नोबल पुरस्कारों के साथ एक विसंगति है। वर्ष 1901 से आरंभ नोबेल पुरस्कार भौतिकी रसायन, कार्यिकी (चिकित्सा) के निमित्त तो हैं लेकिन नोवल प्रतिष्ठान गणित को कोई श्रेय नहीं देता है। यह अपने आप में विस्मयकारी है क्योंकि गणित विद्या तो सारे विज्ञानों की पटरानी है। गणित विद्या न होती तो आज न राकेट होते, न मिसाइलें, न कम्प्यूटर और न ही संचार क्रांति का पदार्पण होता। बहरहाल, नोयन पुरस्कार चयन समिति अर्थशास्त्र को भी मान्यता देती है। साहित्य और शांति के लिए पुरस्कार के प्रावधान तो इनके उन्मेष काल (वर्ष 1901) से ही हैं।
आगे चलकर देखा गया कि नोबल शांति पुरस्कारों को कोटि में पर्यावरण संरक्षण को भी अहमियत दी जाने लगी, कदाचित पर्यावरण की बदहाली से भयाक्रांत मानवता की चीख-पुकार ने नोबल समिति को उद्वेलित किया हो तभी तो एक साधारण सी कीनियाई महिला, जो कभी पौधरोपण के लिए महिलाओं को कुछ शिलिंग देती थी, ने कालांतर में (वर्ष 2004) नोवल की बुलंदियों का संस्पर्श किया। उस साधारण सी महिला ने वस्तुतः पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में, अपनी धरती की हरीतिमा बचाने के उपक्रम में असाधारण कार्य किए थे और इस प्रकार बंगारी मथाई को नोबल शांति पुरस्कार प्राप्त करने वाली प्रथम अफ्रीकी नारी रत्न होने का गौरव मिला।
नोबल समिति ने इन शब्दों में उनकी प्रशस्ति की सुस्थिर विकास (Sustainable development) लोकतंत्र और शांति के क्षेत्र में उनके योगदानों हेतु। यह क्षण कीनिया ही नहीं अपितु समग्र अफ्रीकी जनों के लिए अत्यंत गौरवशाली था। आगे चलकर अमरीका के पूर्व उपराष्ट्रपति अल्गोर और आई. पी.सी.सी. (Intergovernmental Panel on Climate Change) को संयुक्त रूप से पर्यावरण के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदानों हेतु नोबल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया। यह दीगर बात है कि हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने को लेकर आई.पी.सी.सी. की रपट विवादास्पद हो चली और नोबल पुरस्कार भी संशय के घेरे में आ गया और उस पर प्रश्न चिह्न उठने लगे।
1 अप्रैल, 1940 को कीनिया में जन्मी वंगारी का जीवन संघर्षों की गाथा है और दुनिया के तमाम मजलूमों के लिए प्रेरणा स्रोत भी उन्होंने वर्ष 1964 में अमरीका के येनेडिक्टाइन कॉलेज से जीव विज्ञान में बी.एस.सी. की तदुपरांत वर्ष 1966 में पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय से जीव विज्ञान में मास्टर डिग्री हासिल की शीघ्र ही यूनीवर्सिटी कॉलेज ऑफ नैरोबी में जंतु विज्ञान के एक आचार्य के साथ अनुसंधान सहायक के रूप में उनकी नियुक्ति हो गई लेकिन जब वे नौकरी के लिए विश्वविद्यालय पहुंची तब उन्हें जानकारी मिली कि यह नौकरी तो किसी और को दी जा चुकी है। कदाचित ऐसा उनके महिला और आदिवासी होने के कारण हुआ, बंगारी ऐसा मानती थीं। दो महीनों तक वह नौकरी पाने के लिए भाग दौड़ करती रहीं, फिर उन्हें आशा की किरण नज़र आई जब गीसेन उन्हें यूनीवर्सिटी, जर्मनी के प्रोफेसर रीनहोल्ड हॉफमैन ने यूनीवर्सिटी कॉलेज ऑफ नैरोबी के स्कूल ऑफ वेटरनेरी मेडिसिन में अनुसंधान सहायक की नौकरी की पेशकश की प्रोफेसर हॉफमैन की प्रेरणा से डॉक्टरेट की डिग्री हासिल करने के लिए वे गीसेन विश्वविद्यालय, जर्मनी गईं। उन्होंने गीसेन और म्युनिख दोनों विश्वविद्यालयों में शोध अध्ययन किया।
