एक कारण, प्राकृतिक कृषि के विस्तार न होने का

इस तरह की सोच मूल मुद्दे को ही पकड़ने से चूक जाती है। जो किसान समझौते या बीच के रास्ते की तरफ बढ़ता है वह विज्ञान की, उसकी बुनियाद के स्तर पर, आलोचना करने का अधिकारी नहीं रह जाता। प्राकृतिक कृषि सहज और सौम्य है। इस स्रोत से एक कदम भी दूर हटने पर हम पूरी तरह भटक जाते हैं।

पिछले तीस-बरसों के दौरान चावल और जाड़े के अनाज की खेती के इस तरीके को विभिन्न जलवायु तथा प्राकृतिक परिस्थितियों में आजमाया गया है। जापान के लगभग हर प्रशासकीय क्षेत्र में ‘सीधे-सीधे बीज बोने और ‘जुताई रहित’ कृषि के इस तरीके पर धान-चावल उगाने और जौ तथा राई की खेती की सामान्य टीले और नालियों वाली विधि के साथ तुलनात्मक परीक्षण किए गए। इन परीक्षणों में ऐसे कोई प्रमाण प्राप्त नहीं हुए जो प्राकृतिक कृषि को हर कहीं लागू करने के खिलाफ जाते हों।

तो यह सवाल पूछा जा सकता है कि क्यों इस सच्चाई का प्रसार नहीं हो पाया। मेरे खयाल से इसका एक कारण यह है कि हमारी दुनिया में विशिष्ठीकरण (स्पेशलाइजेशन) इतना ज्यादा हो चुका है कि हम किसी भी चीज को उसकी समग्रता-संपूर्णता के साथ ग्रहण नहीं कर पाते। मसलन, कोची प्रशासकीय परीक्षण-केंद्र का एक कीड़ों की बीमारियों का विशेषज्ञ मुझसे यह पूछने के लिए आया कि मेरे द्वारा कोई कीटनाशी न उपयोग करने के बावजूद मेरे खेतों में धान की पत्तियों पर बैठने वाले टिड्डे इतने कम क्यों हैं? कीटों को बसने की जगह, कीटों तथा उनके प्राकृतिक शत्रुओं के बीच संतुलन, मकडि़यों के प्रजनन की दर आदि की जांच-पड़ताल, करने के बाद पाया गया कि मेरे खेतों में भी ‘लीफ हॉपर’ कीट उतने ही कम थे, जितने की उक्त केंद्र के उन खेतों में जहां कई प्रकार के घातक कीटनाशी रसायन असंख्य बार छिड़के जाते हैं।

इसी प्रोफेसर को यह जानकर भी बड़ा आश्चर्य हुआ कि रसायन छिड़के हुए खेतों के बजाए, मेरे खेतों में जहां हानिकारक कीटों की संख्या कम थी, वहीं उनके प्राकृतिक भक्षकों की संख्या बहुत ज्यादा थी। बाद में उसे अचानक यह बात समझ में आई कि खेतों को इस हालत में विभिन्न कीट बिरादरियों के बीच प्राकृतिक संतुलन बनाये रखने के द्वारा ही लिया जा सका है। उसने यह स्वीकार किया कि यदि मेरे तरीके को व्यापक रूप से अपना लिया जाए तो ‘लीफ हॉपर’ कीड़े के द्वारा फसलों की हानि की समस्या को हल किया जा सकता है। इसके बाद ये प्रोफेसर महोदय कार में बैठकर कोची वापस लौट गए।

अब यदि आप जानना चाहें कि उक्त परीक्षण केंद्र के मिट्टी उर्वरता या फसल-विशेषज्ञ बाद में कभी हमारे यहां पधारे या नहीं, जो जवाब होगा नहीं, वे यहां कभी नहीं आए और यदि आप किसी सम्मेलन या गोष्ठी में यह सुझाव दें कि इस विधि का व्यापक तौर पर उपयोग किया जाए तो शासन या परीक्षण-केंद्र का जवाब, मेरे हिसाब से होगा, ‘माफ कीजिए, अभी उसका समय नहीं आया है। अपनी अंतिम स्वीकृति देने के पहले हमें हर कोण से इस बारे में अनुसंधान करना होगा।’ और उनके किसी नतीजे पर पहुंचने में बरसों लग जाएंगे।

हर बार ऐसी ही बातें होती हैं। सारे जापान के विशेषज्ञ और तकनीशियन इस फार्म पर आ चुके हैं। अपनी-अपनी विशेषज्ञता के हिसाब से प्रत्येक अनुसंधान-कर्ता ने इन खेतों के श्रेष्ठ नहीं तो कम-से-कम संतोषजनक तो पाया ही है। लेकिन उक्त परीक्षण-केंद्र के उक्त प्रोफेसर के यहां आने के बाद के पांच-छह वर्षों में कोची प्रशासन-क्षेत्र में शायद ही कोई परिवर्तन आया है।

इस वर्ष किन्की विश्वविद्यालय के कृषि विभाग में एक प्राकृतिक कृषि परियोजना तैयार की गई है। जिसके अंतर्गत विभिन्न विभागों के छात्र यहां आकर जांच-पड़ताल करेंगे। हो सकता है कि यह तरीका उन्हें लक्ष्य के कुछ करीब ले जाए, लेकिन मुझे शंका है कि उनकी अगली चाल उन्हें दो कदम, ठीक विपरीत दिशा में ले जाएगी।

अपने आपको विशेषज्ञ मानने वाले लोग अक्सर पूछते हैं ‘इस विधि का बुनियादी विचार तो ठीक-ठाक है, लेकिन मशीन के द्वारा कटाई करना क्या ज्यादा सुविधाजनक नहीं होगा? या किन्हीं खास मामलों में या वक्त पर उर्वरकों का उपयोग यदि आप करें तो क्या पैदावार अधिक नहीं हो जाएगी।’ ऐसे लोग हमेशा मिलते रहते हैं जो प्राकृतिक और वैज्ञानिक कृषि के बीच ताल-मेल बैठाना चाहते हैं।

लेकिन इस तरह की सोच मूल मुद्दे को ही पकड़ने से चूक जाती है। जो किसान समझौते या बीच के रास्ते की तरफ बढ़ता है वह विज्ञान की, उसकी बुनियाद के स्तर पर, आलोचना करने का अधिकारी नहीं रह जाता। प्राकृतिक कृषि सहज और सौम्य है। तथा आपको वह कृषि के मूल स्रोत की ओर वापिस लौटने का संकेत करती है। इस स्रोत से एक कदम भी दूर हटने पर हम पूरी तरह भटक जाते हैं।

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