विश्व नदी दिवस, 27 सितम्बर 2015 पर विशेष
उत्तराखण्ड के सीमान्त जनपद उत्तरकाशी के पुरोला विकासखण्ड में बहने वाली कमल नदी का अपना अलग ही महत्त्व है। स्थानीय लोग इस नदी को ‘कमोल्ड’ नाम से जानते हैं। कमल नदी यहाँ के लोगों की जीवनरेखा है।
यह नदी कोई ग्लेशियर से निकलने वाली नहीं है, यह तो कमलेश्वर स्थित जंगल के बीच एक प्राकृतिक जलस्रोत से निकलती है। जो सदाबहार जलधारा है। यह जलधारा कमल नदी के रूप में लगभग 30 किमी बहकर नौगाँव के पास यमुना में संगम बनाती है। जो कि क्रमशः कमलेश्वर से रामा, बेष्टी, कण्डियाल गाँव, कुमोला, देवढुंग, पुरोला, चन्देली, नेत्री, हुडोली, सुनाराछानी, थलीछानी सहित 55 गाँवों की खेती को सिंचित करते हुए नौगाँव स्थित यमुना से मिल जाती है।
शुद्ध और बारहमास बहने वाली कमल नदी शनै-शनै बहती हुई अपने आस-पास की लगभग 4500 हेक्टेयर कृषि भूमि को सिंचित करती है।
ज्ञात हो कि यदि इस क्षेत्र से कमल नदी नहीं बहती तो शायद ही यहाँ भी राज्य के अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा पलायन का ग्राफ सर्वाधिक होता और इतनी सुरम्य घाटी विरान ही नजर आती। प्राकृतिक सौन्दर्य को समेटे यहाँ ‘सिंराई’ नाम से प्रसिद्ध घाटी यानि रामासिंराई, कमलसिंराई पट्टी के लोगों की कमल नदी एक जीवनरेखा है। इसी नदी की देन है कि यहाँ पैदा होने वाला ‘लाल चावल’ देश-दुनिया में विख्यात है।
बता दें कि रामासिंराई, कमलसिंराई क्षेत्र में लाल चावल की भारी पैदावार होने की वजह से जहाँ यह क्षेत्र के लोगों को अपने स्वाद से बाँधे रखता है वहीं पड़ोसी राज्य हिमाचल के आधा किनौर क्षेत्र की पूर्ति भी सिंराई (पुरोला) क्षेत्र का ‘लाल चावल’ करता है। अर्थात लाल चावल यहाँ के लोगों की प्रमुख नगदी फसलो में से एक है जो कि पुरोला और नौगाँव विकासखण्ड के लगभग 100 गाँवों के लोग की अजीविका का मुख्य स्रोत है।
खास बात यह है कि यहाँ का ‘लाल चावल’ महिलाओं को इसलिये आत्मनिर्भर बनाता है कि ग्रामीण महिलाएँ जब स्थानीय बाजार पुरोला जाती हैं तो वे घर से कुछ किलो लाल चावल लेकर चलती हैं और बाजार में ‘लाल चावल’ बेचकर अपनी दैनिन्दनी वस्तुओं को खरीदती हैं। दूसरी तरफ इस नदी से और भी अनेकों फायदे स्थानीय लोग खूब लेते हैं।
कमल नदी के जलागम क्षेत्र से जुड़े गाँव जहाँ ‘लाल चावल’ के लिये प्रसिद्ध है वहीं यहाँ के ग्रामीण कमल नदी में मछली को पकड़कर सब्जी के रूप में उपभोग करते हैं। यदि कहा जाय तो यह क्षेत्र मछली-भात के लिये भी प्रसिद्ध है। बाहर से आने वाले पर्यटक इस क्षेत्र को ‘मिनी बंगाल’ कहकर नहीं थकते।
मछली पकड़ने में बकायदा यहाँ स्थानीय लोगों में नियम-कायदे बने है। गाँव-गाँव के लोग बारी-बारी से कमल नदी में मछली पकड़ने जाते हैं और बड़े चाव से घर आकर मछली-भात का रसास्वादान हर रोज करते हैं।
दिलचस्प यह है कि स्थानीय लोग कमल नदी की मछली को व्यावसायिक तौर पर उपयोग नहीं करते। इसलिये कमल नदी की जैवविविधता भी बची है।
कमल नदी और लोग