वर्ष 1969 की वसंत में अपना अध्ययन और शोध कार्य जारी रखने के लिए नैरोबी लौट आयीं। यूनीवर्सिटी कॉलेज ऑफ नैरोबी में सहायक प्राध्यापक के रूप में उन्होंने अपना अध्यापन और आजीविका का उपार्जन जारी रखा। वर्ष 1971 में उन्होंने यूनीवर्सिटी कॉलेज ऑफ नैरोबी (आगे चलकर नैरोबी विश्वविद्यालय) से पशु शारीरिकी में डॉक्टरेट की उपाधि अर्जित की और इस प्रकार उन्हें पी.एच.डी. करने वाली पहली पूर्वी अफ्रीकी महिला होने का श्रेय मिला। वर्ष 1974 में विश्वविद्यालय में वे शारीरिकी (Anatomy) की वरिष्ठ प्रवक्ता, फिर वर्ष 1976 में पशु शारीरिकी (Veterinary Anatomy) विभाग की अध्यक्ष और अगले ही वर्ष एसोसिएट प्रोफेसर बनीं ऐसे उच्च पदों पर आसीन होने वाली बंगारी नरोबी की प्रथम महिला थीं।
नैरोबी विश्वविद्यालय में अध्यापन करने के साथ-साथ बंगारी का कई सामाजिक संगठनों से भी जुड़ाव हो गया और यहीं से उनकी जिंदगी ने नई करवट ली जिससे उन्होंने प्रसिद्धि के शिखरों को पा लिया सारी दुनिया में उनकी कीर्ति फैली और उनकी जिंदगी उनके जीवन काल में ही एक पुरा कथा बन गई। न भूतो सत्तरादि के आरंभ में वे कीनिया रेड क्रॉस सोसायटी की नैरोबी शाखा की सदस्य बन गयीं और वर्ष 1973 में वे इसकी निदेशक बन गयीं। वे कीनिया एसोसिएशन ऑफ यूनीवर्सिटी वुमन की सदस्य तो थीं और जब वर्ष 1974 में वहां पर पर्यावरण संपर्क केंद्र की स्थापना की गयी तो उन्हें इसकी सदस्यता ग्रहण करने का आग्रह किया गया तथा आगे चलकर वे उसकी अध्यक्ष भी बन गयीं। उक्त केंद्र ने यूनेप (United Nations Environment Programme-UNEP) के कार्यक्रमों में गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका सुनिश्चित की। वर्ष 1972 में जब स्टॉकहोम में प्रो. मारिस स्ट्रांग की अध्यक्षता में संयुक्त राष्ट्र मानव पर्यावरण सम्मेलन (United Nations Conference on the Human Environment) आहूत किया गया तो इसी के बाद यू.एन.ई.पी. का मुख्यालय नैरोबी में स्थापित किया गया।
मधाई ने एन. सी. डब्ल्यू. के. (National Council of Women of Kenya) को भी ज्वाइन किया और नाना स्वैच्छिक संगठनों से जुड़ने के बाद उन्होंने महसूस किया कि कीनिया की अधिकांश समस्याओं की जड़ें पर्यावरणीय क्षति से संबंधित हैं।
वर्ष 1977 में उन्होंने एन. सी. डब्ल्यू. के. की एक मीटिंग में बदलते पर्यावरण और धरती की बदहाली को लेकर अपनी दुश्चिंता प्रकट की और वृक्षारोपण पर जोर दिया जिसे उक्त काउंसिल का भरपूर समर्थन प्राप्त हुआ। विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर 5 जून, 1977 को एन. सी. डब्ल्यू. के. ने जुलूस की शक्ल में कीनियाला इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस सेंटर, नैरोबी से शहर के बाहर स्थित कामुकुंजी पार्क तक की यात्रा की और ऐतिहासिक सामुदायिक जन प्रतिनिधियों के सम्मान में सात पेड़ रोपे। यहीं से ग्रीन बेल्ट मूवमेंट की आधारशिला निर्मित हुई। मथाई ने अफ्रीका की महिलाओं को पूरे देश में, आस-पास के जंगलों में वृक्षारोपण के लिए प्रेरित किया और इसके लिए वे प्रत्येक पौधरोपण के लिए महिलाओं को कुछ पैसे देने के लिए भी राजी हो गयीं और एक दिन उनकी मेहनत रंग लायी, अफ्रीका की तस्वीर बदली, धरती की हरीतिमा वापस लौट आयी और प्रकृति सहचरी, पर्यावरण की अप्रतिम अनुरागी बंगारी ने नोबल की बुलंदियों को संस्पर्श किया।
