने की बात करते हैं, जो गलत है। अभी भी हम ग्रामीण व्यवसाय को जिंदा रख सकते हैं बस उसमें थोड़ी-सी तब्दीली करने की जरूरत है। भारत के गांव अब नई तकनीक और नई सुविधाओं से लैस हो गए हैं। भारत के गांव बदल रहे हैं, इसलिए अपने कारोबार में थोड़ा-सा बदलाव करने की जरूरत है। नई सोच और नए प्रयोग के जरिए ग्रामीण कारोबार को बरकरार रखा जा सकता है और उसके जरिए अपनी जीविका चलाई जा सकती है। जब हम गांव में कोई कारोबार शुरू करते हैं, उससे सिर्फ हमें ही फायदा नहीं मिलता बल्कि हमारी सामाजिक जिम्मेदारी भी पूरी होती है। हम खुद आत्मनिर्भर बनते हैं और तमाम बेरोजगारों को रोजगार देते हैं। हर व्यक्ति की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने साथ ही दूसरे लोगों को भी प्रोत्साहित करे। उन्हें काम करने के प्रति जागरूक करे। इसी से ग्रामीण भारत के सशक्तिकरण का सपना पूरा होगा।
(लेखिका कृषि रिसर्च स्कॉलर हैं)
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Post By: pankajbagwan