कमल नदी के कारण ही यहाँ लोगों की आजीविका सुरक्षित है। इस नदी को लोग ‘अमृत पानी’ कहते हैं। इसी नदी के कारण इस क्षेत्र में नगदी फसल चावल, मटर, टमाटर, बीन, खीरा आदि फसलों की उपज लोगों की आजीविका से जुड़ी है। यहाँ की नगदी फसल वर्तमान में ‘मदर डेयरी’ दिल्ली में सप्लाई होती है। लोगों को इसका दाम उनके खाते में पहुँच जाता है। स्थानीय लोग ‘हार्क’ संस्था का आभार करते नहीं थकते। कहते हैं कि इस संस्था की वजह से वर्तमान में उनकी नगदी फसल ‘मदर डेयरी’ सहित अन्य मण्डियों तक पहुँच पा रही है।
लाल चावल का महत्व
लाल चावल में सफेद चावलों की तुलना में जटिल कार्बोहाईड्रेट पाया जाता है। इस चावल में ग्लाईसेमिक इण्डेक्स कम होने की वजह से रक्त में ग्लूकोज की मात्रा को नियंत्रित करता है। लाल चावल में मैग्नीशियम, आयरन और एंटीऑक्सीडेंट की प्रचुर मात्रा पाई जाती है। जिंक उपस्थित होने की वजह से घाव भरने में मदद करता है साथ ही प्रतिरक्षात्मक सहयोग प्रदान करता है और इसमें विटामिन ‘बी’ की 23 प्रतिशत की मात्रा पाई गई है।
लाल चावल में उपस्थित यह विटामिन सेरोटोनीन लाल रक्त कोशिकाओं के सन्तुलन में सहयोग प्रदान करता है। फाईबर की भी अधिक मात्रा इस चावल में पाई गई है। यह खराब कलोस्ट्रोल को कम करता है और अच्छे कलोस्ट्रोल को बढ़ाने में सहायक बताया गया है।
बच्चों के दाँत आने पर लाल चावल के पानी में नमक मिलाकर दिया जाता है, जो हर स्तर पर बच्चे के विकास में सहायक बताया गया है। लाल चावल का पानी पेचिश, मरोड़, आँव की रामबाण औषधी है। इसमें विटामिन ‘ए’ प्रचुर मात्रा में मिलता है जो रतौंधी जैसे रोग निवारण में सहायक बताया गया।
कमलेश्वर का धार्मिक महत्व
बताते हैं कि अज्ञातवास के दौरान पाण्डव ने यहाँ रात्रि विश्राम किया था। उधर कमलेश्वर महादेव मन्दिर समिति के अध्यक्ष व प्रसिद्ध लेखक चन्द्रभूषण बिजल्वाण बताते हैं कि जब रामचन्द्र लंका पर चढ़ाई कर रहे थे तो उन्हें शिवलिंग की पूजा करनी थी। सो रामभक्त हनुमान शिवलिंग के लिये कैलाश प्रवास पर गए, वापस आते समय कमलेश्वर में बुरांश के फूलों को कमल का फूल समझकर हनुमान ने शिवलिंग को उक्त स्थान पर रख दिया।
पता चला कि वे तो पहाड़ का एक विशेष प्रकार का बुरांश का फूल है। यथा स्थान रखे गए शिवलिंग को उठाने की हनुमान ने भरसक प्रयास किया मगर शिवलिंग उठ नहीं पाया। तब से यहाँ का नाम ‘कमलेश्वर महादेव’ कहा जाने लगा। स्थानीय लोग कमलेश्वर को पवित्र स्थान मानते हैं। माह की प्रत्येक संक्राति को कमलेश्वर में पूजा होती है। शिवरात्री के दिन तो कमलेश्वर में पड़ोसी राज्य हिमाचल और उत्तर प्रदेश तक के लोग यहाँ माथा टेकने आते हैं। यह भी मान्यता है कि यहाँ के दर्शन मात्र से सन्तानहीन दम्पति की गोद भर जाती है।
कमल नदी पर भी बढ़ रहा है खतरा
कमल नदी के दोनों छोरो पर विकसित हो रहा पुरोला बाजार का सम्पूर्ण सीवर नदी में ही समाहित हो रहा है। जबकि यह कस्बा अब नगर पंचायत का स्वरूप ले चुका है। विकासखण्ड मुख्यालय भी है। कमल नदी के सिरहाने पर वनों के अवैध कटान की खबरें आने लग गई हैं। वयोवृद्ध वरिष्ठ साहित्यकार खीलानन्द विजल्वाण बता रहे हैं कि पहले की अपेक्षा कमल नदी में पानी की मात्रा दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है। कहते हैं कि जब से वन कटान में तेजी आई है तब से यह हालात बन रही है।