बंगारी मथाई ने जिस ग्रीन बेल्ट आंदोलन की कीनिया में आधारशिला रखी थी, उनके कार्यकर्ताओं ने अफ्रीका में प्रायः दो से तीन करोड़ पेड़ लगाए। इतना ही नहीं, कीनिया में वर्ष 1980 से 1990 तक जंगलों को साफ करने के सरकार समर्थित अभियान के खिलाफ भी उन्होंने आवाज उठायी। इस प्रकार पर्यावरण संरक्षण के प्रति वैश्विक चेतना जाग्रत करने में मथाई ने अप्रतिम भूमिका निभायी और कीनिया की धरती से पर्यावरण संरक्षण का एक संदेश सारी दुनिया में गूंजा।
अब तक वंगारी मथाई अफ्रीकी जनमानस में खासी लोकप्रिय हो चुकी थी, अतः राजनीति में भी उनका प्रवेश हुआ। वर्ष 2002 में वह सांसद चुनी गई और कीनिया की सरकार में जनवरी, 2003 में पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधान मंत्रालय में सहायक मंत्री बनीं और इस पद पर नवंबर 2005 तक जासीन रहकर उन्होंने पर्यावरण की अलख जगायी। बंगारी मथाई लंबे अरसे से कैंसर ग्रस्त थीं। अंततोगत्वा 71 वर्ष की वय में वह जिंदगी की जंग हार गयी और 25 सितंबर, 2011 को प्रकृति सहचरी, ग्रीन बेल्ट आंदोलन की संस्थापिका, महिला अधिकारों के प्रति जुझारू नेत्री ने दुनिया से विदा ली।
यद्यपि प्रो. बंगारी मचाई हमारे बीच अब नहीं हैं, फिर भी उनकी संघर्षगाथा हमारे लिए सतत प्रेरणा पुंज है। ऐसे नारी रत्नों पर सारी मानवता को गर्व और तोष है।
बंगारी मवाई की प्रमुख कृतियां
- द ग्रीन बेल्ट मूवमेंट शेयरिंग द एप्रोच एंड द एक्सपीरिएंस (1985)
- द बॉटम इज़ हेवी टू इवन विद द ग्रीन बेल्ट मूवमेंट द फिफ्थ एडिनवर्ग मेडल एड्रेस (1994)
- बॉटल नेक्स ऑफ डिवेलपमेंट इन अफ्रीका (1995)
- द कॅनोपी ऑफ होप माई लाइफ कैम्पेनिंग फॉर
- अफ्रिका, वुमन एंड द एन्वायरन्मेंट (2002) 15. अनवोउड ए मेमोयर (2006)
- रिक्लेमिंग राइट्स एंड रिसेंसेज़ वुमन पावर्टी एंड एन्वायरॉन्मेंट (2007)
- रेनवाटर हार्वेस्टिंग (2008)
- स्टेट ऑफ द वल्ड्रेस माइनॉरिटीज़ (2008)
- द चैलेंज फॉर अफ्रीका (2009)
- रिप्लेनीशिंग द अर्थ (2010)
बंगारी मवाई को मिले पुरस्कार-सम्मान
- राइट लाइवलीहुड अवॉर्ड (वैकल्पिक नोबल पुरस्कार) 1984
- वेटर वर्ल्ड सोसाइटी अवॉर्ड, 1986
- ग्लोबल 500 रोल ऑफ ऑनर, 1987 4. गोल्डमैन एन्वायरॉन्मेंटल प्राइज़ 1991
- द हंगर प्रोजेक्ट्स एफ्रीका प्राइज़ फॉर लीडरशिप, 1991
- एडिनवर्ग मेडल (विज्ञान के द्वारा मानवता के
- सर्वोत्तम अवदान हेतु), 1993 7. जैन एडम्स लीडरशिप अवॉर्ड, 1993
- बेनेडिक्टाइन कॉलेज ऑफरेमस मेडल, 1993 9. द गोल्डन आर्क अवॉर्ड, 2001
- द जुलिएट होलिस्टर अवॉर्ड, 1994
- ग्लोबल एन्वायरॉन्मेंट अवॉर्ड, 2003
- जे. स्टलिंग मोर्टन अवॉर्ड, 2004
- कंजर्वेशन साइंटिस्ट अवार्ड, कोलंबिया
- विश्वविद्यालय, 2004 14. पेट्रा केली प्राइज़ 2004
- सोफाई प्राइज़ 2004 16. नोबल शांति पुरस्कार, 2004
- लीज़न डी' ऑनर, 2006 18. वर्ल्ड सिटीजनशिप अवॉर्ड, 2007
- वर्ल्ड सिटीजनशिप अवॉर्ड, 2007
- इंदिरा गांधी पुरस्कार, 2007
- क्रॉस ऑफ द ऑर्डर ऑफ सेंट बेनेडिक्ट, 2007
- द एलिज़ाबेथ लैकवेल अवार्ड (होबर्ट और विलियम स्मिथ कॉलेजों की ओर से), 2008
- एन. ए. ए सी पी इमेज अवॉर्ड चेयरमैन्स अवार्ड (एल गोर के साथ), 2009
- ग्रैंड कार्डन ऑफ द ऑर्डर ऑफ द राइजिंग सन ऑफ जापान, 2009
- द निकोल्स चांसलर्स मेडल (वेंडरबिल्ट विश्वविद्यालय की ओर से ) 2011
श्री शुकदेव प्रसाद - (सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार विजेता), 135/27-सी, छोटा बाड़ा (एनी बेसेंट स्कूल के पीछे), इलाहाबाद 211002 (उ.प्र.) मो. 094153 47027
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