यह नदी कोई ग्लेशियर से निकलने वाली नहीं है, यह तो कमलेश्वर स्थित जंगल के बीच एक प्राकृतिक जलस्रोत से निकलती है। जो सदाबहार जलधारा है। यह जलधारा कमल नदी के रूप में लगभग 30 किमी बहकर नौगाँव के पास यमुना में संगम बनाती है। जो कि क्रमशः कमलेश्वर से रामा, बेष्टी, कण्डियाल गाँव, कुमोला, देवढुंग, पुरोला, चन्देली, नेत्री, हुडोली, सुनाराछानी, थलीछानी सहित 55 गाँवों की खेती को सिंचित करते हुए नौगाँव स्थित यमुना से मिल जाती है। शुद्ध और बारहमास बहने वाली कमल नदी शनै-शनै बहती हुई अपने आस-पास की लगभग 4500 हेक्टेयर कृषि भूमि को सिंचित करती है। उत्तराखण्ड के 17 हजार जल स्रोत संकट में जिस तरह से जीव-प्राणी और पानी का चोली-दामन का साथ है। उसी तरह पहाड़ और पानी का भी एक गठजोड़ है। भले पानी पहाड़ से जल्दी उतरकर मैदानों को सरसब्ज करने में अधिक सहायक हो, परन्तु जलसंरक्षण के उपादान पहाड़ में व्यतीत करने वाले ही लोग अधिक समझते हैं। इसीलिये तो कमल नदी पुरोला क्षेत्र के लोगों के लिये एक वरदान है। यही वजह है कि अब सरकारें भी जल संरक्षण के लिये संवेदनशील हो रही हैं।
काबिलेगौर हो कि उत्तराखण्ड सरकार ने केन्द्र सरकार को राज्य में प्राकृतिक जलस्रोतों के पुनरुद्धार के लिये 3600 करोड़ रुपए की योजना भेजी थी। जिस पर केन्द्र सरकार ने मात्र 900 करोड़ रु. की ही स्वीकृति दी है। जबकि राज्य सरकार 3600 करोड़ के बजट से 17 हजार जल स्रोतों को पुनर्जीवित करना चाहती थी। अब देखना यह है कि 900 करोड़ में कौन से जलस्रोतों का पुनर्जीवन होगा जो कि समय की गर्त में है। माना यह जा रहा था कि यदि राज्य सरकार की यह योजना परवान चढ़ती तो राज्य के एक गाँव में एक जलधारा का पुनर्जीवन तो होना ही था।
उल्लेखनीय हो कि अलग-अलग कारणों से सूख रहे करीब 17 हजार जल स्रोतों को पुनर्जीवित करने की प्रदेश सरकार की 3600 करोड़ रुपए की योजना पर कैंची चली है। केन्द्र ने विश्व बैंक की सहायता से संचालित इस योजना में 900 करोड़ रुपये की ही स्वीकृति दी है। बता दें कि 900 करोड़ की परियोजना में चाल खालों को सुधारने, जल संग्रहण वाले पौधे लगाने और नए जल स्रोतों को टैप कर गाँवों को पेयजल उपलब्ध कराने का कार्य होगा।
पेयजल मंत्री के मुताबिक केन्द्र ने 90 प्रतिशत पूरी हो चुकी पेयजल योजनाओं के लिये 43 करोड़ रुपए भी जारी कर दिये हैं। बताया कि कई परियोजनाओं के सामने बिजली की समस्या है। उधर मुख्यमंत्री हरीश रावत ने ऐसी परियोजनाओं के लिये डीजल जेनरेटर सेट उपलब्ध कराने का निर्देश दे दिया है।
संकट
पेयजल मंत्री प्रसाद नैथानी का कहना है कि यह परियोजना का पहला चरण है। विधानसभा में मीडिया से मुखातिब पेयजल मंत्री ने बताया कि प्रदेश में स्वैप परियोजना 31 दिसम्बर 2015 को समाप्त हो रही है। इस परियोजना के विस्तार के रूप में ही 900 करोड़ रुपए की परियोजना स्वीकार की गई है। उनके मुताबिक पेयजल विभाग के सर्वेक्षण से सामने आया है कि प्रदेश के करीब 17000 जल स्रोत अपनी जलधाराओं को खो रहे हैं। इन्हें पुनर्जीवित करने के लिये ही स्वैप परियोजना शुरू की गई थी।
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Post By: RuralWater